ग़ज़ल
रेत में हैं नहर से बाहर हैं,
सारी नावें लहर से बाहर हैं।
आजकल इश्क़ की ग़ज़ल के भी,
सारे मिसरे बहर से बाहर हैं।
धूप का अर्थ कैसे समझेंगे,
लोग जो दोपहर से बाहर हैं।
वो भी तो ज़हर से नहीं बाहर,
वो जो बूँदें ज़हर से बाहर हैं।
चलते रहियेगा आखिरी दम तक,
साँसें ही कब क़हर से बाहर हैं।
हर क़दम पर लिखा 'ठहर' लेकिन,
हम तो अब हर 'ठहर' से बाहर हैं।
मेहरबानी करेगा कौन उन पर,
वो जो उसकी महर से बाहर हैं।
आत्मा उनमें ही मिलेगी 'कुँअर'
गाँव जो भी शहर से बाहर हैं।
कुँअर बेचैन✍️
गजल में प्रयुक्त कुछ शब्दों के अर्थ:-
महर:- इस्लाम में महर (अरबी: مهر) वह धनराशि है जो विवाह के समय वर या वर का पिता, कन्या को देता है। यद्यपि यह मुद्रा के रूप में होती है किन्तु यह आभूषण, घरेलू सामान, फर्नीचर, या जमीन आदि के रूप में भी हो सकती है।
बहर:- बहुत बड़ा जलाशय या नदी।
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