भारतीय लिपियाँ (Indian Scripts)
भारतीय लिपि की जानकारी सिन्धु घाटी की सभ्यता से मिलती है। इस घाटी की खुदाई के समय कई प्रकार के ताम्रपत्र, मुद्रायें, चित्रांकित मिट्टी के बर्तन, आदि। प्राप्त हुए हैं जिन पर चित्र व चिन्ह अंकित हैं जो इस सभ्यता में विकसित लिपि होना सिद्ध करते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग कौन थे, कहाँ से आए थे आदि के बारे में विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं।
पुवलेकर व रामचन्द्रन कहते हैं कि सिन्धु सभ्यता का श्रेय वैदिक आर्यों को दिया जाना चाहिए। कुछ कहते हैं वे द्रविड़ थे, कुछ कहते हैं आर्य थे तथा कुछ कहते हैं कि सुमेर सभ्यता से ही सिन्धु सभ्यता का जन्म हुआ था। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता की लिपि के बारे में भी विद्वानों के अलग - अलग विचार हैं। इस सभ्यता के चित्राक्षर सुमेरियन लिपि, मिश्र की लिपि और ईस्टर द्वीप की लिपि से मिलते-जुलते हैं लेकिन यह लिपि उस समय सुमेरियन कीलाक्षर लिपि से भिन्न थी, फिर भी यह समकालीन लिपियों की तरह एक चित्रात्मक लिपि थी। सम्भवतः यह ध्वनि लिपि और भाव लिपि का मिला-जुला स्वरूप था। इसके लगभग 400 चित्राक्षर ज्ञात हैं। कुछ विद्वानों ने इसको पढ़ने का दावा भी किया है किन्तु पूर्णत: आज भी इसे पढ़ा नहीं जा सका है। इस लिपि का अंतिम काल 1500 ई. पू. माना गया है। इस लिपि के सम्बन्ध में विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
1. स्वामी शंकरानन्द- यहां की संस्कृति वैदिक थी तथा उन आर्यों से भिन्न थी जो भ्रमणकारी थे। वेद पुजारियों के ग्रंथ थे तथा यहां की लिपि पश्चिम एशिया के देशों की लिपियों की जन्मदात्री है।
2. फादर एच. हैरास:- सिन्धु सभ्यता के लोग, द्रविड़ थे। उनकी भाषा भी द्रविड़ थी और आर्यों ने इसे 1500 ई.पू. में नष्ट कर दिया और यह लिपि लोप हो गई। सिन्धु सभ्यता की लिपि 1500 ई.पू. के लगभग लुप्त हो गई थी और उसके बाद 400 ई. पूर्व तक भारत में लिपि का अन्धकारमय काल रहा।
बाह्मी लिपि
(500 ई.पू. से 350 ई.पू. तक)
संसार की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मी लिपि है जो वैदिक युग से चली आ रही है। इसी से हमारा वैदिक साहित्य, पौराणिक साहित्य और हमारी संस्कृति का लेखा-जोखा सुरक्षित है। अशोक काल से ही हमें लिपि के प्रमाण मिलते हैं। इस काल की लिपि बाह्मी है। सिन्धु सभ्यता की लिपि के साथ इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास किये गये लेकिन इस सम्बन्ध में विद्वानों के विचार अलग - अलग हैं। यथा-
1. स्टीवेन्सन- फिनिशिया तथा मिश्र की लिपियों द्वारा ब्राह्मी का जन्म हुआ।
2. विल्सन के अनुसार, युनानी तथा फिनिशिया की लिपियों से ब्राह्मी का विकास हुआ।
3. एडवर्ड टामस, लैसन, डासन आदि मानते हैं कि ब्राह्मी लिपि का विकास भारत में ही हुआ।
कुछ विद्वान कहते हैं कि ब्राह्मणों ने ब्रह्मा का वरदान मानकर इस लिपि का विकास किया। कुछ अन्य कहते हैं कि सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में जब लिपि वर्णात्मक बन गई थी उसी से धीरे-धीरे ब्राह्मी का विकास हुआ। कुछ अन्य का मानना है कि सुमेर के रेखाचित्रों से और कुछ का कहना है कि फिनिशिया की लिपियों से ब्राह्मी लिपि का विकास हुआ। कुछ यूनान की लिपि से और कुछ सिन्धु सभ्यता की लिपि से ब्राह्मी लिपि का विकास मानते हैं।
संसार की कोई भी लिपि ऐसी नहीं है जिसमें दूसरी लिपियों का प्रभाव न हो। अतः यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मी लिपि का विकास सिन्धु घाटी लिपि, फिनिशिया की लिपि और अरमायक लिपि के मिश्रण से हुआ हैं क्योंकि ऐसी वैज्ञानिक लिपि अचानक तो कहीं से आ नही सकती, जो भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों की लिपियों की जन्मदात्री बन गई।
ब्राह्मी लिपि के प्रामाणिक प्रमाण तो सम्राट अशोक के शिलालेखों से मिलते हैं। जिनकी लिपि ब्राह्मी के नाम से प्रसिद्ध है। जूनागढ़ (गुजरात) या गिरनार अभिलेख पर सम्राट अशोक ने लगभग 257 ई.पू. में अपनी चौदह घोषणायें ब्राह्मी लिपि में अंकित करवाई। इसमें सामने की ओर लेख है तथा पीछे की और संस्कृत भाषा में प्राचीनतम लेख है। ब्राह्मी लिपि में समयानुसार परिवर्तन होते रहे। दक्षिण भारत में यह लिपि दक्षिणी ब्राह्मी के नाम से जानी गयी और इससे अनेक लिपियों का जन्म हुआ, जैसे- तमिल लिपि, ग्रन्थ लिपि, कन्नड़ लिपि व तेलुगू लिपि आदि।
सम्राट अशोक काल के एक अन्य स्तम्भ से दूसरी सदी की ब्राह्मी लिपि का पता चलता है जिस पर सबसे पहले अशोक ने अभिलेख उत्कीर्ण करवाया। उसके बाद इसी स्तम्भ पर चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.) ने अपने पिता की प्रशंसा में एक अभिलेख उत्कीर्ण करवाया और उसके पश्चात् किसी अन्य राजा ने तथा अन्त में में जहाँगीर ने 1605 ई. में कुछ शब्द अंकित करवाये।
खरोष्ठी लिपि
(400 ई.पू. से 300 ई.पू. तक)
इस लिपि का जन्म ई.पू. की छठी शताब्दी में अरमायक लिपि द्वारा हुआ। ईरान, भारत, प्रशिया आदि के व्यापारियों को तत्कालीन का प्रयोग करने में कठिनाई होती थी इसलिए उन्होंने अरमायक लिपि के प्रयोग से इस लिपि का विकास किया। दूसरी सदी तक अन्य लिपियों के प्रभाव से इस लिपि का स्थान ईरान की पहलबी लिपि लेने लगी। यह ब्राह्मी लिपि की समकालीन लिपि थी। इस लिपि में 37 चिन्ह थे। इस लिपि के नामकरण के बारे में विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं,
जैसे:-
1. अरमायक भाषा के शब्द खरोष्ठ से इस लिपि का नाम खरोष्ठी हुआ।
2. यह गधे (खरोष्ठ) की खाल पर लिखी जाती थी, इसलिए खरोष्ठी कहलाई।
3 . यह मोटी-मोटी, गधे के होठों जैसी थी इसलिए खरोष्ठी लिपि नाम पड़ा आदि।
उत्तरी ब्राह्मी या गुप्त लिपि
(350ई.पू. से 500 ई . तक)
ब्राह्मी से उत्तरी ब्राह्मी का विकास हुआ। उत्तरी ब्राह्मी लिपि से गुप्त लिपि विकसित हुई। गुप्त काल के राजाओं के समय यह उत्तर भारत में प्रचलित थी। गुप्त कालीन होने के कारण इस लिपि का नाम गुप्त लिपि हो गया।
ग्रन्थ लिपि
(500 ई. से 1400 ई. तक)
छठी शताब्दी के अन्त में ब्राह्मणों ने ग्रन्थ लिखने के लिए दक्षिणी ब्राह्मी लिपि से ग्रन्थ लिपि का अविष्कार किया।
कुटिल लिपि
(500 ई. से 900 ई. तक)
इस लिपि का विकास हर्षवर्धन (छठी सदी) के समय में हुआ। यह गुप्त लिपि का परिवर्तित रूप है। इस लिपि के अक्षर कुटिल और विकट थे। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के देवल गाँव में एक ताम्र-पत्र प्राप्त हुआ जिस पर इस लिपि का नाम कुटिलाक्षरणी अंकित था इसीलिए यह कुटिल लिपि कहलाई। इस लिपि से ही प्राचीन नागरी लिपि का जन्म हुआ और प्राचीन नागरी से ही देवनागरी लिपि का विकास हुआ।
देवनागरी लिपि
(750 ई. से)
देवनागरी लिपि का जन्म दक्षिण में और इसका विकास उत्तर में गुप्त और कुटिल लिपि द्वारा हुआ। अतः यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मी से ही धीरे-धीरे देवनागरी लिपि का विकास हुआ है। आठवीं शताब्दी में यह लिपि दक्षिण के राजा दन्तिदुर्ग के दानपत्रों में स्पष्ट दिखाई देती है, जिसने दसवीं सदी तक परिपक्व रूप धारण कर लिया और बारहवीं सदी तक यह लिपि पूर्ण रूप से विकसित हो गयी थी। इस लिपि को सरल बनाने के लिए समयानुसार इसमें संशोधन होते रहे तथा इसकी वर्णमाला को लेकर विवाद चलते रहे। कहीं पर 'अ' इस प्रकार लिखा जाता प्र(अ) इसी प्रकार तथा इसी तरह 'झ' को भी दो प्रकार से लिखा जाता था।
हिन्दी को राजभाषा का स्वरूप मिलने के बाद वर्णमाला सम्बन्धी उलझनों का समाधान किया गया और 1966 ई. में शिक्षा मन्त्रालय ने 'मानक' देवनागरी वर्णमाला का प्रकाशन किया और साथ ही अंको का भी मानक रूप निर्धारित किया। देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 36 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन, मात्रायें, अनुस्वार, विसर्ग, अनुनासिक चिन्ह और हत् चिन्ह का प्रयोग होता है। इस लिपि का प्रयोग लगभग आधे भारत में किया जाता है।
इस लिपि के नामकरण पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं-
1. यह गुजरात के नागर ब्राह्मणों में प्रचलित रही, इसलिए देवनागरी कहलाई।
2. काशी (वाराणसी) में इसका प्रयोग अधिक होता था, काशी को देव का नगर कहा जाता है, इसलिए देवनागरी कहलाई।
3. तन्त्र-मन्त्र करने वाले देव नगर बनाकर इस लिपि से लिखते थे इसलिए देवनागरी कहलाई।
4. सम्भवतः इसका प्रचार नगरों में अधिक रहा होगा इसलिए इसका नाम देवनागरी हुआ।
5. प्राचीन काल में राजाओं को देव कहा जाता था इसलिए देव के नाम से देवनागरी कहलाई।
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ:-
1. यह वैज्ञानिक लिपि है। संसार की कोई भी लिपि उच्चारण और प्रयोग में इस लिपि जितनी पूर्ण नहीं है।
2. यह पूर्णता के निकट है, इसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और जो लिखा जाता है वही बोला जाता है।
3. इस लिपि में एक ध्वनि के लिए एक चिन्ह का प्रयोग किया जाता है जो अन्य भाषाओं में नहीं है।
4. वर्णों के नामों और ध्वनियों में समानता है, वर्ण मूल नहीं है।
5. संसार की किसी भी भाषा को इसके द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।
इस लिपि में कुछ दोष भी हैं, जैसे-
1. लिखने में जटिल,
2. अक्षर अधिक जगह घेरते हैं एवं
3. मुद्रण में कठिनाई आदि।
भारत की अन्य लिपियाँ
ब्राह्मी लिपि से ही दक्षिण में नन्दीनागरी लिपि का विकास हुआ और नन्दीनागरी से दो लिपियों का जन्म हुआ।
(1) कनाड़ी - जिससे तेलुगू और कन्नड़ लिपि का विकास हुआ।
(2) द्रविड़ - इस लिपि से तमिल और मलयालम लिपियाँ विकसित हुई।
कुटील लिपि से कश्मीर में शारदा, पंजाब में गुरु अजुर्नदेव द्वारा गुरुमुखी तथा गुजरात में गुजराती लिपि विकसित हुई और इसी तरह धीरे-धीरे अन्य भारतीय लिपियों (बांग्ला, असमिया, उड़िया, महाजनी, डोगरी, आदि।) का विकास हुआ।
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