सोमवार, 25 अप्रैल 2022

कला का अर्थ प्रकार एवं अवधारणाएं। (Meaning and concepts of Art.)

  


           चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना कहा जा सकता है, जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। सत्य तो यह है कि चित्र बनाने की प्रवृत्ति सर्वदा से ही हमारे पूर्वजों में विद्यमान रही है। मनुष्य ने जिस समय प्रकृति की गोद में आँख खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं को अपनी तूलिका द्वारा टेढ़ी-मेढ़ी रेखाकृतियों के माध्यम से गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर अभिव्यक्त किया। उसके जीवन की कोमलतम भावनाएँ तथा संघर्षमय जीवन की सजीव झाँकियाँ उसकी तत्कालीन कलाकृतियों में आज भी सुरक्षित हैं। अपना सांस्कृतिक विकास करने के लिए मानव ने जिन साधनों को अपनाया, उनमें चित्रकला भी एक साधन थी। 


        भारतीय चित्रकला का उद्गम भी प्रागैतिहासिक काल से ही माना जाता है। समय के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया, भारत में यह कला भी अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती रही। वस्तुतः भारतीय चित्रकला की प्रधानता को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है तथा विश्व में उसकी एक विशिष्ट पहचान है। 

कला का अर्थ 


"मनुष्य की रचना, जो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती है, कला (Art) कहलाती है।" 


     भारतीय कला 'दर्शन' है। शास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि 'कला' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 'ऋग्वेद' में हुआ- 


"यथा कला, यथा शफ, मध, शृण स नियामति।" 


      कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग 'भरतमुनि' ने अपने ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में प्रथम शताब्दी में किया-

 “न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न साविधा - न सा कला।"

       अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जिसमें कोई शिल्प नहीं, कोई विधा नहीं, जो कला न हो। 


          भरतमुनि, ज्ञान, शिल्प और विधा से भी अलग 'कला' का क्या अभिप्राय ग्रहण करते थे, यह कहना कठिन है ? अनुमान यही लगता है कि भरत के द्वारा प्रयुक्त 'कला' शब्द यहाँ 'ललितकला' के निकट है और 'शिल्प' शायद उपयोगी कला के लिये। हमारे यहाँ कला उन सारी जानकारियों या क्रियाओं को कहते हैं, जिसमें थोड़ी सी भी चतुराई की आवश्यकता होती है।


       कला संस्कृत भाषा से संबंधित शब्द है। इसकी व्युत्पत्ति 'कल्' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- प्रेरित करना। कुछ विद्वान इसकी व्युत्पत्ति 'क' धातु से मानते हैं- "कं (सुखम्) लाति इति कलम् , कं आनन्द लाति इति कला।" इस प्रकार कला के विभिन्न अर्थ माने जा सकते हैं- 


       संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है, जिसमें प्रमुख किसी वस्तु का  'सोलहवां भाग', 'समय का एक भाग', किसी भी कार्य के करने में अपेक्षित चातुर्य-कर्म आदि विशेषतः उल्लेखनीय हैं। भरतमुनि से पूर्व 'कला' शब्द का प्रयोग काव्य को छोड़कर दूसरे प्रायः सभी प्रकार के चातुर्य-कर्म के लिए होता था और इस चातुर्य-कर्म के लिए विशिष्ट शब्द था- 'शिल्प', जीवन से संबंधित कोई उपयोगी व्यापार ऐसा न था, जिसकी गणना शिल्प में न हो। 


कला का अर्थ है - सुन्दर, मधुर, कोमल और सुख देने वाला एवं शिल्प, हुनर अथवा कौशल। 


        कला के संबंध में 'पाश्चात्य दृष्टिकोण' भी कुछ इसी प्रकार का है- अंग्रेजी भाषा में कला को 'आर्ट' Art कहा गया है। फ्रेंच में 'आर्ट' और लेटिन में 'आर्टम' और 'आर्स' से कला को व्यक्त किया गया है। इनके अर्थ वे ही हैं, जो संस्कृत भाषा में मूल धातु 'अर' के हैं। 'अर' का अर्थ है-  बनाना, पैदा करना या रचना करना। यह शारीरिक या मानसिक कौशल 'आर्ट' माना गया है।


          इन अर्थों के अन्तर्गत कुछ सुखद, सुन्दर एवं मधुर सृजन है। कला शिल्प कौशल की प्रक्रिया है। अतः कला का अर्थ है- "शिल्प कौशल की प्रक्रिया से युक्त सुन्दर व सुखद सृजन रूप।" दूसरे शब्दों में "सत्यं, शिवम् , सुन्दरम् की अभिव्यक्ति ही कला है।" किसी भी देश की संस्कृति उसकी अपनी आत्मा होती है, जो उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी एक व्यक्ति के सुकृत्यों का परिणाम मात्र नहीं होती है, अपितु अनगिनत ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्तियों के निरन्तर चिन्तन एवं दर्शन का परिणाम होती है। किसी देश की काया, संस्कृति के आत्मिक बल पर ही जीवित रह पाती है। 


       'सम' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'क्तिन' प्रत्यय करने पर 'सुट्' का आगम होने से 'संस्कृति' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है- "सम्यक् रूप से अलंकृत बनावट" या 'दोषापनयपूर्वक गुणाधान' संस्कृति का आधार है मन, प्राण व शरीर का संगठन। इनकी विभिन्नताओं में अपूर्व मौलिक समन्वय पैदा करना। "संस्कृति और सुसंस्कृत व्यक्ति" का अनिवार्य लक्षण है- आन्तरिक शुद्ध भाव, अर्थात् आत्मा का मन, प्राण और शरीर की प्राकृतिक चेष्टाओं से स्वतन्त्र तथा तटस्थ भाव। अतः संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, प्रकृति से मनुष्य को मिला व्यवहार नहीं। देश और काल के चौखटे में संस्कृति का स्वरूप मानवीय प्रयत्नों के द्वारा नित्य ढलता रहता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास देश और काल में अत्यधिक विस्तृत है। लगभग पाँच सहस्त्र वर्षों की लम्बी अवधि में इस संस्कृति ने विविध क्षेत्रों में अपना विकास किया है। संस्कृति - भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रवाहित होने वाली एक अजस्र धारा है।


       मन, कर्म और वचन में मानवीय व्यक्तित्व के तीन गुण हैं, इन्हीं तीनों गुणों के परिणामस्वरूप विभिन्न संरचनाएँ होती हैं। धर्म, दर्शन, साहित्य एवं आध्यात्म आदि, ये मन की सृष्टि हैं। ये सब रचनाएँ मानव-मन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन आदि कर्ममयी-संस्कृति के पुष्प होते हैं। तीसरे गुण के अन्तर्गत भौतिक रचनाएँ आती हैं। 'कला' शब्द इन रचनाओं के लिए एक व्यापक संकेत है। 


           इस प्रकार व्यापक दृष्टि से विचार करके देखा जाये तो धर्म, दर्शन, साहित्य, साधना, राष्ट्र और समाज की व्यवस्था, वैयक्तिक जीवन के नियम और आस्था, कला , शिल्प, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और सौन्दर्य रचना के अनेक विधान तथा उपकरण आदि  ये सब मानव संस्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनकी समष्टि का नाम ही संस्कृति है, जो मानव की सुरुचिपूर्ण कृति है, वह सब उसकी संस्कृति है। 


कला के प्रकार 


           कला के कई प्रकार होते हैं और इन प्रकारों का परिगणन भिन्न-भिन्न रीतियों से होता है। 

(क) मोटे तौर पर जिस वस्तु, रूप अथवा तत्त्व का निर्माण किया जाता है, उसी के नाम पर इस कला का प्रकार कहलाता है, जैसे:- 

वास्तुकला या स्थापत्य कला:- अर्थात् भवन निर्माण कला, जैसे- दुर्ग, प्रासाद, मंदिर, स्तूप, चैत्य, मकबरे आदि। 

मूर्तिकला:- पत्थर या धातु की छोटी-बड़ी मूर्तियाँ।

चित्रकला:- भवन की भित्तियों, छतों या स्तम्भों पर अथवा वस्त्र, भोजपत्र या कागज पर अंकित चित्र।

मृदभांडकला:- मिट्टी के बर्तन। 

मुद्राकला:- सिक्के या मोहरे। 


(ख) कभी-कभी जिस पदार्थ से कलाकृतियों का निर्माण किया जाता है, उस पदार्थ के नाम पर उस कला का प्रकार जाना जाता है, जैसे:- 

प्रस्तरकला:- पत्थर से गढ़ी हुई आकृतियाँ। 

धातुकला:- काँसे, ताँबे अथवा पीतल से बनाई गई मूर्तियाँ। 

दंतकला:- हाथी के दाँत से निर्मित कलाकृतियाँ।

मृत्तिका-कला:- मिट्टी से निर्मित कलाकृतियाँ या खिलौने। 

चित्रकला:- भवन की भित्तियों, छतों या स्तम्भों पर अथवा वस्त्र, भोजपत्र या कागज पर अंकित चित्र।

(ग) मूर्तिकला भी अपनी निर्माण शैली के आधार पर प्रायः दो प्रकार की होती है, जैसे:- 

मूर्तिकला:- जिसमें चारों ओर तराशकर मूर्ति का रूप दिया जाता है। ऐसी मूर्ति का अवलोकन आगे से, पीछे से तथा चारों ओर से किया जा सकता है।


उत्कीर्ण कला अथवा भास्कर्य कला:- जिसमें पत्थर, चट्टान, धातु अथवा काष्ठ के फलक पर उकेर कर रूपांकन किया जाता है। इस चपटे फलक का पृष्ठ भाग सपाट रहता है या फिर इसे दोनों ओर से उकेर कर दो अलग-अलग मूर्ति-फलक बना दिये जाते हैं। किसी भवन या मंदिर की दीवार, स्तम्भ अथवा भीतरी छत पर उत्कीर्ण मूर्तियों का केवल अग्रभाग हो दिखाई देता है, यद्यपि गहराई से उकेरकर उन्हें जीवन्त बना दिया जाता है। सिक्कों की आकृतियाँ भी इसी कोटि की होती हैं। चूँकि इसमें आधी आकृति बनाई जातो है, संभवतः इसीलिये इसे अर्द्धचित्र भी कहा जाता है। ये अर्द्धचित्र (Bas - Relief) भी दो शैलियों में निर्मित होते हैं- 

हाई रिलीफ (High Relief):- इसमें गहराई से तराशा जाता है, ताकि आकृतियों में अधिक उभार आये और जीवन्त हो सकें। 

लो रिलीफ (Low Relief) इसमें हल्का तराशा जाता है, इसीलिये आकृतियों में चपटापन सा रहता है। 


कला की अवधारणाएँ 


        विद्वान एवं कला मर्मज्ञों ने कला को जिस प्रकार परिभाषित किया है, उससे प्रायः ललित कला ही ध्वनित होती है। 

'प्लेटो' के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति सुन्दर वस्तु को अपना प्रेमास्पद चुनता है, अतः कला का प्राण सौन्दर्य है। उन्होंने कला को सत्य की अनुकृति माना है। 

'अरस्तू' उसे अनुकरण कहते हैं। 

'हीगल' ने कला को आदि भौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम माना है। 

'क्रोचे' की दृष्टि से कला बाह्य प्रभाव की आन्तरिक अभिव्यक्ति है। 

'टॉल्सटॉय' को दृष्टि में क्रिया, रेखा, रंग, ध्वनि, शब्द आदि के द्वारा भावों की वह अभिव्यक्ति जो श्रोता, दर्शक और पाठक के मन में भी वही भाव जागृत कर दे, कला है। 

'फ्रॉयड' ने कला को मानव की दमित वासनाओं का उभार माना है। 

'हरबर्ट रीड' अभिव्यक्ति के आह्लादक या रंजक स्वरूप को कला मानते हैं। 

'रविंद्र नाथ टैगोर' के अनुसार, मनुष्य कला के माध्यम से अपने गंभीरतम अन्तर की अभिव्यक्ति करता है।  

'प्रसाद जी' के अनुसार, ईश्वर की कर्तव्य शक्ति का मानव द्वारा शारीरिक तथा मानसिक कौशलपूर्ण निर्माण कला है। 

'डॉ. श्याम सुन्दर दास' के अनुसार, जिस गुण या कौशल के कारण किसी वस्तु में उपयोगी गुण और सुन्दरता आ जाती है, उसको कला की संज्ञा दी जाती है। 

'पी.एन. चौयल' के अनुसार, कला आदमी को अभिव्यक्ति देती है।


         प्रत्येक कलाकृति से कलाकार व दर्शक दोनों को हो यदि एक प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त हो, तो उसे सच्चे अर्थों में कला की संज्ञा दी जा सकती है।

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