सोमवार, 18 अप्रैल 2022

'साहित्यकारों ‘बैंक’ बन जाओ’


 'साहित्यकारों ‘बैंक’ बन जाओ’ 


      दुनिया भर के साहित्यकारों ...नहीं...नहीं... दुनिया भर से मुझे क्या लेना देना? इंडिया भर के साहित्यकारों एक हो जाओ।  फेसबुक और व्हाट्सएप गवाह है कि जंबूद्वीप के इस पावनभूमि में हर मिनट दो लेखकों, तीन कवियों, चार कवियत्रियों और एक-आधे व्यंग्यकारों का जन्म हो ही जाता है। इस दृष्टि से आप सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं लेकिन आपको कोई ‘टके के तीन’ के भाव भी नहीं पूछता। इसलिए ‘बैंक’ बन जाइए क्योंकि इस देश में सिर्फ और सिर्फ ‘बैंक’ की पूछ होती है। चाहे वह सच्ची-मुच्ची का बैंक हो या ‘वोट-बैंक’ सभी उसको ही हथियाने की जुगत में रहते  हैं।


     इसलिए सबसे पहले 'अखिल भारतीय साहित्यकार राजनीतिक चेतना रैली' का आयोजन कर अपनी डुगडुगी नगाड़ा, ढोल, डंका, दुंदभी जो कुछ भी ढूंढे मिले, सब बजवा दीजिए। पूर्ण संभावना है कि सारे मगरमच्छ, घडियाल, रंगेसियार और भेड़िये अध्यक्ष बनने हेतु कटाजुझ्झ मचा देंगे। उनकी अध्यक्षीय क्षुधा शांति हेतु अध्यक्ष महाबली लेखक संघ, अध्यक्ष जुझारू लेखक महामोर्चा, अध्यक्ष सर्व-सर्वहारा साहित्यवीर मंच, अध्यक्ष भीषण व्यंग्य प्रकोष्ठ, अध्यक्षा सुकोमल कवित्री महापार्लर, एवं संयोजक साहित्यकार घनघोर महासभा, महाध्यक्ष सर्वधर्म साहित्यकार महाअखाड़ा जैसे पद गढ़कर सारे दिग्गजों एवं निर्लज्जों को एडजस्ट कर दीजिए। फिर लगा दीजिए सबको ट्रैक्टर-ट्राली, बसों-ट्रकों में भर-भर कर साहित्यकारों को रैली स्थल तक पहुंचाने के पुनीत कार्य में। दूसरों को कार्यकर्ता जुटाने में भले पांच-पांच सौ खर्च करने पड़ते हों मगर आपको तो कौड़ियों के भाव मिल जाएंगे। जो जितनी भीड़ जुटा लेगा उसे उतने बड़े साहित्यकार का तमगा स्वमेव मिल जाएगा और उसी अनुपात में उसका कद और पूछ भी बढ़ जाएगी।


  छपात्सुक, पुरस्कारत्सुक, भूमिकाश्रेष्ठी, अध्यक्षोमुखी, सभापतित्वाभिलाषी, विशिष्टासुरों, समीक्षासुरों, लोकार्पणोंसुरों और माईकासुरों की भीड़ के लिए मांग पत्र और नारे समय रहते ही तैयार कर लीजिए। क्योंकि इतिहास गवाह है कि नारों के दम पर ही सरकारें बनती और बिगड़ती रही है। 'किताबें छपवा न सके वह सरकार निकम्मी है', गमछा ना हिजाब, हमें चाहिए किताब,  कलम में धार है- किताब छपवाना जन्मसिद्ध अधिकार है, साहित्यकार महाएकता जिंदाबाद जैसे नारे आग लगा देंगे। लोकार्पण करवाने हेतु जिन खद्दरधारियों के दरवाजे पर आप नाक  रगड़ते थे वे आपके तलवे चाटते नजर आएंगे। जिस देश में मुफ्त स्कूटर,  मुफ्त लैपटॉप, मुफ्त मोबाइल,  मुफ्त मकान और मुफ्त बिजली-पानी-सिलेंडर बांटने हेतु ओलंपिक चल रहा हो वहां मुफ्त किताबें छपवाने का वादा क्यों नहीं हो सकता? जरुर होगा, उमड़-घुमड़ कर तड़क-भड़क के साथ होगा। बस एक बार ‘कलमकारी वोट बैंक’ की ताकत दिखाने की देर है फिर सारा मैदान आपका है।


     आपस में टांग घसीटी करते रहिये, पीठ में छूरा भी पूर्ववत भोंकते रहिये मगर एकता का मुखौटा पहन गर्दभ-गर्जना भी करते रहिए फिर देखिएगा आश्वासनकारों के अद्भुत आविष्कारों को। प्रत्येक लिक्खाड़ को साल में तीन बार लेखन सम्मान निधि देने,  परिवार के हर सदस्य की किताब छपवाने,  साहित्यकार पुरस्कार गारंटी योजना,  अस्वीकृत रचना क्षतिपूर्ति योजना, अन्सोल्ड बुक्स क्लेम प्राधिकरण, लेखकीय शौचालय और कवियत्री विवाह निधि जैसे कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लग जाएगी। सेवानिवृत्त के पश्चात अवतरित साहित्यकारों को तो प्रोविडेंट फण्ड और ग्रेच्युटी से छपवाई गई पुस्तकों पर किये गए व्यय की प्रतिपूर्ति की भी प्रबल संभावना रहेगी। इस धनराशि से वह वृद्धावस्था में चिकित्सा एवं वृद्धा के लिए वस्त्रादि की व्यवस्था कर सकते हैं। चतुर सुजानो को तो दो-चार कंप्लीमेंट्री प्रतियां छपवा कर शेष अनुदान को उदरस्थ करने की भी सुविधा मिल सकेगी। 


      आपकी कलम में तख़्तो-ताज को भी पलट देने के शक्ति है लेकिन फिर भी इतने बड़े लोकतंत्र में कोई आपको घास नहीं डालता। इसलिए अपने एक मत की कीमत, कम समझने की नादानी मत करिए। जात-पात, धर्म और भाषा के चोंचलो से ऊपर उठ ‘वोट बैंक’ का चोला धारण करिए फिर देखिएगा मलाई खुद कटने के लिए आपके क़दमों में बिछी रहा करेगी। उसके लिए आपको किसी के आगे नाक रगड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी।


संजीव जायसवाल ‘संजय’✍️

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