कला शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के विद्वानों ने 'कत्' धातु से मानी है, जिसका अर्थ 'सुन्दर', 'मधुर', 'कोमल' या सुख लाने वाला। कुछ विद्वानों ने इसे कं अर्थात् आनन्द का लाने वाला माना है। शिल्प, हुनर या कार्य कौशल आदि के अर्थ में कला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भरत मुनि के नाट्य-शास्त्र में पहली शताब्दी के लगभग हुआ है।
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, ऐसा कोई शिल्प नहीं, कोई विद्या नहीं, जो कला नहीं हो।
श्री बालदेव उपाध्याय ने अपने 'भारतीय साहित्य शास्त्र' में भरत मुनि के इस श्लोक के अनुसार कला को गीत, वाद्य, नृत्य आदि का वाचक माना है। पं० भोला नाथ तिवारी के अनुसार 'कला' शब्द, ललित कला तथा शिल्प उपयोगी कला के लिये प्रयुक्त हुआ है। इससे पहले 'कला' के स्थान पर 'शिल्प शब्द का ही प्रयोग हुआ है पाणिनी की 'अष्टाध्यायी' में शिल्प शब्द का प्रयोग ललित तथा उपयोगी दोनों कलाओं के लिये हुआ है। 'कौषीतकी ब्राह्मण में संगीत को भी 'शिल्प' कहा गया है। इससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की रचना से पहले कला शब्द के स्थान पर शिल्प शब्द का ही प्रयोग अधिक प्रचलित था। क्षेमराज की 'शिवसूत्र विभर्षिणी' में वस्तु का रूप संवारने वाली विशेषता को कला कहा गया है।
वात्स्यायन के कामसूत्र तथा शुक्रनीति आदि अन्य ग्रन्थों में 64 प्रकार की कला का वर्णन मिलता है। यद्यपि कलाओं के नामांकन में कुछ भेद है परन्तु सबके दृष्टिकोण में समानता है। कुछ जैन ग्रन्थों में 72 कलाओं का भी वर्णन है। काश्मीर के एक विख्यात पंडित क्षेमेन्द्र ने एक 'कला विलास' पुस्तक लिखी है जिसमें विविध कलाओं का विशद् वर्णन है। इसमें 64 तो केवल उपयोगी कलायें हैं जिनमें धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा सुनार किस प्रकार सोना चुराता है उसकी भी 64 प्रकार की कलायें हैं। वेश्या भी 64 प्रकार से मोहित करके पैसा कमाती है तथा लिखने के कौशल से 16 प्रकार से जन-समान्य को धोखा देने की कला तथा अन्य कुछ कलायें इस पुस्तक में वर्णित हैं।
उपरोक्त कलाओं को ध्यान में रखते हुए यही बात सामने आती है कि किसी भी चतुराई पूर्ण कार्य को कला कहा गया है। इसमें ललित और उपयोगी दोनों ही कलायें आती हैं। ललित कला में संगीत, मूर्ति, चित्र और वास्तुकला ही आती है। कुछ विद्वानों ने काव्य को भी ललित कला के अन्दर माना है।
यह विषय विवादास्पद है। हमारे ग्रन्थों में काव्य को ललित कला के अन्दर नहीं माना है। जिन विद्वानों ने काव्य को ललित कला के अन्दर नहीं माना है उनमें श्री जयशंकर प्रसाद, श्री रामचन्द्र शुल्क तथा श्री नन्ददुलारे वाजपेयी हैं। छुट-पुट छन्द की रचना जो कवि मनोविनोद के लिये करता है, उसे कला कहा जा सकता है परन्तु काव्य कला नहीं हो सकता क्योंकि काव्य तो विद्या है। आधुनिक विद्वानों के अलावा कुछ प्राचीन विद्वानों ने भी काव्य कला को कला से अलग माना है जिनमें भर्तृहरि का नाम उल्लेखनीय हैं। इनके प्रसिद्ध श्लोक में साहित्य तथा कला को अलग-अलग माना है जो इस प्रकार है।
साहित्य संगीत क्ला विहीनः ।
साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीनः ॥
इसमें साहित्य, संगीत तथा कला को अलग-अलग लिखना यह बात स्पष्ट करता है। परन्तु फिर से भी कुछ विद्वान् काव्य को कला मानते हैं। उनका कहना है कि संगीत चित्र और काव्य तोनों ही कला के अन्तर्गत आते हैं। इसका एक मूल कारण यह है कि तीनों ही रस उत्पन्न करते हैं। यद्यपि जितना रस काव्य में उत्पन्न होता है (जो इसकी आत्मा है) उतना संगीत तथा चित्र से नहीं हो पाता। परन्तु रस अवश्य उत्पन्न होता है यही मूल तत्व तीनो में मिलता है इसलिए काव्य को कला के अन्तर्गत माना जाना उचित ही है।
'विष्णु धर्मोत्तर पुराण' में भी (जिसकी रचाना 7वीं शताब्दी के लगभग हुई है) काव्य, संगीत तथा चित्र आदि का एक ही दृष्टि से वर्णन हुआ है। इसमें संगीत स्वरों में उत्पन्न तथा चित्र के रंगों से उत्पन्न रसों को काव्य द्वारा उत्पन्न रसों से ही सम्बन्धित बताया गया है। हम यह देखते हैं कि आत्मा तीनों में एक ही हैं इसलिए यदि काव्य को भी कला माना जाये तो त्रुटि नहीं होगी।
युरोप मे कला को 'आर्ट' कहा जाता है। इस (आर्ट) शब्द की उत्पत्ति लेटिन शब्द आर्स या आर्टम में मानी जाती है। ये शब्द 'अ' धातु से बने हैं जिनका अर्थ पैदा करना, बनाना या फिट करना है। श्री भोलानाथ तिवारी के शब्दों में, "शारीरिक या मानसिक कौशल। जिसका प्रयोग किसी कृत्रिम निर्माण में किया जाये वही कला है । "यहाँ तीन बातें सामने आती हैं, पहली तो यह कि 'कृत्रिम निर्माण' ही कला है। इसका एक छोटा सा उदाहरण है- मिट्टी के खिलौनें। कलाकार मिट्टी लेता है और प्राकृतिक रूप को एक कृत्रिम रूप में बदल देता है। गीली मिट्टी से विभिन्न प्रकार के रूप बनाता है। यह रूप बनाना ही कृत्रिम कार्य है। दूसरी बात यह है कि कला में कर्तव्य प्रधान है जबकि विज्ञान में ज्ञान। किसी प्राकृतिक वस्तु को कृत्रिम बनाना ही कर्तव्य है तथा तीसरी बात है कि वही कला है जिसमें कौशल का प्रयोग हुआ हो। यदि कोई निर्माण बिना कौशल के किया है, जो भौंडा या असुन्दर है उसमें कला नहीं है।
प्रारम्भ में 13वीं शताब्दी में अंग्रेजी में भी कला शब्द का अर्थ कौशल ही था परन्तु 17वीं शताब्दी में कला का प्रयोग संगीत, मूर्ति, चित्र, नृत्य, काव्य तथा भाषण आदि के लिये हुआ है।
“ऑक्सफोर्ड जूनियर ऐनसाइक्लोपीडिया" में यह बात कही गयी है कि "यद्यपि कला एक शाश्वत मानव क्रिया है परन्तु इसकी परिभाषा करना संसार भर में सबसे कठिन कार्य है" परिभाषा तो कला को दी जाती है परन्तु वह 'ललित कला' की परिभाषा बन जाती है।
प्रत्येक विद्वानों ने कला को अलग-अलग ढंग से परिभाषित किया है:-
प्लेटो के अनुसार , "कला, सत्य की अनुकृति की अनुकृति है" यहाँ सत्य को सार्वभौमिक माना गया है उसी सत्य की अनुकृति हमें संसार के जड़, चेतन सभी में दिखाई देती हैं। इन्हीं जड़-चेतन का चित्रण जब कलाकार करता है यही उस सार्वभौमिक सत्य की अनुकृति है।
क्रोचे के अनुसार, कला बाहा प्रभाव की अभिव्यक्ति है।
श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार, "कला में मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति करता है।"
टालस्टाय के शब्दों में, "अपने में भावों की क्रिया, रेखा, रंग-ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव उत्पन्न हो जायें, कला है।
रस्किन के अनुसार, "प्रत्येक महान् कला ईश्वरीयकृति के प्रति मानव के आह्लाद की अभिव्यक्ति है।"
फ्रायड ने इसे "दमित भावनाओं का उभरा हुआ रूप कहा है।"
श्री जयशंकर प्रसाद के शब्दों में, "ईश्वर की कृतित्व शक्ति का संकुचित रूप जो हमको बोध के लिये मिलता है वही कला है। ईश्वर की कृतित्व शक्ति क्या है ? जो कुछ भी हम अपनी आँखों से देखते हैं नदी, पहाड़, समुद्र, सूर्य, चन्द्र, आकाश आदि उदाहरण के तौर पर एक चित्र है जिसमें एक दृश्य में समुद्र तट आदि बने हैं और सूर्य अस्त हो रहा है। उसे देखते ही हम कह उठते हैं कितना सुन्दर दृश्य या समुद्र कितना सुन्दर आदि-आदि। यही चित्र उस ईश्वर की कृतित्व शक्ति का संकुचित रूप है। जिसमें हमें बोध (या ज्ञान) उत्पन्न होता है। यह संकुचित रूप बनाना ही कला है।
कुछ विद्वानों ने कला को 'अनुभूति की अभिव्यक्ति' कहा है।
कला शिवत्व की उपलब्धि के लिये सत्य भी सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति है।
-मैथिलीशरण गुप्त
उपरोक्त कलाओं की सारी ही परिभाषाओं से यह ज्ञात होता है कि सब परिभाषायें एक ही दिशा में ले जाती हैं। कुछ ढंग अलग-अलग हैं परन्तु सब वही अभिव्यक्ति की बात कहते हैं। अभिव्यक्ति के साथ कौशल जुड़ा हुआ है। बिना कौशल के कोई अभिव्यक्ति नहीं हो सकती।
श्री भोलानाथ तिवारी के शब्दों में, "अपने व्यापकतम् रूप में कला, मानव की कर्तव्य शक्ति का किसी भी मानसिक तथा शारीरिक, उपयोगी या आनन्ददायी या दोनों से युक्त वस्तु के निर्माण के लिए किया गया कौशल युक्त प्रयोग है।"
इससे कला क्षेत्र की व्यापकता का ज्ञान होता है जिसमें असंख्य रूप तथा भेद हो सकते हैं, जैसे कि गाना बजाना, खाना-पीना, चोरी करना आदि। परन्तु अधिकतर कला शब्द का प्रयोग केवल ललित कलाओं के लिए ही होता है जिसे इसका संकुचित रुप कहा जा सकता है।
यहाँ तक तो सब विद्वान सहमत हैं कि कला अभिव्यक्ति है। परन्तु क्रोचे यह कहते हैं कि यह अभिव्यक्ति मनुष्य के मन में होती है, बाहर नहीं इसी की प्रतिकृति का दर्शन मूर्ति चित्र आदि के रूप में होता है। बाह्य अभिव्यक्ति व्यावहारिक दृष्टि से कला कही जा सकती है और आन्तरिक अभिव्यक्ति, "तात्विक दृष्टि से। कला दोनों ही है। फिर भी एक प्रश्न उठता है कि अभिव्यक्ति किसकी होती है ? जो भाव अनुभूति से उत्पन्न होते हैं उन्हीं की अभिव्यक्ति होती है। बाह्य जगत को देखकर तथा संस्कारों से ही भाव उत्पन्न होते हैं। यह आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति ही कला है।
तीसरी बात यह पैदा होती है कि अभिव्यक्ति या कला का प्रयोजन क्या है ? इसमें विभिन्न मत हैं तथा कुछ अंशों में सभी ठीक भी हैं। कला का प्रयोजन यश प्राप्ति, धनोपार्जन, सेवा, आनन्द की प्राप्ति, विश्व - कल्याण आदि हो सकते हैं।
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