कोरोना और सुघरा भौजी का वेदना भरा गीत।
सुघरा भौजी की उम्र यही कोई कोई 30 के आसपास थी। वह दिखने में बहुत सुन्दर👩🦰 थीं। उनके ससुर बुधयी बाबा हमारे घर पर खेती-बारी का काम करते थे। भौजी के पति जग्गू काका बम्बई (मुम्बई) कमाने के लिए गए थे। साल में एक-दो बार, दो-चार दिनो के लिए आते और फिर चले जाते थे, सुघरा भौजी गांव पर ही रह जाती थी। सुघरा भौजी का स्वभाव बहुत ही अच्छा था। वह सभी से हंसकर बोलती थी। जब कोई गीत गातीं, तो लगता कलेजा मुँह को आ जायगा। उस समय एक गीत जो प्राय: नौटंकी में गाया जाता था, जब हमारे पास चिट्ठी💌 लिखवाने✍️ के लिए आतीं तो अनुरोध पर वह सुनाती जरूर थीं। उसकी टूटी-फूटी भाषा जो हमें आज याद है, उसे लिखने का प्रयास कर रहा हूं :-
रेलवां बैरन,
पिया को लिए जाये रे।
रेलवां बैरन,
पिया को लिए जाये रे।
जवने रेलवां से पिया मोरे जइs हे,
पनिया बरसे टिकट गलि जाव रे।
रेलवां…………..
जौने रेलवां से पिया मोरे जइs हे,
लड़ी जाए रेलवां डरैबर मरि जाव रे,
जवने दुकनिया में पिया मोरे नौकर,
अगियां🔥 लागे दुकनिया जरि जाय रे।
हैय्या पकरीs लेवे सेठवां मरी जाय रे …
रेलिया …………..
.....शायद गीत कुछ और लंबा था, या भौजी जोड़-जोड़ के गीत को बढा लेती थी। जो भी रहा हो। भौजी की पीडा, वेदना उस समय तो नहीं लेकिन आज मैं पूरी तरह से महसूस कर पा रहा हूं।
जिनकी उम्र 60 के पार होगी इस गीत को उन लोगों ने जरूर सुना होगा। यदि कोई गलत हो तो सुधार🙏 लीजियेगा। उस समय मैं सातवीं मे पढ़ता था। गांव के कई लोग लुधियाना, मुंबई और दिल्ली में नौकरी करते थे। चिट्ठी लिखने वाला✍️ उस समय गांव में मैं ही अकेला मिलता था। मै ही उन दिनों ऐसा व्यक्ति था जो चिट्ठी तो लिख सकता था चिट्ठी पढ़ भी सकता था, लेकिन भौजी, भैया के लिए क्या कह रही हैं? काकी, काका के लिए क्या कह रही हैं? उस भाव को मैं समझ नहीं पाता था। संभवत: इसीलिए गांव की काकी और भौजी चिट्ठी लिखाने के लिए प्राय: मेरे पास आती थी। उस समय मेरी आयु बारह वर्ष के आसपास रहीं होगी। फिर भी वह महिलाएं जब आती थी चाहे चिट्ठी लिखवाना हो या पढ़वाना हो।
सुघरा भौजी गाती बहुत बढ़िया थी। बहुत सुरीला था उनका कंठ। जितना सुरीला था उनका कण्ठ उससे ज्यादा गीत की भावुकता उनके चेहरे पर आ जाती थी। जब गांव में नौटंकी हुआ करता था। उस समय के लोकप्रिय फिल्मी गाने नौटंकी के लौंडे गाया करते थे। उसी समय का यह गीत था।
इस गीत को भौजी जब गाती थी तो लगता था उनका कलेजा मुँह को आ जायगा, क्योंकि भैया का विवाह हुए पाँच साल हो गया था लेकिन भौजी अभी तक माँ नहीं बन सकी थीं। भौजी की कोई संतान नहीं थी। हालांकि वह अपने सास-ससुर और देवर की ठीक से देखभाल करती थी। परिवार में लोग प्रेम करते थे। फिर भी जो बाँझ होने (संतान हीनता) का विषैला कंटक भौजी की जिन्दगी के साथ था, उसको उनके गाने के साथ बाहर आ जाने का मौका मिल जाता था।
भौजी तो अब नहीं है😓, लेकिन आज, "कोरोना" के समय जब लोगों को दिल्ली, मुंबई, लुधियाना से सैकड़ों मील पैदल चलकर आते हुए टी.वी. मे देखता हूं तो न जाने क्यों भौजी की याद आ गई। हमको लगता है कि भौजी ने 60 साल पहले जो अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए रेल लड़ जाने, टिकट गल जाने, ड्राइवर मर जाने, सेठ के दुकान में आग लग जाने की तथा सेठ को हय्या पकड लेने का का श्राप दिया था, वह कल्पना शायद अब "कोरोना" ने पूरा कर दिया, सार्थक कर दिया।
मेरी कहानी की भौजी और यूपी, बिहार की लाखों और भौजी का श्राप सार्थक हो गया। समय के न्यायाधीश ने देर में ही सही, लेकिन सुना!! ठीक से सुना!! मेरी भौजी और यू. पी., बिहार की सारी भौजी और भौजाइयों की इच्छाओं को थोक में थोड़े ही दिनों में पूरा कर दिया।
आज जो लोग किसी तरह से लॉक-डाउन के पहले नौकरी छोड़ कर और देश से गांव आ गए हैं और जो नहीं आ पाए उनके परिवार वालों की और उनकी पत्नियों की पीड़ा को "कोरोना" ने पूरा कर दिया। साठ वर्ष पूर्व, बालपन में भौजी की उस पीड़ा को शायद मैं समझ नहीं पाता था, लेकिन आज वह दर्द समझ में आ रहा है। शायद भौजी का वही दर्द परदेसियों के लिए @कोरोना बनकर आ गया है।
मेरा मन कहता है की गांव-देहात के नौजवानों को थोड़े से पैसा कमाने के लालच में परदेस नहीं जाना चाहिए। जाने की जरूरत भी नहीं है अब। गांव में ही छोटे बड़े तमाम रोजगार के साधन उपलब्ध हो गए हैं। भौजी तो नहीं है, लेकिन भौजी की आत्मा जहां हो उनसे मैं निवेदन करूंगा कि भौजी अपने मन से उस व्यथा को निकाल दें। "परदेसी" बिरह के श्राप का परित्याग कर दें साथ-ही-साथ आज के "भैया" लोगों को भी सद्बुद्धि दे कि आज के किसी भी भौजी को वह गीत दुबारा न गाना पड़े।
साभार:- सोशल मीडिया।
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