अर्थ:- कबीर जी कहते हैं कि गुरू और गोविंद एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए गुरू को या गोविंद यानि भगवान को? ऐसी स्थिति में गुरू के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
रहिमन देखि बड़ेन को,
लघु न दीजिए डारि ।
जहां काम आवे सुई,
कहा करे तरवारि ।।
॥ रहीम् ॥
अर्थ:- रहीम दास जी कहते हैं कि बड़ी वस्तु को देखकर छोटी वस्तु को नहीं फेंकना चाहिए। क्योंकि जहां पर छोटी सी सूई काम आती है, वहां तलवार कुछ नहीं कर सकती।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर आपका मन साफ़ नहीं हुआ तो उस नहाने का क्या फायदा। जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती और उसमें से तेज बदबू आती रहती है।
प्रीति ताहि सो कीजिये,
जो आप समाना होय।
कबहुक जो अवगुन पड़ै,
गुन ही लहै समोय।।
अर्थ:- प्रीति उसी से करनी चाहिए, जो अपने समान हो, अर्थात अपने हृदय जैसा सच्चा गहन, गंभीर और आत्म-विश्वासी हो। यदि कभी किसी समय कोई भूल त्रुटि हो जाए, अनुचित-व्यवहार हो जाए, तो वह उचित गुण-व्यवहार को ही अपने हृदय में स्थान दे।
सब संतन की खान।
जामे हरिजन उपजै,
सोयी रतन की खान ।।
अर्थ:- नारी को नर्क ना मानो, वह तो संतों की खान है। उन्हीं से हरि भक्त उत्पन्न होते हैं, वह रत्नों की खान हैं।
प्रेमी ढूंढत मैं फिरूं,
प्रेमी मिलै न कोय।
प्रेमी सों प्रेमी मिले,
विष से अमृत होय।।
अर्थ:- इस जगत में अन्य प्रकार के लोगों का कोई अभाव नहीं है, परंतु मैं तो किसी प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हूं, जो मुझे कहीं नहीं मिला, अर्थात प्रेमियों का अभाव है। यदि प्रेमी से प्रेमी मिल जाए तो विष भी अमृत के समान हो जाता है।
जा घट प्रेम न संचरै,
सो घट जानु मसान।
जैसे खाल लुहार की,
सांस लेत बिन प्रान।।
अर्थ:- जिस हृदय में प्रेम का भाव नहीं उमड़ता, उसे श्मशान तुल्य ही समझना चाहिए, क्योंकि वह भाव-शून्य (मृतक) के समान है। जैसे लोहार की धौंकनी जो मृत पशु की खाल से बनी होती है बिना प्राण के भी सांस लेती रहती है।
पाछे दिन पाछे गए,
हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या,
चिडिया चुग गई खेत ।।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
अर्थात् कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि कृष्ण को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा कम नहीं होती।
ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही में है,
जाग सके तो जाग ।।
।। कबीर दास ।।
कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही मौजूद है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।
आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना,
निर्मल करे सुभाय।।
।। संत कबीर दास ।।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।
अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायेगा,
ज्यों सारा परभात ।।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं एक पानी के बुलबुले के समान हैं जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सब मोह माया और सारा अंधकार छिप जायेगा।
जल में बसे कमोदनी,
चंदा बसे आकाश।
जो है जा को भावना,
सो ताहि के पास ।।
अर्थ:- कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है तो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है, जो काम कल करना है वो आज करो, और जो आज करना है वो अभी करो, अगर पलभर में प्रलय जो जाएगी फिर आप अपने काम कब करेंगे।
सबै रसायन हम पिया, प्रेम समान न कोय।
रंचक तन में संचरै, सब तन कंचन होय।।
अर्थ:- हमने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा है, परंतु प्रेम-रसायन के समान कोई भी मधुर नहीं है, क्योंकि इसका स्वाद अलौकिक है। तन में मात्र थोड़ा-सा प्रवेश करने पर सारा तन शुद्ध-स्वर्ण की तरह पवित्र और चमकदार हो जाता है।
बोली एक अनमोल है,
जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के,
तब मुख बाहर आनि।।
॥ कबीर दास ॥
कबीर जी कहते हैं जो कोई भी व्यक्ति सही बोली बोलना जनता है जो अपने मुख से बोलने या वाणी का मूल्य समझता है, वह व्यक्ति अपने ह्रदय के तराजू में हर एक शब्द को तोल कर ही अपने मुख से निकालते है। बिना सोचे समझे बोलने वाले व्यक्ति मुर्ख होते हैं।
।। रहीम् ।।
रहीम जी कहते हैं कि जो कुछ भी इस शरीर पर आ बीते, वह सब सहन कर लेना चाहिए। जैसे, सर्दी, धूप और वर्षा पड़ने पर धरती सहज ही सब सह लेती है।
दुख में सुमिरन सब करे,
सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे,
तो दुख काहे होय।।
॥ रहीम् ॥
रहीम जी कहते हैं कि ईश्वर को दुख में सभी लोग याद करते हैं, लेकिन सुख में कोई नहीं याद करता है। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि सुख में भी लोग भगवान को याद करते तो उन्हें दुख होता ही नहीं।
बड़े काम ओछो करै,
तो न बड़ाई होय।
ज्यों रहीम हनुमंत को,
गिरिधर कहे न कोय।।
॥ रहीम् ॥
जब छोटी सोच के लिए लोग बड़े काम करते हैं तो उनकी बड़ाई नहीं होती है। जैसे जब हनुमान जी ने धोलागिरी पर्वत को उठाया था तो उनका नाम ‘गिरिधर’ नहीं पड़ा क्योंकि उन्होंने पर्वत राज को क्षति पहुंचाई थी, पर जब श्री कृष्ण ने पर्वत उठाया तो उनका नाम ‘गिरिधर’ पड़ा क्योंकि उन्होंने सभी लोगों की रक्षा के लिए पर्वत को उठाया था।
तौ अति ही इतराय।
प्यादे सों फरजी भयो,
टेढ़ो टेढ़ो जाय।।
॥ रहीम् ॥
अर्थ:- ओछे लोग जब प्रगति करते हैं तो बहुत ही इतराते हैं। वैसे ही जैसे शतरंज के खेल में जब प्यादा फरजी बन जाता है तो वह टेढ़ी चाल चलने लगता है।
अर्थ:- वृक्ष कभी अपने फल खुद नहीं खाते हैं, नदी कभी अपने लिए नहीं बहती है। ठीक उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति दूसरों के परोपकार के लिए ही देह धारण करते हैं।
अर्थ:- संत रहीम दास जी कहते हैं जैसे ताड़ के पेड़ के नीचे बैठने से ना तो छाया मिलती है ना ही कोई फल मिलता है। इसी प्रकार निंदनीय वचन फलदायी नहीं होते। जो मनुष्य संसार में आकर किसी के काम नहीं आते, वे मनुष्य संसार में रसहीन होते हैं।
अर्थ:- रहीम कहते हैं कि प्रेम का नाता नाज़ुक होता है, इसे झटका देकर तोड़ना उचित नहीं होता। यदि यह प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।
अर्थ:- रहीम जी कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।
अर्थ:- मन, मोती, फूल, दूध और रस जब तक सहज और सामान्य रहते हैं तो अच्छे लगते हैं परन्तु यदि एक बार वे फट जाएं तो करोड़ों उपाय कर लो वे फिर वापस अपने सहज रूप में नहीं आते हैं।
अर्थ:- रहीम जी कहते हैं कि बहुत से काम एक साथ शुरू करने से कोई भी काम ढंग से नहीं हो पता, वे सब अधूरे से रह जाते हैं। एक ही काम एक बार में किया जाना ठीक है। जैसे एक ही पेड़ की जड़ को अच्छी तरह सींचा जाए तो उसका तना, शाख़ाएँ, पत्ते, फल-फूल सब हरे-भरे रहते हैं।
अर्थ:- बड़ों को क्षमा शोभा देती है और छोटों को उत्पात (बदमाशी)। अर्थात, अगर छोटे बदमाशी करें कोई बड़ी बात नहीं और बड़ों को इस बात पर क्षमा कर देना चाहिए। छोटे अगर उत्पात मचाएं तो उनका उत्पात भी छोटा ही होता है। जैसे यदि कोई कीड़ा (भृगु) अगर लात मारे भी तो उससे कोई हानि नहीं होती।
अर्थ:- रहीम जी कहते हैं कि जब समय सही न चल रहा हो तो सही इंसान को भी बुरे वचन सुनने पड़ते हैं। यह समय का ही खेल है कि बलवान गदाधारी भीम के सामने दुश्शासन द्रोपदी का चीर:हरण करता रहा और भीम हाथ में गदा होते हुए भी आंखे नीची किए बैठे रहे।
अर्थ:- कबीरदास कहते हैं कि माला तो मन कि होती है बाकी सब तो दिखावा है। अगर माला फेरने से ईश्वर मिलते तो रहट को कब के मिल गए होते। भगवान को तो सिर्फ मन की माला फेर कर ही प्राप्त किया जा सकता है।
अर्थ:- प्रतिदिन आठ पहर में से पाँच पहर तो काम धन्धे में खो दिये और तीन पहर सोने में बिता दिये। इस प्रकार एक भी पहर हरि भजन के लिए नहीं रखा, फिर मोक्ष कैसे मिलेगा।
॥ संत कबीर दास।।
अर्थ:- कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन और उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता है। मनुष्य के मरने के बाद भी आशा और इच्छाओं का अन्त नहीं होता है। यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र में हमेशा गोते खाता रहता है।
अर्थ:- जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में ही निवास करती है।
रहिमन नीचन संग बसि,
लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारिन हाथ लखि,
मद समुझहिं सब ताहि ।।
अर्थ:- रहीम कवि कहते हैं कि नीच व्यक्तियों के संग रहने के कारण किसे कलंक नहीं लगता! अर्थात कलंक लगता ही है। कलारिन के हाथ में दूध भी देखकर लोग समझते हैं कि उसके हाथ में मद्य (शराब) है।
कलारिन: मद्य बेंचनेवाली एक जाति की महिला ।
कुटिलन संग रहीम कहि,
साधू बंचते नाहिं ।
ज्यों नैना सैना करें,
उरज उमेठे जाहिं ।।
अर्थ:- रहीम कवि कहते हैं कि कुटिल (दुष्ट) लोगों के साथ साधू लोग (सज्जन लोग) सुरक्षित नहीं रह सकते। उन्हें कुटिल लोगों की करनी की सजा भोगनी पड़ती है। सैना (इशारा) तो कामातुर नैना (आंखें) करती हैं, लेकिन उमेठे (मसले) जाते हैं उरोज (स्तन)।
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