कला मानव संस्कृति की उपज है। इसका उदय मानव की सौन्दर्य भावना का परिचायक है। इस भावना की वृत्ति व मानसिक विकास के लिए ही विभिन्न कलाओं का विकास हुआ है। कला का शाब्दिक अर्थ है- किसी वस्तु का छोटा अंश। कला धातु से 'ध्वनि' व 'शब्द' का बोध होता है। ध्वनि से आशय है- "अव्यक्त से व्यक्त की ओर उन्मुख होना।" कलाकार भी अपने अव्यक्त भावों को विभिन्न माध्यमों से व्यक्त करता है, कला की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी कर सकते हैं क+ला, क = कामदेव- सौन्दर्य, हर्ष व उल्लास, ला = देना, 'कलांति ददातीति कला' अर्थात् सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु ही कला हैं।
आधुनिक काल में कलाओं का वर्गीकरण दो बिन्दुओं पर किया गया है-
(1) उपयोगी कला:- उपयोगी कला मानव समाज के लिए उपयोगी होती है।
(2) ललित कला:- ललित कला सौन्दर्यप्रधान होती है। ललित कलाओं का उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अतः ललित कला का नामकरण पाश्चात्य सम्पर्क की देन है। 'पाश्चात्य विद्वानों' ने ललित कलाओं के अन्तर्गत पाँच (05) कलाएँ मानी हैं । वे क्रमश : हैं- स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, संगीत एवं काव्य कला। इनमें काव्य कला अर्थप्रधान, संगीत कला ध्वनिप्रधान और अन्य कलाएँ रूपप्रधान हैं।
सौन्दर्यानुभूति को व्यक्त करने के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग मानव पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता चला आया है और इन माध्यमों में कला एक विशिष्ट माध्यम है। कला की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भारत अत्यन्त समृद्ध एवं वैभवशाली रहा है। कला के अन्तर्गत चित्रकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, मूर्तिकला तथा हस्तकला प्रमुख हैं और सभी कलाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भारत के जनजीवन में न केवल प्रागैतिहासिक युग से बल्कि वर्तमान में भी इनका विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है।
जीवन पद्धति मार्ग प्रशस्त करती है, संस्कृति के नियम शाश्वत होते हैं, जो उस समय को एक विशिष्ट जीवन व्यतीत करने की चेतना प्रदान करते हैं, परिणामस्वरूप प्रत्येक देश, समाज अथवा राज्य एक विशिष्ट संस्कृति के लिए जाना जाता है। संस्कृति शब्द से क्या अभिप्राय है, इसकी जानकारी अपरिहार्य है। प्रायः सभ्यता एवं संस्कृति को पर्यायवाची मानकर विचार करने की भ्रान्तिपूर्ण प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है।
संस्कृति से तात्पर्य उन सिद्धान्तों से है, जो समाज में एक निश्चित प्रकार का जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं, अत: 'के. एम. मुन्शी' के अनुसार, हमारे रहन-सहन के पीछे जो मानसिक अवस्था, मानसिक प्रवृत्ति है, जिसका उद्देश्य हमारे जीवन को परिष्कृत , शुद्ध और पवित्र बनाना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वही संस्कृति हैं।
संस्कृति के ‘आन्तरिक' और 'बाह्य' दो पक्ष होते हैं। 'दृश्य' और 'श्रव्य' कलाएँ तथा शिल्प बाह्य संस्कृति के उपकरण मात्र हैं, जबकि आन्तरिक संस्कृति के उपकरण हमारे चारित्रिक गुण हैं। आन्तरिक संस्कृति के कुछ अंग तो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के अनुकूल ही हैं और साथ ही राजस्थान की अपनी कुछ विशेषताएँ भी रही हैं:-
1. शरणागत की रक्षा करना विशेषतः क्षत्रिय समाज की विशेषता रही है, जैसे रणथम्भौर के राव हम्मीर ने दो शरणागत मुसलमानों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था।
2. देवस्थानों की पवित्रता और अनेक अधिष्ठाता, देवों की महानता को स्वीकार करना।
3. पतिव्रत धर्म की महत्ता
4. अतिथि सत्कार, व्यावसायिक ईमानदारी, पारस्परिक सहयोग की भावना और गौ, ब्राह्मण तथा अबलाओं की रक्षा, आदी। बाह्य संस्कृति के उपादान बहुत विस्तृत हैं, जैसे- चित्र, नृत्य, स्थापत्य, मूर्ति निर्माण, संगीत, आदि कलाएँ लोकगीत तथा मुहावरे, लोरियाँ, ख्याल, पवाड़े, आदि लोक साहित्य, नाटक, रासलीला, कठपुतली आदि लोकानुरंजन, तीज, गणगोर, दशहरा, दीपावली, होली आदि उत्सव, धार्मिक मेले आदि।
भारतीय कला, संस्कृति की दृष्टि से न केवल राष्ट्रीय, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष छवि बनाये हुए है। देश को विरासत में में मिली साहित्यिक, पुरातात्विक, लोक-संस्कृति एवं कलाओं को अधिक प्रभावी एवं सामान्य जन तक पहुँचाने तथा जीवंत बनाए रखने की स्वतंत्रता ही कला संस्कृति का योगदान है।
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