शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

चित्रकला के छः अंग। (Six Limbs of Painting)









 चित्रकला के छः अंग 


         जयपुर के 'राजा जयसिंह प्रथम' की सभा के विख्यात विद्वान राजपुरोहित 'पण्डित यशोधरा' ने 11 वीं शताब्दी में कामसूत्र की टीका, 'जयमंगला' नाम से प्रस्तुत की। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधरा ने आलेख्य (चित्रकला) के छ: अंग बताये हैं।


          इसी प्रकार 'श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर' ने कला पुनर्जागरण हेतु चित्र सृजन के अतिरिक्त प्राचीन कला साहित्य की ओर भी कला मनीषियों का ध्यान आकृष्ट किया। इसी धुन में उन्होंने 'इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट' के प्रकाशन के योजनान्तर्गत 'षडांग' (सिक्स लिम्बस् ऑफ पेंटिंग्स) Six Limbs of Paintings नामक पुस्तिका का प्रकाशन सन् 1921 में कराया। उनकी इस पुस्तिका का आधार कामसूत्र में वर्णित 64 कलाओं में चौथे स्थान पर 'आलेख्यम' चित्रकला के संदर्भ में यशोधारा पंडित की कामसूत्र वाली टीका 'जयमंगला' (11 वीं-12 वीं) वाला यह श्लोक है:-


रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्य योजनम्। 

सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडंग: कम् ॥ 


        इसमें चित्रकला के छः (06) अंग बताये हैं , जो निम्न हैं:- 


(1) रूपभेदा : दृष्टि का ज्ञान 

              A Knowledge of Appearances 


(2) प्रमाण : ठीक अनुपात, नाप तथा बनावट 

           A Correct Perception, Measure and Structure of Forms.


(3) भाव : आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे।

           The Action of Feelings on Forms.


(4) लावण्य योजना : कलात्मक तथा सौंदर्य का समावेश
              Infusion of Grace, Artistic Representation 

(5) सादृश्य : देखे हुए रूपों की समान आकृति 
        Similitudes 

(6) वर्णिका भंग : रंगों तथा तूलिका के प्रयोग में कलात्मकता : 
                  Artistic Manner in Using the Brush and Colours 

(1) रूपभेद : कलाकार के चित्रभूमि पर अंकन प्रारम्भ करते ही रूप का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है और रूप सृजन के साथ ही चित्रभूमि सक्रिय हो जाती है। प्रत्येक आकृति में ऐसी भिन्नता या चारित्रिक विशेषता प्रदर्शित होनी चाहिये, जिससे अमुक आकृति को पहचाना जा सके, यानि माता के रूप से माता और छाया के रूप में छाया का आभास हो, तब ही रूप रचना सार्थक और सत्यता लिये होगी। रूप का साक्षात्कार आत्मा तथा आँखों दोनों द्वारा किया जा सकता है। चक्षुओं के द्वारा हम किसी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई, छोटापन, मोटापन, पतलापन, सफेद या कालेपन का ज्ञान प्राप्त करते हैं, किन्तु उस वस्तु में निहित व्यापक सौन्दर्य को हम आत्मा के द्वारा ग्रहण कर सकते हैं। सर्वप्रथम नेत्रों का संबंध रूप से होता है, फिर धीरे-धीरे हम उसे आत्मा द्वारा ग्रहण कर लेते हैं। यह वस्तु छोटी है, यह बड़ी है। यह एक कोण है, यह नाना कोण है। यह कठिन है, यह कोमल है। इस प्रकार हम एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना कर अपनी आँखों द्वारा उनके रूपभेद को समझने लगते हैं।

          किसी भी कलाकृति के बाह्यभ्यन्तर की परीक्षा हम उस वस्तु को देखकर करें या मस्तिष्क के द्वारा करें, दोनों दशाओं में हमारे अन्दर रुचि का होना आवश्यक है। जिस समय हम किसी वस्तु को देखते हैं और उसमें निहित रुचि हमारे भीतर की रुचि से मिल जाती है, तभी हम उस कृति की वास्तविक सुन्दरता या असुन्दरता का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार किसी भी कलाकृति में रूप एवं रेखा, जितनी स्पष्ट, स्वाभाविक और सुन्दर होगी,  चित्र उतना ही उत्कृष्ट होगा। 

        अजन्ता के 'माता-पुत्र' वाला चित्र या 'पद्मपाणि बोधिसत्व' वाले भगवान बुद्ध का विशाल रूपांकन 'रूपभेद' का सार्थक उदाहरण है। इसी प्रकार राजस्थानी चित्रों में 'कृष्णलीला विषयक' एवं मुगल चित्रों के 'दरबार दृश्यों में शहंशाह की शबीह' रूप के भेद को दर्शाती है, अतः रूप का निर्माण तथा चित्र में विभिन्न रूपों का नन्दतिक संयोजन तभी संभव है, जब चित्रकार रूप, अर्थ एवं रूप भेद में पारंगत हो। इस प्रकार रूपभेदों में अनभिज्ञ होने के कारण चित्रों की वास्तविकता को नहीं आँका जा सकता।  

(2) प्रमाण : इसका अर्थ आकृतियों का ठीक ज्ञान। इसे सम्बद्धता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह आकृतियों का माप या फैलाव तथा सभी आकृतियों का एक दूसरे से संबंध और आकृतियों के तान तथा वर्ण इत्यादि का चित्र-भूमि से संबंध निश्चित करता हैं।

         प्रमाण चित्र विद्या का वह अंग है, जिसके द्वारा हम प्रत्येक चित्र का मान निर्धारित कर सकते हैं। मूलवस्तु की यथार्थता का ज्ञान उसमें भर सकें। इसीलिये प्रत्येक कलाकार में पर्याप्त प्रमाण-शक्ति का होना आवश्यक है, तभी वह अपनी कृति में चित्रकला के इस विशेष गुण का सन्निवेश कर सकता है।

        अनुपात के लिये उचित ज्ञान को 'प्रमा' के नाम से संबोधित भी किया गया है। यह प्रमा हमारे अन्तःकरण का ऐसा मापदण्ड है, जिससे हम सीमित और अनन्त दोनों प्रकार की वस्तुओं को नाप सकते हैं। प्रमा से केवल समीप या दूरी का ही बोध नहीं होता, अपितु किस वस्तु को कितना दिखाने से वह अधिक मनोहारी लग सकती है, इसका भी वह निश्चय करता है। उदाहरण के लिये ताजमहल अपने बहुमूल्य होने के कारण सुन्दर नहीं है, बल्कि उसकी परिमिति ने ही उसको श्रेष्ठ एवं सुन्दर बनाया है। 

       प्रमा द्वारा ही हम, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की भिन्नता और उनके विभिन्न भेदों को ग्रहण कर सकते हैं। पुरुष और स्त्री की लम्बाई में क्या भेद होना चाहिये, उनके समस्त अवयवों का समावेश किस क्रम में होना चाहिये अथवा देवताओं और मनुष्यों के चित्रों में कद का क्या मान है- यह प्रमा वाले प्रमाण के द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता है। भीमकाय आकृति शक्ति का प्रदर्शन तो करती है, लेकिन सौन्दर्य प्रदान नहीं करती। 'रावण का वृहद तथा अतिशय प्रमाण वाला रूप', 'श्री राम के सौम्य व उचित प्रमाण वाले रूप' के सामने कलात्मक आधार पर फीका लगता है। 

          चित्राचार्यों ने प्रमाण के आधार पर पाँच प्रकार के रूपों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है- 

(1) मानव दस ताल : (पांडव, राम, कृष्ण, शिव आदि) 

(2) भयानक बारह ताल : (भैरव, वराह) 

(3) राक्षस सोलह ताल : (कंस, रावण) 

(4) कुमार आठ ताल : (वामन) 

(5) बाल पाँच ताल : (बाल-गोपाल) 

      भारतीय कला मनीषियों ने प्रमाण को ताल, कार्यप्रमाण अथवा मनोत्पत्ति के नाम से भी संबोधित किया है। उदाहरण के लिये अपभ्रंश चित्रों में पशु-पक्षियों एवं पेड़ों के आलेखन में मनोत्पत्ति का अभाव होने से नीरस लगते हैं, क्योंकि सम्बद्धता के सिद्धान्त के आधार पर वे आलेखन से अलग-थलग अभिव्यंजक होते हुए भी अरुचिकर हैं। अतः एक चित्रकार के लिये उचित प्रमाण के व्यवहार हेतु अपनी प्रमा शक्ति का अबाध विकास करना अति आवश्यक है। 

(3) भाव : चित्र में रूप के प्रामाणिक होने के साथ-साथ उसमें भावयुक्त सौन्दर्य भी होना चाहिये। भाव कहते हैं- आकृति की भंगिमा को, उसके स्वभाव, मनोभाव और उसकी व्यंग्यात्मक प्रक्रिया को। इसे आँखों से भी पकड़ा जा सकता है, जैसे - आकृति की भंगिमाओं से, जैसे नये फूल, हरे पत्ते, झुके वृक्ष, गाल पर हाथ रखकर बैठना, आँखों पर आँचल डालकर रोने आदि से। 

       भारतीय दर्शनशास्त्र और काव्यशास्त्र में भावों की महत्ता पर बहुत ही बारीकी एवं विस्तार से विचार किया गया है। शरीर और इंद्रिय, सभी में विकार की स्थिति पैदा करना भाव का कार्य है। विभावजनित चित्रवृत्ति का नाम भाव है। निर्विकार चित्र में प्रथम विक्रया को उत्पत्ति भाव के द्वारा ही होती है। उदाहरण के लिये एक योगी, योग से विचारों को शुद्ध करके अपनी आत्मा से संबंध स्थापित करता है तथा चित्रकार भी अपने मानस के रूप रचकर पर उसे रेखांकित भी करता है। आँखों का चितवन, भंगिमा, हस्तमुद्राओं तथा वर्ण एवं संयोजन शैली में भाव की एक सहज अभिव्यंजना संभव हो जाती है। 'अण्डाकार चेहरा' सात्विकता का भाव प्रदान करता है जबकि 'पान के पत्तों वाला चेहरा' चंचलता का झोतक है। इसी प्रकार मीनाक्षी, चंचलता, मृगाक्षी, सरलता व निरपराधिता, पटोलाक्षी, सात्विकता व शान्ति और खंजनाक्षी प्रसन्नता आदि भावों का प्रदर्शन करती है। 

        जिस प्रकार समभंग सौम्यता का परिचायक है, वहाँ अन्य भंगिमाएँ (त्रिभंग, अभंग और अतिभंग) क्रियाशीलता व प्रखरता का द्योतक है। इस प्रकार चित्र में भावभंगिमा दर्शाना तो सरल है पर व्यंग्य देना सरल नहीं। उदाहरण के लिये भिखारी को दिखाना हो, तो उसका पुराना कटोरा दिखाने से आशय पूर्ण नहीं होता, अतः व्यंग्य से दुर्बल फटेहाल भिखारी एवं टूटे - फूटे पात्र का अंकन भी करना होगा। भाव की ऐसी समस्या का समाधान व्यंजनाशक्ति से किया जाता है। ऐसी दशा में कलाकार चित्र की पृष्ठभूमि में ऐसे प्रतीकों का, या सहायक रूपों का संयोजन करता है, जिससे अभीष्ट भाव का उदय हो। 

         भाव व रस की प्रधानता के कारण ही राजस्थानी चित्रशैलियाँ आज संसार में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं, क्योंकि सच ही कहा गया है कि रस से परमानन्द की प्राप्ति होती है। (रसो वैसः) यही भारतीय चित्र की आत्मा है, सौन्दर्य है। 

        इस प्रकार चित्रकला में भावाभिव्यंजना को बड़ा महत्त्व दिया गया है। भिन्न भावों की अभिव्यंजना से शरीर में भिन्न-भिन्न विचारों का जन्म होता है और भाव एक मानसिक प्रक्रिया भी है। मन में जिस रस का जो भाव पैदा होता है, उसी के अनुसार शरीर में भी परिवर्तन के लक्षण प्रकट होते हैं।

      भावाभिव्यंजना के दो रूप हैं- 'प्रकट' और 'प्रच्छन्न', प्रकट भाव रूप को हम आँखों से प्रकट कर सकते हैं, किन्तु उसके प्रच्छन्न स्वरूप को व्यंजना के द्वारा अनुभव कर सकते हैं। बसन्त में नये फूलों में उसकी सजीव भावभंगिमा में, समुद्र के ताण्डव गर्जन में, गालों पर हाथ रखकर बैठने में, आँखों पर आँचल डाल कर रोने से अस्त-व्यस्त वेष के धारण करने से, पलकों के झुके अधरों में कंपन और हाथ में हाथ रखने पर जो भाव प्रकट होते हैं, उन्हें हम आंखों में देख सकते हैं।

(4) लावण्य योजना :- लावण्य कहते हैं 'रूपपरिमिति' को। रूप, प्रमाण और भाव होने के साथ-साथ चित्र में लावण्य होना भी परम आवश्यक है। प्रमाण जिस प्रकार रूप को ठीक परिमिति देता है, वैसे ही लावण्य भी परिमिति देता है, उत्कर्षता प्रदान करता है। जिस प्रकार भाव आभ्यन्तर सौन्दर्य का बोधक है, लावण्य बाह्य सौन्दर्य का अभिव्यंजक चित्र में अलंकृति का समावेश लावण्य की बाह्य योजना द्वारा संभव है। इससे चित्र में कान्ति और छाया का सुन्दर समावेश होता है और चित्र को नयनाभिराम एवं प्राणवान बनाया जाता है। जिस प्रकार रुचि रूप को दीप्ति देती है, उसी प्रकार लावण्य भाव को दीप्ति देता है। यह भोजन में नमक की भाँति सदैव रूप में निहित रहता है। लावण्य चित्र में सबसे अधिक कार्य करता है, लेकिन उसका आडम्बर सबसे कम होता है। 'रूप गोस्वामी' ने मोती की तरलता की भाँति अंगों को शोभित करने वाले गुण को लावण्य कहा है। 

      लावण्य योजना, भाव का अवरोधक न होकर, उसकी सौन्दर्यानुभूति एवं कान्ति को बढ़ाता है। प्रमाण और रूप की समुचित योजना के बावजूद लावण्य किए बिना चित्र में सुन्दरता की अभिव्यंजना हो नहीं सकती। लावण्य तो मानों कसौटी पर सोने की रेखा है अथवा पहनने की साड़ी पर सुनहरी किनारी। इस प्रकार रेखा व रंग जब आकृति में स्वयं ही जीवित हो उठे, तो लावण्य की आभा एक मनुहार बन जाती है। 

मुत्ताफलेपुच्छायायास्तर लत्वमिवान्तरा। 
प्रतिभाति यंदगेषु तल्लावण्य मिहोच्यते॥

 -उज्ज्वलनील मणि

      'अवनीन्द्रनाथ ठाकुर' की लावण्य की यह व्याख्या 'रूप गोस्वामी' के अनुरूप नहीं है। शरीर के अंगों की निर्मलता में सौन्दर्य की झलक को ही लावण्य कहा है। शोभाकान्ति, दीप्ति आदि इसी के अन्य भेद हैं, जो अंगों की ठीक बनावट, अस्थियों तथा सन्धियों के उचित सन्निवेश और शरीर में 'काम' (मन्मथ) के समावेश से उत्पन्न लज्जा की लालिमा आदि से संबंधित हैं। 

(5) सादृश्य :- किसी मूल वस्तु, पदार्थ या भाव के साथ उसकी प्रतिकृति की समानता को दर्शाने का नाम ही सादृश्य है और किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप की सहायता से प्रकट कर देना ही सादृश्य का कार्य है। चित्र सत्य पर या कल्पना पर आधारित हो। चित्रित व्यक्ति या आकृति को दर्शक यदि तुरन्त पहचान जाये, तो सादृश्य सही माना जाता है। उदाहरण के लिये यदि हम कृष्ण या बुद्ध का चित्र अंकित करना चाहें, तो हमें उनकी चारित्रिक विशेषताओं पर ध्यान देना होगा। कृष्ण को बाँसुरी व मोरमुकुट के साथ, तो गौतम बुद्ध को कटे केश, हाथ की मुद्रा अहिंसा का संदेश देती हुई तथा भिक्षा पात्र लिये अंकित करना होगा। 

      अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप में प्रकट कर देना सादृश्यता उत्पन्न करना माना है। यदि एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भाव उत्पन्न होता है या भिन्नता होते हुए भी यदि दोनों वस्तुओं में समानता है, तो उनका अपना-अपना स्वभाव है। लहरदार आकृति की समानता होने के कारण वेणी से सर्प सादृश्य किया गया है, परन्तु ये दोनों भिन्न हैं, क्योंकि सर्प का धर्म है जमीन पर सरकना और वेणी का धर्म है सिर से लटकना यदि जमीन पर वेणी पड़ी हो तो उसका धर्म सर्प का भय दिखाना नहीं। सादृश्य तभी सही व सच्चे रूप में होगा, जब जहाँगीर के चित्र को दर्शक जहाँगीर का ही कहें, औरंगजेब का नहीं।

       'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के अन्तर्गत 'चित्रसूत्र' नामक अध्याय में सादृश्य को प्रमुख वस्तु माना गया है। 

'चित्र सादृश्यकरणम् प्रधानं परिकीर्तितम्' 

(चित्रसूत्र) 

(6) वर्णिका भंग :- नाना वर्णों की सम्मिलित भंगिमा को 'वर्णिका भंग' कहते हैं। वर्ण ज्ञान और वर्णिका क्योंकि पडंग साधना की सबसे अधिक कठोर साधना है। किस स्थान पर किस रंग का प्रयोग करना चाहिये तथा किस रंग के समीप किसका संयोजन होना चाहिये, ये सभी बातें वर्णिका भंग के द्वारा ही जानी जा सकती है। रंगों के भेद-भाव से ही हम वस्तुओं की विभिन्नता व्यक्त करने में समर्थ हो सकते हैं।

        चित्र षडंगों में वर्णिका भंग का स्थान सबसे बाद में इसीलिये रखा गया है, क्योंकि षडंग साधना का चरम बिन्दु है। शेष पाँचों अंगों की सिद्धि हम कागज पर बिना एक भी रेखा खोंचे केवल मन और दृष्टि के गम्भीर चिन्तन के द्वारा भी कर सकते हैं, किन्तु वर्णिका भंग के ज्ञान के लिये हमें तूलिका लेकर दीर्घ अभ्यास करना पड़ेगा या यूँ कहिए कि वर्ण ज्ञान के बिना शेष पाँच अंगों की साधना का हमारा सारा प्रयास ही व्यर्थ है। 

इसीलिये महादेव पार्वती से कह रहे हैं:- 

वर्ण ज्ञानं यदा नास्ति किं तस्य जप पूजनैः

       यद्यपि प्रमुख वर्ण पाँच प्रकार के माने गये हैं, किन्तु इनके सम्मिश्रण से सैकड़ों उपवर्णों की सृष्टि होती है। वातावरण में पाये जाने वाले पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, वृक्ष, लता आदि विभिन्न प्रकार के चित्रों में रंगों का उचित प्रयोग होना चाहिये और यह चित्रकार के लिये जानना जरूरी है और इसका ज्ञान वर्णिका भंग की साधना के अभ्यास से ही संभव है। कलाकार के लिये रंग का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं, उसके रूप एवं तत्त्व को भी जानना होगा। उदाहरण के लिये फूलों को केवल रंगों द्वारा ही नहीं, अपितु उसके सौरभ को भी दिखाना होगा। इसी प्रकार सूर्य की किरणों का रंग दिखा देना ही पर्याप्त न होगा। उसमें सुबह, दोपहर और संध्या के समय उसका उत्ताप कैसा होता है, यह दिखाना भी आवश्यक होगा। वर्ण ज्ञान का यही आशय है और इसीलिये वर्णिका भंग चित्र के षडंगों में सबसे कठिन साधना होती हैं।

       उदाहरण के लिये- मुगल चित्रों में 'परदाज', अजन्ता भित्ति चित्रों की 'चित्रभूमि' , 'प्रविधि' और 'उड़ीसा के ताड़पत्रों का लेखन' इत्यादि के लिये अत्यधिक कौशल की आवश्यकता होती है। इसीलिये मुगल तथा राजस्थानी चित्रों की प्रतिकृतियाँ करने के लिये नौसिखिए चित्रकारों को आज भी परम्परागत शैली में प्रवीण करने के लिये उन्हें वसली की तैयारी के माध्यम से प्राथमिक ज्ञान दिया जाता है।


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