बुधवार, 27 अप्रैल 2022

भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ । (Features of Indian Painting)



 भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ 


           यह सर्वविदित है कि भारतीय चित्रकला एवं अन्य कलाएँ दूसरे देशों की कलाओं से भिन्न हैं और भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो अन्य देशों की कला से इसे पृथक् कर देती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 


धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता (Religiosity and Spirituality):- :- विश्व की सभी कलाओं का जन्म धर्म के साथ ही हुआ है। कला के उद्भव में धर्म का बहुत बड़ा हाथ है। धर्म ने ही कला के माध्यम से अपनी धार्मिक मान्यताओं को जन-जन तक पहुँचाया है। राष्ट्रीय जीवन के ही समान भारतीय कला का स्वरूप भी मुख्यतः धर्मप्रधान है। 

'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के चित्रसूत्र में कहा गया है-


कलानां प्रवरं चित्रं धमार्थकाममोक्षदं । 

मगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥ 


अर्थात, कलाओं में चित्रकला सर्वश्रेष्ठ है उस घर में हमेशा मंगल स्थापित रहता है जहां कला की स्थापना की जाती है।

        अजन्ता, बाघ, आदि गुफाओं में बौद्ध धर्मप्रधान चित्रों का अंकन हुआ है। राजस्थानी, पहाड़ी शैलियों में कृष्ण-लीला विषयक अनेक रूपों का चित्रण हुआ है। वही धर्मप्रधान मूर्तियाँ एवं चित्राकृतियाँ पूरे देश में देखी जा सकती हैं। चित्रकला ने धर्म को सौन्दर्य एवं आकर्षण प्रदान किया है। 


           इसी प्रकार किसी भी देश की धार्मिक मान्यताएँ, उसके पौराणिक देवी-देवता, उसके आचार-विचार और उसकी नीति एवं परम्पराएँ वहाँ की कला में अभिव्यक्त होती मिलती हैं और भारतीय कलाकार ही कला-संरचना के द्वारा धार्मिक, आध्यात्मिक भावना को अभिव्यक्ति देता है। 


अन्तः प्रकृति से अंकन (Intrinsic marking from nature):- भारतीय चित्रकला में मनुष्य के स्वभाव या अन्तःकरण को गहराई तथा पूर्णता से दिखाने का महत्त्व है। अजन्ता की चित्रावलियों में जंगल, उद्यान, पर्वत, प्रकृति, सरोवर, रंगमहल तथा कथा के पात्र, सभी को एक साथ, एक ही दृश्य में अंकित किया गया है। इसी प्रकार 'पद्मपाणि' के चित्र में कुछ रेखाओं द्वारा गौतमबुद्ध की विचारमुद्रा का जो अंकन हुआ है, वह दर्शनीय है। 

           इस प्रकार भारतीय कलाकार ने एक स्थान में अनेक कालों (Period), स्थानों (Place) अथवा क्षेत्रों (Areas) की विस्तीर्णता (expanse) को एक साथ ग्रहण करके व्यक्त किया है। 


कल्पना (Imagination):- कल्पनाप्रियता भारतीय चित्रकला की प्रमुख विशेषता है। वह उसके आधार पर ही पली-बढ़ी, अतः उसमें आदर्शवादिता का उचित स्थान है। यूँ भी भारतीय लोगों का मन यथार्थ की अपेक्षा कल्पना में अधिक रमा। विदित है कि अनेक देवी-देवता चाहे यथार्थ में अपनी सत्ता न रखते हों, पर उनका कल्पना जगत स्वरूप अनेक हृदयों में निवास करता है। 

        कल्पना का सर्वश्रेष्ठ रूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ में दिखाई देता है। उदाहरण के लिये, बुद्ध की जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ कल्पना प्रसूत ही हैं। जिस प्रकार सृष्टि का निरन्तर सृजन और विनाश जीवन और मृत्यु का शाश्वत नृत्य है, उसी क्रम में नटराज के स्वरूप को भारतीय कलाकार ने कल्पित किया है। 


प्रतीकात्मकता (Symbolism):- भारतीय कला की एक विशेषता उसकी प्रतीकात्मकता में निहित है। प्रतीक प्रस्तुत और स्थूल पदार्थ होता है, जो किसी अप्रस्तुत सूक्ष्म भाव या अनुभूति का मानसिक आविर्भाव करता है। 

         प्रतीक, कला की भाषा होती है। सांकेतिक एवं कलात्मक दोनों प्रतीकों का अत्यधिक महत्त्व है, जैसे- स्वस्तिक, सिंह, आसन, चक्र, मीन, श्री लक्ष्मी, मिथुन, कलश, वृक्ष, दर्पण, पदम्, पत्र, वैजयन्ती आदि। इसी प्रकार नाग एवं जटाजूट में से निकलती जलधारा 'शिव' का प्रतीक है। मोरपंख एवं मुरली 'कृष्ण' का प्रतीक है। कमल पर स्थित 'श्री लक्ष्मी' एक ओर सम्पन्नता का प्रतीक है, तो दूसरी ओर पद्मासन पर विराजमान होकर भौतिकता से निर्लिप्त रहने का आशय प्रकट करती है। जल और कीचड़ से जुड़ा रहकर भी पदम् सदैव जल से ऊपर रहता है। उसके दलों पर जल की बूंदें नहीं ठहरती हैं। इस प्रकार पदम् हमें संसार में रहते हुए भी सांसारिकता से ऊपर उठने का उपदेश देता हैं। ‘स्वस्तिक' की चार आड़ी-खड़ी रेखाएँ चार दिशाओं की, चार लोकों की, चार प्रकार की सृष्टि की तथा सृष्टिकर्ता 'चतुर्मुख ब्रह्मा' का प्रतीक है। इसकी आड़ी और खड़ी दो रेखाओं और उसके चारों सिरों पर जुड़ी चार भुजाओं को मिलाकर सूर्य की छ: रश्मियों का प्रतीक माना गया है, जो गति और काल का भी प्रतीक है। 

        यूँ भी कलाकार नये-नये प्रतीकों को भी उपस्थित करते रहते हैं। उदाहरण के लिये कलाकार ने बौद्धधर्म में बुद्ध की आकृति के स्थान पर कमल बना दिया था। रंगों के द्वारा भी कलाकार ने प्रतीकात्मकता का आभास कराया है। अजन्ता में चित्रित 'दर्पण देखती हुई स्त्री' के शरीर में हरा रंग भरा गया है, जो ताजगी का प्रतीक है। इसी प्रकार 'विष्णु' और 'लक्ष्मी' 'पुरुष' तथा 'नारी' के प्रतीक हैं। 


आदर्शवादिता (Idealism):- भारतीय चित्रकार यथार्थ की अपेक्षा आदर्श में ही विचरण करता है। वह संसार में जैसा देखता है, वैसा चित्रण न करके, जैसा होना चाहिये, वैसा चित्रण करता है और जब जहाँ से चाहिये की भावना का प्रादुर्भाव होता है, तो वहीं से आदर्शवाद आरम्भ हो जाता है। राजा को कलाकार आदर्श राजा के रूप में ही चित्रित करता है। प्रेमी को आदर्श प्रेमी के रूप में, इसी प्रकार बुद्ध ज्ञान देने वाले के रूप में आदर्श बन गये, अतः भिन्न-भिन्न मतों में भिन्न-भिन्न आदर्श हैं, जो कलाओं के लिये प्रेरणास्रोत रहे हैं। 


मुद्राएँ (currencies):- भारतीय चित्रकला मूर्तिकला एवं नृत्यकला में मुद्राओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। उन्हें आदर्श रूप प्रदान करने के लिये चमत्कारपूर्ण तथा आलंकारिक रूप प्रदान किये गये हैं। आकृति की रचना कलाकार ने यथार्थ की अपेक्षा भाव अथवा गुण के आधार पर की है। मुद्राओं के विधान से आकृति की व्यंजना की गई है। भरतमुनि के 'नाट्य शास्त्र' के अभिनय-प्रकरण में अंगों तथा उपांगों के अलग-अलग प्रयोगों द्वारा अनेक मुद्राओं का अवतरण किया है। ध्यान, विचार, संकेत, उपदेश, निकालना, पकड़ना, क्षमा, तपस्या, ही स्वाभाविक मुद्राओं में दर्शाया है। भिक्षा, त्याग, वीरता, क्रोध, प्रतीक्षा, प्रेम, विरह, एकाकीपन आदि मानव भावों को बड़ी भावरूप का समावेश है। 

        अजन्ता चित्र शैली में दर्शित आकृतियाँ अपनी भावपूर्ण नृत्य-मुद्राओं के कारण संसार भर में प्रसिद्ध है। इसी प्रकार मुगल, राजपूत शैलियों में भी विविध नृत्य मुद्राओं के सुन्दर भावरूप का समावेश हैं।


रेखा तथा रंग  (Line and Colour):- भारतीय चित्रकला रेखा-प्रधान है, उसमें गति है। रेखाओं द्वारा बाह्य सौन्दर्य के साथ-साथ गम्भीर भाव भी कलाकार ने चित्रों में बड़ी कुशलता से दर्शाये हैं। रेखा द्वारा गोलाई, स्थितिजन्यलघुता, परिप्रेक्ष्य इत्यादि सभी कुछ प्रदर्शित हैं। यूँ तो आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया है, किन्तु वे सांकेतिक आधार पर है, साथ ही आलंकारिक या कलात्मक योजना पर आधारित है। 


अलंकारिकता (Rhetoric):- भारतीय कला में अलंकरण का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि भारतीय कलाकार ने सत्यं, शिवम् के साथ सुन्दर की कल्पना की है और इसीलिये सुन्दर तथा आदर्श रूप के लिये वह अलंकरणों का अपनी रचना में प्रयोग करता है। उदाहरण के लिये खंजन अथवा कमल के समान नेत्र, चन्द्र के समान मुख, शुक चंचु के समान नासिका, कदली स्तम्भों के समान जंघाएँ। इसी प्रकार भारतीय आलेखनों में अलंकरण का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। जैसे- राजपूत, मुगल चित्रों में हाशियों में फूल, पत्तियों, पशु पक्षियों का अलंकरण मिलता है।

       इसके अलावा अजन्ता, बाघ में अलंकृत चित्रावलियाँ मिलती हैं, जिसमें छतों में अलंकरण प्रमुख हैं। 


कलाकारों के नाम (Names of Artists):- प्राचीन काल के कलाकारों ने अपनी कृतियों में नाम अंकित नहीं किये, किन्तु राजस्थानी चित्र शैली में कहीं-कहीं कलाकार द्वारा चित्रित चित्र पर कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिलता है। मुगल शैली में तो चित्रों में कलाकार के नाम के साथ-साथ चित्र में रंग किसने भरे हैं, रेखांकन किसने किया है इत्यादि तक लिखे मिलते हैं। 


साहित्य पर आधारित (Based on literature):- भारतीय चित्रकला साहित्य पर भी आश्रित रही। चित्रकारों ने काव्य में वर्णित साहित्य के अनुरूप ही चित्रों का निर्माण किया। यानि कवियों के द्वारा प्रतिपादित विषयों को ही चित्रकार ने अपने माध्यम के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति उभर कर सामने आई। 

सामान्य पात्र (common characters):- भारतीय कला में सामान्य पात्र विधान परम्परागत रूप में विकसित हुआ है, जबकि पाश्चात्य कला में व्यक्ति विशिष्ट का महत्त्व है। सामान्य पात्र सही अर्थों में आयु, व्यवसाय अथवा पद के अनुसार पात्रों की आकृति तथा आकृति के अनुपातों का निर्माण करना है। भारतीय कला में अंग-प्रत्यंग के माप एवं रूप निश्चित हैं और उन्हीं के अनुसार राजा, रंक, साधु, सेवक, देवता, स्त्री, किशोर, युवक, गंधर्व आदि की रचना की जाती है। इसी प्रकार उनके व्यवसाय के अनुसार उनके चित्र खड़े एवं बैठने की दिशा व स्थान भी निश्चित रहते हैं। 


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