गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

लिपि का इतिहास एवं विकास (Evolution and History of Script)

लिपि का इतिहास एवं विकास 
(Evolution and History of Script) 


           लेखन-कला भाषा द्वारा प्र कट किये गये ज्ञान को सुरक्षित रखने का एकमात्र उपाय है। आदिकाल में मानव भाषा का प्रयोग करता था लेकिन उसकी कोई लिपि (लेखन कला) नहीं थी। उस समय मानव के पास ज्ञान का अभाव था। धीरे-धीरे उसमें ज्ञान का विकास हुआ और उसने संदेश देने एवं अपने ज्ञान को सुरक्षित रखकर अपनी भावी पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए चित्रों का निर्माण करना प्रारम्भ किया। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ लिपि का भी विकास होता रहा। लिपि का जन्म किसी एक जगह नहीं बल्कि संसार के विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग हुआ। राजाओं, भ्रमणशील जातियों एवं व्यापारियों द्वारा लिपि एक सभ्यता से अन्य सभ्यताओं तक पहुँची तथा आपसी प्रभाव के कारण यह विकसित होती गई और इसने आधुनिक स्वरूप धारण किया। 


          सर्वप्रथम मेसोपोटामिया (सुमेरिया) में चित्रों द्वारा लिपि का जन्म हुआ। मेसोपोटामिया दो नदियों दजला और फरात के मध्य स्थित भू-भाग को कहा जाता है। यहाँ सुमेर, बेबीलोन और असीरिया तीन सभ्यताओं ने जन्म लिया मैसोपोटामिया का वर्तमान नाम इराक है। विश्व की पुरानी सभ्यता मेसोपोटामिया के निवासियों ने कुछ रेखाओं के अंकन से लिपि को जन्म दिया। ये रेखायें उनके स्थानीय देवी देवताओं के आकार मात्र थे। लगभग 3500 ई.पू. में सुमेरियन शहर 'किश' के पुजारियों ने मन्दिर में दान के रूप में मिलने वाली वस्तुओं और पशुओं की संख्या को याद रखने के लिए मन्दिर की दीवारों पर रेखाओं का प्रयोग प्रारम्भ किया कुछ समय पश्चात् इन्होंने मिट्टी की पाटियों का प्रयोग करना प्रारम्भ किया जिनमें रेखाओं के साथ साथ चित्र भी होते थे।


      ये रेखाचित्र सूखी मिट्टी की पाटियों पर अंकित किये जाते थे इस तरह की मिट्टी की पाटियाँ उरुक शहर में मिली हैं जो 1300 ई. पू. की है जिनमें कुछ वस्तुओं के चित्र (चिन्ह) अंकित है। धीरे-धीरे ये चित्र इतने सरल हो गए कि इन्हें देखने पर आसानी से समझा जाने लगा और चित्रात्मक लिपि का विकास हुआ जिसमे लिपि के साथ चित्र भी बने होते थे, जैसे- हाथ, मुंह, पांव, पानी, सूर्य, आदि।



        3000 से 2500 ई.पू. चित्रात्मक लिपि को सुधार कर उसे प्रयोगात्मक बनाया गया और लिपि के लिए बनाये गये चित्र भाव प्रकट करने लगे। इन चिन्हों को देखकर व्यक्ति संदेश को समझ लेता था, जैसे- सिर के सामने प्याला यानी भोजन करना, सिर के सामने पानी बनाने से पानी पीना व्यक्त किया जाता था। इन्हें भी सूखी मिट्टी की पट्टियों पर खुरच - खुरच कर बनाया जाता था। सुमेरिया की लिपि में लगभग 800 चिन्हों का प्रयोग किया जाता था। 


कीलाक्षर लिपि 

(Cuneiform Script) 


       मानव विकास के साथ - साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ी तो चिन्हों का प्रयोग भी बढ़ा और लिपि में सुधार होने लगा। सूखी पाटियों पर लिखने में ज्यादा समय लगता था इसलिए गीली मिट्टी का प्रयोग किया जाने लगा, जो लिखने में सुविधाजनक, सूखने पर सख्त और पकाने पर पत्थर जैसी हो जाती थी जिसे आसानी से दूसरी जगह ले जाया जा सकता था। इस लिपि को लिखने के लिए चाकू जैसी नुकीली वस्तु (STYLUS) का प्रयोग किया जाता था जो ऊपर से मोटे और नीचे से पतले आकार की होती थी। उसका आकार कील की तरह का लगता था जिसके द्वारा कच्ची मिट्टी की पट्टियों पर खड़े, लेटे, आड़े व तिरछे निशान अंकित किये जाने लगे, जिनमें कुछ चित्रात्मक, कुछ चिन्हात्मक तथा कुछ भावमूलक शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ और यह लिपि समर्थ होने लगी तथा आगे चलकर इसी से कीलाक्षर लिपि का विकास हुआ। 


कीलाक्षर लिपि का विकास काल 


          इस लिपि का जन्म बेबीलोनिया में हुआ था परन्तु असीरिया (उत्तरी मेसोपोटामिया) निवासियों ने इसका विकास किया। इसका विकसित रूप नवबेबीलोनी कहलाया। 


कीलाक्षर लिपि के विकास के विभिन्न चरण 


रेखाचित्र - यह लिपि 3000 ई. पूर्व से 2500 ई. पूर्व तक प्रचलित थी। इस लिपि में 800 शब्द, रेखाचित्रों द्वारा अंकित किये जा सकते थे। 

कीलाक्षर लिपि - चित्रात्मक शब्दों (रेखाचित्र) को उनकी ध्वनि के अनुसार ही कीलाक्षर लिपि का रूप दिया गया। गीली मिट्टी की पाटियों पर स्टाइल्स द्वारा दाब देकर चिन्ह अंकित करने पर वे कील की तरह दिखाई देते थे। इसलिए इसे कीलाक्षर (Cuneiform) लिपि कहा गया। यह कीलाक्षर लिपि का विकसित रूप था जो लगभग 2500 ई.पू. से 1800 ई. पू. तक प्रचलित रहा। यह लिपि बहुत कठिन थी। इसमें 642 आधार चिन्ह थे। 

           हम्मूराबी का प्रसिद्ध शिलालेख प्राचीन बेबीलोनी (कीलाक्षर) लिपि में उत्कीर्ण कराया गया था। हम्मूराबी सुमेर का शासक था तथा बेबीलोन उसकी राजधानी थी।


            इस शिलालेख में हम्मूराबी द्वारा निर्मित विधि संहिता है जो संसार का सबसे पहला उच्च कोटि का विधान माना जाता है। इसमें 282 प्रकार के नियम थे जिनको शिलाओं पर उत्कीर्ण करवाकर मुख्य स्थानों पर स्थापित करवाया गया था। 18वीं ई.पू. की कीलाक्षर लिपि ऊपर से नीचे अंकित की जाती थी। पहली पंक्ति समाप्त होने पर उसके बायीं ओर दूसरी पंक्ति आती थी और बाद में यह दायें से बायें अंकित की जाने लगी। तत्पश्चात् कसाईट जाति के शासकों ने इसकी दिशा में परिवर्तन किया और यह बायें से दायें लिखी जाने लगी। इसका घसीट रूप भी आरम्भ हुआ जो 1250 ई. पूर्व तक रहा। 


      2000 ई.पू. बेबीलोनी कीलाक्षर लिपि से अरमायक (असीरिया की लिपि) लिपि का विकास हुआ। इसका प्रयोग 600 ई.पू. तक रहा। ई.पू. की आठवीं सदी में पर्यटनशील सेमिटिक जाति सीरिया में स्थिर हो गई और इसी जाति के लोग मेसोपोटामिया में बस गये और इन्होंने ही असीरियन लिपि से सिमेटिक लिपि का विकास किया। इस लिपि में ध्वनि से समांजस्य स्थापित करने वाले 30 चिन्ह थे। प्रारम्भ में यह कीलाक्षर की तरह की दिखाई देती थी। इसका विकसित रूप नवबेबीलोनी लिपि कहलाया जो 200 ई . पूर्व तक प्रचलित रहा। 


मिश्र की पवित्र चित्र लिपि 

(Egyptian hieroglyphs) 


            सुमेरिया की लेखन कला की तरह ही मिश्र तथा विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी लिपि का जन्म दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं के चित्रों से हुआ। मिश्र में इसका आरम्भिक काल 3500 ई.पू. माना गया है। मेने के शासन काल में यहां चित्रलिपि प्रचलित थी । इसका नाम हाइरोग्लिफ्स (पवित्र चित्र लिपि) था। यह एक पवित्र लिपि मानी जाती थी और इसका प्रयोग मंदिरों की दीवारों, समाधियों और पिरामिडों की अन्दर की दीवारों पर उत्कीर्ण करने के लिए किया जाता था। टाट देवता को इसका जन्मदाता माना जाता है। इस लिपि में तीन तरह के चिन्हों चित्रात्मक, संकेतात्मक व ध्वन्यात्मक का प्रयोग किया जाता था जिनकी संख्या लगभग 700 थी। यथा 


1. चित्रात्मक:- इस लिपि के चित्र वस्तु या प्राणी का बोध कराते थे। 


2. संकेतात्मक:- इस लिपि में चित्र किसी भाव का संकेत देते थे। 


3. ध्वन्यात्मक:- इसमें चिन्ह किसी ध्वनि का संकेत देते थे। 


चिन्ह भी तीन प्रकार के थे-

एक वर्णिक:- एक ध्वनि के लिए एक वर्ण होता था जिनकी संख्या 24 थी। 

द्विवर्णिक:- एक ध्वनि में दो वर्ण थे जिनकी संख्या 75 थी। इनमें से लगभग 50 ही प्रयोग किये जाते थे। 

त्रिवर्णिक:- इनमें एक ध्वनि के लिए तीन वर्णों का प्रयोग होता था। 

       इस लिपि में आवश्यकतानुसार वर्णों के साथ भावबोधक चित्रों का भी प्रयोग किया जाता था। इस लिपि का प्रयोग धार्मिक क्षेत्र के लिए पुरोहितों द्वारा ही किया जाता था। इस लिपि को आड़ी लाइनों में दायें से बायें और खड़ी लाइनों में बायें से दायें लिखा जाता था। इस लिपि को चित्र के मुख की तरफ से पढ़ा जाता था। यह लिपि लगभग 400 ई. तक प्रचलित रही। इस लिपि का दूसरा नाम हेरेटिक (घसीट रूप) था जो कागज पर लिखी जाती थी। मिश्र की लिपि की समकालीन मिरोइटिक लिपि थी जिसका घसीट रूप डिमॉटिक लिपि कहलाया। यह संसार की प्रथम वर्णात्मक लिपि मानी जाती है, जिसमें 24 अक्षर सम्बन्धी चिन्ह तैयार किये गये थे। 

           प्रसिद्ध रोसेटा शिलालेख नेपोलियन की सेना के एक कैप्टन को अगस्त 1799 ई. में नील नदी के रोसेटा कस्बे के मुहाने से पाँच मील दूर एक खण्डहर में मिला था। इसलिए इसे रोसेटा शिलालेख कहा जाता है। यह शिलालेख 197 ई. पू. फरोह टोलेनी ने बनवाया था। काले पत्थर के इस 3 फुट 9 इंच लम्बे, 2 फुट 4.5. ईंच चौड़े और 11 ईंच मोटाई वाले शिलालेख में तीन तरह की लिपियाँ अंकित हैं। ऊपरी भाग में हेरोग्लिफ्स (मिश्र की पवित्र लिपि) की 14 पंक्तियाँ दायें से बायें, मध्य में मिश्र की डिमॉटिक (साधारण जनसाधारण की लिपि) की 32 पंक्तियाँ तथा निचले भाग में ग्रीक लिपि (मिश्र की राज भाषा) की 54 पंक्तियाँ हैं, जिनमें से 26 नष्ट हो चुकी हैं। इस शिलालेख की लिपियों को पढ़ने व मिश्र की हेरोग्लिफ्स लिपि के रहस्य को सुलझाने का श्रेय विद्वान जीनफ्रैंको शैम्पोलियन को प्राप्त हुआ है। शैम्पोलियन के अनुसार इसके कार्टूशों में (रस्सी के आकार की गोलाकृति) टोलेमी (Ptolemy) और क्लियोपट्रा (Cleoptra) के नाम अंकित हैं। 


ध्वन्यात्मक लिपि 

(Phonetic Script) 


       सर्वप्रथम 1500 ई. पूर्व मिश्र और मेसापोटामिया के मध्य स्थित फिनिशिया (लेबनान, इजराईल, सीरिया आदि का भू-भाग) के व्यापारियों और समुद्री यात्रियों द्वारा भू - मध्य सागर के नये उप-निवेशों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए ध्वन्यात्मक (Phonetic) लिपि का विकास किया गया। मिश्र और मेसोपोटामिया की लिपि को फिनिशिया के लोगों ने हिब्रू (वर्तमान इस्रायल की प्राचीन लिपि) नाम प्रदान किया और सेमिटिक (फिनिशिया के उत्तरी भाग के निवासी) लोगों ने ही सर्वप्रथम ध्वन्यात्मक 22 वर्णों का निर्माण किया। इसका प्रमाण सिनाइ की ताँबे के खदानों से मिले शिलालेख एवं बेबीलोन के राजा अहिराम की समाधि के पत्थरों पर मिले हैं। भविष्य में यही वर्ण पाश्चात्य देशों के वर्गों के जन्मदाता बने। उस समय फिनिशियन दायें से बायें लिखते थे। 


ग्रीक लिपि 

(Greek Script) 


       माना जाता है कि फिनिशिया के राजकुमार कैडमस 1100 ई.पू. में यूनान (Greece) आये और उनके साथ लाये गये वर्णों से ग्रीस में 1000 ई.पू. यूनानियों (Greeks) ने इन्हें अपनाकर आधुनिक लिपि का विकास किया। ग्रीक लिपि में फिनिशिया से आये (उत्तरी सेमिटिक) अक्षरों में बदलाव करके उनमें पाँच व्यंजनों (Consonants) को स्वरों (Vowels) में बदला (वर्तमान स्वरूप a,e.i,o,u) तथा उन्होंने 24 वर्णों की वर्णमाला को प्रयोगात्मक बनाया 1000 ई.पू. में ग्रीस के सभी भागों में फिनिशिया के अक्षरों का प्रयोग होने लगा था। 400 ई.पू. ग्रीक अक्षरों में आड़े, खड़े और कोणात्मक स्ट्रॉक्स का प्रयोग प्रारम्भ हुआ और अक्षरों को गोल, वर्ग एवं त्रिभुजाकार बनाया, जैसे- O गोलाई में E, T, M, R आदि को वर्ग में और A को त्रिभुज में बनाया जाने लगा। इन अक्षरों को अधिकारिक रूप से ग्रीस में अपनाया गया तथा इन अक्षरों को कलात्मक स्वरूप प्रदान किया गया। ग्रीक में ही 200 ई. पूर्व लिखने में सुविधाजनक माने जाने वाले गोल (Uncials) अक्षरों का विकास किया गया तथा नागरिकों द्वारा हस्ताक्षर मोहर का प्रयोग प्रारम्भ किया गया। ग्रीक लिपि में भी फिनिशिया की तरह पहली लाइन दायें से बायें एवं दूसरी लाइन बाये से दाये तथा तीसरी लाइन फिर से दायें  से बायें लिखा जाता था, लेकिन बाद में इस लिपि को बायें से दायें लिखा जाने लगा जो अब तक जारी है। 


रोमन लिपि 

(Roman Script) 

      

         रोमनों द्वारा ग्रीक विजय के पश्चात् ग्रीक लिपि के वर्ण जब एट्रस्कनों (रोम के शासक) द्वारा लैटियम (प्राचीन रोम) पहुँचे जहाँ लैटिन भाषा थी जिसमें 21 वर्ण थे, तब ग्रीक वर्ण लैटिन भाषा के लिए प्रयुक्त किये जाने लगे और रोमनों ने इनमें कई परिवर्तन किये। 

     250 ई. पूर्व में रोमनों ने ग्रीक के ABEHIKMNOXTYZ को बिना बदलाव किये अपनाया और अपनी भाषा के अनुसार परिवर्तन करके CDGLPRSV का निर्माण किया और F.Q. को दुबारा पुनरावस्था में लाये तथा 10 वीं सदी में V की ध्वनि बदल कर U का निर्माण किया और 12 वीं शताब्दी में V + V से W का निर्माण किया तथा 14 वीं सदी में I (i) से J का निर्माण किया और इस तरह प्राचीन लैटिन के 21 वर्णों को आधुनिक 26 वर्णों (A - Z) को बनाया गया जो वर्तमान में प्रचलित हैं। रोमन साम्राज्य में लिपि का बहुत प्रचार हुआ और जन साधारण को सभी सूचनाएँ लिपि द्वारा दी जाने लगी। रोमनों ने अपने विजयी अभियानों को प्रकाशित करने के लिए बनाये गये कीर्ति स्तम्भों पर व्यापक रूप से शिलालेख बनवाये। रोमनो ने अक्षरों को पत्थरों पर नक्काशी करने के लिए इन्हें सुन्दरता प्रदान की तथा अक्षरों को लिखने के लिए ज्यामितीय आकारों (वर्ग, गोलाई एवं त्रिभुज) के साथ-साथ अक्षरों के अन्दर एवं मध्य के स्थान पर भी विशेष ध्यान दिया। ये अक्षर मोनुमैन्टल कैपिटल (रोमन कैपिटल) कहलाये, जिनमें अक्षरों के अन्तिम छोर पर सैरिफ बना हुआ है।

टार्जन कॉलम में पत्थर का खोदे गए रोमन कैपिटल्स


      रोमन कैपिटल्स लैटरस का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण रोम में स्थित टार्जन फोरम ( 114 ई . ) पर पत्थर में खोदे गये टार्जन कालम के अक्षर हैं जिनमें कुछ अक्षर वर्गाकार और कुछ अक्षर गोल हैं। वर्गाकार अक्षरों में क्षितिजीय रेखा (HORIGONTAL LINE) खड़ी रेखाओं (VERTICAL LINE) के साथ समकोणात्मक हैं। रोमन अक्षरों में सैरिफ (SERIFS) के निर्माण सम्बन्धी दो धारणायें हैं।-

 

(1) पत्थरों में अक्षरों को खोदते समय छैनी (Chisel) के निशान से सैरिफ बन गये।

 

(2) रोमन कैपिटल्स को पत्थर पर लिखते समय फ्लैट ब्रुश से इनका निर्माण जो अक्षर के अन्तिम छोर को मजबूती एवं सुन्दरता प्रदान करते थे। इन रोमन कैपिटल्स का प्रयोग सामान्यतः 5वीं सदी के अन्त तक पुस्तकों की लिखाई में किया जाता था। रोमनों ने ही अक्षरों को विभिन्न रूपों में डिजाइन किया जिनमें वर्गाकार कैपिटल का प्रयोग दूसरी सदी से पाँचवीं सदी तक किया गया। इन अक्षरों को भी फ्लैट पैन से लिखा जाता था। रोमन लिपि को 313 ई. में रोमन साम्राज्य की राज्य भाषा का दर्जा मिला जिसे आज विश्व के लगभग 50 प्रतिशत देशों द्वारा प्रयोग किया जाता है और इसने अन्तर्राष्ट्रीय लिपि का रूप ले लिया है। रोमन लिपि के आधुनिक 26 वर्ण – ABCDEFGHIJKLM NO P Q R S T UVWXYZ हैं।


 

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