बौद्धकाल की चित्रकला
(50 ई. से 700 ई. तक)
बौद्ध कला का उद्गम
ईसा से लगभग छ: शतक पूर्व की ओर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि धार्मिक दृष्टि से भारत बड़ी ही डावाँडोल स्थिति से गुजर रहा था, तो साहित्यिक दृष्टि से यह शिशुनाग वंश की स्थिति का समय था साहित्यिक दृष्टि से सूत्र ग्रन्थों एवं दर्शन की विभिन्न शाखाओं की भूमिका का निर्माणकाल और धार्मिक दृष्टि से जैन-बौद्धों के उदय का समय।
ब्राह्मण धर्म के अभ्युदय के लिये सूत्र ग्रन्थों ने वर्णाश्रम की व्यवस्था को अत्यन्त कठोर और जन-सामान्य की रुचि से इतना विषम बना दिया था कि ब्राह्मण धर्म की उन्नति की जगह अवनति हुई। ब्राह्मण धर्म की तत्कालीन पुरोहितवादी प्रवृत्ति के विरोध में ही जैन और बौद्ध धर्म उदित हुये, जिसका प्रतिनिधित्व हुआ 'महावीर स्वामी' और 'गौतम बुद्ध' द्वारा।
जैनों ने धार्मिक सुधार के कारण साहित्य के निर्माण पर जोर दिया और ताड़पत्र, भोजपत्र, कागज एवं कपड़े पर अनेकानेक पोथियों को लिखा। इनके बीच-बीच में उन्होंने सुन्दर चित्र भी चित्रित किये।
बौद्ध धर्म के अनुयायियों में, जो वर्ग व्यापारियों और धनिकों का था, उन्होंने अनेक कलापूर्ण भव्य 'स्तूपों' एवं 'विहारों' का निर्माण कराया, जिसके उदाहरण हमें पूरे भारतवर्ष में प्राप्त हैं। मध्यप्रदेश में 'साँची' और 'भरहुत', दक्षिण में 'अमरावती' और 'नागार्जुनकोंडा' तथा पश्चिम में 'कार्ले और भज' के चैत्यों एवं स्तूपों को इस प्रसंग से जोड़ा जा सकता है। भारत के उत्तर-पश्चिम में इसी बौद्ध कला के यूनान और रोम की कला शैलियों का सम्मिश्रण होने से गान्धार नामक एक नवीन शैली की उत्पत्ति हुई।
साँची और भरहुत के स्तूपों की गणना सबसे प्राचीन है। स्तूपों, चैत्यों और विहारों के अतिरिक्त बौद्ध कला की विरासत मंदिरों एवं काँस्य मूर्तियों में भी देखने को मिलती है। 'सारनाथ का सिंहस्तम्भ' तथा 'रामपुरवा का पाषाण निर्मित वृषभ' मौर्ययुगीन मूर्तिकला की श्रेष्ठ बौद्ध अभिव्यक्तियाँ हैं। 'पटखम और पटना' की यक्ष छवियाँ भी इसी कोटि की हैं। काँस्यमयी मूर्ति निर्माण की परम्परा आज भी हमें भरहुत, साँची, अमरावती और नागार्जुनकोंडा में मिलती है। 'तक्षशिला' से भी धातु की बौद्ध मूर्तियाँ मिली हैं।
इस प्रकार बुद्ध मूर्तियों का निर्माण गुप्त काल में व्यापक स्तर पर हुआ, जिसके साक्ष्य मथुरा, सारनाथ और बिहार में सुरक्षित हैं। 09वीं से 12वीं शताब्दी तक मृण्मयी तथा पाषाणमयी और काँस्यमयी मूर्तियों का निर्माण अत्यधिक हुआ। नालन्दा के मूर्ति निर्माण का रूप जावा, सुमात्रा, नेपाल, तिब्बत और वर्मा तक पहुँचा। बौद्ध काँस्य मूर्ति दक्षिण के तंजौर में भी उपलब्ध हुई है।
मूर्तिकला की अपेक्षा चित्रकला के क्षेत्र में बौद्ध कलाकारों का दूसरा ही दृष्टिकोण रहा। गुप्तकाल से पूर्व बौद्ध कला की परम्परा मूर्तिनिर्माण में सुरक्षित रहती आई थी और तदनन्तर वह स्थान चित्रकला ने ले लिया। प्रारम्भ में तो बौद्ध धर्म के अनुयायियों का दृष्टिकोण कला के प्रति अच्छा नहीं था। वे कला को विलासिता का द्योतक समझते रहे। यही कारण था कि प्राचीन बौद्ध विहारों में पुष्पालंकार को छोड़कर दूसरे विषयों पर चित्रकारी नहीं दिखाई देती।
कला के प्रति बौद्धों के इस दृष्टिकोण के बावजूद प्राचीन बौद्धग्रन्थों यथा जातक ग्रन्थों तथा महावंश आदि में चित्रकला के विषय में रुचिकर बातों का पता चलता है, जो अजन्ता, बाघ और नालन्दा की कलाकृतियों में देखा जा सकता है।
डॉ. मोती चन्द्र ने 'बौद्ध धर्म और चित्रकला' शीर्षक नामक लेख में यह लिखा है कि अशोककालीन स्तम्भशीर्षो, वेदिकासूत्रियों और स्तूपों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार में कला को माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया था।
'डॉ. मोती चन्द्र' के अनुसार 09वीं से 12वीं शताब्दी तक की बौद्ध चित्रकला के इतिहास में कुछ सचित्र बौद्ध ग्रन्थ हैं, जिनमें 'बौद्ध देवी-देवताओं' तथा 'बुद्ध के जीवन संबंधी' चित्र हैं। ये ग्रन्थ पाल-युगीन हैं, जिनके नाम हैं- 'अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता', 'पेन्जरक्षा' और 'महामयूरी गण्डव्यूह' आदि। ये ताड़पत्रीय ग्रन्थ और इनकी पटरियों पर की गई चित्रकारी उक्त शताब्दियों की महत्त्वपूर्ण कला आती है।
बौद्ध कला के प्रमुख केन्द्र
तिब्बती इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने बौद्ध चित्रकला की तीन प्रमुख शैलियों के विषय में लिखा है- 'देव शैली', 'यक्ष शैली' और 'नाग शैली।'
देव शैली :- यह शैली मध्य देशीय केन्द्र मगध में प्रचलित थी, जिसके संस्थापक 'आचार्य बिम्बसार' थे, जो पाँचवीं-छठी शताब्दी में जन्मे थे। इस केन्द्र में उच्चकोटि के कलाकार थे और उनकी शैली देव शैली के समान थी।
यक्ष शैली :- यह शैली सम्राट अशोक के काल में प्रचलित थी, जिसका केन्द्र राजपूताना था और इस केन्द्र के मुख्य चित्रकार 'आचार्य श्रृंगंधर' थे, जिनका जन्म मारवाड़ में सातवीं शताब्दी में हुआ था। इस केन्द्र के कलाकारों ने यक्ष शैली के आधार पर अपनी शैली का विकास किया।
नाग शैली :- यह शैली प्रसिद्ध 'आचार्य नागार्जुन' के समय तीसरी शताब्दी में रही। इसका केन्द्र बंगाल था, जिसका समय सातवीं शताब्दी था। इस केन्द्र के प्रमुख आचार्य 'धीमान' और उनका पुत्र 'वितपाल' हुए। इन्होंने नाग शैली को लेकर अपनी शैली का निर्माण किया।
इन तीन प्रमुख केन्द्रों के अतिरिक्त कश्मीर, नेपाल, बर्मा और दक्षिण भारत आदि में बौद्ध चित्रकला के अनेक केन्द्र थे, जिनका समय छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी था।
भित्ति चित्रण परम्परा
भारत में बौद्ध कला की महान विरासत भित्ति चित्रों के रूप में सुरक्षित है। इन भित्ति चित्रों का विस्तार भारत में सर्वत्र मिलता है। इस कलात्मक धरोहर की लोकप्रियता भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा मध्य एशिया के अनेक देशों तक पहुँची।
बौद्ध कला की इस महान् थाती का समृद्ध केन्द्र 'अजन्ता' है, जो महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं पर आधारित है। इन चित्रावलियों में इस काल की आरम्भिक और अन्तिम, दोनों चरणों की कला दिखाई पड़ती है। श्रीलंका में 'सिगिरिया की गुफाओं' में भी इस कला शैली का परिपक्व रूप दिखाई पड़ता है। भारत में 'बाघ', 'बादामी', 'सित्तन्नवासल' के चित्रों में अजन्ता के चित्रों की छाप है।
इस प्रकार बौद्धकला की सर्वोत्तम चित्राकृतियाँ अजन्ता में देखने को मिलती हैं, जिनकी विशेषताएँ संसार भर में प्रचलित हैं। विभिन्न विद्वानों ने अजन्ता की कला का अध्ययन कर उसे विश्व की कलाकृतियों के संदर्भ में देखा है और अनेक निष्कर्ष निकाले हैं। चित्रों का मुख्य विषय 'बुद्ध का वास्तविक जीवन' तथा उनके पूर्व जन्म की कथाओं (जातक) का चित्रण है।
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