बउआ रे हरिआईल रह
सतुआनी यानी कि सत्तू खाने का विशेष दिन। बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश सहित लगभग लगे हुए ग्रामीण भारत का एक मुख्य भोजन। हालांकि बदलते दौर में लोगों की थाली से यह लगभग विस्मृत होता जा रहा है।
इस सत्तू से कई यादें जुड़ी हुई हैं। बचपन में जब अपने पैतृक गाँव कल्याणपुर आता था तो घर में पहले से ही मामा (हमारे इलाके में दादी को अधिकांशतः यही कहकर बुलाते थे) सत्तू बनाकर रखती थी। कभी घोर कर (शर्बत जैसा) तो कभी सौन (गूंथ) कर। सत्तू के दोनों ही रूपों का अद्वितीय स्वाद होता था। घुले हुए सत्तू में प्याज नमक मिर्च भुना हुआ जीरा पाउडर और न जाने क्या क्या तथा गुंथे हुए सत्तू के साथ भी प्याज नमक हरी मिर्च वगैरह मिला होता था। मैं पूछता इसमें मिर्ची क्यों मिलाते हैं तो मामा मुस्करा कर कहती कि नूनू रे "हरियाईल रह जुड़ाईल रह" उस समय इस वाक्य की गहराई का पता तक न था। गर्मी की सुबह में तो सत्तू का शर्बत नास्ता के वक़्त बिल्कुल तय होता था। दिन में भी बाबूजी के द्वारा गुंथा हुआ सत्तू जी भरकर खाया जाता था। बाबू जी के हाथों गुंथा हुआ सत्तू घर ही नहीं पूरे कुटुम्ब में लोग बड़े चाव से खाते थे। ग़मछे पर बिना बर्तन के ही सत्तू गूँथने की उनकी कला अद्वितीय थी। कभी-कभी सुबह सत्तू खाकर ही बाहर खेलने निकल जाने के बाद माँ और मामा ढूंढते सबसे कहती पूछती थी कि बउआ भोरे से खली सतुए पर है हालांकि आज भी दिनभर माँ यही रट्टा मारे रहती हैं।
घर से आखिरी बार छुट्टियों के बाद आते वक़्त पहले की तरह माँ ने घर में रखा हुआ सारा सत्तू दे दिया। यहां कई लोगों के साथ इसे साझा किया। लगा कि यह सत्तू मात्र नहीं वरन अपनी माटी का सुख सन्देशा था।
आज फ़िर से प्रकृति के स्वागत उसके प्रति आस्था व्यक्त करने का पर्व सतुआनी है। सत्तू की थाली सामने है, यादों का मेला सिनेमा के रील सा जीवंत हो रहा है। बाबू जी बहुत याद आने लगे। लगा कि माँ और मामा के संग बाबू जी भी कह रहे हों "बउआ रे हरियाईल रह जुड़ाईल रह"
साभार:- सोशल मीडिया
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