"सुप्त संवेदनायें"
जलते🔥 हुए चूल्हे पर अचानक ही अनजाने में जा गिरा आँचल और उसे संभालती सास-ननदिया उसे जैसे बहुत कुछ याद करा गईं।
बचपन में गुड़िया का ब्याह रचाते समय चुपके से माँ की गोटा लगी लाल साड़ी चुरा कर लाना उसे आज भी याद है। जाने कितनी बार माँ की रंग बिरंगी साड़ियां और हाथों में भर-भर चूड़ियाँ पहन इतराते हुये बाग में सखियों संग सावन के झूले, झूलते हुए कब वह बड़ी हो गयी पता ही न चला।
विवाह के पश्चात जब दिन रात नित्य ही मजबूरी में साड़ी पहननी पड़ी तब वही शौक उसे सज़ा का एहसास कराने लगा। सबकी संवेदनाओं का ध्यान रखते समय कब उसकी स्वयं की अभिलाषायें सुप्त सी हो गयीं उसे स्वयं ही पता न चला।
साड़ी लपेटते समय उसकी एक-एक प्लेट उसे जैसे याद दिलाती प्रतीत हो रही थी उसका एक-एक बीता हुआ पल जब वह बहुत करीने से साड़ी पिन से बांध कर उन्हें बिल्कुल भी हिलने न देती थी और आज हाल यह है कि साड़ी कहीं और पल्ला कहीं और। ध्यान है तो बस चूल्हे पर चढ़ी सब्जी पर या उबलते दूध पर। साथ ही सर पर टिके पल्ले पर कि कहीं वह सरक कर किसी को अपनी इज्जत कम होंने का एहसास न करा जाये।
उलझनें थीं कि शान्त होंने का नाम ही न लेती थीं। तभी मन में दृढ़ निश्चय कर के उसने लहराता हुआ सिर का पल्ला हटा कर लपेट कर कमर में खोंस लिया और सोई हुई संवेदनाओं को जगा कर ऐप्रेन पहन सुरक्षित तरीके से काम करने लगी।
नारी की साड़ी में लिपटी उसकी संवेदनायें आज मुखर हो मुस्कुरा रहीं थीं।
साभार:- सोशल मीडिया
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें