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May Day is a public holiday, in some regions, usually celebrated on 1st May or the first Monday of May. It is an ancient festival marking the first day of summer, and a current traditional spring holiday in many European cultures. May Day, also called Workers' Day or International Workers' Day, day commemorating the historic struggles and gains made by workers and the labour movement.
मजदूर दिवस (एक मई)
मई दिवस एक सार्वजनिक अवकाश है, कुछ क्षेत्रों में, आमतौर पर एक मई या मई के पहले सोमवार को मनाया जाता है। यह एक प्राचीन त्योहार है जो गर्मियों के पहले दिन को चिह्नित करता है, और कई यूरोपीय संस्कृतियों में वर्तमान पारंपरिक वसंत अवकाश है। मई दिवस, जिसे श्रमिक दिवस या अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस भी कहा जाता है, इसे श्रमिकों और श्रमिक आंदोलन द्वारा किए गए ऐतिहासिक संघर्षों और लाभों की स्मृति में मनाया जाता है।
ईसा से लगभग छ: शतक पूर्व की ओर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि धार्मिक दृष्टि से भारत बड़ी ही डावाँडोल स्थिति से गुजर रहा था, तो साहित्यिक दृष्टि से यह शिशुनाग वंश की स्थिति का समय था साहित्यिक दृष्टि से सूत्र ग्रन्थों एवं दर्शन की विभिन्न शाखाओं की भूमिका का निर्माणकाल और धार्मिक दृष्टि से जैन-बौद्धों के उदय का समय।
ब्राह्मण धर्म के अभ्युदय के लिये सूत्र ग्रन्थों ने वर्णाश्रम की व्यवस्था को अत्यन्त कठोर और जन-सामान्य की रुचि से इतना विषम बना दिया था कि ब्राह्मण धर्म की उन्नति की जगह अवनति हुई। ब्राह्मण धर्म की तत्कालीन पुरोहितवादी प्रवृत्ति के विरोध में ही जैन और बौद्ध धर्म उदित हुये, जिसका प्रतिनिधित्व हुआ 'महावीर स्वामी' और 'गौतम बुद्ध' द्वारा।
जैनों ने धार्मिक सुधार के कारण साहित्य के निर्माण पर जोर दिया और ताड़पत्र, भोजपत्र, कागज एवं कपड़े पर अनेकानेक पोथियों को लिखा। इनके बीच-बीच में उन्होंने सुन्दर चित्र भी चित्रित किये।
बौद्ध धर्म के अनुयायियों में, जो वर्ग व्यापारियों और धनिकों का था, उन्होंने अनेक कलापूर्ण भव्य 'स्तूपों' एवं 'विहारों' का निर्माण कराया, जिसके उदाहरण हमें पूरे भारतवर्ष में प्राप्त हैं। मध्यप्रदेश में 'साँची' और 'भरहुत', दक्षिण में 'अमरावती' और 'नागार्जुनकोंडा' तथा पश्चिम में 'कार्ले और भज' के चैत्यों एवं स्तूपों को इस प्रसंग से जोड़ा जा सकता है। भारत के उत्तर-पश्चिम में इसी बौद्ध कला के यूनान और रोम की कला शैलियों का सम्मिश्रण होने से गान्धार नामक एक नवीन शैली की उत्पत्ति हुई।
साँची और भरहुत के स्तूपों की गणना सबसे प्राचीन है। स्तूपों, चैत्यों और विहारों के अतिरिक्त बौद्ध कला की विरासत मंदिरों एवं काँस्य मूर्तियों में भी देखने को मिलती है। 'सारनाथ का सिंहस्तम्भ' तथा 'रामपुरवा का पाषाण निर्मित वृषभ' मौर्ययुगीन मूर्तिकला की श्रेष्ठ बौद्ध अभिव्यक्तियाँ हैं। 'पटखम और पटना' की यक्ष छवियाँ भी इसी कोटि की हैं। काँस्यमयी मूर्ति निर्माण की परम्परा आज भी हमें भरहुत, साँची, अमरावती और नागार्जुनकोंडा में मिलती है। 'तक्षशिला' से भी धातु की बौद्ध मूर्तियाँ मिली हैं।
इस प्रकार बुद्ध मूर्तियों का निर्माण गुप्त काल में व्यापक स्तर पर हुआ, जिसके साक्ष्य मथुरा, सारनाथ और बिहार में सुरक्षित हैं। 09वीं से 12वीं शताब्दी तक मृण्मयी तथा पाषाणमयी और काँस्यमयी मूर्तियों का निर्माण अत्यधिक हुआ। नालन्दा के मूर्ति निर्माण का रूप जावा, सुमात्रा, नेपाल, तिब्बत और वर्मा तक पहुँचा। बौद्ध काँस्य मूर्ति दक्षिण के तंजौर में भी उपलब्ध हुई है।
मूर्तिकला की अपेक्षा चित्रकला के क्षेत्र में बौद्ध कलाकारों का दूसरा ही दृष्टिकोण रहा। गुप्तकाल से पूर्व बौद्ध कला की परम्परा मूर्तिनिर्माण में सुरक्षित रहती आई थी और तदनन्तर वह स्थान चित्रकला ने ले लिया। प्रारम्भ में तो बौद्ध धर्म के अनुयायियों का दृष्टिकोण कला के प्रति अच्छा नहीं था। वे कला को विलासिता का द्योतक समझते रहे। यही कारण था कि प्राचीन बौद्ध विहारों में पुष्पालंकार को छोड़कर दूसरे विषयों पर चित्रकारी नहीं दिखाई देती।
कला के प्रति बौद्धों के इस दृष्टिकोण के बावजूद प्राचीन बौद्धग्रन्थों यथा जातक ग्रन्थों तथा महावंश आदि में चित्रकला के विषय में रुचिकर बातों का पता चलता है, जो अजन्ता, बाघ और नालन्दा की कलाकृतियों में देखा जा सकता है।
डॉ. मोती चन्द्र ने 'बौद्ध धर्म और चित्रकला' शीर्षक नामक लेख में यह लिखा है कि अशोककालीन स्तम्भशीर्षो, वेदिकासूत्रियों और स्तूपों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार में कला को माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया था।
'डॉ. मोती चन्द्र' के अनुसार 09वीं से 12वीं शताब्दी तक की बौद्ध चित्रकला के इतिहास में कुछ सचित्र बौद्ध ग्रन्थ हैं, जिनमें 'बौद्ध देवी-देवताओं' तथा 'बुद्ध के जीवन संबंधी' चित्र हैं। ये ग्रन्थ पाल-युगीन हैं, जिनके नाम हैं- 'अष्टसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता', 'पेन्जरक्षा' और 'महामयूरी गण्डव्यूह' आदि। ये ताड़पत्रीय ग्रन्थ और इनकी पटरियों पर की गई चित्रकारी उक्त शताब्दियों की महत्त्वपूर्ण कला आती है।
बौद्ध कला के प्रमुख केन्द्र
तिब्बती इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने बौद्ध चित्रकला की तीन प्रमुख शैलियों के विषय में लिखा है- 'देव शैली', 'यक्ष शैली' और 'नाग शैली।'
देव शैली :- यह शैली मध्य देशीय केन्द्र मगध में प्रचलित थी, जिसके संस्थापक 'आचार्य बिम्बसार' थे, जो पाँचवीं-छठी शताब्दी में जन्मे थे। इस केन्द्र में उच्चकोटि के कलाकार थे और उनकी शैली देव शैली के समान थी।
यक्ष शैली :- यह शैली सम्राट अशोक के काल में प्रचलित थी, जिसका केन्द्र राजपूताना था और इस केन्द्र के मुख्य चित्रकार 'आचार्य श्रृंगंधर' थे, जिनका जन्म मारवाड़ में सातवीं शताब्दी में हुआ था। इस केन्द्र के कलाकारों ने यक्ष शैली के आधार पर अपनी शैली का विकास किया।
नाग शैली :- यह शैली प्रसिद्ध 'आचार्य नागार्जुन' के समय तीसरी शताब्दी में रही। इसका केन्द्र बंगाल था, जिसका समय सातवीं शताब्दी था। इस केन्द्र के प्रमुख आचार्य 'धीमान' और उनका पुत्र 'वितपाल' हुए। इन्होंने नाग शैली को लेकर अपनी शैली का निर्माण किया।
इन तीन प्रमुख केन्द्रों के अतिरिक्त कश्मीर, नेपाल, बर्मा और दक्षिण भारत आदि में बौद्ध चित्रकला के अनेक केन्द्र थे, जिनका समय छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी था।
भित्ति चित्रण परम्परा
भारत में बौद्ध कला की महान विरासत भित्ति चित्रों के रूप में सुरक्षित है। इन भित्ति चित्रों का विस्तार भारत में सर्वत्र मिलता है। इस कलात्मक धरोहर की लोकप्रियता भारत के उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तथा मध्य एशिया के अनेक देशों तक पहुँची।
बौद्ध कला की इस महान् थाती का समृद्ध केन्द्र 'अजन्ता' है, जो महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं पर आधारित है। इन चित्रावलियों में इस काल की आरम्भिक और अन्तिम, दोनों चरणों की कला दिखाई पड़ती है। श्रीलंका में 'सिगिरिया की गुफाओं' में भी इस कला शैली का परिपक्व रूप दिखाई पड़ता है। भारत में 'बाघ', 'बादामी', 'सित्तन्नवासल' के चित्रों में अजन्ता के चित्रों की छाप है।
इस प्रकार बौद्धकला की सर्वोत्तम चित्राकृतियाँ अजन्ता में देखने को मिलती हैं, जिनकी विशेषताएँ संसार भर में प्रचलित हैं। विभिन्न विद्वानों ने अजन्ता की कला का अध्ययन कर उसे विश्व की कलाकृतियों के संदर्भ में देखा है और अनेक निष्कर्ष निकाले हैं। चित्रों का मुख्य विषय 'बुद्ध का वास्तविक जीवन' तथा उनके पूर्व जन्म की कथाओं (जातक) का चित्रण है।
जयपुर के 'राजा जयसिंह प्रथम' की सभा के विख्यात विद्वान राजपुरोहित 'पण्डित यशोधरा' ने 11 वीं शताब्दी में कामसूत्र की टीका, 'जयमंगला' नाम से प्रस्तुत की। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधरा ने आलेख्य (चित्रकला) के छ: अंग बताये हैं।
इसी प्रकार 'श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर' ने कला पुनर्जागरण हेतु चित्र सृजन के अतिरिक्त प्राचीन कला साहित्य की ओर भी कला मनीषियों का ध्यान आकृष्ट किया। इसी धुन में उन्होंने 'इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट' के प्रकाशन के योजनान्तर्गत 'षडांग' (सिक्स लिम्बस् ऑफ पेंटिंग्स) Six Limbs of Paintings नामक पुस्तिका का प्रकाशन सन् 1921 में कराया। उनकी इस पुस्तिका का आधार कामसूत्र में वर्णित 64 कलाओं में चौथे स्थान पर 'आलेख्यम' चित्रकला के संदर्भ में यशोधारा पंडित की कामसूत्र वाली टीका 'जयमंगला' (11 वीं-12 वीं) वाला यह श्लोक है:-
रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्य योजनम्।
सादृश्यं वर्णिका भंग इति चित्र षडंग: कम् ॥
इसमें चित्रकला के छः (06) अंग बताये हैं , जो निम्न हैं:-
(1) रूपभेदा : दृष्टि का ज्ञान
A Knowledge of Appearances
(2) प्रमाण : ठीक अनुपात, नाप तथा बनावट
A Correct Perception, Measure and Structure of Forms.
(3) भाव : आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे।
The Action of Feelings on Forms.
(4) लावण्य योजना : कलात्मक तथा सौंदर्य का समावेश
Infusion of Grace, Artistic Representation
(5) सादृश्य : देखे हुए रूपों की समान आकृति
Similitudes
(6) वर्णिकाभंग : रंगों तथा तूलिका के प्रयोग में कलात्मकता :
Artistic Manner in Using the Brush and Colours
(1) रूपभेद : कलाकार के चित्रभूमि पर अंकन प्रारम्भ करते ही रूप का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है और रूप सृजन के साथ ही चित्रभूमि सक्रिय हो जाती है। प्रत्येक आकृति में ऐसी भिन्नता या चारित्रिक विशेषता प्रदर्शित होनी चाहिये, जिससे अमुक आकृति को पहचाना जा सके, यानि माता के रूप से माता और छाया के रूप में छाया का आभास हो, तब ही रूप रचना सार्थक और सत्यता लिये होगी। रूप का साक्षात्कार आत्मा तथा आँखों दोनों द्वारा किया जा सकता है। चक्षुओं के द्वारा हम किसी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई, छोटापन, मोटापन, पतलापन, सफेद या कालेपन का ज्ञान प्राप्त करते हैं, किन्तु उस वस्तु में निहित व्यापक सौन्दर्य को हम आत्मा के द्वारा ग्रहण कर सकते हैं। सर्वप्रथम नेत्रों का संबंध रूप से होता है, फिर धीरे-धीरे हम उसे आत्मा द्वारा ग्रहण कर लेते हैं। यह वस्तु छोटी है, यह बड़ी है। यह एक कोण है, यह नाना कोण है। यह कठिन है, यह कोमल है। इस प्रकार हम एक वस्तु की दूसरी वस्तु से तुलना कर अपनी आँखों द्वारा उनके रूपभेद को समझने लगते हैं।
किसी भी कलाकृति के बाह्यभ्यन्तर की परीक्षा हम उस वस्तु को देखकर करें या मस्तिष्क के द्वारा करें, दोनों दशाओं में हमारे अन्दर रुचि का होना आवश्यक है। जिस समय हम किसी वस्तु को देखते हैं और उसमें निहित रुचि हमारे भीतर की रुचि से मिल जाती है, तभी हम उस कृति की वास्तविक सुन्दरता या असुन्दरता का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार किसी भी कलाकृति में रूप एवं रेखा, जितनी स्पष्ट, स्वाभाविक और सुन्दर होगी, चित्र उतना ही उत्कृष्ट होगा।
अजन्ता के 'माता-पुत्र' वाला चित्र या 'पद्मपाणि बोधिसत्व' वाले भगवान बुद्ध का विशाल रूपांकन 'रूपभेद' का सार्थक उदाहरण है। इसी प्रकार राजस्थानी चित्रों में 'कृष्णलीला विषयक' एवं मुगल चित्रों के 'दरबार दृश्यों में शहंशाह की शबीह' रूप के भेद को दर्शाती है, अतः रूप का निर्माण तथा चित्र में विभिन्न रूपों का नन्दतिक संयोजन तभी संभव है, जब चित्रकार रूप, अर्थ एवं रूप भेद में पारंगत हो। इस प्रकार रूपभेदों में अनभिज्ञ होने के कारण चित्रों की वास्तविकता को नहीं आँका जा सकता।
(2) प्रमाण : इसका अर्थ आकृतियों का ठीक ज्ञान। इसे सम्बद्धता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह आकृतियों का माप या फैलाव तथा सभी आकृतियों का एक दूसरे से संबंध और आकृतियों के तान तथा वर्ण इत्यादि का चित्र-भूमि से संबंध निश्चित करता हैं।
प्रमाण चित्र विद्या का वह अंग है, जिसके द्वारा हम प्रत्येक चित्र का मान निर्धारित कर सकते हैं। मूलवस्तु की यथार्थता का ज्ञान उसमें भर सकें। इसीलिये प्रत्येक कलाकार में पर्याप्त प्रमाण-शक्ति का होना आवश्यक है, तभी वह अपनी कृति में चित्रकला के इस विशेष गुण का सन्निवेश कर सकता है।
अनुपात के लिये उचित ज्ञान को 'प्रमा' के नाम से संबोधित भी किया गया है। यह प्रमा हमारे अन्तःकरण का ऐसा मापदण्ड है, जिससे हम सीमित और अनन्त दोनों प्रकार की वस्तुओं को नाप सकते हैं। प्रमा से केवल समीप या दूरी का ही बोध नहीं होता, अपितु किस वस्तु को कितना दिखाने से वह अधिक मनोहारी लग सकती है, इसका भी वह निश्चय करता है। उदाहरण के लिये ताजमहल अपने बहुमूल्य होने के कारण सुन्दर नहीं है, बल्कि उसकी परिमिति ने ही उसको श्रेष्ठ एवं सुन्दर बनाया है।
प्रमा द्वारा ही हम, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की भिन्नता और उनके विभिन्न भेदों को ग्रहण कर सकते हैं। पुरुष और स्त्री की लम्बाई में क्या भेद होना चाहिये, उनके समस्त अवयवों का समावेश किस क्रम में होना चाहिये अथवा देवताओं और मनुष्यों के चित्रों में कद का क्या मान है- यह प्रमा वाले प्रमाण के द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता है। भीमकाय आकृति शक्ति का प्रदर्शन तो करती है, लेकिन सौन्दर्य प्रदान नहीं करती। 'रावण का वृहद तथा अतिशय प्रमाण वाला रूप', 'श्री राम के सौम्य व उचित प्रमाण वाले रूप' के सामने कलात्मक आधार पर फीका लगता है।
चित्राचार्यों ने प्रमाण के आधार पर पाँच प्रकार के रूपों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-
(1) मानव दस ताल : (पांडव, राम, कृष्ण, शिव आदि)
(2) भयानक बारह ताल : (भैरव, वराह)
(3) राक्षस सोलह ताल : (कंस, रावण)
(4) कुमार आठ ताल : (वामन)
(5) बाल पाँच ताल : (बाल-गोपाल)
भारतीय कला मनीषियों ने प्रमाण को ताल, कार्यप्रमाण अथवा मनोत्पत्ति के नाम से भी संबोधित किया है। उदाहरण के लिये अपभ्रंश चित्रों में पशु-पक्षियों एवं पेड़ों के आलेखन में मनोत्पत्ति का अभाव होने से नीरस लगते हैं, क्योंकि सम्बद्धता के सिद्धान्त के आधार पर वे आलेखन से अलग-थलग अभिव्यंजक होते हुए भी अरुचिकर हैं। अतः एक चित्रकार के लिये उचित प्रमाण के व्यवहार हेतु अपनी प्रमा शक्ति का अबाध विकास करना अति आवश्यक है।
(3) भाव : चित्र में रूप के प्रामाणिक होने के साथ-साथ उसमें भावयुक्त सौन्दर्य भी होना चाहिये। भाव कहते हैं- आकृति की भंगिमा को, उसके स्वभाव, मनोभाव और उसकी व्यंग्यात्मक प्रक्रिया को। इसे आँखों से भी पकड़ा जा सकता है, जैसे - आकृति की भंगिमाओं से, जैसे नये फूल, हरे पत्ते, झुके वृक्ष, गाल पर हाथ रखकर बैठना, आँखों पर आँचल डालकर रोने आदि से।
भारतीय दर्शनशास्त्र और काव्यशास्त्र में भावों की महत्ता पर बहुत ही बारीकी एवं विस्तार से विचार किया गया है। शरीर और इंद्रिय, सभी में विकार की स्थिति पैदा करना भाव का कार्य है। विभावजनित चित्रवृत्ति का नाम भाव है। निर्विकार चित्र में प्रथम विक्रया को उत्पत्ति भाव के द्वारा ही होती है। उदाहरण के लिये एक योगी, योग से विचारों को शुद्ध करके अपनी आत्मा से संबंध स्थापित करता है तथा चित्रकार भी अपने मानस के रूप रचकर पर उसे रेखांकित भी करता है। आँखों का चितवन, भंगिमा, हस्तमुद्राओं तथा वर्ण एवं संयोजन शैली में भाव की एक सहज अभिव्यंजना संभव हो जाती है। 'अण्डाकार चेहरा' सात्विकता का भाव प्रदान करता है जबकि 'पान के पत्तों वाला चेहरा' चंचलता का झोतक है। इसी प्रकार मीनाक्षी, चंचलता, मृगाक्षी, सरलता व निरपराधिता, पटोलाक्षी, सात्विकता व शान्ति और खंजनाक्षी प्रसन्नता आदि भावों का प्रदर्शन करती है।
जिस प्रकार समभंग सौम्यता का परिचायक है, वहाँ अन्य भंगिमाएँ (त्रिभंग, अभंग और अतिभंग) क्रियाशीलता व प्रखरता का द्योतक है। इस प्रकार चित्र में भावभंगिमा दर्शाना तो सरल है पर व्यंग्य देना सरल नहीं। उदाहरण के लिये भिखारी को दिखाना हो, तो उसका पुराना कटोरा दिखाने से आशय पूर्ण नहीं होता, अतः व्यंग्य से दुर्बल फटेहाल भिखारी एवं टूटे - फूटे पात्र का अंकन भी करना होगा। भाव की ऐसी समस्या का समाधान व्यंजनाशक्ति से किया जाता है। ऐसी दशा में कलाकार चित्र की पृष्ठभूमि में ऐसे प्रतीकों का, या सहायक रूपों का संयोजन करता है, जिससे अभीष्ट भाव का उदय हो।
भाव व रस की प्रधानता के कारण ही राजस्थानी चित्रशैलियाँ आज संसार में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं, क्योंकि सच ही कहा गया है कि रस से परमानन्द की प्राप्ति होती है। (रसो वैसः) यही भारतीय चित्र की आत्मा है, सौन्दर्य है।
इस प्रकार चित्रकला में भावाभिव्यंजना को बड़ा महत्त्व दिया गया है। भिन्न भावों की अभिव्यंजना से शरीर में भिन्न-भिन्न विचारों का जन्म होता है और भाव एक मानसिक प्रक्रिया भी है। मन में जिस रस का जो भाव पैदा होता है, उसी के अनुसार शरीर में भी परिवर्तन के लक्षण प्रकट होते हैं।
भावाभिव्यंजना के दो रूप हैं- 'प्रकट' और 'प्रच्छन्न', प्रकट भाव रूप को हम आँखों से प्रकट कर सकते हैं, किन्तु उसके प्रच्छन्न स्वरूप को व्यंजना के द्वारा अनुभव कर सकते हैं। बसन्त में नये फूलों में उसकी सजीव भावभंगिमा में, समुद्र के ताण्डव गर्जन में, गालों पर हाथ रखकर बैठने में, आँखों पर आँचल डाल कर रोने से अस्त-व्यस्त वेष के धारण करने से, पलकों के झुके अधरों में कंपन और हाथ में हाथ रखने पर जो भाव प्रकट होते हैं, उन्हें हम आंखों में देख सकते हैं।
(4) लावण्य योजना :- लावण्य कहते हैं 'रूपपरिमिति' को। रूप, प्रमाण और भाव होने के साथ-साथ चित्र में लावण्य होना भी परम आवश्यक है। प्रमाण जिस प्रकार रूप को ठीक परिमिति देता है, वैसे ही लावण्य भी परिमिति देता है, उत्कर्षता प्रदान करता है। जिस प्रकार भाव आभ्यन्तर सौन्दर्य का बोधक है, लावण्य बाह्य सौन्दर्य का अभिव्यंजक चित्र में अलंकृति का समावेश लावण्य की बाह्य योजना द्वारा संभव है। इससे चित्र में कान्ति और छाया का सुन्दर समावेश होता है और चित्र को नयनाभिराम एवं प्राणवान बनाया जाता है। जिस प्रकार रुचि रूप को दीप्ति देती है, उसी प्रकार लावण्य भाव को दीप्ति देता है। यह भोजन में नमक की भाँति सदैव रूप में निहित रहता है। लावण्य चित्र में सबसे अधिक कार्य करता है, लेकिन उसका आडम्बर सबसे कम होता है। 'रूप गोस्वामी' ने मोती की तरलता की भाँति अंगों को शोभित करने वाले गुण को लावण्य कहा है।
लावण्य योजना, भाव का अवरोधक न होकर, उसकी सौन्दर्यानुभूति एवं कान्ति को बढ़ाता है। प्रमाण और रूप की समुचित योजना के बावजूद लावण्य किए बिना चित्र में सुन्दरता की अभिव्यंजना हो नहीं सकती। लावण्य तो मानों कसौटी पर सोने की रेखा है अथवा पहनने की साड़ी पर सुनहरी किनारी। इस प्रकार रेखा व रंग जब आकृति में स्वयं ही जीवित हो उठे, तो लावण्य की आभा एक मनुहार बन जाती है।
मुत्ताफलेपुच्छायायास्तर लत्वमिवान्तरा।
प्रतिभाति यंदगेषु तल्लावण्य मिहोच्यते॥
-उज्ज्वलनील मणि
'अवनीन्द्रनाथ ठाकुर' की लावण्य की यह व्याख्या 'रूप गोस्वामी' के अनुरूप नहीं है। शरीर के अंगों की निर्मलता में सौन्दर्य की झलक को ही लावण्य कहा है। शोभाकान्ति, दीप्ति आदि इसी के अन्य भेद हैं, जो अंगों की ठीक बनावट, अस्थियों तथा सन्धियों के उचित सन्निवेश और शरीर में 'काम' (मन्मथ) के समावेश से उत्पन्न लज्जा की लालिमा आदि से संबंधित हैं।
(5) सादृश्य :- किसी मूल वस्तु, पदार्थ या भाव के साथ उसकी प्रतिकृति की समानता को दर्शाने का नाम ही सादृश्य है और किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप की सहायता से प्रकट कर देना ही सादृश्य का कार्य है। चित्र सत्य पर या कल्पना पर आधारित हो। चित्रित व्यक्ति या आकृति को दर्शक यदि तुरन्त पहचान जाये, तो सादृश्य सही माना जाता है। उदाहरण के लिये यदि हम कृष्ण या बुद्ध का चित्र अंकित करना चाहें, तो हमें उनकी चारित्रिक विशेषताओं पर ध्यान देना होगा। कृष्ण को बाँसुरी व मोरमुकुट के साथ, तो गौतम बुद्ध को कटे केश, हाथ की मुद्रा अहिंसा का संदेश देती हुई तथा भिक्षा पात्र लिये अंकित करना होगा।
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप में प्रकट कर देना सादृश्यता उत्पन्न करना माना है। यदि एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भाव उत्पन्न होता है या भिन्नता होते हुए भी यदि दोनों वस्तुओं में समानता है, तो उनका अपना-अपना स्वभाव है। लहरदार आकृति की समानता होने के कारण वेणी से सर्प सादृश्य किया गया है, परन्तु ये दोनों भिन्न हैं, क्योंकि सर्प का धर्म है जमीन पर सरकना और वेणी का धर्म है सिर से लटकना यदि जमीन पर वेणी पड़ी हो तो उसका धर्म सर्प का भय दिखाना नहीं। सादृश्य तभी सही व सच्चे रूप में होगा, जब जहाँगीर के चित्र को दर्शक जहाँगीर का ही कहें, औरंगजेब का नहीं।
'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के अन्तर्गत 'चित्रसूत्र' नामक अध्याय में सादृश्य को प्रमुख वस्तु माना गया है।
'चित्र सादृश्यकरणम् प्रधानं परिकीर्तितम्'
(चित्रसूत्र)
(6) वर्णिका भंग :- नाना वर्णों की सम्मिलित भंगिमा को 'वर्णिका भंग' कहते हैं। वर्ण ज्ञान और वर्णिका क्योंकि पडंग साधना की सबसे अधिक कठोर साधना है। किस स्थान पर किस रंग का प्रयोग करना चाहिये तथा किस रंग के समीप किसका संयोजन होना चाहिये, ये सभी बातें वर्णिका भंग के द्वारा ही जानी जा सकती है। रंगों के भेद-भाव से ही हम वस्तुओं की विभिन्नता व्यक्त करने में समर्थ हो सकते हैं।
चित्र षडंगों में वर्णिका भंग का स्थान सबसे बाद में इसीलिये रखा गया है, क्योंकि षडंग साधना का चरम बिन्दु है। शेष पाँचों अंगों की सिद्धि हम कागज पर बिना एक भी रेखा खोंचे केवल मन और दृष्टि के गम्भीर चिन्तन के द्वारा भी कर सकते हैं, किन्तु वर्णिका भंग के ज्ञान के लिये हमें तूलिका लेकर दीर्घ अभ्यास करना पड़ेगा या यूँ कहिए कि वर्ण ज्ञान के बिना शेष पाँच अंगों की साधना का हमारा सारा प्रयास ही व्यर्थ है।
इसीलिये महादेव पार्वती से कह रहे हैं:-
वर्ण ज्ञानं यदा नास्ति किं तस्य जप पूजनैः
यद्यपि प्रमुख वर्ण पाँच प्रकार के माने गये हैं, किन्तु इनके सम्मिश्रण से सैकड़ों उपवर्णों की सृष्टि होती है। वातावरण में पाये जाने वाले पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, वृक्ष, लता आदि विभिन्न प्रकार के चित्रों में रंगों का उचित प्रयोग होना चाहिये और यह चित्रकार के लिये जानना जरूरी है और इसका ज्ञान वर्णिका भंग की साधना के अभ्यास से ही संभव है। कलाकार के लिये रंग का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं, उसके रूप एवं तत्त्व को भी जानना होगा। उदाहरण के लिये फूलों को केवल रंगों द्वारा ही नहीं, अपितु उसके सौरभ को भी दिखाना होगा। इसी प्रकार सूर्य की किरणों का रंग दिखा देना ही पर्याप्त न होगा। उसमें सुबह, दोपहर और संध्या के समय उसका उत्ताप कैसा होता है, यह दिखाना भी आवश्यक होगा। वर्ण ज्ञान का यही आशय है और इसीलिये वर्णिका भंग चित्र के षडंगों में सबसे कठिन साधना होती हैं।
उदाहरण के लिये- मुगल चित्रों में 'परदाज', अजन्ता भित्ति चित्रों की 'चित्रभूमि' ,'प्रविधि' और 'उड़ीसा के ताड़पत्रों का लेखन' इत्यादि के लिये अत्यधिक कौशल की आवश्यकता होती है। इसीलिये मुगल तथा राजस्थानी चित्रों की प्रतिकृतियाँ करने के लिये नौसिखिए चित्रकारों को आज भी परम्परागत शैली में प्रवीण करने के लिये उन्हें वसली की तैयारी के माध्यम से प्राथमिक ज्ञान दिया जाता है।
International Dance Day is a global celebration of dance, created by the Dance Committee of the International Theatre Institute, (ITI) the main partner for the performing arts of UNESCO. The event takes place every year on 29 April, which is the Anniversary of the birth of Jean-Georges Noverre, the creator of Modern Ballet.
अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस
अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस नृत्य का एक वैश्विक उत्सव है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान International Theatre Institute, (ITI)की नृत्य समिति द्वारा बनाया गया है, जो यूनेस्को की प्रदर्शन कलाओं का मुख्य भागीदार है। यह आयोजन हर साल 29 अप्रैल को होता है, जो आधुनिक बैले के निर्माता जीन-जॉर्जेस नोवरे की जयंती है।
Jumu'atul - Wida is the last Friday in the Month of Ramadhan before Eid - ul - Fitr.
जुमाअतुल-विदा
जुमाअतुल-विदा ईद-उल-फितर से पहले रमजान के महीने का आखिरी शुक्रवार है।
جمعۃ الوداع
جمعۃ الوداع رمضان کے مہینے میں عید الفطر سے پہلے آخری جمعہ ہے۔
Jumu'atul - Wida
History & Significance of Ramzan’s Last Friday
Learn the significance and history of last Friday of Ramzan, Jumu'atul - Wida.
Jumu'atul - Wida, the last Friday of the holy month of Ramzan. The word Jumu'atul - Wida is an Arabic word which in English means, 'Friday of Farewell'.
As per Islam, Fridays (Jumma) are consider one of the most sacred day of a week. But Jamt-ul-Vida, the last Friday of Ramzan, has its own significance. Jumu'atul - Wida is also called 'The day of worship'.
जुमाअतुल-विदा
रमजान के आखिरी शुक्रवार का इतिहास और महत्व
इस लेख✍️ में हम जानेंगे रमजान के आखिरी शुक्रवार का महत्व और इतिहास।
जुमाअतुल-विदा, रमजान के पवित्र महीने का आखिरी शुक्रवार। जुमाअतुल-विदा एक अरबी भाषा का शब्द है जिसका हिंदी में मतलब होता है 'विदाई का शुक्रवार'।
इस्लाम धर्म के अनुसार, शुक्रवार (जुम्मा) को सप्ताह के सबसे पवित्र दिनों में से एक माना जाता है। लेकिन रमजान के आखिरी शुक्रवार जुमाअतुल-विदा का अपना ही महत्व है। जुमाअतुल-विदा को 'इबादत का दिन' भी कहा जाता है।
جمعۃ الوداع
رمضان المبارک کے آخری جمعہ کی تاریخ اور اہمیت
اس مضمون میں ہم رمضان کے آخری جمعہ کی اہمیت اور تاریخ جانیں گے۔
جمعۃ الوداع، رمضان کے مقدس مہینے کا آخری جمعہ۔ جمعۃ الوداع ایک عربی لفظ ہے جس کا ہندی میں مطلب 'الوداعی جمعہ' ہے۔
اسلام کے مطابق جمعہ (جمعہ) کو ہفتے کے مقدس دنوں میں سے ایک سمجھا جاتا ہے۔ لیکن رمضان کے آخری جمعہ جمعۃ الوداع کی اپنی اہمیت ہے۔ جمعۃ الوداع کو "عبادت کا دن" بھی کہا جاتا ہے۔
प्राचीन भारत की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का क्रमबद्ध परिचय प्रस्तुत करने वाली सामग्री में कलाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है। भारत की इस चौसठविध कलाओं का परिचय यहाँ 'वात्स्यायन मुनि' के 'कामसूत्र' के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
'कामसूत्र' के 'तीसरे अध्याय' में 'चौसठ कलाओं' का विवेचन किया गया है और वहाँ निर्देश किया गया है कि सभी नागरिकों को इन कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। इन चौसठ कलाओं की नामावली इस प्रकार है:-
(1) गीतम् (संगीत),
(2) वाद्यम् (वाद्य - वादन),
(3) नृत्यम् ( नाच ),
(4) आलेख्यम् (चित्रकला),
(5) विशेषकच्छेद्यम् (पत्तियों को काट-छाँटकर विभिन्न आकृतियां बनाना या तिलक लगाने के लिए विशेष प्रकार के साँचे बनाना),
(6) तंदुलकुसुमावलिविकारा (देवपूजन के समय विभिन्न प्रकार के जौ - चावल तथा पुष्पों को सजाना),
(7) पुष्पास्तरणम् (कक्षों तथा भवनों के उपस्थानों को पुष्पों से सजाना),
(8) दशनवासनांगराग (दाँत, वस्त्र और शरीर के दूसरे अंगों को रंगना),
(9) मणिभूमिकाकर्म (घर के फर्श को मणि - मोतियों से जड़ित करना),
(10) शयनरचनम् (शैय्या को सजाना),
(11) उदकवाद्यम् (पानी में ढोलक की सी आवाज निकालना),
(12) उदकाघात (पानी की चोट मारना या पिचकारी छोड़ना),
(13) चित्राश्वयोगा (शत्रु को विनष्ट करने के लिए तरह-तरह के योगों का प्रयोग करना),
(14) माल्यग्रंथनविकल्पा (पहनने तथा चढ़ाने के लिए फूलों की मालाएँ बनाना),
(15) शेखरकापीडयोजनम् (शेखरक तथा आपीड जेवरों को उचित स्थान पर धारण करना),
(16) नेपथ्यप्रयोगा (अपने शरीर को अलंकारों और पुष्षों से भूषित करना),
(17) कर्णपत्रभंगा (शंख, हाथी दाँत आदि के कर्ण आभूषण बनाना,
(18) गंधयुक्ति (सुगंधित धूप बनाना),
(19) भूषणयोजनम् (भूषण तथा अलंकार पहनने की कला),
(20) ऐंद्रजाल (जादू का खेल दिखाकर दृष्टि को बाँधना),
(21) कौचुमारयोग (बल - वीर्य बढ़ाने की औषधियाँ बनाना),
(22) हस्तलाघवम् (हाथ की सफाई दिखान),
(23) विचित्रशाकयूषभक्ष्यविकारक्रिया (अनेक प्रकार के भोजन, जैसे शाक, रस मिष्ठान आदि बनाने की निपुणता),
(24) पानकरसरागासवयोजनम् (नाना प्रकार के पेय शर्बत बनाना),
(25) सूचीवानकर्माणि (सूई के कार्य में निपुणता),
(26) सूचनक्रीड़ा (सूत में करतब दिखाना),
(27) वीणाडमरूकवाद्यानि (वीणा और डमरू आदि वाद्यों को बजाना),
(28) प्रहेलिका (पहेलियों में निपुणता),
(29) प्रतिमाला (दोहा श्लोक पढ़ने की रोचक रीति),
(30) दुर्वाचकयोग (कठिन अर्थ और जटिल उच्चारण वाले वाक्यों को पढ़ना),
(31) पुस्तकवाचनम् (मधुर स्वर में ग्रंथ पाठ करना),
(32) नाटकाख्यायिकादर्शनम् (नाटकों तथा उपन्यासों में निपुणता),
(33) काव्यसमस्यापूरणम् (समस्यापूर्ति करना),
(34) पट्टिकावेत्रवानविकल्पानि (छोटे उद्योगों में निपुण),
(35) तक्षकर्मणि (लकड़ी, धातु आदि की चीजों को बनाना),
(36) तक्षणम् (बढ़ई के कार्य में निपुण),
(37) वास्तुविधा (गृहनिर्माणकला),
(38) रूप्यरत्नपरीक्षा (सिक्कों तथा रत्नों की परीक्षा),
(39) धातुवाद (धातुओं को मिलाने तथा शुद्ध करने की कला),
(40) मणिरागाकारज्ञानम् (मणि तथा स्फटिक काँच आदि के रंगने की क्रिया का ज्ञान),
(41) वृक्षायुर्वेदयोग (वृक्ष तथा कृषि विद्या),
(42) मेष - कुक्कुट लावक - युद्धविधि (मेढ़े, मुर्गे और तीतरों की लड़ाई परखने की कला)
(43) शुक - सारिका - प्रलापनम् (शुक सारिका को सिखाना तथा उनके द्वारा संदेश भेजना),
(44) उत्सादने संवादने केशमर्दने च कौशलम (हाथ-पैर से शरीर दबाना, केशों को मलना, उनका मैल दूर करना और उनमें तैलादि सुगंधित चीजें मलना),
(45) अक्षर - मुष्टिका - कथनम् (अक्षरों को संबद्ध करना और उनसे किसी संकेत अर्थ को निकालना),
(46) मलेच्चितविकल्पा (सांकेतिक वाक्यों को बनाना),
(47) देशभाषाविज्ञानम् (विभिन्न देशों की भाषाओं का ज्ञान),
(48) निमित्तज्ञानम् (शुभाशुभ शकुनों का ज्ञान),
(50) यंत्रमातृका (चलाने की कलें तथा जल निकालने के यंत्र आदि बनाना),
(51) धरणमातृका (स्मृति को तीव्र बनाने की कला),
(52) संपाठ्यम् (स्मृति तथा ध्यान संबंधी कला),
(53) मानसी (मन से श्लोकों तथा पदों की पूर्ति करना),
(54) काव्यक्रिया (काव्य करना),
(55) अमिधान - कोश - छंदोपज्ञानम् (कोश और छंद का ज्ञान),
(56) क्रियाकल्प काव्यालंकारज्ञानम् (काव्य और अलंकार का ज्ञान),
(57) छलितकयोग (रूप और बोली छिपाने की कला),
(58) वस्त्रगोपनानि (शरीर के गुप्तांग को कपड़े से छिपाना),
(59) छूतविशेष (विशेष प्रकार का जुआ),
(60) आकर्षक्रीडा (पासों का खेल खेलना),
(61) बालक्रीडनकानि (बच्चों का खेल),
(62) वैनियिकीनाम् (अपने पराये के साथ विनयपूर्वक शिष्टाचार दर्शित करना),
(63) वैजयिकीनाम (शस्त्रविद्या),
(64) व्यायामिकीनां च विद्यानां ज्ञानम (व्यायाम, शिकार आदि की विद्याएँ)।
कला अध्ययन के स्रोत का अभिप्राय उन साधनों से है, जो प्राचीन कला के इतिहास को जानने में सहायक हों। भारतीय चित्रकला के अध्ययन स्रोत निम्न श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं:-
ऐतिहासिक ग्रन्थ (Historical Books) :- वर्तमान में कुछ ऐसे ग्रन्थ प्राप्त हैं, जिनमें प्राचीन समय की कला विषयक जानकारी मिलती है। राजा-महाराजाओं के राज्य काल में घटित घटनाओं का वर्णन भी इन ग्रंथों से मिलता है।
शिलालेख (Inscriptions) :- शिलाओं पर अंकित प्राचीन लेखों से कला, एवं वास्तु निर्माण के विषय में जानकारी होती है। बादामी, अजन्ता, बाघ आदि गुफाओं से शिलालेख प्राप्त हुये हैं, जिनसे इनके निर्माण एवं कला शैलियों के विषय में जानकारी मिलती है। महाराजा अशोक द्वारा खुदवाये अनेक धर्मलेख शिलाओं पर प्राप्त हैं। समुद्रगुप्त का लेख इलाहाबाद के दुर्ग में प्राप्त है, जिससे मौर्यकालीन कला के विषय में जानकारी मिलती है।
प्राचीन खण्डहर (Old Ruins):- उत्खनन के पश्चात् प्राचीन समय में ऐतिहासिक, धार्मिक स्थल, स्मारक, मंदिर तथा भवनों से प्राप्त चित्रों तथा मूर्तियों के विषय में जानकारी मिलती है। अजन्ता, एलोरा, बादामी, सारनाथ आदि जगहों में खुदाई एवं सफाई के बाद ही कलाकृतियों के विषय में जानकारी मिली।
मोहरें तथा मुद्राएँ (Seals and Coins):- प्राचीन काल में प्रचलित कला के विषय में मोहरों तथा मुद्राओं से जानकारी मिली है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों पर अंकित पशु आकृतियों से उस समय की उन्नत मूर्तिकला का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार जहाँगीरकालीन एवं मौर्यकालीन काल से प्राप्त मुद्राओं से उस समय प्रचलित कला-शैलियों का परिचय प्राप्त होता है।
यात्रियों के वृत्तान्त (Accounts of Travellers) :- भारत में समय-समय पर अनेक विदेशी यात्रियों ने भारत की यात्रा की तथा उन्होंने यहाँ की कलाकृतियों का अवलोकन कर उनके विषय में विवरण लिखे। उदाहरण के लिये चन्द्रगुप्त मौर्य के समय की कलाकृतियों का वृत्तान्त विदेशी यात्री 'मैगस्थनीज' ने दिया है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय का वृत्तान्त 'फाह्यान' ने लिखा है। 16 वीं शताब्दी में तिब्बत के इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने भारत में बौद्ध स्थलों का भ्रमण किया था। उनके द्वारा कला के विषय में लिखे पर्याप्त विवरण मिलते हैं।
बादशाहों द्वारा लिखी आत्मकथाएँ (Autobiography by Emperors) :- मुगल बादशाहों द्वारा लिखित आत्मकथाओं से उस समय में प्रचलित कला, कलाकार, स्थापत्य एवं कलाकृतियों के विषय में जानकारी मिलती है। बाबर द्वारा लिखित 'वाकयात - ए - बाबरी' , जहाँगीर द्वारा लिखी 'तुजुक - ए - जहाँगीरी' और अबुल फजल द्वारा लिखी 'आईन - ए - अकबरी' के द्वारा चित्रकला संबंधी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
उपरोक्त स्रोतों के आधार पर भी भारतीय चित्रकला के विषय में जानकारी एकत्र की गई है।
यह सर्वविदित है कि भारतीय चित्रकला एवं अन्य कलाएँ दूसरे देशों की कलाओं से भिन्न हैं और भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो अन्य देशों की कला से इसे पृथक् कर देती हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता (Religiosity and Spirituality):- :- विश्व की सभी कलाओं का जन्म धर्म के साथ ही हुआ है। कला के उद्भव में धर्म का बहुत बड़ा हाथ है। धर्म ने ही कला के माध्यम से अपनी धार्मिक मान्यताओं को जन-जन तक पहुँचाया है। राष्ट्रीय जीवन के ही समान भारतीय कला का स्वरूप भी मुख्यतः धर्मप्रधान है।
'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के चित्रसूत्र में कहा गया है-
कलानां प्रवरं चित्रं धमार्थकाममोक्षदं ।
मगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥
अर्थात, कलाओं में चित्रकला सर्वश्रेष्ठ है उस घर में हमेशा मंगल स्थापित रहता है जहां कला की स्थापना की जाती है।
अजन्ता, बाघ, आदि गुफाओं में बौद्ध धर्मप्रधान चित्रों का अंकन हुआ है। राजस्थानी, पहाड़ी शैलियों में कृष्ण-लीला विषयक अनेक रूपों का चित्रण हुआ है। वही धर्मप्रधान मूर्तियाँ एवं चित्राकृतियाँ पूरे देश में देखी जा सकती हैं। चित्रकला ने धर्म को सौन्दर्य एवं आकर्षण प्रदान किया है।
इसी प्रकार किसी भी देश की धार्मिक मान्यताएँ, उसके पौराणिक देवी-देवता, उसके आचार-विचार और उसकी नीति एवं परम्पराएँ वहाँ की कला में अभिव्यक्त होती मिलती हैं और भारतीय कलाकार ही कला-संरचना के द्वारा धार्मिक, आध्यात्मिक भावना को अभिव्यक्ति देता है।
अन्तः प्रकृति से अंकन (Intrinsic marking from nature):-भारतीय चित्रकला में मनुष्य के स्वभाव या अन्तःकरण को गहराई तथा पूर्णता से दिखाने का महत्त्व है। अजन्ता की चित्रावलियों में जंगल, उद्यान, पर्वत, प्रकृति, सरोवर, रंगमहल तथा कथा के पात्र, सभी को एक साथ, एक ही दृश्य में अंकित किया गया है। इसी प्रकार 'पद्मपाणि' के चित्र में कुछ रेखाओं द्वारा गौतमबुद्ध की विचारमुद्रा का जो अंकन हुआ है, वह दर्शनीय है।
इस प्रकार भारतीय कलाकार ने एक स्थान में अनेक कालों (Period), स्थानों (Place) अथवा क्षेत्रों (Areas) की विस्तीर्णता (expanse) को एक साथ ग्रहण करके व्यक्त किया है।
कल्पना (Imagination):- कल्पनाप्रियता भारतीय चित्रकला की प्रमुख विशेषता है। वह उसके आधार पर ही पली-बढ़ी, अतः उसमें आदर्शवादिता का उचित स्थान है। यूँ भी भारतीय लोगों का मन यथार्थ की अपेक्षा कल्पना में अधिक रमा। विदित है कि अनेक देवी-देवता चाहे यथार्थ में अपनी सत्ता न रखते हों, पर उनका कल्पना जगत स्वरूप अनेक हृदयों में निवास करता है।
कल्पना का सर्वश्रेष्ठ रूप ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ में दिखाई देता है। उदाहरण के लिये, बुद्ध की जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ कल्पना प्रसूत ही हैं। जिस प्रकार सृष्टि का निरन्तर सृजन और विनाश जीवन और मृत्यु का शाश्वत नृत्य है, उसी क्रम में नटराज के स्वरूप को भारतीय कलाकार ने कल्पित किया है।
प्रतीकात्मकता (Symbolism):- भारतीय कला की एक विशेषता उसकी प्रतीकात्मकता में निहित है। प्रतीक प्रस्तुत और स्थूल पदार्थ होता है, जो किसी अप्रस्तुत सूक्ष्म भाव या अनुभूति का मानसिक आविर्भाव करता है।
प्रतीक, कला की भाषा होती है। सांकेतिक एवं कलात्मक दोनों प्रतीकों का अत्यधिक महत्त्व है, जैसे- स्वस्तिक, सिंह, आसन, चक्र, मीन, श्री लक्ष्मी, मिथुन, कलश, वृक्ष, दर्पण, पदम्, पत्र, वैजयन्ती आदि। इसी प्रकार नाग एवं जटाजूट में से निकलती जलधारा 'शिव' का प्रतीक है। मोरपंख एवं मुरली 'कृष्ण' का प्रतीक है। कमल पर स्थित 'श्री लक्ष्मी' एक ओर सम्पन्नता का प्रतीक है, तो दूसरी ओर पद्मासन पर विराजमान होकर भौतिकता से निर्लिप्त रहने का आशय प्रकट करती है। जल और कीचड़ से जुड़ा रहकर भी पदम् सदैव जल से ऊपर रहता है। उसके दलों पर जल की बूंदें नहीं ठहरती हैं। इस प्रकार पदम् हमें संसार में रहते हुए भी सांसारिकता से ऊपर उठने का उपदेश देता हैं। ‘स्वस्तिक' की चार आड़ी-खड़ी रेखाएँ चार दिशाओं की, चार लोकों की, चार प्रकार की सृष्टि की तथा सृष्टिकर्ता 'चतुर्मुख ब्रह्मा' का प्रतीक है। इसकी आड़ी और खड़ी दो रेखाओं और उसके चारों सिरों पर जुड़ी चार भुजाओं को मिलाकर सूर्य की छ: रश्मियों का प्रतीक माना गया है, जो गति और काल का भी प्रतीक है।
यूँ भी कलाकार नये-नये प्रतीकों को भी उपस्थित करते रहते हैं। उदाहरण के लिये कलाकार ने बौद्धधर्म में बुद्ध की आकृति के स्थान पर कमल बना दिया था। रंगों के द्वारा भी कलाकार ने प्रतीकात्मकता का आभास कराया है। अजन्ता में चित्रित 'दर्पण देखती हुई स्त्री' के शरीर में हरा रंग भरा गया है, जो ताजगी का प्रतीक है। इसी प्रकार 'विष्णु' और 'लक्ष्मी''पुरुष' तथा 'नारी' के प्रतीक हैं।
आदर्शवादिता (Idealism):- भारतीय चित्रकार यथार्थ की अपेक्षा आदर्श में ही विचरण करता है। वह संसार में जैसा देखता है, वैसा चित्रण न करके, जैसा होना चाहिये, वैसा चित्रण करता है और जब जहाँ से चाहिये की भावना का प्रादुर्भाव होता है, तो वहीं से आदर्शवाद आरम्भ हो जाता है। राजा को कलाकार आदर्श राजा के रूप में ही चित्रित करता है। प्रेमी को आदर्श प्रेमी के रूप में, इसी प्रकार बुद्ध ज्ञान देने वाले के रूप में आदर्श बन गये, अतः भिन्न-भिन्न मतों में भिन्न-भिन्न आदर्श हैं, जो कलाओं के लिये प्रेरणास्रोत रहे हैं।
मुद्राएँ (currencies):- भारतीय चित्रकला मूर्तिकला एवं नृत्यकला में मुद्राओं को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। उन्हें आदर्श रूप प्रदान करने के लिये चमत्कारपूर्ण तथा आलंकारिक रूप प्रदान किये गये हैं। आकृति की रचना कलाकार ने यथार्थ की अपेक्षा भाव अथवा गुण के आधार पर की है। मुद्राओं के विधान से आकृति की व्यंजना की गई है। भरतमुनि के 'नाट्य शास्त्र' के अभिनय-प्रकरण में अंगों तथा उपांगों के अलग-अलग प्रयोगों द्वारा अनेक मुद्राओं का अवतरण किया है। ध्यान, विचार, संकेत, उपदेश, निकालना, पकड़ना, क्षमा, तपस्या, ही स्वाभाविक मुद्राओं में दर्शाया है। भिक्षा, त्याग, वीरता, क्रोध, प्रतीक्षा, प्रेम, विरह, एकाकीपन आदि मानव भावों को बड़ी भावरूप का समावेश है।
अजन्ता चित्र शैली में दर्शित आकृतियाँ अपनी भावपूर्ण नृत्य-मुद्राओं के कारण संसार भर में प्रसिद्ध है। इसी प्रकार मुगल, राजपूत शैलियों में भी विविध नृत्य मुद्राओं के सुन्दर भावरूप का समावेश हैं।
रेखा तथा रंग (Line and Colour):- भारतीय चित्रकला रेखा-प्रधान है, उसमें गति है। रेखाओं द्वारा बाह्य सौन्दर्य के साथ-साथ गम्भीर भाव भी कलाकार ने चित्रों में बड़ी कुशलता से दर्शाये हैं। रेखा द्वारा गोलाई, स्थितिजन्यलघुता, परिप्रेक्ष्य इत्यादि सभी कुछ प्रदर्शित हैं। यूँ तो आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया है, किन्तु वे सांकेतिक आधार पर है, साथ ही आलंकारिक या कलात्मक योजना पर आधारित है।
अलंकारिकता (Rhetoric):- भारतीय कला में अलंकरण का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि भारतीय कलाकार ने सत्यं, शिवम् के साथ सुन्दर की कल्पना की है और इसीलिये सुन्दर तथा आदर्श रूप के लिये वह अलंकरणों का अपनी रचना में प्रयोग करता है। उदाहरण के लिये खंजन अथवा कमल के समान नेत्र, चन्द्र के समान मुख, शुक चंचु के समान नासिका, कदली स्तम्भों के समान जंघाएँ। इसी प्रकार भारतीय आलेखनों में अलंकरण का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। जैसे- राजपूत, मुगल चित्रों में हाशियों में फूल, पत्तियों, पशु पक्षियों का अलंकरण मिलता है।
इसके अलावा अजन्ता, बाघ में अलंकृत चित्रावलियाँ मिलती हैं, जिसमें छतों में अलंकरण प्रमुख हैं।
कलाकारों के नाम (Names of Artists):- प्राचीन काल के कलाकारों ने अपनी कृतियों में नाम अंकित नहीं किये, किन्तु राजस्थानी चित्र शैली में कहीं-कहीं कलाकार द्वारा चित्रित चित्र पर कलाकार का नाम अंकित किया हुआ मिलता है। मुगल शैली में तो चित्रों में कलाकार के नाम के साथ-साथ चित्र में रंग किसने भरे हैं, रेखांकन किसने किया है इत्यादि तक लिखे मिलते हैं।
साहित्य पर आधारित (Based on literature):- भारतीय चित्रकला साहित्य पर भी आश्रित रही। चित्रकारों ने काव्य में वर्णित साहित्य के अनुरूप ही चित्रों का निर्माण किया। यानि कवियों के द्वारा प्रतिपादित विषयों को ही चित्रकार ने अपने माध्यम के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया, जिससे उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति उभर कर सामने आई।
सामान्य पात्र(common characters):- भारतीय कला में सामान्य पात्र विधान परम्परागत रूप में विकसित हुआ है, जबकि पाश्चात्य कला में व्यक्ति विशिष्ट का महत्त्व है। सामान्य पात्र सही अर्थों में आयु, व्यवसाय अथवा पद के अनुसार पात्रों की आकृति तथा आकृति के अनुपातों का निर्माण करना है। भारतीय कला में अंग-प्रत्यंग के माप एवं रूप निश्चित हैं और उन्हीं के अनुसार राजा, रंक, साधु, सेवक, देवता, स्त्री, किशोर, युवक, गंधर्व आदि की रचना की जाती है। इसी प्रकार उनके व्यवसाय के अनुसार उनके चित्र खड़े एवं बैठने की दिशा व स्थान भी निश्चित रहते हैं।
कला मानव संस्कृति की उपज है। इसका उदय मानव की सौन्दर्य भावना का परिचायक है। इस भावना की वृत्ति व मानसिक विकास के लिए ही विभिन्न कलाओं का विकास हुआ है। कला का शाब्दिक अर्थ है- किसी वस्तु का छोटा अंश। कला धातु से 'ध्वनि' व 'शब्द' का बोध होता है। ध्वनि से आशय है- "अव्यक्त से व्यक्त की ओर उन्मुख होना।" कलाकार भी अपने अव्यक्त भावों को विभिन्न माध्यमों से व्यक्त करता है, कला की व्युत्पत्ति इस प्रकार भी कर सकते हैं क+ला, क = कामदेव- सौन्दर्य, हर्ष व उल्लास, ला = देना, 'कलांति ददातीति कला' अर्थात् सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु ही कला हैं।
आधुनिक काल में कलाओं का वर्गीकरण दो बिन्दुओं पर किया गया है-
(1) उपयोगी कला:- उपयोगी कला मानव समाज के लिए उपयोगी होती है।
(2) ललित कला:- ललित कला सौन्दर्यप्रधान होती है। ललित कलाओं का उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अतः ललित कला का नामकरण पाश्चात्य सम्पर्क की देन है। 'पाश्चात्य विद्वानों' ने ललित कलाओं के अन्तर्गत पाँच (05) कलाएँ मानी हैं । वे क्रमश : हैं- स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, संगीत एवं काव्य कला। इनमें काव्य कला अर्थप्रधान, संगीत कला ध्वनिप्रधान और अन्य कलाएँ रूपप्रधान हैं।
सौन्दर्यानुभूति को व्यक्त करने के विभिन्न माध्यमों का प्रयोग मानव पीढ़ी-दर-पीढ़ी करता चला आया है और इन माध्यमों में कला एक विशिष्ट माध्यम है। कला की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में भारत अत्यन्त समृद्ध एवं वैभवशाली रहा है। कला के अन्तर्गत चित्रकला, स्थापत्यकला, संगीतकला, मूर्तिकला तथा हस्तकला प्रमुख हैं और सभी कलाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से भारत के जनजीवन में न केवल प्रागैतिहासिक युग से बल्कि वर्तमान में भी इनका विशेष महत्त्व दृष्टिगोचर होता है।
जीवन पद्धति मार्ग प्रशस्त करती है, संस्कृति के नियम शाश्वत होते हैं, जो उस समय को एक विशिष्ट जीवन व्यतीत करने की चेतना प्रदान करते हैं, परिणामस्वरूप प्रत्येक देश, समाज अथवा राज्य एक विशिष्ट संस्कृति के लिए जाना जाता है। संस्कृति शब्द से क्या अभिप्राय है, इसकी जानकारी अपरिहार्य है। प्रायः सभ्यता एवं संस्कृति को पर्यायवाची मानकर विचार करने की भ्रान्तिपूर्ण प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है।
संस्कृति से तात्पर्य उन सिद्धान्तों से है, जो समाज में एक निश्चित प्रकार का जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते हैं, अत: 'के. एम. मुन्शी' के अनुसार, हमारे रहन-सहन के पीछे जो मानसिक अवस्था, मानसिक प्रवृत्ति है, जिसका उद्देश्य हमारे जीवन को परिष्कृत , शुद्ध और पवित्र बनाना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति करना है, वही संस्कृति हैं।
संस्कृति के ‘आन्तरिक' और 'बाह्य' दो पक्ष होते हैं। 'दृश्य' और 'श्रव्य' कलाएँ तथा शिल्प बाह्य संस्कृति के उपकरण मात्र हैं, जबकि आन्तरिक संस्कृति के उपकरण हमारे चारित्रिक गुण हैं। आन्तरिक संस्कृति के कुछ अंग तो सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के अनुकूल ही हैं और साथ ही राजस्थान की अपनी कुछ विशेषताएँ भी रही हैं:-
1. शरणागत की रक्षा करना विशेषतः क्षत्रिय समाज की विशेषता रही है, जैसे रणथम्भौर के राव हम्मीर ने दो शरणागत मुसलमानों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था।
2. देवस्थानों की पवित्रता और अनेक अधिष्ठाता, देवों की महानता को स्वीकार करना।
3. पतिव्रत धर्म की महत्ता
4. अतिथि सत्कार, व्यावसायिक ईमानदारी, पारस्परिक सहयोग की भावना और गौ, ब्राह्मण तथा अबलाओं की रक्षा, आदी। बाह्य संस्कृति के उपादान बहुत विस्तृत हैं, जैसे- चित्र, नृत्य, स्थापत्य, मूर्ति निर्माण, संगीत, आदि कलाएँ लोकगीत तथा मुहावरे, लोरियाँ, ख्याल, पवाड़े, आदि लोक साहित्य, नाटक, रासलीला, कठपुतली आदि लोकानुरंजन, तीज, गणगोर, दशहरा, दीपावली, होली आदि उत्सव, धार्मिक मेले आदि।
भारतीय कला, संस्कृति की दृष्टि से न केवल राष्ट्रीय, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष छवि बनाये हुए है। देश को विरासत में में मिली साहित्यिक, पुरातात्विक, लोक-संस्कृति एवं कलाओं को अधिक प्रभावी एवं सामान्य जन तक पहुँचाने तथा जीवंत बनाए रखने की स्वतंत्रता ही कला संस्कृति का योगदान है।
चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना कहा जा सकता है, जितना कि मानव सभ्यता के विकास का इतिहास। सत्य तो यह है कि चित्र बनाने की प्रवृत्ति सर्वदा से ही हमारे पूर्वजों में विद्यमान रही है। मनुष्य ने जिस समय प्रकृति की गोद में आँख खोली, उस समय से ही उसने अपनी मूक भावनाओं को अपनी तूलिका द्वारा टेढ़ी-मेढ़ी रेखाकृतियों के माध्यम से गुफाओं और चट्टानों की भित्तियों पर अंकित कर अभिव्यक्त किया। उसके जीवन की कोमलतम भावनाएँ तथा संघर्षमय जीवन की सजीव झाँकियाँ उसकी तत्कालीन कलाकृतियों में आज भी सुरक्षित हैं। अपना सांस्कृतिक विकास करने के लिए मानव ने जिन साधनों को अपनाया, उनमें चित्रकला भी एक साधन थी।
भारतीय चित्रकला का उद्गम भी प्रागैतिहासिक काल से ही माना जाता है। समय के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया, भारत में यह कला भी अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती रही। वस्तुतः भारतीय चित्रकला की प्रधानता को अनेक विद्वानों ने स्वीकार किया है तथा विश्व में उसकी एक विशिष्ट पहचान है।
कला का अर्थ
"मनुष्य की रचना, जो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती है, कला (Art) कहलाती है।"
भारतीय कला 'दर्शन' है। शास्त्रों के अध्ययन से पता चलता है कि 'कला' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 'ऋग्वेद' में हुआ-
"यथा कला, यथा शफ, मध, शृण स नियामति।"
कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग 'भरतमुनि' ने अपने ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में प्रथम शताब्दी में किया-
“न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न साविधा - न सा कला।"
अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, जिसमें कोई शिल्प नहीं, कोई विधा नहीं, जो कला न हो।
भरतमुनि, ज्ञान, शिल्प और विधा से भी अलग 'कला' का क्या अभिप्राय ग्रहण करते थे, यह कहना कठिन है ? अनुमान यही लगता है कि भरत के द्वारा प्रयुक्त 'कला' शब्द यहाँ 'ललितकला' के निकट है और 'शिल्प' शायद उपयोगी कला के लिये। हमारे यहाँ कला उन सारी जानकारियों या क्रियाओं को कहते हैं, जिसमें थोड़ी सी भी चतुराई की आवश्यकता होती है।
कला संस्कृत भाषा से संबंधित शब्द है। इसकी व्युत्पत्ति 'कल्' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- प्रेरित करना। कुछ विद्वान इसकी व्युत्पत्ति 'क' धातु से मानते हैं- "कं (सुखम्) लाति इति कलम् , कं आनन्द लाति इति कला।" इस प्रकार कला के विभिन्न अर्थ माने जा सकते हैं-
संस्कृत साहित्य में इसका प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है, जिसमें प्रमुख किसी वस्तु का 'सोलहवां भाग', 'समय का एक भाग', किसी भी कार्य के करने में अपेक्षित चातुर्य-कर्म आदि विशेषतः उल्लेखनीय हैं। भरतमुनि से पूर्व 'कला' शब्द का प्रयोग काव्य को छोड़कर दूसरे प्रायः सभी प्रकार के चातुर्य-कर्म के लिए होता था और इस चातुर्य-कर्म के लिए विशिष्ट शब्द था- 'शिल्प', जीवन से संबंधित कोई उपयोगी व्यापार ऐसा न था, जिसकी गणना शिल्प में न हो।
कला का अर्थ है - सुन्दर, मधुर, कोमल और सुख देने वाला एवं शिल्प, हुनर अथवा कौशल।
कला के संबंध में 'पाश्चात्य दृष्टिकोण' भी कुछ इसी प्रकार का है- अंग्रेजी भाषा में कला को 'आर्ट' Art कहा गया है। फ्रेंच में 'आर्ट' और लेटिन में 'आर्टम' और 'आर्स' से कला को व्यक्त किया गया है। इनके अर्थ वे ही हैं, जो संस्कृत भाषा में मूल धातु 'अर' के हैं। 'अर' का अर्थ है- बनाना, पैदा करना या रचना करना। यह शारीरिक या मानसिक कौशल 'आर्ट' माना गया है।
इन अर्थों के अन्तर्गत कुछ सुखद, सुन्दर एवं मधुर सृजन है। कला शिल्प कौशल की प्रक्रिया है। अतः कला का अर्थ है- "शिल्प कौशल की प्रक्रिया से युक्त सुन्दर व सुखद सृजन रूप।" दूसरे शब्दों में "सत्यं, शिवम् , सुन्दरम् की अभिव्यक्ति ही कला है।" किसी भी देश की संस्कृति उसकी अपनी आत्मा होती है, जो उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी एक व्यक्ति के सुकृत्यों का परिणाम मात्र नहीं होती है, अपितु अनगिनत ज्ञात एवं अज्ञात व्यक्तियों के निरन्तर चिन्तन एवं दर्शन का परिणाम होती है। किसी देश की काया, संस्कृति के आत्मिक बल पर ही जीवित रह पाती है।
'सम' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु से 'क्तिन' प्रत्यय करने पर 'सुट्' का आगम होने से 'संस्कृति' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है- "सम्यक् रूप से अलंकृत बनावट" या 'दोषापनयपूर्वक गुणाधान' संस्कृति का आधार है मन, प्राण व शरीर का संगठन। इनकी विभिन्नताओं में अपूर्व मौलिक समन्वय पैदा करना। "संस्कृति और सुसंस्कृत व्यक्ति" का अनिवार्य लक्षण है- आन्तरिक शुद्ध भाव, अर्थात् आत्मा का मन, प्राण और शरीर की प्राकृतिक चेष्टाओं से स्वतन्त्र तथा तटस्थ भाव। अतः संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है, प्रकृति से मनुष्य को मिला व्यवहार नहीं। देश और काल के चौखटे में संस्कृति का स्वरूप मानवीय प्रयत्नों के द्वारा नित्य ढलता रहता है। भारतीय संस्कृति का इतिहास देश और काल में अत्यधिक विस्तृत है। लगभग पाँच सहस्त्र वर्षों की लम्बी अवधि में इस संस्कृति ने विविध क्षेत्रों में अपना विकास किया है। संस्कृति - भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रवाहित होने वाली एक अजस्र धारा है।
मन, कर्म और वचन में मानवीय व्यक्तित्व के तीन गुण हैं, इन्हीं तीनों गुणों के परिणामस्वरूप विभिन्न संरचनाएँ होती हैं। धर्म, दर्शन, साहित्य एवं आध्यात्म आदि, ये मन की सृष्टि हैं। ये सब रचनाएँ मानव-मन की संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग हैं। सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन आदि कर्ममयी-संस्कृति के पुष्प होते हैं। तीसरे गुण के अन्तर्गत भौतिक रचनाएँ आती हैं। 'कला' शब्द इन रचनाओं के लिए एक व्यापक संकेत है।
इस प्रकार व्यापक दृष्टि से विचार करके देखा जाये तो धर्म, दर्शन, साहित्य, साधना, राष्ट्र और समाज की व्यवस्था, वैयक्तिक जीवन के नियम और आस्था, कला , शिल्प, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और सौन्दर्य रचना के अनेक विधान तथा उपकरण आदि ये सब मानव संस्कृति के अन्तर्गत आ जाते हैं। इनकी समष्टि का नाम ही संस्कृति है, जो मानव की सुरुचिपूर्ण कृति है, वह सब उसकी संस्कृति है।
कला के प्रकार
कला के कई प्रकार होते हैं और इन प्रकारों का परिगणन भिन्न-भिन्न रीतियों से होता है।
(क) मोटे तौर पर जिस वस्तु, रूप अथवा तत्त्व का निर्माण किया जाता है, उसी के नाम पर इस कला का प्रकार कहलाता है, जैसे:-
वास्तुकला या स्थापत्य कला:- अर्थात् भवन निर्माण कला, जैसे- दुर्ग, प्रासाद, मंदिर, स्तूप, चैत्य, मकबरे आदि।
मूर्तिकला:- पत्थर या धातु की छोटी-बड़ी मूर्तियाँ।
चित्रकला:- भवन की भित्तियों, छतों या स्तम्भों पर अथवा वस्त्र, भोजपत्र या कागज पर अंकित चित्र।
मृदभांडकला:- मिट्टी के बर्तन।
मुद्राकला:- सिक्के या मोहरे।
(ख) कभी-कभी जिस पदार्थ से कलाकृतियों का निर्माण किया जाता है, उस पदार्थ के नाम पर उस कला का प्रकार जाना जाता है, जैसे:-
प्रस्तरकला:- पत्थर से गढ़ी हुई आकृतियाँ।
धातुकला:- काँसे, ताँबे अथवा पीतल से बनाई गई मूर्तियाँ।
दंतकला:- हाथी के दाँत से निर्मित कलाकृतियाँ।
मृत्तिका-कला:- मिट्टी से निर्मित कलाकृतियाँ या खिलौने।
चित्रकला:- भवन की भित्तियों, छतों या स्तम्भों पर अथवा वस्त्र, भोजपत्र या कागज पर अंकित चित्र।
(ग) मूर्तिकला भी अपनी निर्माण शैली के आधार पर प्रायः दो प्रकार की होती है, जैसे:-
मूर्तिकला:- जिसमें चारों ओर तराशकर मूर्ति का रूप दिया जाता है। ऐसी मूर्ति का अवलोकन आगे से, पीछे से तथा चारों ओर से किया जा सकता है।
उत्कीर्ण कला अथवा भास्कर्य कला:- जिसमें पत्थर, चट्टान, धातु अथवा काष्ठ के फलक पर उकेर कर रूपांकन किया जाता है। इस चपटे फलक का पृष्ठ भाग सपाट रहता है या फिर इसे दोनों ओर से उकेर कर दो अलग-अलग मूर्ति-फलक बना दिये जाते हैं। किसी भवन या मंदिर की दीवार, स्तम्भ अथवा भीतरी छत पर उत्कीर्ण मूर्तियों का केवल अग्रभाग हो दिखाई देता है, यद्यपि गहराई से उकेरकर उन्हें जीवन्त बना दिया जाता है। सिक्कों की आकृतियाँ भी इसी कोटि की होती हैं। चूँकि इसमें आधी आकृति बनाई जातो है, संभवतः इसीलिये इसे अर्द्धचित्र भी कहा जाता है। ये अर्द्धचित्र (Bas - Relief) भी दो शैलियों में निर्मित होते हैं-
हाई रिलीफ (High Relief):- इसमें गहराई से तराशा जाता है, ताकि आकृतियों में अधिक उभार आये और जीवन्त हो सकें।
लो रिलीफ (Low Relief) इसमें हल्का तराशा जाता है, इसीलिये आकृतियों में चपटापन सा रहता है।
कला की अवधारणाएँ
विद्वान एवं कला मर्मज्ञों ने कला को जिस प्रकार परिभाषित किया है, उससे प्रायः ललित कला ही ध्वनित होती है।
'प्लेटो' के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति सुन्दर वस्तु को अपना प्रेमास्पद चुनता है, अतः कला का प्राण सौन्दर्य है। उन्होंने कला को सत्य की अनुकृति माना है।
'अरस्तू' उसे अनुकरण कहते हैं।
'हीगल' ने कला को आदि भौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम माना है।
'क्रोचे' की दृष्टि से कला बाह्य प्रभाव की आन्तरिक अभिव्यक्ति है।
'टॉल्सटॉय' को दृष्टि में क्रिया, रेखा, रंग, ध्वनि, शब्द आदि के द्वारा भावों की वह अभिव्यक्ति जो श्रोता, दर्शक और पाठक के मन में भी वही भाव जागृत कर दे, कला है।
'फ्रॉयड' ने कला को मानव की दमित वासनाओं का उभार माना है।
'हरबर्ट रीड' अभिव्यक्ति के आह्लादक या रंजक स्वरूप को कला मानते हैं।
'रविंद्र नाथ टैगोर' के अनुसार, मनुष्य कला के माध्यम से अपने गंभीरतम अन्तर की अभिव्यक्ति करता है।
'प्रसाद जी' के अनुसार, ईश्वर की कर्तव्य शक्ति का मानव द्वारा शारीरिक तथा मानसिक कौशलपूर्ण निर्माण कला है।
'डॉ. श्याम सुन्दर दास' के अनुसार, जिस गुण या कौशल के कारण किसी वस्तु में उपयोगी गुण और सुन्दरता आ जाती है, उसको कला की संज्ञा दी जाती है।
'पी.एन. चौयल' के अनुसार, कला आदमी को अभिव्यक्ति देती है।
प्रत्येक कलाकृति से कलाकार व दर्शक दोनों को हो यदि एक प्रकार की प्रसन्नता प्राप्त हो, तो उसे सच्चे अर्थों में कला की संज्ञा दी जा सकती है।