सोमवार, 7 मार्च 2022

वो नकाब में छुपा चेहरा🧕🏻

       विशुन राजदेव टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, किरतपुर राजाराम, भगवानपुर (वैशाली) में व्याख्याता के पद पर ज्वाइन किये हुए आज 06 दिन हो गए थे। चूंकि आज शनिवार था तो सोचे की पटना जा कर के, वहां पर जो सामग्री है उसे लेकर आ जाते हैं इसके लिए 01 दिन पूर्व ही ऑनलाइन आने एवं जाने का टिकट कटा लिए थे। 

       तय समय पर महाविद्यालय से भी निकल गये 04:21 में मेरी ट्रेन थी लेकिन वह 04:30 में आई। मेरा D-2 बोगी में सीट क्रमांक 41 था।



       ट्रेन में जैसे ही बैठे तो देखा कि कोई भी सीट खाली नहीं हैं सभी सीटों पर लोग बैठे हुए हैं। जब मैं अपनी सीट यानी की 41 पर पहुंचा तो देखा की उस पर एक खूबसूरत चेहरा नकाब में🧕 बैठा हुआ था। मैंने उससे कहां- यह सीट मेरा है। कृपया आप इसे छोड़ दीजिए। उसने बड़े ही गंभीरता से नकाब के अंदर से ही लेकिन गंभीर शब्दों में कहा- नही-नही यह सीट मेरी हैं मैंने ऑनलाइन टिकट बुक कराया था और उसने बगल की सीट नम्बर 49 पर बैठे एक लड़के की ओर मुड़ते हुए कहा- भाईजान!!! यह सीट मेरी थी ना!!!! 

       उस लड़के ने एक बार मेरी ओर देखा और फिर बिना कुछ बोले उसकी ओर मुखातिब होकर बोला- सामने की सीट नंबर 50 पर बैठ जाओ। ट्रेन की चलने की दिशा में मेरा और उसका ठीक उल्टी दिशा में सीट था। उसने थोड़ी सी नाराज़गी  व्यक्त करते हुए और एक छोटे बच्चे की भांति पैरों को पटकते हुए कहा- मुझे ट्रैन चलने की उल्टी दिशा में उल्टा बैठने पर चक्कर आने लगता है। मैंने सोचा कि एक बार बोल दूं कि आप 41 पर ही रहिये मैं 50 पर चला जाता हूं क्योंकि मेरे लिए तो एक ही बात थी, तब भी वह मेरे सामने ही रहती और ऐसे भी हैं लेकिन तब-तक वह सीट नंबर 50 पर बैठ चुकी थी।
      चूंकि ट्रैन में सफर के दरम्यान मैं अधिकतर समय मोबाइल पर Blogs लिखने में ही व्यतीत करता हूं अचानक से "मेरी नजर उठी तो उसकी नजर शरमा के झुक गईं।" पता नहीं क्यूं मुझे हंसी😀 आ गई। उसके बाद मैंने उसकी आंखों में देखा क्योंकि उसका चेहरा नकाब में और मेरा मास्क में था। इसीलिए हम लोग आंखों से ही वार्तालाप कर रहे थे। वह शायद गुस्सा कर रही थी। मैंने उसे इग्नोर कर अपने कार्य में लग गया।

      तब तक हमारी ट्रैन हाजीपुर पार करके पाटलिपुत्र के लिए प्रस्थान कर चुकी थी। मेरा ध्यान उस समय टूटा जब मेरे आस-पास बैठे कुछ लोग अपने जेबों से सिक्का निकालकर खिड़की से बाहर गंगा जी मे फेंक रहे थे और माँ गंगा से आशीर्वाद ले रहे थे। एक बार पुनः मैं उसकी आंखों में देखने का प्रयास किया लेकिन उस समय उसकी नजर गंगा की लहरों में हिचकोले खाते उन दो नावों पर टिकी हुई थी। जो एक समान दिशा में चल रहे थे।



         मेरी स्थिति भी गंगा में चल रहे उस नाव की तरह से हो रही थी। अभी तो हम साथ-साथ चल रहे थे लेकिन कुछ देर उपरांत एक दूसरे से जुदा होना था। नजदीक होकर भी हम एक दूसरे से अनभिज्ञ थे।

      पाटलिपुत्र स्टेशन पहुंचते ही वह ट्रेन से उतरने लगी। मेरा टिकट तो दानापुर तक था, लेकिन मैंने भी पाटलिपुत्र में उतरना पसंद किया।


      जब तक मैं यह निर्णय लेता तब तक वह ट्रैन से उतर कर के भीड़ में कहीं खो गई। मैंने उसे वहां हर जगह ढूंढा ताकि एक अंतिम नजर से उसे गुडबाय👋🏻 तो कह सकूं लेकिन वह नहीं मिली। मैं फटाफट ऑटो-स्टैंड गया लगभग सभी ऑटो को खंगाला लेकिन उसका अंतिम दीदार नहीं हो पाया। थक-हार कर मै एक ऑटो में बैठ बेली रोड पहुंचा।


        बेली रोड पर गांधी मैदान जाने के लिए पहले से एक बस खड़ी थी और वह बस खुलने वाली थी मैं दौड़ कर बस में चढ़ा। बस में भी लगभग सारी सीटें फूल थी बस एक लेडीस सीट खाली था। क्योंकि बस में कोई लेडीस खड़ी थी नहीं, इसलिए मैं आराम से उसी सीट पर बैठ गया तभी कुछ देर उपरांत उसी बस में वही नकाब में छुपा चेहरा चढ़ा। बस के कंडक्टर ने उसे मेरी सीट के बगल में बैठने का अनुरोध किया।

        इसे आप संयोग कहे या इत्तेफ़ाक बस के सफर में भी वह मेरी हमसफ़र हीं रही बस अंतर इतना था कि कि ट्रेन में हम आमने सामने थे और बस में अगल-बगल।


इस दरम्यान मन में राहत इंदौरी का शेर उबाल मारने लगा।


जागने की भी, जगाने की भी, आदत हो जाए
काश तुझको किसी शायर से मोहब्बत हो जाए

दूर हम कितने दिन से हैं, ये कभी गौर किया
फिर न कहना जो अमानत में खयानत हो जाए

  • अमानत में खयानत का अर्थ:- 

अमानत या धरोहर के रूप में रखी वस्तु को हड़प लेना या चुरा लेना; बुरी नीयत से किसी दूसरे की संपत्ति का गबन कर लेना।

       चूंकि हमारा सफर गांधी मैदान (पटना लॉन, जिसे 10 अप्रैल 1917 से गांधी मैदान के नाम से जाने जाने लगा जब बिहार में महात्मा गांधी जी चंपारण सत्याग्रह के लिए जाने से पूर्व यहां से युवाओं को संबोधित किए थे) के कारगिल चौक तक ही था। यहां से उसे सब्जीबाग जाना था और मुझे भिखना पहाड़ी। चाहते तो यह कहानी थोड़ी सी आगे और बढ़ सकती थी लेकिन मैंने शहीद चौक पर ही अपनी कहानी को शहीद कर दिया और फिर राहत इंदौरी जी के शायरी से खुद को संभाला।


फैसला जो कुछ भी हो, हमें मंजूर होना चाहिए
जंग हो या इश्क हो, भरपूर होना चाहिए

भूलना भी हैं, जरुरी याद रखने के लिए
पास रहना है, तो थोडा दूर होना चाहिए।

         रात्रि भोजन के बाद जब बिस्तर पर सोने गए तो नींद😴 तो नहीं आ रही थी बस ख्याल यही आ रहे थे जिसे पुनः मैं राहत इंदौरी जी के शब्दों में व्यक्त कर रहा हूं।

अब जो बाज़ार में रखे हो तो हैरत क्या है,
जो भी देखेगा वो पूछेगा की कीमत क्या है।

एक ही बर्थ पे दो साये सफर करते रहे,
मैंने आज शाम यह जाना है कि जन्नत क्या है।


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