पालों ने लंबे समय तक भारत के पूर्वी भाग मुख्यत: बंगाल, बिहार पर शासन किया जो शांति एवं समृद्धि का काल रहा। इस दौरान कला के लगभग सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई।
मूर्तिकला :- पाल-काल में कांस्य एवं प्रस्तर मूर्तिकला की एक नई शैली का उदय हुआ। इसके मुख्य प्रवर्तक धीमन एवं बिथपाल थे, जो धर्मपाल एवं देवपाल के समकालीन थे। पाल कालीन कांस्य मूर्तियां ढलवां किस्म की हैं। इसके सर्वोत्तम नमूने नालंदा तथा कुक्रीहार (गया के निकट) से प्राप्त हुए हैं। ये मूर्तियां मुख्य रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, मैत्रेय तथा तारा की हैं। इनमें कुछ हिन्दू देवी-देवताओं की भी मूर्तियां हैं।
पाल युग की पत्थर की मूर्तियां काले बैसाल्ट पत्थर की बनी हैं। सामान्यतः इन मूर्तियों में शरीर के अगले भाग को दिखाने पर ध्यान दिया जाता है। इनमें अलंकरण की प्रधानता है। इनमें बुद्ध एवं विष्णु की मूर्तियों की प्रधानता है। शैव एवं जैन धर्म का प्रभाव सीमित रहा है। सभी मूर्तिया अत्यंत सुंदर, अलंकार-प्रधान एवं कला की परिपक्वता को दर्शाती हैं। कलात्मक सुन्दरता का एक अन्य उदाहरण एक तख्ती है जिस पर श्रृंगार करती हुई एक 'स्त्री' को दिखाया गया है।
चित्रकला :- पाल-काल में ताड़-पत्र एवं दीवारों पर चित्र बनाने के उदाहरण मिले हैं। इनमें लाल, नीले, काले तथा उजले रंगों का प्राथमिक रंग और हरे, बैंगनी, हल्के गुलाबी तथा भूरे रंगों का द्वितीयक रंग के रूप में प्रयोग हुआ है। पाल चित्रकला पर तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट झलकता है। चित्रकला का एक रूप भित्ति चित्र भी इस काल में चलन में था, जिसके नमूने नालंदा से प्राप्त हुए हैं। ये चित्र अब धुंधले पड़ चुके हैं किन्तु उनकी अजन्ता एवं बाघ की भित्ति चित्रात्मक परंपराओं से समानता सुस्पष्ट है।
स्थापत्य कला :- पाल स्थापत्य कला मुख्यतः ईट पर आधारित थी। इनके साक्ष्य औदंतपुरी, नालंदा एवं विक्रमशिला महाविहार हैं। पाल शासक गोपाल द्वारा औदंतपुरी में एक महाविहार एवं मठ बनवाया गया था यद्यपि इसके अवशेष सुरक्षित नहीं हैं। नालंदा में मंदिर, स्तूप एवं विहार बनवाए गए। धर्मपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार किया एवं उसका खर्च चलाने के लिए 200 गांवों की आमदनी उसे दान में दी तथा भागलपुर में 'विक्रमशिला विश्वविद्यालय' की स्थापना की जो कालांतर में नालंदा के बाद सबसे विख्यात विश्वविद्यालय के रूप में उभरा। यहां ईंट निर्मित मंदिर एवं स्तूप के अवशेष मिले हैं। इनमें पत्थर एवं मिट्टी की बनी गौतम बुद्ध की विशाल मूर्तियां हैं। जावा के शैलेन्द्र वंशी शासक बालपुत्रदेव ने पाल शासक देवपाल से अनुमति लेकर नालंदा में एक बौद्ध विहार का निर्माण कराया था।
अत: पालों के काल में एक उन्नत कला एवं स्थापत्य का विकास हुआ जो स्थिर राजनीतिक और मजूबत आर्थिक स्थिति के साथ-साथ शासकों के रचनात्मकता एवं कला के प्रति उनकी रुचि को प्रदर्शित करता है। पाल शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। अतः इनके कला पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
Key🔑 to Remember
पाल कला की विशेषता
1. मूर्तिकला:- कांस्य एवं प्रस्तर मूर्तिकला
प्रवर्तक - धीमन बिथपाल
बौद्ध मूर्तियों की प्रधानता, हिन्दू देवी-देवताओं की कुछ मूर्तियाँ।
2. चित्रकला:- ताड़-पत्र एवं दीवारों पर
तांत्रिक प्रभाव
3.स्थापत्य कला:- ईंट आधारित औदंतपुरी, नालंदा, विक्रमशिला विश्वविद्यालय एवं चैत्यों, स्तूपों आदि का निर्माण।
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