भारत में विज्ञापन का इतिहास
प्राचीन काल से ही अन्य सभ्यताओं की तरह ही भारत में भी विज्ञापन का किसी न किसी रूप में अस्तित्व रहा है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में भी ढोल बजाकर, चिल्लाकर या डुग-डुगी बजाकर उद्घोषणा करने के प्रमाण मिलते हैं। सिन्धुघाटी की सभ्यता से प्राप्त प्रमाणों में भी चिन्हों, मोहरों और लिपि के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इन मोहरों या चिन्हों का स्वरूप आधुनिक प्रतीक चिन्हों या लोगो टाइप से मिलता-जुलता है। ईसा पूर्व की लगभग ढाई-तीन हजार वर्ष पूर्व की प्राचीन सभ्यता के नगरों, हड़प्पा और मोहन जोदाड़ो, से प्राप्त अवशेषों में भी कलात्मक वस्तुएँ और मोहरें प्राप्त हुई हैं जो एक तरह से व्यापारिक चिन्ह आदि के रूप में विज्ञापन का ही माध्यम रहा होगा।
मौर्यकाल में भी सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तम्भों का निर्माण बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किया गया था जिनमें ब्राह्मी लिपि में संदेश होते थे। इन स्तम्भों के संदेशों में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए की गई घोषणाएँ हैं जो आधुनिक विज्ञापन का ही प्राचीन रूप हैं। जिस प्रकार से मुद्रण के आविष्कार ने अन्य देशों में विज्ञापन को प्रोत्साहन दिया उसी तरह भारत में भी विज्ञापन के लिए मुद्रणकला का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत में सर्वप्रथम मुद्रण-मशीन 06 सितम्बर, 1556 में संयोगवश ही आ गई। इस मुद्रण-मशीन को पुर्तगाल से गोवा होते हुए अबीसीनियां भेजा जाना था। राजनैतिक कारणों से इस मशीन को गोवा में ही रोक लिया गया और गोवा में प्रथम मुद्रण-मशीन (Printing Press) की स्थापना हुई जिससे प्रथम पुस्तक दौक्त्रीना क्रिस्ताओं का प्रकाशन किया गया। भारत में दूसरी मुद्रण-मशीन 1674-75 ई. में स्थापित की गयी जिसे गुजरात के व्यापारी भीमजी पारिख ने इंग्लैण्ड से मंगवाया था। इसके बाद लगभग 1712 ई. में मद्रास में तीसरी मुद्रण-मशीन की स्थापना की गयी। उपरोक्त सभी मशीनों की स्थापना ईसाई मिशनरियों द्वारा धर्मप्रचार के उद्देश्य के लिए की गई थी।
18वीं सदी के प्रारम्भ में कोलकाता में मुद्रण तकनीकों का विकास हो चुका था और स्थानीय लोगों ने अपनी कार्यशालाएं स्थापित कर ली थी जिनमें लकड़ी के ब्लॉक से मुद्रित देवी-देवताओं एवं बंगाली साहित्य का प्रकाशन किया जाता था। सन् 1792 में बंगाली में विज्ञापन प्रकाशित किया गया जो सम्भवत लकड़ी के ब्लॉक से मुद्रित किया गया था। 18 वीं सदी में विज्ञापन का लिखित संदेश गतिशील टाइपफेसों से तथा इलस्ट्रेशन लकड़ी के ब्लॉक से मुद्रित किये जाते थे। 18 वीं सदी के अन्त में रेखा अम्लाकन (Eaching) की तकनीक इंग्लैण्ड से भारत पहुंची और अंग्रेजों ने पुस्तकों में चित्रों एवं रेखा चित्रों का मुद्रण प्रारम्भ किया। 29 जनवरी 1779 को जैम्स आगस्ट हिक्की ने कलकत्ता (कोलकाता) में प्रथम समाचार-पत्र बंगाल गजट (हिक्की गजट) प्रकाशित किया।
सन् 1784 से समाचार पत्र 'कलकत्ता गजट' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। सन् 1786 तक कलकत्ता (कोलकाता) में चार साप्ताहिक समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ छापे जाने लगे थे। सन् 1786-88 के मध्यम विलियम डेनियल और उनके भतीजे थॉमस डेनियल ने कोलकात्ता में 'बारह दृश्य' नामक एलबम में ऐचिंग द्वारा चित्र मुद्रित किये थे।
सन् 1789 में ऐशियाटिक रिसर्चस का प्रथम ग्रन्थ कम्पनी की प्रैस से मुद्रित हुआ जिसमें भारतीय कलाकारों के पंद्रह उत्कीर्ण थे जिनमें भारतीय देवताओं के चित्र भी मुद्रित किये गये थे। इस समय बंगाल गजट नामक समाचार-पत्र में सरकारी विज्ञापन मुफ्त छपते थे। सन् 1790 से बम्बई में द कोरियर नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जिसमें सर्वप्रथम भारतीय भाषाओं - उर्दू, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में विज्ञापन छापे गये। सन् 1816 में अमेरिकी ईसाई मिशनरियों द्वारा बम्बई (मुम्बई) में मुद्रण की विस्तृत व्यवस्था की गई थी। पहला भारतीय भाषा का समाचार-पत्र दिग्दर्शन सन् 1818 में बंगाल में प्रकाशित किया गया था। भारत में 1822 ई. में लिथोग्राफी द्वारा मुद्रण प्रारम्भ किया गया था। प्रथम लिथोग्राफी प्रेस की स्थापना कोलकाता में की गई थी। पटना भी लिथोग्राफी द्वारा मुद्रण का प्रारम्भिक केन्द्र रहा है। यहाँ पर चित्रकार सर चार्ल्स डी. ओलेय ने अपने द्वारा बनाये चित्रों को मुद्रित करने के लिये बिहार लिथोग्राफी प्रेस की स्थापना की थी। इन्होंने स्थानीय चित्रकार जयरामदास को लिथोग्राफी में प्रशिक्षित किया और अपना सहायक बनाया था।
सन् 1820 से 1850 के मध्य तक कोलकाता में बहुत अधिक लिथोग्राफी प्रेसों की स्थापना हो चुकी थी और लिथोग्राफी तकनीक द्वारा चित्रों का मुद्रण किया जाने लगा था। 30 मई, 1826 को हिन्दी का पहला समाचार-पत्र उदन्त मार्तण्ड कोलकाता से प्रकाशित किया गया। उस समय छपने वाले अधिकतर विज्ञापन वर्गीकृत व घोषणाएँ होती थीं जो विदेशी वस्तुओं के लिए अधिक होते थे जैसे- टोपी, जूते, कपड़े और पनीर आदि। इन विज्ञापनों में भाषा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। उनकी भाषा काम चलाऊ होती थी। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के दशकों में धातु उत्कीर्ण की अपेक्षा काष्ठ उत्कीर्ण अधिक लोकप्रिय रहा। भारत के कला विद्यालयों में भी काष्ठ उत्कीर्ण एवं लिथोग्राफी की तकनीकों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा था।
1860 के दशक में मद्रास से 'The General Advertiser & Journal of Commerce' नामक समाचार पत्र छापा गया जिसमें चार पृष्ठ विज्ञापनों से सम्बन्धित थे। सन् 1880 तक कोलकाता में रंगीन लिथोग्राफी बहुत लोकप्रिय हो चुकी थी और बड़े-बड़े रंगीन पोस्टर लिथोग्राफी द्वारा मुद्रित किये जाने लगे थे। मुम्बई में राजा रवि वर्मा द्वारा भी अपनी लिथोग्राफी प्रेस से बड़े-बड़े पोस्टर एवं कलेण्डर मुद्रित किये गये थे। उस समय भागे हुए लड़कों के बारे में भी समाचार पत्रों में विज्ञापन छपते थे, जैसे- 31 मई 1887 को 'कलकत्ता गजट' में भागे हुए लड़के के बारे में विज्ञापन छपा था जिसमें उसके बारे में जानकारी थी एवं उसको खोज कर लाने वाले को एक सोने की मोहर (मुद्रा) देने के बारे में लिखा गया था इस प्रकार के विज्ञापनों की भाषा काम चलाऊ होती थी। 21 नवम्बर 1888 में मुम्बई से 'दी टाइम्स ऑफ इण्डिया' में दो विज्ञापन मुद्रित हुये जो खाने के सामान से सम्बन्धित थे। उस समय अधिकतर विज्ञापन विदेशी आयातित वस्तुओं से सम्बन्धित होते थे।
भारत में 1890 ई. में छपने वाले विज्ञापनों में लगभग 50 प्रतिशत विज्ञापन तो एलोपेथिक दवाओं के ही होते थे जिनकी भाषा अंग्रेजी होती थी। ये विज्ञापन 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' व 'ट्रिब्युन' में छपते थे। उस समय आयुर्वेदिक दवाओं के विज्ञापन मुम्बई समाचार-पत्र में छपते थे। संस्कृत और फारसी भाषा से अंग्रेजी में अनुवादित पुस्तकों, जैसे:- भगवद गीता, उत्तर रामचरित तथा आइने अकबरी आदि के विज्ञापन भी समाचार पत्रों में सम्मानजनक स्थान लिए हुए होते थे। 19वीं सदी के अन्त तक भारत में भी यूरोप की तरह लोकप्रिय टाइपफेशो का आविर्भाव हो चुका था। इस समय कोलकाता का बाजार तेजी से विकसित हो रहा था और इसमें ग्रामोफोन, साइकिल एवं बैंक आदि सम्बन्धी सेवायें उपलब्ध होने लगी थी।
भारत में 20वीं शताब्दी के आरम्भ में ही विज्ञापन का आधुनिक स्वरूप सामने आया। कुछ समाचार पत्रों, जैसे- स्टेट्समैन और टाईम्स ऑफ इण्डिया ने विज्ञापनदाताओं को कला सम्बन्धी एवं कॉपी लेखन के लिए सेवायें देना प्रारम्भ किया। इस समय विज्ञापनों में स्वदेशी पर जोर दिया जाने लगा था जिसका उद्देश्य भारतीय उत्पादों के प्रति जागरूकता लाना था। उस समय दिल्ली की 'हिन्दू बिस्कुट कम्पनी' ने अपने विज्ञापनों में कहा था कि उनके द्वारा बनाये गये बिस्कुट आयातित बिस्कुटों से अधिक ताजा, पौष्टिक व सस्ते हैं। इसी तरह सन् 1906 में धारीवाल कम्पनी द्वारा प्रसारित किये गये विज्ञापन का मुख्य शीर्षक था- "भारत में बना भारत का" जो कि ऊनी वस्त्रों के लिए किया गया विज्ञापन था। उस समय स्वदेशी निब, स्वदेशी होल्डर, स्वदेशी दवाइयाँ, आदि। के विज्ञापन भी प्रसारित किये जाते थे। रेलवे, बैंकिंग सेवा तथा शेयर बाजार के उदय ने भी विज्ञापन को बढ़ावा दिया।
सन् 1907 में भारत में रोटेरी मशीन के आ जाने के बाद सबसे पहले कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र स्टेट्समेन ने इस मशीन का प्रयोग शुरू किया और बाद में अन्य समाचार पत्रों ने भी इस मशीन का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया जिससे पत्र-पत्रिकाओं की छपाई सस्ती व अधिक संख्या में होने लगी। अब अधिक संख्या में लोग समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएँ पढ़ने लगे और इनमें विज्ञापनों की संख्या भी बढ़ी। उस समय कोलकाता देश की राजनीतिक राजधानी और मुम्बई देश की औद्योगिक राजधानी थी। इसलिए विज्ञापन उद्योग का प्रारम्भ भी इन्हीं केन्द्रों पर हुआ।
सन् 1907 में ही मुम्बई में प्रथम भारतीय विज्ञापन एजेन्सी की स्थापना मुम्बई में हुई। सन् 1909 में कोलकाता में विज्ञापन एजेन्सी की स्थापना हुई। ये विज्ञापन एजेन्सियाँ विज्ञापनकर्ता को कला सम्बन्धी सेवायें भी देने लगी थीं।
भारत में टाइम्स ऑफ इण्डिया ने 1910 ई. में अपने वार्षिक अंक में प्रथम बार रंगीन विज्ञापन मुद्रित किये जो पियर्स साबुन तथा इनो फ्रूट नमक से सम्बन्धित थे। इन विज्ञापनों में जो रंगीन चित्र प्रयुक्त किये गये थे वे ऐचिंग पद्धति द्वारा मुद्रित किये गये थे। इनमें 'पीयर्स' का विज्ञापन पोस्टर की तरह दिखाई देता था जबकि 'इनो फ्रूट' नमक का विज्ञापन अधिक सुरुचिपूर्ण एवं कालांकित था। इनमें चित्र वाला भाग तीन रंगों से मुद्रित किया गया था।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के समय समाचार पत्रों की प्रसार संख्या में बढ़ोतरी हुई, जिसके कारण समाचार-पत्रों की संख्या भी बढ़ी। विश्व युद्ध के पश्चात् भारतीय बाजारों में विदेशी वस्तुएं बहुतायत में आने लगीं और विदेशी निर्माताओं के लिए भारत एक बड़े बाजार के रूप में सामने आया। बाजार में वस्तुओं की अधिकता के कारण प्रेस में विज्ञापनों की संख्या भी बढ़ने लगी और इसी समय भारत में विज्ञापन के लिए बाह्य माध्यम (होर्डिंग, कियोस्क आदि अन्य विज्ञापन वाहनों) का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।
सन् 1920 के आस-पास कुछ विदेशी विज्ञापन एजेन्सियों ने भी देश में अपनी शाखाओं की स्थापना की। आज़ादी से पहले अधिकतर विज्ञापन कार, ग्रामोफोन, होटल और कपड़ों आदि से सम्बन्धित होते थे जो राजघराने के लोगों, अंग्रेजों और अमीरों के लिए प्रसारित किये जाते थे। सन् 1931 में विज्ञापन एजेन्सी ने आधुनिक एजेन्सी के रूप में काम प्रारम्भ किया। दूसरे विश्वयुद्ध के समय अंग्रेज सरकार द्वारा भी भारतीय लोगों का सहयोग प्राप्त करने के लिए विज्ञापन अभियान चलाये गये थे। अनेक विज्ञापनों में राष्ट्रीय नेताओं द्वारा दिये गये वक्तव्य भी छापे जाते थे। उस समय फिल्मों के अलावा अन्य विज्ञापनों में मॉडल के रूप में जो चित्र छपते थे उनमें भारतीय महिलाओं के चित्र नहीं होते थे। विदेशी महिलायें ही मॉडल के रूप में कार्य करती थीं हालांकि पुरुष मॉडल भारतीय ही होते थे। सन् 1939 में इण्डियन एण्ड ईस्टर्न न्यूज पेपर एसोसिएशन (IENA) का गठन किया गया और 1945 ई. में एडवरटाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इण्डिया (AAI) की स्थापना हुई। इस समय के समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में छपने वाले विज्ञापन आकर्षक एवं प्रभावी दिखाई देने लगे थे।
भारत में विज्ञापन का विकास वास्तव में आजादी के बाद ही हुआ है। सन् 1948 में समाचार पत्रों की प्रसार संख्या प्रमाणित करने के लिए ऑडिट ब्यूरो ऑफ सरक्यूलेशन की स्थापना की गई। सन् 1950 में विज्ञापन फिल्में बनने लगीं जिनकी अवधि दो मिनट होती थी। आज़ादी के बाद ही भारत में औद्योगिक विकास की गति तीव्र हुई, जिससे विज्ञापनों की संख्या भी बढ़ी एवं विज्ञापन कला को बढ़ावा मिला तथा विज्ञापन के लिए विपणन, बाजार अन्वेषण, उपभोक्ता अन्वेषण आदि नई तकनीकों का प्रयोग किया जाने लगा। सन् 1952 में भारतीय विज्ञापन समिति की स्थापना की गयी, जिसका मुख्य उद्देश्य विज्ञापनों की गुणवत्ता को सुधारना था। इस प्रकार 20वीं सदी के मध्य तक विज्ञापन का स्वरूप पूर्ण रूप से बदल गया था। सन् 1962 में मुम्बई में विज्ञापन क्लब की स्थापना की गई। इस क्लब द्वारा श्रेष्ठ विज्ञापन के लिए अखिल भारतीय पुरस्कार दिया जाने लगा और विज्ञापन एवं इससे जुड़े अन्य विषयों पर परिचर्चा, सेमीनार, स्लाइड शो आदि किए जाने लगे जिससे विज्ञापनों की गुणवत्ता में बहुत अधिक सुधार आया।
02 नवम्बर 1967 से रेडियो पर विज्ञापन प्रसारित होने लगे तथा 1967 ई. में ही नेशनल कॉउन्सिल ऑफ एडवरटाइजिंग एजेन्सीज (NCAA) की स्थापना की गई। 01 जनवरी 1976 से दूरदर्शन पर भी विज्ञापनों का प्रसारण बहुत तेजी से बढ़ा और दूरदर्शन ने व्यवसायिक रूप धारण कर लिया। सन् 1995 में दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों का व्यय प्रेस विज्ञापन से बहुत कम था जो कुछ समय तक प्रेस से ज्यादा रहा तथा वर्तमान में यह प्रेस से कुछ कम ही है। आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यमों के प्रयोग ने विज्ञापन को एक नई दिशा प्रदान की है तथा भारत में भी अन्य देशों (अमेरिका , इग्लैण्ड एवं कनाडा आदि) की तरह ही आधुनिक विज्ञापन माध्यमों एवं तकनीकों का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
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