मंगलवार, 30 नवंबर 2021

मेरी विस्मयकारी ट्रैन की यात्रा।

       ट्रेन की यात्रायें तो आप सभी ने बहुत की होंगी, मैंने भी की हैं लेकिन कुछ यात्रायें ऐसी होती है जो इंसान के लिए ज्यादा रोमांचक और विस्मयकारी हो जाती है। एक ऐसी ही यात्रा के बारे में हम आज के इस लेख में चर्चा करेंगे।

        DSSSB (दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड) की परीक्षा की तिथि आ गई थी उक्त परीक्षा 30 नवंबर को दिल्ली में आयोजित होने वाली थी इसके लिए मैंने अपनी सुविधानुसार सहरसा से न्यू दिल्ली जाने एवं आने का टिकट बनवा लिया था ताकि कही कोई परेशानी ना हो। लेकिन जब परेशानी लिखा होता है तो आप लाख प्रयत्न कर ले आपको उसे झेलना ही पड़ता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ परिस्थिति ऐसी बन गई कि मैं उस समय पटना में था और मैं सोच रहा था कि ट्रेन को यही से पकड़ लूंगा अच्छी बात यह थी कि वह ट्रेन हाजीपुर होकर जा रही थी। जैसा आप सोचते होंगे मैंने भी सोचा कि कोई बात नहीं बोर्डिंग चेंज कर लेंगे और हाजीपुर में बैठ जाएंगे। उक्त बातें सोच कर मैं निश्चिंत हो गया।

       ट्रेन पकड़ने से 02-04 दिन पहले सोचा कि अब बोर्डिंग चेंज कर लेता हूं लेकिन जैसे बोर्डिंग चेंज करने गया बार-बार मोबाइल पर यह संदेश प्रज्वल्लित हो रहा था।

     जब मैंने google बाबा से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने कुछ ये जवाब दिया।👇
    इसका अर्थ एवं मतलब जानने के लिए कई लोगों से बात की यहां तक कि मेरे एक मित्र जो कि रेलवे में कार्य करते हैं उनसे भी मदद मांगी ताकि कम-से-कम मेरा बोर्डिंग चेंज हो जाए उन्होंने भरसक प्रयास किया लेकिन वो सफल नहीं रहे। मुझे ऐसा लग रहा था की सहरसा जाकर ही ट्रेन पकड़ना होगा। यदि मैं हाजीपुर से ट्रेन पकड़ता तो, तब तक यात्रा टिकट परीक्षक महोदय यानी कि Travelling Ticket Examiner (T.T.E.) मुझे अनुपस्थित जान कर मेरा टिकट किसी और को दे चुके होते। खैर, जैसे हर बीमारी का इलाज होता है वैसे ही हर समस्या का समाधान होता है। मैंने भी इस समस्या का समाधान ढूंढ़ निकाला। वो समाधान ऐसे था कि पाटलिपुत्र से एक ट्रेन सहरसा जा रही थी मैं उस ट्रैन में बैठ हाजीपुर होते हुए सहरसा जाता और फिर अपनी ट्रेन में सहरसा से बैठ हाजीपुर होते हुए दिल्ली प्रस्थान करता। यह समाधान तो बहुत आसान लग रहा था लेकिन इसमें समस्या यह थी कि जब तक मैं सहरसा पहुंचता तब तक वह ट्रेन सहरसा से निकल चुकी होती। अब मैं वैसा विकल्प ढूढ़ने लगा जब दोनों ट्रैन एक दूसरे को कुछ समय के लिए अंतराल पर मिले और वैसा संयोग मुझे बेगूसराय में मिला क्योंकि वो ट्रेन और मेरी ट्रेन के बीच लगभग 02 घंटे का फ़ासला था। उसके उपरांत मैंने पाटलिपुत्र से बेगूसराय तक का सफर तय किया। बेगूसराय में 02 घंटे इंतजार करना बहुत मुश्किल लग रहा था  इसलिए थोड़ा स्टेशन के बाहर घूमने का मन बनायें।
       मैं पहली बार बेगूसराय स्टेशन पर आया था शायद इसी वजह से स्टेशन के बाहर का नजारा मेरे लिए अद्भुत एवं नया था वहां मुझे कुछ विशेष खाद्य पदार्थ मिले जो कि स्वाद एवं सेहत के दृष्टिकोण से काफी अच्छे थे। उसे मैंने अपनी आगे की यात्रा के लिए खरीद कर बैग में रख लिया ताकि यहां से सफर अच्छे से बीत सकें।
       मेरी जो दिल्ली की यात्रा सहरसा से शुरू होने वाली थी अब वह बेगूसराय से शुरू हो रही थी। मेरे पास बहुत ज्यादा सामान तो नहीं था लेकिन साथ में बैग के साथ एक पेंटिंग थी जिसे बहुत ही सावधानी पूर्वक लेकर जाना था। मैंने उसे अपनी सीट के किनारे खड़ी करके ले जा रहा था ताकि वह अच्छे से जा सकें। अगले दिन मेरी परीक्षा थी तो सोचा कि कुछ किताबें देख लेता हूँ और कला की जो बुक अपने साथ लेकर जा रहा था उसे निकाल कर देखने लगा। मेरी सीट Reservation against Cancellation. (RAC) थी मेरे सीट के ऊपर एक दिल्ली का लड़का यात्रा कर रहा था पता नहीं उसे क्या सूझी वह अपनी सीट के ऊपर से एकदम झांकते हुए बोला- भैया आप शिक्षक का एग्जाम देने जा रहे हैं क्या? 
मैं उसकी भविष्यवाणी से चौक गया। मैंने उसकी ओर देखा और कहा- हां 
उसके बाद उसने एक-एक करके कई प्रश्न पूछने शुरू कर दिए जैसे- शिक्षक कैसे बनते हैं? वेतन कितना मिलता है? बनने के लिए योग्यता क्या होनी चाहिए? इत्यादि।
मुझे यहां उपनिषद की याद आने लगी। जिसका अर्थ होता है- ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु के समीप बैठना। और मैंने अपने पहले कई लेखो में यह बता चुका हूं कि मैं किसी को चेला (शिष्य) बनाता ही नहीं हूं मैं सबको गुरु ही बनाता हूं ताकी मैं सब से ज्ञान प्राप्त कर संकु। जब गुरु पास बैठा हो तो ज्ञान और भी सार्थक हो जाता है। उसे मैंने अपनी सीट पर बैठाया और मेरी सीट पर जो RAC वाले अंकल थे मैंने उसे उसकी सीट पर भेज दिया और उसके बाद उससे लंबी वार्तालाप हुई। इस दरम्यान मुझे पता चला कि वो 11वीं कक्षा का छात्र और दिल्ली में रहता है ऐसे है बिहार का। बात-चीत के दरम्यान मैंने उसे अपने सोशल मीडिया के कार्य जैसे- यूट्यूब पर वीडियो बनाना, Blogs लिखना, इत्यादि। कार्यो के बारे में बताया जिससे वो काफी प्रभावित होता हुआ दिख रहा था।
       पिछले कुछ दिनों से मेरी ट्रेन की यात्रायें बढ़ गई थी और मेरे साथ ऐसा पहली बार हो रहा था कि यात्रा के दरम्यान कोई ना कोई वस्तु मेरी ट्रेन में छुट जा रही थी। शायद इसी वजह से इस यात्रा में मैं ज्यादा सतर्क था और कोशिश कर रहा था कि कम-से-कम मेरी यह यात्रा अच्छे से बीते। दिल्ली पहुंचने से पूर्व ही मैंने अपनी बैग सीट पर रख ली और एक-एक करके सभी सामानो को उसमे रख लिया ताकि पुरानी घटनाएं मेरे साथ परावर्तित ना हो। तय समय पर ट्रेन मुझे दिल्ली छोड़ दी। उसके उपरांत रात में सोने से पूर्व मैंने सोचा कि कल तो मेरी परीक्षा है इसलिए एक बार कला की किताब देख लेता हूं जब बैग खोला तो उसमें से किताब नदारद थी। पुनः अपने आप को उस ट्रेन में ले गया जिससे यात्रा की थी और पता करने की कोशिश की, कि गलती कहां हुई तो स्मरण आया कि किताब पढ़ने के उपरांत मैंने उसे सीट पर रख दिया था और सीट के साइड से वो किताब सीट के नीचे गिर गया थी और मैंने अपना बैग सीट के नीचे से पहले ही निकाल लिया था जिस वजह से ट्रेन से उतरने के दरम्यान सीट के नीचे देखा ही नहीं बल्कि सीट के ऊपर रखे बैग को लेकर ट्रैन से नीचे उतर आए और कला की किताब ट्रैन में ही रह गई।😥

मेरी यह ट्रेन की यात्रा शुरुआत से लेकर अंत तक सुखद नही रही।

रविवार, 28 नवंबर 2021

कर्मफल


        एक बार एक किसान जंगल में लकड़ी बीनने गया तो उसने एक अद्भुत बात देखी की एक लोमड़ी के दो पैर नहीं थे, फिर भी वह खुशी-खुशी अपने आप को घसीट कर चल रही थी। यह कैसे ज़िंदा रहती होगी जबकि यह किसी शिकार को पकड़ना तो दुर उसके नजदीक भी नहीं जा सकती है। किसान उक्त बातें सोच रहा था तभी उसने देखा कि एक शेर अपने दांतो में एक शिकार दबाए उसी की तरफ आ रहा है। शेर को देखते ही सभी जानवर भागने लगे, वह किसान भी पेड़ पर चढ़ गया। उसने देखा कि शेर उस लोमड़ी के पास आया। उसे खाने की जगह, प्यार से शिकार का थोड़ा हिस्सा डालकर चला गया।

दूसरे दिन भी उसने देखा कि शेर बड़े प्यार से लोमड़ी को खाना देकर चला गया। किसान ने इस अद्भुत लीला के लिए भगवान को मन में नमन🙏 किया। उसे अहसास हो गया कि भगवान जिसे पैदा करते है उसकी रोटी का भी इंतजाम कर देते हैं।

यह जानकर वह भी एक निर्जन स्थान पर चला गया और वहां पर चुपचाप बैठ कर भोजन का रास्ता देखने लगा। कई दिन गुज़र गए लेकिन कोई नहीं आया। वह मरणासन्न होकर वापस लौटने ही वाला था कि तभी उसे एक विद्वान महात्मा मिले। उन्होंने उसे भोजन-पानी कराया। तब वह किसान उनके चरणों में गिरकर रोने लगा और रोते-रोते वह लोमड़ी की बात बताते हुए बोला- महाराज, भगवान ने तो उस अपंग लोमड़ी पर दया दिखाई पर मैं तो मरते मरते बचा। ऐसा क्यों हुआ कि भगवान् मुझ पर इतने निर्दयी हो गए ?

महात्मा उस किसान के सर पर हाथ फिराकर मुस्कुराकर बोले- तुम इतने नासमझ हो गए कि तुमने भगवान का इशारा भी नहीं समझा इसीलिए तुम्हें इस तरह की मुसीबत उठानी पड़ी। तुम ये क्यों नहीं समझे कि भगवान् तुम्हे उस शेर की तरह मदद करने वाला बनते देखना चाहते थे, निरीह लोमड़ी की तरह नहीं।

हमारे जीवन में भी ऐसा कई बार होता है कि हमें चीजों को जिस तरह समझनी चाहिए उसके विपरीत समझ लेते हैं। ईश्वर ने हम सभी के अंदर कुछ न कुछ ऐसी शक्तियां दी हैं जो हमें महान बना सकती हैं। चुनाव हमें करना है की हमे शेर बनना है या लोमड़ी


जो प्राप्त है वही पर्याप्त है।


महाभारत की कथा से।

 


      बात उस समय की है जब पांडव अपना 13 वर्ष का वनवास समाप्त कर चुके थे, अब उन्हें एक साल अज्ञातवास में रहना था। श्रीकृष्ण की सलाह पर वह सभी राजा विराट के दरबार में पहुंचे और एक-एक करके अपनी विद्या का प्रदर्शन कर उनके यहां कार्य करने लगे।

युधिष्ठिर कंक बन गये।  

       धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में पहुँचकर कहा- “हे राजन! मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम 'कंक' है। मैं द्यूत विद्या में निपुण हूँ। आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”


द्यूत यानी कि "जुआ" वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार बैठे थे। कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को सिखाने लगे। 


जिस बाहुबली के लिये रसोइये दिन-रात भोजन परोसते रहते थे वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर स्वयं रसोइया बन गये। 


नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे। 


दासियों सी घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी स्वयं एक दासी सैरंध्री बन गयी। 


       और वह धनुर्धर। उस युग का सबसे आकर्षक युवक वह महाबली योद्धा। वह द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य। वह पुरूष जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था। 


वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक अर्जुन। नायकों का महानायक अर्जुन एक नपुंसक बन गया। 


एक नपुंसक ? 


उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली लगा कर, आंखों में काजल लगा कर, एक नपुंसक  "बृह्नला" बन गया। 


         युधिष्ठिर राजा विराट का अपमान सहते रहे। पौरुष के प्रतीक अर्जुन एक नपुंसक सा व्यवहार करते रहे। नकुल और सहदेव पशुओं की देख रेख करते रहे। भीम रसोई में पकवान पकाते रहे और द्रौपदी एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही। 


परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हेतु कंक बन गया। पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक बन गया। 


एक महाबली साधारण रसोईया बन गया। 


पांडवों के लिये वह अज्ञातवास नहीं था, अज्ञातवास का वह काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।


वह जिस रूप में रहे, जो अपमान सहते रहे, जिस कठिन दौर से गुज़रे, उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। अज्ञातवास का वह काल परिस्थितियों को देखते हुये परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था। 


आज भी इस राष्ट्र में अज्ञातवास जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा दिखाई देते हैं। कोई धन्ना सेठ की नौकरी करते हुये उससे बेवजह गाली खा रहा है क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल की फीस भरनी है। 


बेटी के ब्याह के लिये पैसे इक्कठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खा कर सामान बेचता दिखाई देता है। 


        ऐसे-ऐसे उदाहरण गिनवाने लगूं तो शायद ऐसे असँख्य उदाहरणों से लेखों की शृंखला लिख दुं। ऐसे असँख्य पुरुषों के रोज़ के सँघर्ष की सत्यकथाओं से हर रोज़ पाठकों को रूबरू करवा दुं जो अपना सुख दुःख छोड़ कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं। 


यदि आपको रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू होने का मौका मिले तो उनका आदर कीजिये। उनका सम्मान कीजिये। राह चलता गुब्बारे बेचने वाला आपकी गाड़ी के शीशे पर दस्तक इसलिये दे रहा है क्योंकि उस गुब्बारे के बदले में मिलने वाले चंद रुपयों में उसकी नन्ही सी बिटिया की रोटी छिपी है। फैक्ट्री के बाहर खड़ा गार्ड, होटल में रोटी परोसता वेटर, सेठ की गालियां खाता मुनीम, वास्तव में कंक, बल्लभ और बृह्नला हैं। 


वह अज्ञातवास जी रहे हैं।


परंतु वह अपमान के भागी नहीं हैं। वह प्रशंसा के पात्र हैं। यह उनकी हिम्मत है, उनकी ताकत है, उनका समर्पण है की विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं। 


वह कमजोर नहीं हैं। उनके हालात कमज़ोर हैं। उनका वक्त कमज़ोर है। 


याद रहे,


अज्ञातवास के बाद बृह्नला ने जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों का नाश कर दिया। पुनः अपना यश अपनी कीर्ति सारे विश्व में फैला दी। 


वक्त बदलते वक्त नहीं लगता इसलिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो, उसका उपहास और अनादर ना करें। 


उनका सम्मान करें, उनका साथ दें। 


क्योंकि एक दिन अवश्य अज्ञातवास समाप्त होगा। समय का चक्र घूमेगा और बृह्नला का छद्म रूप त्याग कर धनुर्धर अर्जुन इतिहास में ऐसे अमर हो जायेंगे के पीढ़ियों तक बच्चों के नाम उनके नाम पर रखे जायेंगे। इतिहास बृह्नला को भूल जायेगा। इतिहास अर्जुन को याद रखेगा। 


हर सँघर्षशील व्यक्ति में बृह्नला को मत देखिये। कंक को मत देखिये। भल्लब को मत देखिये। हर सँघर्षशील व्यक्ति में धनुर्धर अर्जुन को देखिये। धर्मराज युधिष्ठिर और महाबली भीम को देखिये। 


क्योंकि एक दिन हर संघर्षशील व्यक्ति का अज्ञातवास खत्म होगा। 


यही नियति है। 

यही समय का चक्र है। 


यही महाभारत की सीख है। 


शनिवार, 27 नवंबर 2021

नवोदय की वो पहली चाय☕ (Navodaya ki wo pahli chai)

        जवाहर नवोदय विद्यालय सुखासन, मधेपुरा (बिहार) में अपना योगदान दिये हुए मुझे एक सप्ताह से ऊपर हो गया था। कमी तो किसी चीज की यहां नहीं थी बस एक ही चीज की तलब महसूस हो रही थी वह थी - चाय☕.

      कैलाश सर, जो को यहां पर गणित के शिक्षक के रूप में मेरे साथ ही योगदान दिए थे। उनके साथ एक दिन सिंहेश्वर धाम जाने एवं भगवान शिव के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कोरोना की गाइडलाइन की वजह से मंदिर का गर्भगृह तो बंद था लेकिन मंदिर के बाहर से ही श्रद्धालुओं के द्वारा पूजा-पाठ किया जा रहा था। मंदिर के बारे में विस्तृत विवरण नीचे दिए गए लिंक से आप पढ़ सकते हैं👇


https://biswajeetk1.blogspot.com/2021/09/blog-post_93.html


फिलहाल हम अपने विषय पर लौटते हैं....

         मंदिर से दर्शन के उपरांत आते समय अचानक से ध्यान आया कि चाय बनाने की सारी सामग्रियां खरीद लेते हैं। चाय के स्वाद में कही कोई कमी ना रह जायें इसलिए याद कर-करके एक-एक चीजें हम खरीद रहे थे। मेरा मानना है कि जिंदगी और चाय में टेस्ट हमेशा बना रहना चाहिए।  अमूमन लोग चाय बनाने के लिए दूध और चायपत्ती की परिकल्पना करते हैं लेकिन मेरी चाय की लिस्ट में सामग्री की सूची लंबी होती जा रही थी, जिसे देख- देखकर कैलाश सर भी आश्चर्यचकित हो रहे थे। अंतिम में मैंने जब 100 ग्राम इलायची की मांग की तो उनसे रहा नहीं गया और बीच मे बोल उठे!!! सर, इतनी इलाइची का क्या कीजिएगा?? ₹05 - ₹10 की ले लीजिए काफी हैं। मैंने उनकी बात को स्वीकार करते हुए 50 ग्राम इलायची ले ली। विद्यालय पहुंचने पर उन्होंने पूरे परिसर में यह बात फैला दी थी आर्ट सर तो चाय के लिए ₹250/- कि केवल इलायची लाये हैं। नवोदय विद्यालय में किसी भी शिक्षक को उसके नाम से कम उसके सब्जेक्ट से ज्यादा जाना जाता है। जैसे मैं आर्ट सब्जेक्ट पढ़ाता आता हूं तो आर्ट सर. कोई रसायन शास्त्र पढ़ाता है तो केमेस्टरी सर... इसकी शुरुआत किसने की इसके बारे में तो मुझे नहीं पता लेकिन सुनकर अच्छा लगता था।

      चाय पीने के लिए कप मैंने दो दिन पहले ही Flipkart से ऑनलाइन ऑर्डर कर दिया था, जो कि एक-दो दिनों में पहुंचने वाला था। अब बस इंतजार था की कब कप आए और चाय की पार्टी की जायें।

       ....इंतजार ज्यादा लंबा नहीं चला और अगले ही दिन शाम में ही 01 दिन पहले Flipkart का कुरियर बॉय आ गया यानी मेरा इंतजार उससे भी नहीं देखा गया शायद! बस!!!, फिर क्या था, फटाफट चाय पार्टी की प्लानिंग बन गई। इवनिंग असेम्बली के बाद मैंने सुदर्शन सर (कंप्यूटर  सर), कैलाश सर (मैथ सर), चंदन सर (इंग्लिश सर), सफान सर (इकोनॉमिक्स सर) और सज्जाद सर को आमंत्रण दे दिया। सज्जाद सर को छोड़कर सभी लोग रूम पर आ गए थे। चाय बनाने के लिए जब मैं किचन में गया तो देखा कि पानी ही नहीं है और मैंने दिन में पानी भरा ही नहीं था। मैं सोच ही रहा था की क्या करूं तभी कंप्यूटर  सर मेरी मदद करने के लिए किचन में आये। जब उन्होंने देखा कि किचन में पानी नहीं है तो फटाफट वो अपने रूम पर गए और और एक बोतल पानी लेकर आए। सज्जाद सर भी आएंगे यह सोचकर मैंने 06 कप चाय बनने के लिए रख दिया। 

       चाय अच्छी बने यह सोचकर मैंने 03-04 चम्मच एक्स्ट्रा ही दूध डाल दिया। चूंकि मैं पाउडर वाले दूध से चाय बना रहा था। वो दूध इतना गाढ़ा हो गया कि चाय वाले बर्तन में ही नीचे एक मोटा लेयर बैठ गया और जलने भी लगा। दूध के जलने की महक पूरे किचन में फैल गई। दूध जलने की महक बगल के रूम में बैठे बाकी सर के पास पहुंचे उससे पूर्व ही मैंने दूध को दूसरे बर्तन में खाली करके फिर से दूध घोला और चाय बनाने की प्रक्रिया पूर्ण की। 

      आखिररकार!!! हमारी मेहनत रंग लाई और चाय बन गई। अब बस उसे कप में निकालना था। कप भी मैंने धो करके तैयार कर लिया। तब-तक कंप्यूटर सर पुनः किचन में आये और बोले कि - सर लेट हो रहा है? मैंने कहा - सर, चाय तैयार हैं बस छान कर ला रहे हैं। तब तक आप ये बिस्किट लेकर चलिए। सुदर्शन सर बिस्किट लेकर चले गए लेकिन मेरे सामने पुन: एक समस्या आ गई और वह यह थी कि चाय की सभी सामग्री खरीदते समय मैंने चाय छानने वाला उपकरण यानी चाय छन्नी खरीदा ही नहीं था। इस समस्या का त्वरित समाधान करना था। मैंने फटाफट एक सफेद सूती का गमछा लाया जिसे कुछ दिनों पूर्व ही खरीदा था उसे लेकर पहले पानी मे अच्छे से धोया फिर उससे चाय छानने का भरसक प्रयास करने लगा क्योंकि मैंने देखा था कि शादी-वगैरह में ऐसे ही सफेद धोती से लोग चाय छानते हैं लेकिन धोती का कपड़ा थोड़ा पतला होता है उससे चाय आसानी से निकल जाती है लेकिन गमछा थोड़ा मोटा था मेरे लाख प्रयत्न के बाद भी चाय गमछे से नहीं निकल पा रहा थी। 

       सफेद रंग का गमछा चाय के रंग से रंगीन हो गया लेकिन कप में चाय नही आया या थोड़ा-बहुत आया। फिर सुई की मदद से उस गमछे में छेद कर-कर के चाय को निकाला। इस प्रयास में चाय मेरे शरीर, कपड़ों एवं जमीन पर गिर गया।पुरी प्रक्रिया के पश्चात मेरे पास 05 कप चाय ही आया और जब मैंने आदमी को गिना तो मुझको लेकर 06 लोग हो रहे थे। फिर मैंने सोचा कि फिलहाल 05 को ही दे देंगे और स्वयं के बारे में विचार करेंगे लेकिन जैसे ही चाय लेकर गया तो देखा कि अभी तक सज्जाद सर नहीं आये थे यानी मुझको लेकर 05 लोग ही हो रहे थे यानी सब के बीच एक-एक कप बंट गया और नवोदय की वो पहली चाय की पार्टी सेलिब्रेट🎉 हो पाई। चाय पार्टी को और अधिक मजेदार मैंने बनाया और कुछ दिन बाद कंप्यूटर सर का जन्मदिन था मैंने उनके लिए एक तस्वीर बनाई थी जो कि उन्हें भेंट की। इस तरह से चाय पार्टी मेरे साथ-साथ कंप्यूटर सर (सुदर्शन सर) के लिए भी यादगार बन गई।









गुरुवार, 25 नवंबर 2021

हमारा संविधान

 


           आज ही के दिन हमारे देश भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हुआ था। इसलिये वर्ष 2015 से प्रति वर्ष 26 नवम्बर को भारत में संविधान दिवस या विधि दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ० भीमराव आंबेडकर के 125वीं जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर 2015 को पहली बार भारत सरकार द्वारा संविधान दिवस सम्पूर्ण भारत में मनाया गया तथा 26 नवम्बर 2015 से प्रत्येक वर्ष सम्पूर्ण भारत में संविधान दिवस मनाया जा रहा है। इससे पहले इसे हम राष्ट्रिय कानून दिवस के रूप में मनाते थे। संविधान सभा ने भारत के संविधान को 02 वर्ष 11 माह 18 दिन में 26 नवम्बर 1949 को पूरा कर राष्ट्र को समर्पित किया गया था। गणतंत्र भारत में 26 जनवरी 1950 से संविधान अमल में लाया गया।

      भारतीय संविधान की मूल प्रति को पद्म विभूषण से सम्मानित कला गुरू नन्दलाल बोस ने चित्रों से अलंकृत किया था। नन्दलाल बोस की मुलाकात प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू से गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन में हुई और वहीं नेहरू जी ने नन्दलाल बोस को आमंत्रण दिया कि वे भारतीय संविधान की मूल प्रति को अपनी चित्रकारी से सजाएं। 

         संविधान की मूल प्रति को प्रेम बिहारी रायजादा ने इटैलिक स्टाइल कैलिग्राफी में खूबसूरती से हाथ से लिखा था। 251 पृष्ठ के इस पांडुलिपि के हर पन्नों पर चित्र बनाना सम्भव नहीं था। अत: नन्दलाल बोस ने संविधान के प्रत्येक भाग की शुरुआत में 8"-13" इंच के चित्र बनाए। नन्दलाल बोस ने व्यौहार राममनोहर सिन्हा और अपने अन्य छात्रों के सहयोग से कुल 22 चित्र बनाए और इतनी ही किनारियों से सजाया। अजन्ता और बाघ से प्रेरित इन चित्रों को बनाने में चार साल लगे और उन्हें इसके लिए उन्हें ₹21,000 पारिश्रमिक दिया गया था। धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र भारत के संविधान की मूल प्रति में शान्ति का उपदेश देते भगवान बुद्ध भी हैं और वैदिक यज्ञ करते ऋषि की यज्ञशाला भी, काल की छाती पर पैर रखकर नृत्य करते नटराज, कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए श्रीकृष्ण और स्वर्ग से देव नदी गंगा का धरती पर अवतरण भी, हिन्दू धर्म के प्रतीक शतदल कमल भी संविधान की मूल प्रति पर चित्रित है। ये सब किसी धर्म विशेष नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास की विकास यात्रा को दर्शाने वाले चित्र है। 

        संविधान के पहले पन्ने पर भारत के राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तम्भ की लाट का चित्र है, जिसे उनके प्रिय शिष्यों में से एक दीनानाथ भार्गव ने बनाया था। हड़प्पा की खुदाई से मिले घोड़े, शेर, हाथी और सांड़ की चित्रों को लेकर सुनहरी किनारी से भारतीय संविधान की प्रस्तावना को सजाया गया है। संविधान में मुगल बादशाह अकबर अपने दरबार में बड़े शान से बैठे हुए दिख रहे हैं, सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह भी वहां मौजूद हैं, मैसूर के सुल्तान टीपू और 1857 की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई के चित्र भी संविधान की मूल प्रति पर उकेरे गए हैं। भारत की सांस्कृतिक विविधता को चित्रों मे समेटे संविधान की मूल प्रति संसद के पुस्तकालय में हीलियम से भरे डिब्बों में सुरक्षित रखी है।

The HOPE Experiment by साइंटिस्ट कर्ट रिचट्टर


       1950 के दशक में हावर्ड यूनिवर्सिटी के विख्यात साइंटिस्ट कर्ट रिचट्टर ने चूहों पर एक अजीबोगरीब शोध किया था। कर्ट ने एक जार को पानी से भर दिया और उसमें एक जीवित चूहे को डाल दिया। पानी से भरे जार में गिरते ही चूहा हड़बड़ाने लगा औऱ

जार से बाहर निकलने के लिए लगातार ज़ोर लगाने लगा। चंद मिनट फड़फड़ाने के पश्चात चूहे ने जार से बाहर निकलने का अपना प्रयास छोड़ दिया और वह उस जार में डूबकर मर गया। 


कर्ट ने फ़िर अपने शोध में थोड़ा सा बदलाव किया।


उन्होंने एक दूसरे चूहे को पानी से भरे जार में पुनः डाला। चूहा जार से बाहर आने के लिये ज़ोर लगाने लगा। जिस समय चूहे ने ज़ोर लगाना बन्द कर दिया और वह डूबने को था......ठीक उसी समय कर्ड ने उस चूहे को मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया। 


कर्ट ने चूहे को उसी क्षण जार से बाहर निकाल लिया जब वह डूबने की कगार पर था। 


चूहे को बाहर निकाल कर कर्ट ने उसे सहलाया...... कुछ समय तक उसे जार से दूर रखा और फिर एकदम से उसे पुनः जार में फेंक दिया। पानी से भरे जार में दोबारा फेंके गये चूहे ने फिर जार से बाहर निकलने की अपनी जद्दोजेहद शुरू कर दी। लेकिन पानी में पुनः फेंके जाने के पश्चात उस चूहे में कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिले जिन्हें देख कर स्वयं कर्ट भी बहुत हैरान रह गये। 


कर्ट सोच रहे थे कि चूहा बमुश्किल 15-20 मिनट तक संघर्ष करेगा और फिर उसकी शारीरिक क्षमता जवाब दे देगी और वह जार में डूब जायेगा। 


लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 


चूहा जार में तैरता रहा। अपनी जीवन बचाने के लिये लगातार सँघर्ष करता रहा। 


60 घँटे.......


जी हाँ..... 60 घँटे तक चूहा पानी के जार में अपने जीवन को बचाने के लिये सँघर्ष करता रहा। 


कर्ट यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये। 


जो चूहा महज़ 15 मिनट में परिस्थितियों के समक्ष हथियार डाल चुका था........वही चूहा 60 घंटों तक कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा था और हार मानने को तैयार नहीं था। 


कर्ट ने अपने इस शोध को एक नाम दिया और वह नाम था-


"The HOPE Experiment"


Hope........यानि की आशा। 


कर्ट ने शोध का निष्कर्ष बताते हुये कहा कि जब चूहे को पहली बार जार में फेंका गया तो वह डूबने की कगार पर पहुंच गया उसी समय उसे मौत के मुंह से बाहर निकाल लिया गया। उसे नवजीवन प्रदान किया गया। उस समय चूहे के मन मस्तिष्क में "आशा" का संचार हो गया। उसे महसूस हुआ कि एक हाथ है जो विकटतम परिस्थिति से उसे निकाल सकता है। 


जब पुनः उसे जार में फेंका गया तो चूहा 60 घँटे तक सँघर्ष करता रहा.......

वजह था- वह हाथ!!! वह आशा!!! वह उम्मीद!!!


इसलिए हमेशा,


उम्मीद बनाये रखिये, सँघर्षरत रहिये, 


सांसे टूटने मत दीजिये, मन को हारने मत दीजिये।

रविवार, 21 नवंबर 2021

Major Dhyan Chand Khel Ratna Award 2021

 


Name of the Sportsperson       Discipline

Neeraj Chopra                             Athletics

Ravi Kumar                                 Wrestling

Lovlina Borgohain.                    Boxing

Sreejesh P.R                                 Hockey

Avani Lekhara                            Para Shooting

Sumit Antil                                  Para Athletics

Pramod Bhagat                          Para Badminton 

Krishna Nagar                           Para Badminton 

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शनिवार, 20 नवंबर 2021

जज्बातों के भव सागर से।


जो तुम्हारा हो ना सके, 

कभी उसकी चाहत मत करना।

अगर हो सच में वह पत्थर, 

तो कभी इबादत मत करना।


 आदतों से यूं ही हंस कर 

दो-चार बाते कर लेना।

मगर किसी से बात करने की, 

आदत मत करना।


जो परिंदे उड़ जाना चाहते है, 

उन्हें रोकना मत।

पिजरे खोल देना, 

इजाजत-विजाजत मत करना।


अगर हो सफर में तो, 

अनवरत चलते रहो।

लक्ष्य को लेकर खुद पर, 

राहत मत करना।


मंजिल मिलेगी,

तुम्हें भी एक दिन।

किसी की बातों में आकर,  

सपनो को अपने चकनाचूर मत करना।


मंजिल तक पहुंचने में, 

लाख रुकावटे आती है। 

हंसकर उन सभी को, 

आत्मसात करते रहना।


मंजिल पर पहुंच कर, 

भूल ना जाना उन ख्वाबों को।

जो तुम्हारे ख्वाब पूरे करने के लिए, 

अपने ख्वाबों की बलि देते रहे हैं।

विश्वजीत कुमार✍️


Photographer (छायाकार)

 


         एक फोटोग्राफर ही ऐसा प्राणी है जो मंदिर भी जाता है और मस्जिद भी। वो चर्च भी जाता है और गुरुद्वारे भी। फोटोग्राफर का हर धर्म एवं मजहब से नाता है। वो सुख, दुख, हंसी, उदासी एवं गम हर तरह की यादें बनाता है। फोटोग्राफर का हर इमोशन से नाता है वो कभी लेटकर, कभी उठकर, कभी बैठकर तो कभी-कभी टेढा-मेढा सा होकर विभिन्न एंगल से यादो को कैद करते रहता है।

        फोटोग्राफर का हर एंगल से नाता है वो अकेले के लिये भी दौड़ता है और भीड के लिये भी। फोटोग्राफर का हर परिस्थितियों से नाता है। 

       आप मत पूछिये की एक फोटोग्राफर क्या-क्या संजोता है वो तो हर पल की यादो की छवि आपके हाथो में दे जाता है।

सोमवार, 15 नवंबर 2021

स्वतन्त्र भारत में भाषा-समस्या (Language Problem in Free India) S-1 D.El.Ed. 2nd Year B.S.E.B. Patna.

  'कोठारी कमीशन' के शब्दों में , "स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय से हमारे देश ने जिन समस्याओं का सामना किया, उनमें भाषा की समस्या सबसे अधिक जटिल रही है और अब भी है।"

           स्वतन्त्र भारत में भाषा-समस्या की जटिलता के दो मुख्य कारण रहे हैं और अब भी हैं। पहला कारण यह है कि भारत, बहुभाषी देश है। सन् 1971 की जनगणना के अनुसार भारत में 1,652 मातृभाषाएँ (Mother Tongues) और 380 बोलियाँ (Dialects) हैं, जिनमें से केवल 15 को भारतीय संविधान में स्थान दिया गया है। दूसरा कारण यह है कि देश के शिक्षाविदों एवं राजनीतिज्ञों में किसी सामान्य भाषा के विषय में सदैव मत-विभिन्नता रही है; यथा-

1. महात्मा गाँधी के अनुसार, "जिस राष्ट्र के बच्चे अपनी मातृभाषा के अलावा किसी अन्य भाषा के द्वारा शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे स्वयं अपनी हत्या करते हैं।" 

2. रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “हमारे विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा अपने सम्मानपूर्ण स्थान से अपदस्थ नहीं की जा सकती है।" 

3. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार , "राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी, देश की एकता से अधिक से अधिक से सहायक होगी।" 

4. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार, 'केवल शिक्षा ही नहीं, वरन् प्रशासन में भी प्रान्तीय भाषाओं को अपना स्थान प्राप्त होना चाहिए।" 

5. जी. रामनाथन के अनुसार, "अहिन्दी क्षेत्रों के व्यक्ति, हिन्दी के प्रसार के सब प्रयासों का विरोध कर रहे हैं।" 

सरकार के द्वारा भाषा-समस्या के समाधान का प्रयास 

(Government Efforts To Solve Language Problem) 

       उपरिलिखित बाधाओं एवं विरोधी विचारों से हतोत्साहित न होकर, भारत सरकार ने भाषा-समस्या का समाधान करने के लिए समय-समय पर जो प्रयास किए हैं, उनका वर्णन अधोलिखित है- 

1. भारतीय संविधान (Constitution of India, 1950)- 15 अगस्त, 1947 को जब भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की, तब उसके समक्ष अनेक समस्याएँ थीं। इनमें से एक समस्या भाषा की थी। सभी स्वतन्त्र राष्ट्रों की अपनी राजभाषा होती है। अतः स्वतन्त्र भारत की भी राजभाषा होनी आवश्यक थी। यह स्थान एवं सम्मान हिन्दी को प्रदान किया गया। 

       हिन्दी को यह प्रतिष्ठित स्थान अकस्मात् या संयोगवश प्राप्त नहीं हुआ। उसे यह स्थान प्राप्त करने का आधारभूत कारण था- अनेक महान् भारतीयों द्वारा हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के लिए अथक प्रयास किया जाना। इन भारतीयों में सर्वमहान् थे- लोकमान्य तिलक, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सुभाषचन्द्र बोस, श्यामाप्रसाद मुकर्जी, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सर्वोपरि राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी गाँधीजी ने 27 दिसम्बर, 1917 को कलकत्ता में अपने एक भाषण में कहा था- "सर्वप्रथम और सर्वमहान् सेवा जो हम कर सकते हैं, वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में राष्ट्रीय स्थान प्रदान करना है।" 

      उल्लिखित महान् भारतीयों के कार्यों और महात्मा गाँधी के विचारों से अनुप्राणित होकर, विधानसभा ने 1950 के भारतीय संविधान की धारा 343 को बिना किसी मत-विभिन्नता के स्वीकार किया। इस धारा में अंकित किया गया था। (i) संघ की भाषा, देवनागरी लिपि में हिन्दी होगी। (ii) संविधान के लागू होने के समय से 5 वर्ष तक संघ के सब राजकीय कार्यों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग किया जायेगा।

रविवार, 14 नवंबर 2021

री-रूटिंग ...Re-Routing... पुन: अनुमार्गण

 


     हमें कहीं भी अनजान जगह पर जाना हो तो फटाक से गूगल मैप खोल लेते हैं और उसके सहारे आसानी से अपनी मंजिल तक पहुंच जाते हैं। आज का यह लेख✍️ इसी पर आधारित है:-

     आपने देखा है कि अगर आप गलत मोड़ लेते हैं तो Google मानचित्र कभी भी चिल्लाता😬 नहीं है, निंदा😠 नहीं करता है या आपको डांटता😫 नहीं है।


    यह कभी नहीं कहता है की "आपको आखिरी क्रॉसिंग पर बाएं जाना था, बेवकूफ! अब आपको लंबा रास्ता तय करना होगा और इसमें आपको बहुत अधिक समय लगने वाला है और आपको अपनी बैठक के लिए देर होने वाली है। ध्यान देना सीखो और मेरे निर्देशों को सुनो, ठीक है ???

     अगर उसने ऐसा किया तो संभावना है कि हम में से बहुत से लोग इसका इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं। लेकिन Google केवल री-रूट करता है और आपको वहां पहुंचने का अगला सबसे अच्छा तरीका दिखाता है। इसकी प्राथमिक रुचि आपको अपने लक्ष्य तक पहुँचाने में है, न कि आपको गलती करने के लिए बुरा महसूस कराने में। 

एक बहुत अच्छा सबक है... 

अपनी निराशा और क्रोध को उन लोगों पर उतारना आसान है, जिन्होंने गलती की है। लेकिन सबसे अच्छा विकल्प समस्या को ठीक करने में मदद करना है, दोष देना नहीं।

      अपने बच्चों, जीवनसाथी, टीम के साथी और उन सभी लोगों के लिए Google मानचित्र बनें, जो आपके लिए मायने रखते हैं और जिनकी आपको परवाह है।

धन्यवाद🙏


विद्यालय के संगठनात्मक पक्ष, उद्देश्य एवं सिद्धांत. D.El.Ed. 2nd Year S-1 B.S.E.B. Patna.

विद्यालय के संगठनात्मक पक्ष


          विद्यालय के संगठनात्मक पक्ष के अंतर्गत भौतिक एवं मानवीय तत्वों का समावेश होता है। यदि किसी विद्यालय की नींव रखनी हो तो उसके लिए जगह ,वातावरण ,जल, भवन ,फर्नीचर ,शैक्षिक साज-सज्जा, शिक्षक एवं शिक्षकेतर कर्मचारियों आदि की व्यवस्था करनी होती है। किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें लक्ष्य को ध्यान में रखकर एक समग्र योजना बनानी पड़ती है तथा उस योजना को छोटे-छोटे पदों में विभक्त कर उसकी प्राप्ति के लिए हम लगातार परिश्रम करते हैं। अंत में , हम अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होते हैं। विद्यालय संगठन वह संरचना है जिसमें शिक्षक, छात्र, प्रधानाध्यापक , परीनिरीक्षक तथा अन्य व्यक्ति विद्यालय की क्रियाओं को चलाने के लिए मिलकर कार्य करते हैं एवं निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समस्त उपलब्ध भौतिक एवं मानवीय तत्वों की समुचित इंतजाम करना विद्यालय संगठन का ही कार्य होता है।

        विद्यालय संगठन के अंतर्गत न केवल उचित व्यवस्था ही आती है, बल्कि विभिन्न विद्यालय तत्वों के बीच समन्वय स्थापित करना भी इसमें समाहित है। निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हमें जो भी आवश्यक हो वह कदम विद्यालय के पक्ष में उठाना पड़ता है। जैसे शिक्षकों की कमी की समस्या को हल करना विद्यालय प्रबंधन की समस्या को हल करना विद्यालय का विभागीय समस्या को हल करना विद्यालय तथा समाज के बीच की दूरी को कम करना, विद्यालय प्रबंधन , छात्र एवं शिक्षक के बीच आने वाली सारी समस्याओं का समुचित एवं व्यवस्थित हल ढूंढना इत्यादि।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संगठन एक ऐस साधन है जो शैक्षिक लक्ष्य रूपी साध्य को साधने में हमें ना केवल मदद करता है बल्कि उचित मार्ग दर्शक की भूमिका का भी निर्वहन करता है। संगठन एक ऐसा यंत्र है जिसका विधिवत संचालन करके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

अतः हम का सकते है कि विद्यालय संगठन बालकों को समाज के लिए अनुकूलित करता है एवं एक बेहतर समाज निर्माण में अपना सर्वोत्तम देने का प्रयास करता है। चूंकि विद्यालय भी समाज का एक छोटा रूप होता है एवं समाज में जो लोग रहते हैं वह भी विद्यालय से कहीं न कही किसी रूप में जुड़े होते हैं। अत:विद्यालय संगठन का दायित्व बढ़ जाता है क्योंकि उसे एक सभ्य समाज का सभ्य नागरिक जो तैयार करना होता है 

विद्यालय संगठन के उद्देश्य 

विद्यालय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इसलिए विद्यालय संगठन का उद्देश्य भी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सक्रिय योग प्रदान करना होना चाहिए। विद्यालय संगठन का उद्देश्य बालकों को ऐसे अवसर प्रदान करना है , जिसमें उनकी समस्त जन्मजात शक्तियों का सामंजस्य पूर्ण विकास संभव हो सके एवं उनकी मूल प्रवृत्तियों का उपयोग तथा रुचियां का स्वास्थ्य प्रकाशन एवं परिष्करण हो सके । बालक के संपूर्ण व्यक्तित्व का संतुलित विकास करने की दृष्टि से विद्यालय संगठन का उद्देश्य - उसके शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक एवं सामाजिक गुणों का विकास करते हुए उसे एक इस योग्य बनाना है कि वह भावी जीवन में अपने दायित्वों का निर्वाह सफलतापूर्वक एवं सच्चाई के साथ कर सके।

अत: स्पष्ट है कि विद्यालय का संगठन बालक की विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विद्यालय की स्थापना करता है विद्यालय मानव जाति की अनुपम उपलब्धियों को समझो कर रखता है तथा उन्हें भावी संतति को विरासत के रूप में प्रदान करता है। इस प्रकार विद्यालय संगठन का उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से शिक्षित करना है कि वे समाज के आदर्शों मान्यताओं विश्वासों एवं मूल्यों की रक्षा कर सकें।

विद्यालय संगठन के सिद्धांत

1. बाल केंद्रित (Child Centred) 

विद्यालय का मुख्य उद्देश्य बालक का सर्वोन्मुखी विकास करना है। इस दृष्टि से संगठन बाल केंद्रित होना चाहिए। यह संगठन ऐसा हो जिसके द्वारा बालकों की विभिन्न योग्यताओं ,अभिरुचियो , शक्तियों, संवेगों एवं मूल- प्रवृत्तियों को स्वास्थ् दिशा में विकसित किया जा सके। संगठन द्वारा विद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाना चाहिए जिसमें बालक शारीरिक, मानसिक , सामाजिक एवं चारित्रिक गुणों को सरलता से प्राप्त कर सके। विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं को , उनके विकास की प्रकृति एवं गति ,उनकी व्यक्तिक विभिन्नताओ ,उनके पूर्व अनुभवो तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को दृष्टिगत रखकर व्यवस्थित की जानी चाहिए । ऐसा करके प्रत्येक बालक को अपना सर्वोत्तम विकास करने के लिए उपयुक्त सुविधाएं प्रदान की जा सकेगी ।

2. समाज केन्द्रित (Society Centred)- 

संगठन बाल केंद्रित होने के साथ-साथ समाज केंद्रित भी होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बालकों को समाज का एक सक्रिय, उपयोगी एवं कुशल सदस्य बनाना है । संगठन से बालकों के विकास संबंधी क्रियाओं के आयोजन के साथ-साथ समाज की प्रगति हेतु उचित व्यवस्था का होना भी परम आवश्यक है । संगठन के द्वारा समाज में गत्यात्मक उद्देश्य को भी अभिव्यक्त किया जाना चाहिए ,जिसमें समाज भावी प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। अत: विद्यालय संगठन बालक की विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भी समाज के आदर्शों, आकांक्षाओ,आवश्यकताओ, मूल्यों, संस्कृति आदि पर आधारित होना चाहिए।

3. लोकतंत्रीय सिद्धांत (Democratic Principle)- 

जनतंत्र की सफलता हमारे विद्यालयों पर ही निर्भर है। यह विद्यालय ही है जो जनतंत्र के स्तंभों अर्थात भावी नागरिकों का निर्माण करते हैं। बालकों में आदर्श नागरिकों की गुणों का विकास विद्यालय की व्यवस्था, क्रियाकलापों एवं परंपराओं के माध्यम से किया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का संगठन लोकतंत्र के सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं के अनुसार हो।

4. लोच का सिद्धांत (Principle of Flexibility) -

मानव - प्रकृति एवं समाज तथा उसकी आवश्यकताएं परिवर्तनशील है जब विद्यालय का लक्ष्य बालक एवं समाज का उचित दिशा में विकास करना है तो उनकी बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुकूल विद्यालय संगठन में समय-समय पर परिवर्तन होना भी नितांत आवश्यक है। अतः विद्यालय संगठन में लोच अथवा परिवर्तनशीलता का गुण होना चाहिए। यदि संगठन में दृढ़ता एवं एकरूपता आ गई तो यह बालक एवं स्थानीय समाज की मांगों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहेगा।

शनिवार, 13 नवंबर 2021

शिक्षा, विद्यालय तथा समुदाय से अपेक्षाएँ एवं समकालीन बदलाव तथा प्रभाव (Expectations of Education, Schools and Community and Contemporary Changes and Effects) D.El.Ed.2nd Year S-1 Unit-4 B.S.E.B. Patna.

        शिक्षा एक पीढ़ी द्वारा अर्जित अनुभव, ज्ञान, कौशल दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम है। शिक्षा सतत् रूप से चलने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के स्वाभाविक और सामंजस्यपूर्ण विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। व्यक्ति की वैयक्तिक का पूर्ण विकास करती है। उसे आस-पास के वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने में मदद प्रदान करती है और सफल जीवन एवं सभ्य नागरिक के कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के लिए तैयार करती है। साथ ही उसके व्यवहार विचार और दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करती है जो देश, समाज एवं विश्व के लिए हितकर होता है। संक्षेप में, शिक्षा बालकों में अन्तर्निहित शक्तियों के प्रस्फुटन एवं विकसित होने में सहायता करती है। शिक्षा से समाज की निम्नलिखित अपेक्षाएँ हैं-

        एक व्यक्ति के रूप में शिक्षा से हमारी यह अपेक्षा होती है कि वह बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक हो, व्यक्ति शिक्षित होकर अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हो सके, बालकों की जन्मजात प्रवृत्तियों का समायोजित विकास हो और व्यक्ति स्वयं अपनी जीविका कमाने हेतु तैयार हो सके । शिक्षा से यह अपेक्षा की जाती है कि इसके द्वारा व्यक्ति का नैतिक विकास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो, व्यक्ति को आत्मनिर्भर एवं आत्मविश्वासी बनाकर उसके उत्तम चरित्र का निर्माण करना, व्यक्ति में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना, व्यक्ति के अन्दर यह क्षमता विकसित करना कि वह या तो वातावरण के अनुसार स्वयं को अनुकूलित कर ले या वातावरण को स्वयं के अनुसार परिवर्तित कर दे।

         नई पीढ़ी को समाज की संस्कृति का ज्ञान कराना, समाज की शिक्षा से अपेक्षा है। बालकों को सामाजिक नियमों से परिचित कराकर उसका समाजीकरण करना, सामाजिक समस्याओं को दूर करने की भावना उत्पन् करना, समाज के अनेक विश्वासों तथा धर्मों के विषय में उदार दृष्टिकोण का निर्माण करना, समाज के प्रति निष्ठा की भावना का विकास करना। राष्ट्र को शिक्षा से अपेक्षा होती है कि शिक्षा कुशल और निष्ठावान नागरिकों का निर्माण करे, व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना, युवा व्यावसायिक रूप से दक्ष हों, कुशल कार्यकर्ताओं का निर्माण करना, शिक्षित व्यक्ति राष्ट्र की आय में बढ़ोत्तरी करे, व्यक्तियों में राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता का विकास हो, नागरिकों में कर्तव्यों और अधिकारों को समझ विकसित हो तथा वे उन्हें निभाने हेतु तत्पर हो

       अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शिक्षा से यह अपेक्षा करता है कि वह व्यक्तियों में मानवीय गुणों/मूल्यों का विकास करें, व्यक्तियों में शांति की भावना विकसित करें जिससे कि वह जहाँ भी रहे वहाँ पर शांति की संस्कृति का निर्माण कर सके, व्यक्तियों में विश्व बंधुत्व की भावना/सह अस्तित्व की भावना का विकास हो, व्यक्तियों में पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता हो तथा वे पर्यावरण मैत्री व्यवहार करें।

       वास्तव में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो न केवल देश के आदर्शों एवं मान्यताओं के अनुकूल हो बल्कि परिवर्तित एवं विकसित परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुकूल भी हो। क्योंकि शिक्षा का कार्य केवल संस्कृति या समाज का रक्षण ही नहीं है। शिक्षा यदि रूढ़िवादी और स्थिर होने से बचना चाहती है तो उसे समाज के संगठनों और संस्थाओं के कार्यों और गतिविधियों की पूरक एवं समाज और संस्कृति के विकास में सहायक भी होना चाहिए। शिक्षा से अपेक्षाओं को निचोड़ रूप में देखा जाए तो इस सम्बन्ध में अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 21वीं शताब्दी की रिपोर्ट जो 1996 में प्रकाशित हुई, उसमें शिक्षा के चार स्तम्भ माने गए हैं- 

1. जानने के लिए सीखना 

        वास्तव में ज्ञान शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण भाग है हमारे चारों ओर के परिवेश में बहुत सी वस्तुएँ हैं, जिनको जानना आवश्यक है। इस सबकी जानकारी मनुष्य को सन्तुष्टि भी प्रदान करता है। ज्ञान प्राप्ति एक प्रकार के आन्तरिक आनन्द को जन्म देती है। यही नहीं, यह ज्ञान ही है जो मानव सभ्यता के विकास का आधार है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि सीखा कैसे जाए? शिक्षा का यह स्तम्भ 'Learning to Know' इसी बात से सम्बन्ध रखता है। रिपोर्ट में इसके लिए निम्नलिखित बातों पर बल दिया है- 

(1) व्यक्ति में निरीक्षण शक्ति का विकास किया जाए। 

(2) व्यक्ति में एकाग्रता विकसित की जाए। ध्यान की एकाग्रता के बिना ज्ञानार्जन असम्भव है। 

(3) स्मरण-शक्ति का विकास किया जाए। इसके लिए पुराने चले आ रहे परम्परागत तरीकों को अपनाया जा सकता है। 

(4) चिन्तन और तर्क-शक्ति दोनों का विकास किया जाए। तर्क आगमन व निगमन दोनों प्रकार का हो सकता है। लेकिन कब किस तरह के तर्क द्वारा ज्ञान प्राप्त करना है, इनका निर्धारण विषय-वस्तु की प्रकृति के अनुसार किया जाना चाहिए।

       जब व्यक्ति में इन योग्यताओं का विकास हो जाता है तो वह यह सीख जाता है कि कैसे सीखा जाए? आयोग ने शिक्षा के इस स्तम्भ में विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध करवाने पर भी बल दिया है, क्योंकि इससे व्यक्ति की उपर्युक्त क्षमताओं के विकास में भी सहायता मिलती है। 

2. करने के लिए सीखना 

       शिक्षा के पहले स्तम्भ का सम्बन्ध यदि 'ज्ञान' के साथ है तो इस स्तम्भ का 'क्रिया' के साथ यह व्यक्ति में अनेक कौशलों से जुड़ा है। रिपोर्ट में इस स्तम्भ के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं पर बल दिया गया है- 

(i) शिक्षा द्वारा व्यक्ति में ऐसे कौशलों का विकास किया जाए, जिससे वह निश्चित भविष्य Certain Future के लिए तैयार हो सके।

(ii) शिक्षा व्यक्ति में ऐसी योग्यता विकसित करे, जिससे वह सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान में समन्वय कर सके।

(iii) शिक्षा उसे सृजनात्मक बनाए। 

(iv) यह उसमें समस्या समाधान, निर्णय लेने एवं नवीनतम सामूहिक कौशलों का विकास करे। 

(v) यह उसमें ऐसी क्षमता का विकास करे, जिससे वह चाहे कहीं नौकरी कर रहा हो या किसी व्यवसाय से जुड़ा हो, किये जाने वाले कार्य को अधिक दक्षता के साथ कर सके।

(vi) शिक्षा द्वारा उसमें सामाजिक कौशलों का विकास भी किया जाए। 

         इस तरह यह स्तम्भ विद्यार्थियों में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करने, प्रत्येक कार्य को दक्षता के साथ करने, उसे अनिश्चित भविष्य में सफलतापूर्वक कार्य करने में सक्षम बनाने और उसमें वैयक्तिक व सामाजिक कौशलों का विकास करने के साथ सम्बन्ध रखता है। 

3. साथ रहने के लिए सीखना 

       शिक्षा के इस स्तम्भ के अन्तर्गत आयोग ने यह चर्चा की है कि इस सदी में व्यक्तियों में हिंसक एवं आत्मघाती प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं और सूचना और संचार माध्यम इस प्रकार की घटनाओं को समाज के समक्ष बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। इससे आपसी संघर्ष बढ़े हैं। शिक्षा का यह स्तम्भ इसी विषय से सम्बन्ध रखता है कि कैसे लोगों को मिल-जुलकर साथ रहना सिखाया जाए? इस सन्दर्भ में रिपोर्ट में निम्न बिन्दुओं पर बल दिया गया है-

(i) आजीवन शिक्षा के अन्तर्गत समान परियोजनाओं में लोगों की संलिप्तता को बढ़ाया जाए। इससे परस्पर झगड़ों को रोकने में सहायता मिलेगी। 

(ii) विद्यार्थियों को मानवीय विविधताओं की जानकारी देने के साथ-साथ उन बातों की भी जानकारी दी जाए जो सबमें समान रूप से पाई जाती हैं। उन्हें यह भी समझाया जाए कि हम सभी इस तरह किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर हैं। 

(iii) विद्यार्थियों को मानव भूगोल, विदेशी भाषाओं व साहित्य की शिक्षा दी जाए। 

(iv) विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाए कि वे विश्व को दूसरों के नजरिए से देखें। इससे परस्पर सद्भावना को बढ़ावा मिलेगा। 

(v) विद्यार्थियों को परस्पर बातचीत और परिचर्चा के लिए उपयुक्त मंच उपलब्ध करवाया जाए। 

(vi) उनमें यह बोध उत्पन्न किया जाए कि विभिन्न क्षेत्रों में अधिकतम सफलता प्राप्त करने हेतु मिल-जुलकर काम करना आवश्यक है। 

(vii) विद्यार्थियों को प्रारम्भ से ही खेल-कूद तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। 

(viii) शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी सभी मिलकर समान परियोजनाओं पर कार्य करें।

       इस तरह ये विभिन्न गतिविधियाँ विद्यार्थियों को साथ मिलकर रहना सिखाएगी जो कि वर्तमान शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। 

4. अस्तित्व के लिए सीखना

         1972 में प्रस्तुत अन्तर्राष्ट्रीय आयोग की प्रस्तावना में कहा गया है कि तकनीकी विकास के कारण विश्व में मानवता की भावना लुप्त हो जाएगी। यदि प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताओं का पूर्ण विकास होता है तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः आयोग के अनुसार शिक्षा को चाहिए कि वह व्यक्ति को अपने अस्तित्व हेतु प्रशिक्षण दे।

दूसरे शब्दों में, उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करे। इस सन्दर्भ में आयोग ने निम्नलिखित बातों पर जोर दिया है- 

(i) शिक्षा का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि यह व्यक्ति का पूर्ण विकास करे। दूसरे शब्दों में, उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सौन्दर्य-बोधात्मक और आध्यात्मिक विकास करे ताकि वह एक पूर्ण मानव बन सके। 

(ii) शिक्षा व्यक्ति में स्वतन्त्र एवं आलोचनात्मक तरीके से चिन्तन करने तथा अपने निर्णय स्वयं लेने की योग्यता का विकास करे। 

(iii) शिक्षा उसे इस रूप में तैयार करे कि वह एक व्यक्ति, एक परिवार व समाज के सदस्य, एक भविष्य के सृजनशील स्वप्न द्रष्टा एवं नवीन तकनीकों के जन्मदाता के रूप में अपने व्यक्तित्व को विकसित कर सके। 

(iv) शिक्षा उसे अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान करने एवं अपनी जिम्मेदारियों का स्वयं निर्वाह करने के योग्य बनाए। 

(v) शिक्षा यह भी सुनिश्चित करे कि प्रत्येक व्यक्ति विचारों, भावनाओं, कल्पना एवं निर्णय के सन्दर्भ में स्वतन्त्र हो और अपनी क्षमताओं का पूर्ण विकास कर सके। 

उपरोक्त चारों स्तम्भ ही आधुनिक समय में शिक्षा से मूलभूत अपेक्षाएँ हैं। 

        किसी भी राष्ट्र की प्रगति में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। विद्यालय को सामाजिक परिवर्तन का आधार व पुनर्निर्माण के अभिकर्ता के रूप में देखा जाता है। पहले विद्यालयों में बच्चों पर ज्ञान थोपा जाता था। वे शिक्षा को जन्मधुट्टी की भाँति रट कर पी जाते थे परंतु आज माहौल बदल गया है। बच्चों की जिज्ञासा, मौलिकता एवं सृजनात्मकता को महत्त्व दिया जा रहा है जिससे बच्चे ज्ञान का सृजन स्वयं कर रहे हैं। विद्यालय बच्चों की स्वतन्त्रता का हनन करने का स्थल न हो बल्कि उसका वातावरण इस प्रकार निर्मित हो कि बच्चे स्वयं खिंचे चले आयें। उन्मुक्त पक्षी की तरह बच्चे स्वतन्त्र विचरण करें। विद्यालय की हर गतिविधि में उनके सीखने एवं ज्ञान को अर्जित करने की जगह हो विद्यालय से समाज की अधिक अपेक्षाएँ होती है वह विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों में मानवीय मूल्यों की झलक देखना चाहता है और उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाना चाहता है। 

       समाज द्वारा अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित करने हेतु शिक्षा संस्थाओं/विद्यालयों की स्थापना की जाती है। कुछ संस्थाएँ सरकार द्वारा स्थापित की जाती हैं। कुछ विभिन्न संगठनों, संस्थाओं तथा व्यक्तियों द्वारा स्थापित की जाती हैं। विद्यालय की समुदाय से सबसे बड़ी अपेक्षा यह होती है कि वे अपने बच्चों का विद्यालय में दाखिला करवाएँ एवं उनको नियमित रूप से विद्यालय भेजें। शिक्षक अभिभावक बैठकों में अनिवार्य रूप से शामिल होकर अपने बच्चों की शैक्षिक प्रगति को जानकर आवश्यक सहयोग एवं मार्गदर्शन करें। बाल मेला, विज्ञान मेला तथा गणित मेला आदि अनेक कार्यक्रमों में सहभागिता करें। विद्यालय के वार्षिक समारोह एवं वार्षिक खेलकूद कार्यक्रम में शामिल होकर अपने बालक-बालिकाओं को उत्सावर्द्धन करें। विद्यालय से सम्बन्धित सभी समितियों में शामिल विभिन्न समुदाय के लोगों से यह अपेक्षा होती है कि वह इन समितियों में निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय साझेदारी करते हुए जिम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से करें। विशेष रूप से माता समिति से जुड़ी महिलाओं को जिम्मेदारी है कि वह भी सक्रिय रूप से विद्यालय जीवन में अपना सहयोग करें। शिक्षा समिति से सम्बन्धित लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह गुणवत्तापूर्ण पौष्टिक भोजन बालक-बालिकाओं हेतु बनवाएँ। 

       इस बात से आप सहमत होंगे कि शिक्षा से अपेक्षाएँ समय के साथ बदलती रही हैं। समाज ने सदैव अपनी वर्तमान आवश्यकताओं/माँगों एवं जीवन दर्शन के आधार पर शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किए हैं। प्राचीन काल के वैदिक समाज ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ऐसे लोगों को तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षा को सौंपी थी जिनमें धार्मिकता का समावेश हो। उस समय धर्म पर अत्यधिक बल था। व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं का अभाव था।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

माँ अन्नपूर्णा देवी। Maa Annapurna Devi.

 


      संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार ने 'माता अन्नपूर्णा देवी' की मूर्ति यूपी सरकार को सौंपी, जिसे केंद्रीय मंत्रियों और यूपी सरकार के मंत्रियों की उपस्थिति में कनाडा से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा पुनर्प्राप्त किया गया था।


     Ministry of Culture, Government of India handed over the Sculpture of 'Mata Annapurna Devi' to the Government of UP which was retrieved by Archaeological Survey of India from Canada in presence of the Union Ministers & UP Govt.  Ministers.


बुधवार, 10 नवंबर 2021

मैं मोबाइल हुँ।

  मैं मोबाइल हुँ। 

ना आपके पास खेलने का टाइम छोडूंगा,

ना कसरत करने का।

यहां तक की आपकी कार्यक्षमता भी आधी कर दूंगा। 

आप काम कम करेंगे और मुझे ज्यादा देखेंगे।

क्योंकि मैं मोबाइल हुँ। 


मैं आपका बचपन चुरा लूंगा, 

आपकी जवानी भी चुरा लूंगा,

आप जल्दी ही बूढ़े हो जाओगे। 

इसलिए मेरा प्रयोग सोच समझकर करना।

 दोस्तो, मेरे फायदे है तो नुकसान भी है।

क्योंकि मैं मोबाइल हुँ।


ज्यों-ज्यो आपको मेरी लत लगती जाएगी,

त्यों-त्यों मैं आप पर हावी होता जाऊंगा। 

सबसे पहले आपकी आंखों की रोशनी छीन लूंगा, 

फिर नींद चुराउंगा। 

धीरे-धीरे मैं आपके स्वास्थ्य को चौपट कर दूंगा।

क्योंकि मैं मोबाइल हुँ।


मेरा उपयोग सावधानी से करना, दोस्तो। 

मैं आपको उन लोगों से दूर कर दूंगा, 

जो मुझे चलाना नही जानते। 

मैं आपको उन लोगों से भी दूर कर दूंगा, 

जो आपके बेहद करीब रहते है।

क्योंकि मैं मोबाइल हुँ।


सोचने वाली बात है🤔

      3500 फेसबुक दोस्त और 25 व्हाट्सएप ग्रुप होने के बाद भी जब उसे हार्ट-अटैक हुआ तो ICU के बाहर सिर्फ उसकी पत्नी, माँ-बाप भाई-बहन और बच्चे खड़े मिले। जिनके लिये कभी भी उसके पास वक्त नहीं होता था। काल्पनिक दुनिया से बाहर निकलिये और अपने परिवार को वक्त दीजिये। आपका परिवार ही आपके बुरे वक्त में आपका साथ देता है।


ये मोबाइल यूं ही हट्टा-कट्टा नहीं हुआ है बहुत कुछ खाया-पिया है इसने। 

मसलन ये हाथ की घड़ियाँ खा गया।

ये चिट्ठी पत्रियाँ खा गया। 

ये रेडियो खा गया।

ये टेप-रिकार्डर खा गया। 

ये टार्च लाइटें खा गया। 

ये किताबें खा गया। 

ये पड़ोस की दोस्ती खा गया। 

ये हमारा वक्त खा गया। 

ये पैंसे खा गया। 

ये रिश्ते खा गया। 

ये तंदुरुस्ती खा गया। 

ये मेल-मिलाप खा गया। 

कमबख्त, ये मोबाइल यूँ ही हट्टा-कट्टा नहीं हुआ है। 

बहुत कुछ खाया-पिया है इसने। 

इतना कुछ खा कर ही स्मार्ट बना है।


कडवा है मगर सच है।

मोबाइल के कारण, बच्चे माता-पिता के कवरेज एरिया से बाहर होते जा रहे हैं।



सोमवार, 8 नवंबर 2021

भारतीय शिक्षा में समुदाय की भूमिका (Role of Community in Indian Education) S-1 D.El.Ed. 2nd Year Unit-4. B.S.E.B. Patna.

       शिक्षा पर भारतीय समुदाय का प्रभाव अप्रत्यक्ष है। इस लेख में हम शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर इस प्रभाव का वर्णन कर रहे हैं:- 

(1) शिक्षा की सार्वभौमिक माँग (Universal Demand for Education)- हुमायूँ कबीर के अनुसार, भारत में शिक्षा की सार्वभौमिक माँग की गयी है। कुछ देशों ने विद्यालयों में बालक की उपस्थिति अनिवार्य मानी है। भारत में ऐसी आवश्यकता अनुभव की जा रही है। अभी तक इस बात पर बल दिया गया था कि जो बच्चे पढ़ना चाहते हों, उनके लिए स्कूल हों। 

(2) प्रारम्भिक व पूर्व-प्रारम्भिक शिक्षा का विकास (Development of Primary and Pre-Primary Education)- प्रारम्भिक और पूर्व-प्रारम्भिक शिक्षा के विकास में समुदाय का बहुत हाथ रहा है। यद्यपि प्रारम्भिक शिक्षा का दायित्व सरकार पर है, फिर भी इसके विकास में गैर-सरकारी संस्थाओं ने बहुत काम किया है। सरकार इस काम का पूरा भार धीरे-धीरे अपने ऊपर लेती जा रही है। पर पूर्व-प्रारम्भिक शिक्षा का भार और विकास अभी तक गैर-सरकारी हाथों में ही है।

(3) माध्यमिक शिक्षा का विकास (Development of Secondary Education) माध्यमिक शिक्षा के विकास में समुदाय का प्रभाव बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यह कहना उचित ही होगा कि देश में जितने भी मिडिल और सेकण्डरी स्कूल कार्य कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश की स्थापना और संचालन का श्रेय समुदाय को है। इस प्रकार, माध्यमिक शिक्षा के विकास में समुदाय का प्रभाव शक्तिशाली रहा है। 

(4) उच्च शिक्षा का विकास (Development of Higher Education)- उच्च शिक्षा के विकास में भारतीय समुदाय ने पर्याप्त योगदान दिया है। यद्यपि अंग्रेजों के समय में विश्वविद्यालयों की स्थापना सरकार द्वारा की जाती थी, उच्च शिक्षा, विशेष स्थानों और समुदायों की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करती थी। अतः इसकी ओर उनता का ध्यान न जाना स्वाभाविक ही था। परन्तु महाविद्यालयों की स्थापना में जनता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अधिकांश महाविद्यालय समुदायों द्वारा ही स्थापित किये गये हैं। 

विद्यालय व समुदाय का सम्बन्ध 

(Relationship Between School and Community) 

       विद्यालय तथा समुदाय के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों अपनी-अपनी उन्नति एवं स्थायित्व के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं। विद्यालय एक सामाजिक संस्था है। समाज स्वयं को जीवित रखने के लिए विभिन्न प्रकार की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करता है जिनके द्वारा समाज के विचारों, मान्यताओं, आदर्शों, क्रियाकलापों, मानदण्डों तथा परम्पराओं को आने वाली सन्तति को प्रदान किया जा सके। विद्यालय, समुदाय के जीवन एवं उसकी प्रगति पर बहुत प्रभाव डालता है। विद्यालय अपने विचारों एवं कार्यों द्वारा समुदाय का पथ प्रदर्शन करके उसे प्रगति की ओर ले जाता है। समुदाय विद्यालय को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का प्राथमिक ज्ञान प्रदान करता है। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे को सहायता प्रदान करते रहते हैं। इन दोनों की घनिष्ठता को स्पष्ट करते हुए हुमायूँ कबीर ने लिखा है– "विद्यालय, समुदाय के जीवन का प्रतिबिम्ब है और उसे ऐसा होना ही चाहिए। अतः भारत में सार्वजनिक विद्यालयों को भारतीय जीवन के ढाँचे के अधिक निकट लाया जाना चाहिए।"

बालक की शिक्षा में समुदाय का महत्त्व (Importance of Community in Child's Education) D.El.Ed.2nd Year S-1 Unit - 4. B.S.E.B. Patna.

      विद्यालय या परिवार के समान समुदाय भी व्यक्ति के व्यवहार में इस प्रकार रूपान्तर करता है, जिससे वह समूह के कार्यों में सक्रिय भाग ले सके, जिसका कि वह सदस्य है। हम प्रायः सुनते हैं कि बालक वैसा ही बनता है, जैसा कि समुदाय के बड़े लोग उसको बनाते हैं। सत्य है कि समुदाय बालक के व्यक्तित्व के विकास पर बहुत प्रभाव डालता है। वास्तव में, समुदाय बालक की शिक्षा को प्रारम्भ से ही प्रभावित करता है। बालक का विकास न केवल घर के संकुचित वातावरण में, वरन् समुदाय के विस्तृत वातावरण में ही होता है। समुदाय अप्रत्यक्ष, किन्तु प्रभावपूर्ण ढंग से बालक की आदतों, विचारों और स्वभाव को मोड़ता है। उनकी संस्कृति, रहन-सहन, बोलचाल आदि अनेक बातों पर उसके समुदाय की छाप होती है। समुदाय का वातावरण बालक की अनुसरण की जन्मजात प्रवृत्ति पर विशेष प्रभाव डालता है। वह उन व्यक्तियों के ढ़ंगों का अनुसरण करता है, जिनको वह देखता है, उदाहरणार्थ- यदि वह संगीतज्ञों के साथ रहता है, तो उनकी संगीत-कुशलता से प्रभावित होता है और उसमें संगीत के लिए रुचि उत्पन्न होती है। 

        बच्चे अपने समुदाय के ढंग को अपनाते हैं। इसलिए उनकी बोल-चाल, दृष्टिकोण और व्यवहार में अन्तर होता है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि परिवार और विद्यालय के समान समुदाय भी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण साधन है। विलियम ईगर (William E. Yeager) का कथन है- "क्योंकि मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, इसलिए उसने वर्षों के अनुभव से सीख लिया है कि व्यक्तिगत और सामूहिक क्रियाओं का विकास समुदाय द्वारा ही सर्वोत्तम रूप से किया जा सकता है।" 

बालक पर समुदाय के शैक्षिक प्रभाव 

(Educative Influences of Community in Child) 

1. सामाजिक प्रभाव (Social Influence)- बालक पर समुदाय का सीधा सामाजिक प्रभाव पड़ता है। समुदाय ही उसकी सभ्यता और सामाजिक प्रगति का मुख्य आधार है। बालक अनौपचारिक रूप से देखता है कि सभी व्यक्ति अपने समुदाय की उन्नति के लिए कार्य करते हैं और यदि उनमें से कुछ ऐसा नहीं करते हैं, तो समुदाय की प्रगति रुक जाती है। समुदाय में समय-समय पर मेले, उत्सव, सामाजिक सम्मेलन, धार्मिक कार्य आदि होते हैं। बालक इनमें भाग लेकर सामाजिक जीवन और सामाजिक सेवा का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करता है। समुदाय में रहकर ही बालक अधिकार और स्वतन्त्रता का वास्तविक अर्थ समझता है। यह जान जाता है कि अधिकारों के साथ कर्त्तव्य और स्वतन्त्रता के साथ अनुशासन आवश्यक है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि समुदाय, व्यक्ति में नागरिक गुणों का विकास करता है और सेवा, त्याग और सहयोग की भावनाएँ उत्पन्न करता है। 

2. राजनीतिक प्रभाव (Political Influence)- समुदाय का राजनीतिक प्रभाव बालक के राजनीतिक विचारों को निश्चित रूप देता है, उदाहरणार्थ- अमरीका के निवासी लोकतन्त्रीय विचारों और आदशों का समर्थन करते हैं और रूस के लोग साम्यवादी विचारों और सिद्धान्तों को पसन्द करते हैं। दोनों देशों के निवासी एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं।

       एक-दूसरे प्रकार के राजनीतिक प्रभाव के बारे में क्रो व क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है- “समुदाय की राजनीतिक विचारधारा उस सीमा तक प्रतिविम्बित होती है, जहाँ तक उसके सदस्यों को शैक्षिक अवसर प्रदान किये जाते हैं और उसके राजनीतिक नेता नागरिकों की शैक्षिक प्रगति के लिए उत्तरदायित्व ग्रहण करते हैं।" 

3. आर्थिक प्रभाव (Economic Influence)- समुदाय का आर्थिक प्रभाव उद्योगों और व्यवसायों में दिखाई देता है। बालक अपने समुदाय के व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों में लगा हुआ देखता है। फलतः उनमें से किसी में उसकी रुचि उत्पन्न होती है और वह उसे सीखने के लिए उत्सुक हो जाता है। कभी-कभी वह अपने माता-पिता या सम्बन्धियों को उनके व्यवसाय में सहायता कर देता है। आज भी ग्रामीण समुदाय में यह बात देखी जाती है। वहाँ बालक कृषि, बढ़ईगीरी या समुदाय के लिए और कोई हितकर कार्य करता है। यदि वह कोई ऐसा व्यवसाय करता है, जो समुदाय नहीं चाहता है, तो उसे समुदाय से निकाल दिया जाता है। वह उसका सदस्य फिर तभी हो पाता है जब वह उस व्यवसाय को छोड़ देता है और समुदाय द्वारा दिये गये दण्ड को स्वीकार करता है। आज भी भारतीय समाज में यह बात पायी जाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि समुदाय बालक को व्यवसाय के चुनने में प्रभावित करता है। 

4. सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Influence)- प्रत्येक समुदाय की अपनी संस्कृति होती है। यह अपने सदस्यों पर उसको छाप लगाने और उनको उससे पूर्ण रूप से परिचित कराने का प्रयास करता है। बालक अपने से बड़े लोगों को अपनी संस्कृति का सम्मान और संरक्षण करते हुए देखता है अतः वह स्वयं भी वैसा ही करने लगता है। हम व्यक्तियों की भाषा पर समुदाय के प्रभाव को अच्छी तरह जानते हैं। बालक समुदाय में अनजाने ही बोलचाल, भाषा और शब्दावली का ज्ञान प्राप्त करता है। यही कारण है कि एक समुदाय के लोग, दूसरे समुदाय के व्यक्तियों से बोलचाल, भाषा और उच्चारण में भिन्न होते हैं। आप इस अन्तर को ग्रामीण और शहरी समुदाय के बच्चों में सरलतापूर्वक देख सकते हैं। 

      जब बालक समुदाय के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक उत्सवों को देखता है, तब वह उनका अनुसरण करने का प्रयत्न करता है। फलतः उसमें अपने समुदाय की संस्कृति और धर्म के लिए एक विशेष प्रकार की भावना का विकास होता है। अतः जब बालक पहली बार विद्यालय में आता है। तब उसमें भाषा, धर्म और नैतिकता को कुछ विशेषताएँ उसकी संस्कृति को बताती हैं। 

5. साम्प्रदायिक प्रभाव (Cultural Influence)- समुदाय के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव का शैक्षिक महत्त्व तो है ही, पर समुदाय का शैक्षिक प्रभाव भी कम महत्त्व नहीं रखता है। यह प्रभाव समुदाय के विद्यालयों द्वारा डाला जाता है। बहुत से समुदाय अपनी शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करते हैं। इन संस्थाओं के अपने स्वयं के लक्ष्य और उद्देश्य होते हैं। वे इनके अनुसार बालकों को अपने समुदार्थों की सेवा और कल्याण के लिए प्रशिक्षित करते हैं। 

        परन्तु सम्प्रदायिक स्कूल (Communal School) बड़ा घातक प्रभाव डालते हैं। वे बालकों में संकुचित दृष्टिकोण और संकीर्ण साम्प्रदायिक भावना उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार के विभिन्न समुदायों में एक-दूसरे के लिए घृणा का बीज बोते हैं। अतः साम्प्रदायिक स्कूल देश के लिए अभिशाप हैं। 

        इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक के व्यक्तित्व पर समुदाय का शैक्षिक प्रभाव बहुत ही शक्तिशाली होता है। जब यह प्रभाव ठीक प्रकार का होगा, तभी बच्चों के दृष्टिकोण ठीक होंगे, अन्यथा नहीं।

समुदाय का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Community) S-1 D.El.Ed. 2nd Year B.S.E.B. Patna.

  समुदाय का अर्थ 

(Meaning of Community)  

        समुदाय का अंग्रेजी रूपान्तर "Community" दो शब्दों से मिलकर बना है- 'Com' और 'Munis' यहां 'Com' का अर्थ है- “Together" अर्थात् "एक साथ" और 'Munis' का अर्थ है- "To serve" अर्थात् "सेवा करना" । इस प्रकार, 'Community' शब्द का अर्थ है- 'To serve together' अर्थात् 'मिलकर सेवा करना' । दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं 'समुदाय' व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है, जो मिलकर एक साथ रहते हैं और एक-दूसरे की सेवा-सहायता करते हुए अपने अधिकारों का उपयोग करते हैं। 

      समुदाय, मनुष्यों का 'स्थायी और स्थानीय' समूह है जिसके अनेक प्रकार के और समान हित होते हैं। जहाँ कहीं भी व्यक्तियों का एक समूह सामान्य जीवन में भाग लेता है, वहीं हम उसे 'समुदाय' कहते हैं। जहाँ कहीं भी व्यक्ति निवास करते हैं, वहीं वे कुछ सामान्य विशेषताओं को विकसित करते हैं। उनके ढंग, व्यवहार, परम्पराएँ, बोलने की विधि, इत्यादि। एक से हो जाते हैं। ये सभी बातें सामान्य जीवन की प्रभावपूर्ण प्रतीत होते हैं। 

      वास्तव में, 'समुदाय' अति विस्तृत और व्यापक शब्द है और इसमें विभिन्न प्रकार के सामाजिक समूहों का समावेश हो जाता है। उदाहरणार्थ- परिवार, धार्मिक संघ, जाति, उपजाति, पड़ौस, नगर एवं राष्ट्र समुदाय के विभिन्न रूप हैं। 

      सभ्यता की प्रगति और उसके फलस्वरूप संसार के लोगों की एक-दूसरे पर अधिक निर्भरता हो जाने के कारण समुदाय की धारणा विस्तृत हो गयी है। धीरे-धीरे अतीत के छोटे और आत्म निर्भर ग्रामीण समुदाय का स्थान विश्व समुदाय लेता जा रहा है। इस बड़े समुदाय के लोग समान आदर्शों, रुचियों और आवागमन तथा सन्देश के तेज साधनों के कारण अधिक पास आते जा रहे हैं। 

      अब भी हम अपने नगर या कस्बे को अपना स्थानीय समुदाय कहते हैं। पर हमारे सम्बन्ध अपने देश और विदेश के लोगों से भी होते हैं। फलस्वरूप, हम राज्य समुदाय, राष्ट्रीय समुदाय और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के भी सदस्य होते  यह क्षेत्र या घेरा सदस्य होते हैं। इस प्रकार समुदाय में एक वर्ग मील से कम का क्षेत्र भी हो सकता है या उसका घेरा विश्व भी हो सकता है। यह क्षेत्र या घेरा इस बात पर निर्भर करता है कि इसके सदस्यों में आर्थिक सांस्कृतिक और राजनीतिक समानताएं हो।

समुदाय की परिभाषा 

(Definition of Community)

       हम यहां लेख में समुदाय के अर्थ को और भी अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दे रहे हैं- 

1. गिंसबर्ग के अनुसार, "समुदाय सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले सामाजिक प्राणियों का एक समूह समझा जाता है, जिसमें सब प्रकार के असीमित, विविध और जटिल सम्बन्ध होते हैं जो सामान्य जीवन के फलस्वरूप होते हैं या जो उसका निर्माण करते हैं।" 

"By community is to be understood a group of social beings living a common life including all the infinity variety and complexity of relations which result from common life or  constitute it." 

-Ginsberg 

2. मेकाइवर के अनुसार, “जब कभी एक छोटे या बड़े समूह के सदस्य इस प्रकार रहते हैं कि वे इस अथवा उस विशिष्ट उद्देश्य में भाग नहीं लेते हैं, वरन् जीवन की समस्त भौतिक दशाओं में भाग लेते हैं, तब हम ऐसे  समूह को समुदाय कहते हैं।" 

"Whenever the members of any group , small or large live together , in such a way that they share , not this or that particular interest , but the basic conditions of a common life, we call the group a community."

-Maclver 

        समुदाय के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए समाज एवं समुदाय के अन्तर को नीचे स्पष्ट किया जा रहा है। प्रायः इन दोनों शब्दों को समानार्थी रूप में प्रयुक्त किया जाता है। समाज वह संगठन है जिसमें लोग एक साथ मिल-जुलकर रहते हैं। समुदाय शब्द का भी इसी अर्थ में प्रयोग किया जाता है। परन्तु इन दोनों में अन्तर है। 

समाज तथा समुदाय में अन्तर 

(Difference between Society and Community) 

       समाज तथा समुदाय में अन्तर को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा रहा है-


समाज 
  1. समाज एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों का समूह है। 
  2. समाज एक प्रकार का समुदाय (समुदाय का एक अंश) है जिसके सदस्य सामाजिक रूप से अपनी जीवन शैली के प्रति सचेत होते हैं और वे सामान्य उद्देश्यों तथा मूल्यों के अनुकूल एकीकृत होते हैं। 
  3. बच्चे समाज के सदस्य तब तक नहीं कहे जाते हैं जब तक वे समाज की जीवन-शैली के प्रति सचेत नहीं हो जाते हैं। इस प्रकार बच्चे समाज के सम्भावित (Potential) सदस्य हैं, न कि पूर्ण सदस्य। अत: बच्चों को असामाजिक समुदाय (Non Social Community) कहा जा सकता है, न कि समाज विरोधी समुदाय।

समुदाय 

  1. समुदाय भी भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों का एक समूह है। 
  2. समुदाय में व्यक्ति वयस्क तथा बच्चे, सामाजिक एवं असामाजिक निश्चित भूभाग में निवास करते हैं जो एक जीवन-शैली के अनुसार जीवन-यापन करते हैं। परन्तु वे सभी अपने संगठन या अभिप्राय के प्रति सचेत नहीं होते हैं। 
  3. बच्चे समुदाय के सदस्य होते हैं।


सामाजिक परिवर्तन का अर्थ व परिभाषा (Meaning and Definition of Social Change) S-1 Unit-2 D.El.Ed.2nd Year B.S.E.B. Patna.

          समाज की रचना मनुष्य ने की है। समाज का आधार मनुष्य की अन्तःक्रियाएँ (Interactions) हैं। ये अन्तःक्रियाएँ सदैव परिवर्तित होती रहती हैं। इसी कारण हमारा समाज भी परिवर्तित होता रहता है। हम सभी इस सामाजिक परिवर्तन को अनुभव करते हैं। इतना अवश्य है कि कुछ समाज शीघ्रता से परिवर्तित होते हैं और कुछ धीरे-धीरे। परिवर्तन के आधार पर कुछ समाजशास्त्री समाज को दो भागों में विभाजित करते हैं-

  1. स्थायी समाज (Static Society) 
  2. गत्यात्मक समाज (Dynamic Society) 
वे आदिम समाजों को "स्थायी समाज" और आधुनिक समाजों को "गत्यात्मक समाज" मानते हैं। परन्तु इससे यह समझ लेना कि स्थायी समाजों में परिवर्तन नहीं होता, उपयुक्त नहीं है। परिवर्तन प्रत्येक समाज में होता है। परिवर्तन प्रकृति का निश्चित नियम है। परिवर्तन स्थायी समाजों में भी होता है, परन्तु धीरे-धीरे हाँ, इतना अवश्य है कि यह परिवर्तन इतना धीरे-धीरे होता है कि हमको इसका आभास नहीं हो पाता है। 

          सामाजिक परिवर्तन समाज की एक सहज क्रिया है। कुछ समाजशास्त्रियों ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो परिवर्तन के ढंग को व्यक्त करते हैं। इन शब्दों की विवेचना निम्न प्रकार है- 

(अ) प्रक्रिया (Process)- प्रक्रिया सतत् होती रहती है और इसका सम्बन्ध उन शक्तियों से होता है जो व्यक्ति और समूह के सम्बन्धों को प्रभावित करती है। इस प्रकार सामाजिक प्रक्रिया का उस परिवर्तन से घनिष्ठ सम्बन्ध है जो सामाजिक संरचना में निरन्तर होता रहता है। समंजन, समीकरण, सहयोग, स्पद्ध, विघटन आदि की प्रक्रियाएँ इस प्रकार के परिवर्तन के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं। 

(ब) विकास (Evolution)- यह एक ऐसा परिवर्तन है जो प्रगतिशील होता है। इसमें निरन्तरता तथा आगे बढ़ने की शक्ति होती है। दूसरे शब्दों में, विकास का प्रयोग ऐसे परिवर्तन के लिए किया जाता है जो निरन्तर अग्रगामी हो।

(स) प्रगति (Progress)- सामाजिक प्रगति ऐसे सामाजिक परिवर्तन की परिचायक है जो सामाजिक मूल्यों तथा आदशों की दृष्टि से समाज को आगे बढ़ाता है। यह गुणात्मक परिवर्तन को भी स्पष्ट करती है। 

(द) सुधार (Reform)- प्रत्येक समाज में ऐसी शक्तियाँ होती हैं जो नियोजित रूप से सामाजिक परिवर्तन का प्रयास करती हैं। अत: नियम बनाकर तथा उनका पालन करके समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास सुधार कहा जाता है।  

(य) क्रान्ति (Revolution)- सामाजिक सुधार एक ऐसा परिवर्तन है जो समाज की इच्छा के सहयोग से सम्भव होता है, परन्तु क्रान्ति दो विरोधी सामाजिक शक्तियों के संघर्ष के फलस्वरूप होती है। क्रान्ति द्वारा जो सामाजिक परिवर्तन लाया जाता है उसमें संघर्ष का होना आवश्यक है। बिना संघर्ष और शक्ति के सामाजिक क्रान्ति नहीं होती। क्रान्ति उस समय होती है, जब सामाजिक जीवन में स्थिरता का अभाव हो जाता है और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि सामाजिक जीवन का विधान निष्क्रिय हो जाता है। दूसरे शब्दों में, जब समाज अपने कार्य को उचित रूप से सम्पादित नहीं कर पाता, तब ऐसी शक्तियों का उदय होता है जो बलपूर्वक सामाजिक संरचना में अप्रत्याशित परिवर्तन लाती हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन वह सामाजिक विस्फोट जो सामाजिक निरन्तरता को भंग कर देता है। 

        सामाजिक परिवर्तन में वे परिवर्तन निहित हैं जो समाज के संगठन या उसकी रचना तथा कार्यों में सम्बन्ध रखते हैं। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन में निम्नलिखित परिवर्तनों को स्थान प्राप्त होता है 

1. सामाजिक संरचना में परिवर्तन- समाज के विभिन्न अंग व्यवस्थित ढंग से अन्तः सम्बन्धित रहते हुए जिस ढाँचे या रूपरेखा की रचना करते हैं उसी को सामाजिक संरचना कहते हैं। टॉलकॉट पारसस (Talcott Parsons) के अनुसार, "सामाजिक संरचना परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों तथा सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किये गये पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।" सामाजिक संरचना से सामाजिक स्वरूप का पता चलता है। यह बनावट हर समाज में एक-सी नहीं होती है। अतः इस बनावट में होने वाले परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। 

2. सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन।

3. सामाजिक जीवन के किसी पक्ष में कोई भी परिवर्तन। 

4. समाज के सदस्यों के जीवन में होने वाले परिवर्तन।  

     यहां हम सामाजिक परिवर्तन का अर्थ स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ नीचे दे रहे हैं; यथा- 

1. किलपैट्रिक का विचार है कि सामाजिक परिवर्तन, पूर्ण या आंशिक और अच्छी या खराब किसी भी दिशा में हो सकता है। उनके मतानुसार, “परिवर्तन विचाराधीन बात का पूर्ण या आंशिक परिवर्तन है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि परिवर्तन अच्छी बात के लिए है या बुरी बात के लिए।" 

"Change implies alteration of the item under consideration either in part or in whole . but without implication as to whether the change is for better or for worse." 

-W. H. Kilpatric, 

Philosophy of Education, p. 161. 

2. डॉसन व गेटिस ने लिखा है- “सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन है, क्योंकि समस्त संस्कृति अपनी उत्पत्ति, अर्थ और प्रयोगों में सामाजिक है।" 

"Cultural change is social change , since all culture is social in its origin, meaning and usage." 

-Dawson and Gettys 

3. मैरिल व एलड्रेज ने व्यक्तियों के कार्यों और व्यवहार परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन माना है। उन्होंने लिखा है- “सामाजिक परिवर्तन का अर्थ यह है कि बहुत बड़ी संख्या में व्यक्ति ऐसे कार्य कर रहे हैं, जो कुछ समय पहले के उनके या उनके निकट पूर्वजों के कार्यों से भिन्न हैं। जब मानव-व्यवहार में परिवर्तन हो रहा होता है, तब यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक परिवर्तन हो रहा है।"

"Social change means that large number of persons are engaged in activities that differ from those which they or their immediate forefathers engaged i some time before . tion that social change is occuring. " When human behaviour is in the process of modification, this only another way of indica 

-Merrill and Eldridge. 

4. मैकाइवर व पेज के अनुसार- "सामाजिक परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिस पर विविध प्रकार के परिवर्तनों का प्रभाव पड़ता है, जैसे मानव निर्मित रहन सहन की दशा में परिवर्तन, मनुष्य के दृष्टिकोणों में परिवर्तन तथा ऐसे परिवर्तन जो मनुष्य के नियन्त्रण के परे हैं अर्थात् जो वस्तुओं की जैविक तथा भौतिक प्रकृति द्वारा किये जाते हैं।" 

"Social change is a process responsive to many types of changes, to change in the man - made conditions of living , to change in the attitudes of man and changes that go beyond human control to the biological and physical nature to things." 

-Maclver and Page 

5. स्पेन्सर के अनुसार– “सामाजिक परिवर्तन विकास है।"

"Social change is social evolution." 

-Spencer

6. बी. कुप्पूस्वामी के अनुसार “सामाजिक परिवर्तन सामाजिक संरचना तथा सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन है।"

"Social change is some change in social behaviour and in the social structure." 

-B. Kuppuswamy 

7. किंग्सले डेविस के अनुसार- “सामाजिक परिवर्तन उन विकल्पों से सम्बन्धित है जो सामाजिक संगठन में होते हैं अर्थात् समाज के ढाँचे तथा कार्यों में होने वाले परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहलाते हैं।" 

"Social change is only such alterations as occur in social organization, that is in the structure and functions of society

-Kingslay Davis

8. जोन्स के अनुसार- "सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है, जो सामाजिक प्रक्रिया, सामाजिक अन्तः क्रिया या सामाजिक संगठन के किसी अंग में विचलन या रूपान्तरण को वर्णित करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।" 

"Social change is a term used to describe variation in or modification of any aspect of social process, social interaction or social organization."

-Jones

 हैरी जॉनसन (Harry Johnson) सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच प्रकार के परिवर्तनों को मानते है-

(1) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन (Change in Social Values) 

(2) संस्थागत परिवर्तन (Institutional Change) 

(3) सम्पत्ति तथा पुरस्कार की वितरण प्रणाली में परिवर्तन (Change in Distribution of Possessions and Rewards)  

(4) कार्यकर्ताओं में परिवर्तन (change in workers)

(5) कार्यकर्ताओं की योग्यताओं या अभिवृत्तियों में परिवर्तन (Change in Abilities or Attitudes of Personnel) 

गर्थ व मिल्स (Gerth and Mills) ने व्यक्ति के दो पक्ष जैविक तथा सामाजिक माने हैं। उनका मत है कि जैविक पक्ष से सामाजिक पक्ष प्रभावित होता है और सामाजिक पक्ष का निर्धारण सामाजिक मूल्यों द्वारा होता है। अतः जब सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन होता है, तब व्यक्ति की भूमिकाएँ (Roles) बदलती हैं जो सामाजिक सम्बन्धों एवं संरचना को प्रभावित करते हुए सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। अन्य कुछ विद्वान् सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को अग्र प्रकार प्रस्तुत करते हैं-


 व्यक्ति के अनुभवों में परिवर्तन 

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व्यक्ति की अभिवृत्ति (Attitude) में परिवर्तन 

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व्यक्ति के विचार-प्रतिरूपों (Pattern) में परिवर्तन 

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सामाजिक अन्तक्रिया (Interaction) में परिवर्तन 

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सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन 

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सामाजिक संरचना में परिवर्तन 

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सामाजिक परिवर्तन 


सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति 

(Nature of Social Change) 

सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति के प्रमुख तत्त्व निम्न प्रकार हैं- 

1. सामाजिक परिवर्तन आवश्यक एवं अनिवार्य हैं। 

2. ये सार्वभौमिक (Universal) हैं। 

3. ये अमूर्त हैं। 

4. ये जटिल होते हैं।