शिक्षा एक पीढ़ी द्वारा अर्जित अनुभव, ज्ञान, कौशल दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम है। शिक्षा सतत् रूप से चलने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के स्वाभाविक और सामंजस्यपूर्ण विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। व्यक्ति की वैयक्तिक का पूर्ण विकास करती है। उसे आस-पास के वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने में मदद प्रदान करती है और सफल जीवन एवं सभ्य नागरिक के कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के लिए तैयार करती है। साथ ही उसके व्यवहार विचार और दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन करती है जो देश, समाज एवं विश्व के लिए हितकर होता है। संक्षेप में, शिक्षा बालकों में अन्तर्निहित शक्तियों के प्रस्फुटन एवं विकसित होने में सहायता करती है। शिक्षा से समाज की निम्नलिखित अपेक्षाएँ हैं-
एक व्यक्ति के रूप में शिक्षा से हमारी यह अपेक्षा होती है कि वह बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक हो, व्यक्ति शिक्षित होकर अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हो सके, बालकों की जन्मजात प्रवृत्तियों का समायोजित विकास हो और व्यक्ति स्वयं अपनी जीविका कमाने हेतु तैयार हो सके । शिक्षा से यह अपेक्षा की जाती है कि इसके द्वारा व्यक्ति का नैतिक विकास एवं उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो, व्यक्ति को आत्मनिर्भर एवं आत्मविश्वासी बनाकर उसके उत्तम चरित्र का निर्माण करना, व्यक्ति में व्यावसायिक कुशलता का विकास करना, व्यक्ति के अन्दर यह क्षमता विकसित करना कि वह या तो वातावरण के अनुसार स्वयं को अनुकूलित कर ले या वातावरण को स्वयं के अनुसार परिवर्तित कर दे।
नई पीढ़ी को समाज की संस्कृति का ज्ञान कराना, समाज की शिक्षा से अपेक्षा है। बालकों को सामाजिक नियमों से परिचित कराकर उसका समाजीकरण करना, सामाजिक समस्याओं को दूर करने की भावना उत्पन् करना, समाज के अनेक विश्वासों तथा धर्मों के विषय में उदार दृष्टिकोण का निर्माण करना, समाज के प्रति निष्ठा की भावना का विकास करना। राष्ट्र को शिक्षा से अपेक्षा होती है कि शिक्षा कुशल और निष्ठावान नागरिकों का निर्माण करे, व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना, युवा व्यावसायिक रूप से दक्ष हों, कुशल कार्यकर्ताओं का निर्माण करना, शिक्षित व्यक्ति राष्ट्र की आय में बढ़ोत्तरी करे, व्यक्तियों में राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता का विकास हो, नागरिकों में कर्तव्यों और अधिकारों को समझ विकसित हो तथा वे उन्हें निभाने हेतु तत्पर हो
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय शिक्षा से यह अपेक्षा करता है कि वह व्यक्तियों में मानवीय गुणों/मूल्यों का विकास करें, व्यक्तियों में शांति की भावना विकसित करें जिससे कि वह जहाँ भी रहे वहाँ पर शांति की संस्कृति का निर्माण कर सके, व्यक्तियों में विश्व बंधुत्व की भावना/सह अस्तित्व की भावना का विकास हो, व्यक्तियों में पर्यावरण सम्बन्धी जागरूकता हो तथा वे पर्यावरण मैत्री व्यवहार करें।
वास्तव में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो न केवल देश के आदर्शों एवं मान्यताओं के अनुकूल हो बल्कि परिवर्तित एवं विकसित परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुकूल भी हो। क्योंकि शिक्षा का कार्य केवल संस्कृति या समाज का रक्षण ही नहीं है। शिक्षा यदि रूढ़िवादी और स्थिर होने से बचना चाहती है तो उसे समाज के संगठनों और संस्थाओं के कार्यों और गतिविधियों की पूरक एवं समाज और संस्कृति के विकास में सहायक भी होना चाहिए। शिक्षा से अपेक्षाओं को निचोड़ रूप में देखा जाए तो इस सम्बन्ध में अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 21वीं शताब्दी की रिपोर्ट जो 1996 में प्रकाशित हुई, उसमें शिक्षा के चार स्तम्भ माने गए हैं-
1. जानने के लिए सीखना
वास्तव में ज्ञान शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण भाग है हमारे चारों ओर के परिवेश में बहुत सी वस्तुएँ हैं, जिनको जानना आवश्यक है। इस सबकी जानकारी मनुष्य को सन्तुष्टि भी प्रदान करता है। ज्ञान प्राप्ति एक प्रकार के आन्तरिक आनन्द को जन्म देती है। यही नहीं, यह ज्ञान ही है जो मानव सभ्यता के विकास का आधार है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि सीखा कैसे जाए? शिक्षा का यह स्तम्भ 'Learning to Know' इसी बात से सम्बन्ध रखता है। रिपोर्ट में इसके लिए निम्नलिखित बातों पर बल दिया है-
(1) व्यक्ति में निरीक्षण शक्ति का विकास किया जाए।
(2) व्यक्ति में एकाग्रता विकसित की जाए। ध्यान की एकाग्रता के बिना ज्ञानार्जन असम्भव है।
(3) स्मरण-शक्ति का विकास किया जाए। इसके लिए पुराने चले आ रहे परम्परागत तरीकों को अपनाया जा सकता है।
(4) चिन्तन और तर्क-शक्ति दोनों का विकास किया जाए। तर्क आगमन व निगमन दोनों प्रकार का हो सकता है। लेकिन कब किस तरह के तर्क द्वारा ज्ञान प्राप्त करना है, इनका निर्धारण विषय-वस्तु की प्रकृति के अनुसार किया जाना चाहिए।
जब व्यक्ति में इन योग्यताओं का विकास हो जाता है तो वह यह सीख जाता है कि कैसे सीखा जाए? आयोग ने शिक्षा के इस स्तम्भ में विज्ञान शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध करवाने पर भी बल दिया है, क्योंकि इससे व्यक्ति की उपर्युक्त क्षमताओं के विकास में भी सहायता मिलती है।
2. करने के लिए सीखना
शिक्षा के पहले स्तम्भ का सम्बन्ध यदि 'ज्ञान' के साथ है तो इस स्तम्भ का 'क्रिया' के साथ यह व्यक्ति में अनेक कौशलों से जुड़ा है। रिपोर्ट में इस स्तम्भ के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं पर बल दिया गया है-
(i) शिक्षा द्वारा व्यक्ति में ऐसे कौशलों का विकास किया जाए, जिससे वह निश्चित भविष्य Certain Future के लिए तैयार हो सके।
(ii) शिक्षा व्यक्ति में ऐसी योग्यता विकसित करे, जिससे वह सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान में समन्वय कर सके।
(iii) शिक्षा उसे सृजनात्मक बनाए।
(iv) यह उसमें समस्या समाधान, निर्णय लेने एवं नवीनतम सामूहिक कौशलों का विकास करे।
(v) यह उसमें ऐसी क्षमता का विकास करे, जिससे वह चाहे कहीं नौकरी कर रहा हो या किसी व्यवसाय से जुड़ा हो, किये जाने वाले कार्य को अधिक दक्षता के साथ कर सके।
(vi) शिक्षा द्वारा उसमें सामाजिक कौशलों का विकास भी किया जाए।
इस तरह यह स्तम्भ विद्यार्थियों में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करने, प्रत्येक कार्य को दक्षता के साथ करने, उसे अनिश्चित भविष्य में सफलतापूर्वक कार्य करने में सक्षम बनाने और उसमें वैयक्तिक व सामाजिक कौशलों का विकास करने के साथ सम्बन्ध रखता है।
3. साथ रहने के लिए सीखना
शिक्षा के इस स्तम्भ के अन्तर्गत आयोग ने यह चर्चा की है कि इस सदी में व्यक्तियों में हिंसक एवं आत्मघाती प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं और सूचना और संचार माध्यम इस प्रकार की घटनाओं को समाज के समक्ष बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं। इससे आपसी संघर्ष बढ़े हैं। शिक्षा का यह स्तम्भ इसी विषय से सम्बन्ध रखता है कि कैसे लोगों को मिल-जुलकर साथ रहना सिखाया जाए? इस सन्दर्भ में रिपोर्ट में निम्न बिन्दुओं पर बल दिया गया है-
(i) आजीवन शिक्षा के अन्तर्गत समान परियोजनाओं में लोगों की संलिप्तता को बढ़ाया जाए। इससे परस्पर झगड़ों को रोकने में सहायता मिलेगी।
(ii) विद्यार्थियों को मानवीय विविधताओं की जानकारी देने के साथ-साथ उन बातों की भी जानकारी दी जाए जो सबमें समान रूप से पाई जाती हैं। उन्हें यह भी समझाया जाए कि हम सभी इस तरह किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
(iii) विद्यार्थियों को मानव भूगोल, विदेशी भाषाओं व साहित्य की शिक्षा दी जाए।
(iv) विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाए कि वे विश्व को दूसरों के नजरिए से देखें। इससे परस्पर सद्भावना को बढ़ावा मिलेगा।
(v) विद्यार्थियों को परस्पर बातचीत और परिचर्चा के लिए उपयुक्त मंच उपलब्ध करवाया जाए।
(vi) उनमें यह बोध उत्पन्न किया जाए कि विभिन्न क्षेत्रों में अधिकतम सफलता प्राप्त करने हेतु मिल-जुलकर काम करना आवश्यक है।
(vii) विद्यार्थियों को प्रारम्भ से ही खेल-कूद तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
(viii) शिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी सभी मिलकर समान परियोजनाओं पर कार्य करें।
इस तरह ये विभिन्न गतिविधियाँ विद्यार्थियों को साथ मिलकर रहना सिखाएगी जो कि वर्तमान शताब्दी की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।
4. अस्तित्व के लिए सीखना
1972 में प्रस्तुत अन्तर्राष्ट्रीय आयोग की प्रस्तावना में कहा गया है कि तकनीकी विकास के कारण विश्व में मानवता की भावना लुप्त हो जाएगी। यदि प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताओं का पूर्ण विकास होता है तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः आयोग के अनुसार शिक्षा को चाहिए कि वह व्यक्ति को अपने अस्तित्व हेतु प्रशिक्षण दे।
दूसरे शब्दों में, उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करे। इस सन्दर्भ में आयोग ने निम्नलिखित बातों पर जोर दिया है-
(i) शिक्षा का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि यह व्यक्ति का पूर्ण विकास करे। दूसरे शब्दों में, उसका शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक, सौन्दर्य-बोधात्मक और आध्यात्मिक विकास करे ताकि वह एक पूर्ण मानव बन सके।
(ii) शिक्षा व्यक्ति में स्वतन्त्र एवं आलोचनात्मक तरीके से चिन्तन करने तथा अपने निर्णय स्वयं लेने की योग्यता का विकास करे।
(iii) शिक्षा उसे इस रूप में तैयार करे कि वह एक व्यक्ति, एक परिवार व समाज के सदस्य, एक भविष्य के सृजनशील स्वप्न द्रष्टा एवं नवीन तकनीकों के जन्मदाता के रूप में अपने व्यक्तित्व को विकसित कर सके।
(iv) शिक्षा उसे अपनी समस्याओं का स्वयं समाधान करने एवं अपनी जिम्मेदारियों का स्वयं निर्वाह करने के योग्य बनाए।
(v) शिक्षा यह भी सुनिश्चित करे कि प्रत्येक व्यक्ति विचारों, भावनाओं, कल्पना एवं निर्णय के सन्दर्भ में स्वतन्त्र हो और अपनी क्षमताओं का पूर्ण विकास कर सके।
उपरोक्त चारों स्तम्भ ही आधुनिक समय में शिक्षा से मूलभूत अपेक्षाएँ हैं।
किसी भी राष्ट्र की प्रगति में विद्यालय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। विद्यालय को सामाजिक परिवर्तन का आधार व पुनर्निर्माण के अभिकर्ता के रूप में देखा जाता है। पहले विद्यालयों में बच्चों पर ज्ञान थोपा जाता था। वे शिक्षा को जन्मधुट्टी की भाँति रट कर पी जाते थे परंतु आज माहौल बदल गया है। बच्चों की जिज्ञासा, मौलिकता एवं सृजनात्मकता को महत्त्व दिया जा रहा है जिससे बच्चे ज्ञान का सृजन स्वयं कर रहे हैं। विद्यालय बच्चों की स्वतन्त्रता का हनन करने का स्थल न हो बल्कि उसका वातावरण इस प्रकार निर्मित हो कि बच्चे स्वयं खिंचे चले आयें। उन्मुक्त पक्षी की तरह बच्चे स्वतन्त्र विचरण करें। विद्यालय की हर गतिविधि में उनके सीखने एवं ज्ञान को अर्जित करने की जगह हो विद्यालय से समाज की अधिक अपेक्षाएँ होती है वह विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों में मानवीय मूल्यों की झलक देखना चाहता है और उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाना चाहता है।
समाज द्वारा अपनी भावी पीढ़ी को शिक्षित करने हेतु शिक्षा संस्थाओं/विद्यालयों की स्थापना की जाती है। कुछ संस्थाएँ सरकार द्वारा स्थापित की जाती हैं। कुछ विभिन्न संगठनों, संस्थाओं तथा व्यक्तियों द्वारा स्थापित की जाती हैं। विद्यालय की समुदाय से सबसे बड़ी अपेक्षा यह होती है कि वे अपने बच्चों का विद्यालय में दाखिला करवाएँ एवं उनको नियमित रूप से विद्यालय भेजें। शिक्षक अभिभावक बैठकों में अनिवार्य रूप से शामिल होकर अपने बच्चों की शैक्षिक प्रगति को जानकर आवश्यक सहयोग एवं मार्गदर्शन करें। बाल मेला, विज्ञान मेला तथा गणित मेला आदि अनेक कार्यक्रमों में सहभागिता करें। विद्यालय के वार्षिक समारोह एवं वार्षिक खेलकूद कार्यक्रम में शामिल होकर अपने बालक-बालिकाओं को उत्सावर्द्धन करें। विद्यालय से सम्बन्धित सभी समितियों में शामिल विभिन्न समुदाय के लोगों से यह अपेक्षा होती है कि वह इन समितियों में निर्णय प्रक्रिया में सक्रिय साझेदारी करते हुए जिम्मेदारियों का निर्वहन सही ढंग से करें। विशेष रूप से माता समिति से जुड़ी महिलाओं को जिम्मेदारी है कि वह भी सक्रिय रूप से विद्यालय जीवन में अपना सहयोग करें। शिक्षा समिति से सम्बन्धित लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह गुणवत्तापूर्ण पौष्टिक भोजन बालक-बालिकाओं हेतु बनवाएँ।
इस बात से आप सहमत होंगे कि शिक्षा से अपेक्षाएँ समय के साथ बदलती रही हैं। समाज ने सदैव अपनी वर्तमान आवश्यकताओं/माँगों एवं जीवन दर्शन के आधार पर शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित किए हैं। प्राचीन काल के वैदिक समाज ने गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ऐसे लोगों को तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षा को सौंपी थी जिनमें धार्मिकता का समावेश हो। उस समय धर्म पर अत्यधिक बल था। व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थाओं का अभाव था।
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