रेडफील्ड ने भारत में सांस्कृतिक परिवर्तनों की प्रक्रिया को समझाने हेतु 'परम्परा' की अवधारणा का प्रयोग किया है। रेडफील्ड का मानना है कि प्रत्येक संस्कृति का निर्माण परम्पराओं से होता है, जिन्हें दो भागों में बाँटकर समझा जा सकता है:-
- वृहद् परम्परा
- लघु परम्परा
इन दोनों परम्पराओं में पहली श्रेणी की परम्परा को हम वृहद् परम्परा एवं दूसरी श्रेणी की परम्परा को लघु परम्परा कहते हैं। वास्तव में हमारे व्यवहारों के तरीकों को परम्परा कहा जाता है। समाज में प्रचलित विचार, रूढ़ियाँ, मूल्य, विश्वास, धर्म, रीति-रिवाज, आदतों आदि के संयुक्त रूप को ही मोटे तौर पर परम्परा कहा जा सकता है।
जेम्स ड्रेवर (1976) ने परम्परा को कानून, प्रथा, कहानी और किंवदन्तियों के उस संग्रह को परम्परा कहा है जो मौलिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता है।
इसी तरह जिन्सबर्ग (2011) ने भी उन समस्त विचारों, आदतों और प्रभावों के योग को परम्परा कहा हैं, जो व्यक्तियों के एक समुदाय से सम्बन्धित होता है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।
योगेन्द्र सिंह (2014) ने किसी समाज की उस संचित विरासत को परम्परा कहा है, जो सामाजिक संगठन के सभी स्तरों पर छाई रहती है, जैसे:- मूल्य- व्यवस्था, सामाजिक संरचना तथा वैयक्तिक संरचना प्राचीन काल से ही भारत में संयुक्त परिवार की परम्परा विद्यमान थी, लेकिन वर्तमान समय में परिवार के सभी सदस्यों का साथ रहना सम्भव नहीं है। नौकरी, व्यापार एवं अन्य कारणों से पारिवारिक सदस्य अलग-अलग रहते हैं लेकिन भारतीय परिवारों में 'एकल परिवार' होने के बाद भी परम्परागत प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। यथा, एकल बच्चे को उसके दादा-दादी, चाची-चाचा, बुआ, फूफा, मामा-मामी व उनके बच्चों से लगातार सम्पर्क में रखना, उनके जन्मदिवस, त्यौहारों पर सभी का एकत्रित होकर छुट्टियों को प्रसन्नता से मनाना भारतीय परम्परा में पुत्र का परिवार में होना अति आवश्यक माना जाता था। पुत्र के अभाव में यज्ञ, तप, दान को भी व्यर्थ माना जाता था। साथ ही पिता का अंतिम संस्कार करने व श्राद्धकर्म करने का अधिकार भी पुत्रों को ही प्राप्त था। परन्तु आधुनिकता के प्रभाव ने इस परम्परागत सोच की चुनौती दे दी है। अब पुत्र एवं पुत्री में कोई भेद नहीं किया जाता, यद्यपि हर गाँव या समाज में समान आधुनिक दृष्टिकोण दिखाई नहीं देता। अब छोटे परिवारों में या 02 बच्चे होते हैं। चाहे वह पुत्र हो या पुत्रियाँ अब तो लड़कियाँ पुरातन रूढ़ियों को तोड़कर पिता का अंतिम संस्कार व श्राद्धकर्म भी कर रही हैं।
मातृदेवी की पूजा सिन्धुकाल से ही भारतीय समाज में प्रचलित थी, जिसे वैदिक काल में माता, पृथ्वी, अदिति आदि नामों से जाना गया। पुराणकाल में इसे पार्वती, दुर्गा, काली, महिषमर्दिनी भवानी, आदि। नामों से विभूषित किया गया। वर्तमान में इन्हें अनेक नये नामों से (संतोषी माता, वैभव माता आदि) इस मातृदेवी की पूजा की जा रही है। इसी तरह व्रत-त्योहार आदि मनाने की पद्धति में बदलते समय के अनुरूप अनेक सुविधाजनक परिवर्तन हो गए हैं, लेकिन इनका प्रचलन बदस्तूर जारी है। यहीं नहीं शादी-विवाह अन्य अवसरों पर फिजूलखर्ची एवं शानोशौकत का प्रदर्शन करने वाले भारतीय आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्र के लिए, निजी और सरकारी संस्थाओं के लिए या व्यक्तिगत रूप से भी असहाय लोगों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि हम आधुनिकता के इस दौर में भी पारम्परिक विचारों के ही पोषक हैं। वर्तमान हकीकत यही है कि हम सभी आधुनिक समय, विचारों, पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रभावित हैं। फिर भी हमने अपनी परम्पराओं को उनके परिवर्तित स्वरूप में जीवित रखा है। भारतीय समाज में क्रियाशील परिवर्तन और निरंतरता की प्रवृत्तियों के संदर्भ में यदि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया पर दृष्टि डाली जाए तो निश्चित ही यह स्पष्ट होगा कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से जहाँ आज भारतीय समाज परिवर्तन एवं प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है तथा इसके तहत इसने विशिष्ट उपलब्धियाँ भी प्राप्त की हैं किन्तु यह भी दृष्टव्य है कि आधुनिकीकरण की इस प्रक्रिया ने भले ही पूर्ण रूप से न सही किन्तु कुछ मात्रा में परम्परा व सामाजिक मूल्यों को परिवर्तित अवश्य किया है।
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