शनिवार, 6 नवंबर 2021

लोकतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Democratic Education) D.El.Ed. 2nd Year S-1 B.S.E.B. Patna.

        जॉन ड्यूवी (John Dewey) ने लिखा है- “लोकतन्त्र केवल सरकार का रूप न होकर, उससे भी कुछ अधिक है। यह मुख्यतः सहयोगी जीवन और सम्मिलित रूप से किये गये अनुभव की विधि है।" 

         ड्यूवी ने जिस विधि के बारे में लिखा है, उसके अनुसार लोगों को तैयार करना शिक्षा का कार्य है। अतः यह प्रश्न उठता है कि “लोकतन्त्र में लोगों को किस प्रकार शिक्षा दी जाए।" इसका उत्तर यह है कि यदि इस शिक्षा में हमारे प्रयास सफल हैं, तो बालक योग्य नागरिक बनेगा। वह अपने कार्यों को इस प्रकार करेगा, जिससे उसका और दूसरों का हित होगा। वह ऐसे कार्यों को करने पर बल देगा, जिनसे विश्व कल्याण को योग मिलेगा। उसमें 'सह जीवन और सह-अस्तित्व' की भावना का विकास होगा। इस प्रकार के व्यक्ति को निर्माण करने के लिए  लोकतन्त्रीय शिक्षा के कुछ उद्देश्य होना आवश्यक है।

      लोकतन्त्रीय शिक्षा में निम्नलिखित उद्देश्यों पर बल दिया जाता है:- 

(1) समविकसित व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का विकास (Development of Individuals with Harmonious Personality)- आज का संसार संघर्षों और कटुताओं से भरा हुआ है। ये दोनों लोकतन्त्र और मानव के लिए संकट का कारण बन गये हैं। अतः शिक्षा को सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का विकास करना चाहिए। हुमायूँ कबीर (Humayun Kabir) के अनुसार, “शिक्षा को मानव प्रकृति के सब पहलुओं के लिए सामग्री जुटानी चाहिए और मानवशास्त्र, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी को समान महत्त्व देना चाहिए, जिससे कि वह मनुष्य को सब कार्यों को निष्पक्षता, कुशलता और उदारता से करने के योग्य बना सके।" 

(2) व्यक्ति की आर्थिक सम्पन्नता (Economic Well-being of the Individual)- लोकतन्त्र की सफलता, व्यक्तियों की आर्थिक सम्पन्नता पर निर्भर है। इसका कारण यह है कि आर्थिक सम्पन्नता न होने पर वे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, वे धन सम्पन्न व्यक्तियों के इशारे पर अपने वोट किसी को भी दे सकते हैं। अतः लोकतन्त्र में शिक्षा का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह लोगों को किसी व्यवसाय के लिए तैयार करके उनको धन-सम्पन्न बनाये। माध्यमिक शिक्षा आयोग ने भारतीय लोकतन्त्र में व्यावसायिक दक्षता के विकास को शिक्षा का एक उद्देश्य निर्धारित किया है। 

(3) व्यक्ति की रुचियों का विकास (Development of Individual's Interests)– लोकतन्त्र में शिक्षा को व्यक्ति की रुचियों के विकास के लिए कार्य करना चाहिए। हरबार्ट (Harbart) ने बहुमुखी रुचियों के विकास पर बल दिया है। बालक में जितनी ही अधिक उपयुक्त और श्रेष्ठ रुचियाँ होंगी, उसे उतने ही अधिक अवसर शिक्षाकाल में और उसके बाद सुखी, कुशल और सन्तुलित जीवन व्यतीत करने के लिए मिलेंगे। 

(4) अच्छी आदतों का निर्माण (Formation of Good Habits)- लोकतन्त्रीय समाज के नागरिक में अच्छी आदतों का निर्माण किया जाना आवश्यक है, क्योंकि आदतें ही गरीबी या अमीरी, परिश्रम या आलस्य, अच्छे या बुरे कार्यों की नींव डालती हैं। अतः बालकों को आरम्भ से अच्छी आदतें सिखायी जानी चाहिए, जिससे कि उनका और उनके समाज का भावी जीवन सुखी हो सके। 

(5) सामाजिक दृष्टिकोण का विकास (Development of Social Outlook)- लोकतन्त्र में शिक्ष का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है- व्यक्ति में सामाजिक दृष्टिकोण का विकास करना। इस उद्देश्य में सामाजिक समझदारी, सामाजिक रुचियाँ, सामाजिक प्राणी बनने की भावना, सहयोग और सामाजिक तथा आर्थिक प्रश्नों का निर्णय करने की योग्यता आती है। इस प्रकार इस उद्देश्य में सामाजिक भावना और सामाजिक क्षमता की भावना सम्मिलित है। 

(6) लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास (Development of Democratic Values)- लोकतान्त्रिक शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बालकों में लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास करना होना चाहिए। भारतीय लोकतन्त्र को सुदृढ़ तथा सबल बनाने के लिए शिक्षा द्वारा निम्नलिखित लोकतान्त्रिक मूल्यों के विकास पर बल दिया जाना चाहिए- 

1. व्यक्तित्व की गरिमा का आदर, 2. सहनशीलता, 3. पारस्परिक सद्भाव, 4. सेवा, 5. विचार-विमर्श द्वारा परिवर्तन, 6. व्यक्तिगत तथा सामाजिक उन्नति में समन्वय, 7. त्यागपूर्ण नेतृत्व, 8. आत्म-नियन्त्रण। 

(7) राष्ट्रीय चेतना का विकास (Development of National Consciousness)– भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतन्त्र में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य चेतना का विकास होना चाहिए। शिक्षा द्वारा बालकों में राष्ट्रप्रेम की भावना का विकास करना चाहिए। साथ ही उन्हें अपनी राष्ट्रीय धरोहर का ज्ञान कराया जाए जिससे वे उस पर गौरवान्वित हो सकें।

(8) नेतृत्व के गुणों का विकास (Development of the Qualities of Leadership)- लोकतन्त्र का अर्थ है- "सबसे बुद्धिमान निर्वाचित नागरिकों के नेतृत्व में सबकी प्रगति।" अतः शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है। क्योंकि आज के युवक भावी जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करेंगे, इसलिए शिक्षा का विशेष उद्देश्य उनको सामाजिक, राजनीतिक, औद्योगिक या सांस्कृतिक क्षेत्रों में नेतृत्व के लिए प्रशिक्षित करना होना चाहिए। 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' ने लिखा है- "जनतन्त्रीय भारत में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्तियों में नेतृत्व के गुणों का विकास करना है।" 

(9) लोकतन्त्रीय नागरिकता का विकास (Development of Democratic Citizenship)- लोकतन्त्र में नागरिकता का बहुत कठिन दायित्व है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को उसके लिए प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है। नागरिकता में बहुत से मानसिक, सामाजिक और नैतिक गुणों की आवश्यकता होती है। ये गुण अपने आप विकसित नहीं होते हैं। इनका विकास तभी होता है जब व्यक्ति सब प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रश्नों का स्वतन्त्रतापूर्वक निर्णय करे और अपने कार्य की विधि को निश्चित करे। इन बातों के लिए शिक्षा द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना आवश्यक है।

         इस सम्बन्ध में सबसे पहली आवश्यकता यह है कि नागरिक में स्पष्ट विचार करने की शक्ति हो। इसका अर्थ यह है कि उसमें मानसिक शुद्धता हो, जिससे वह सत्य और असत्य में अन्तर कर सके, धर्मान्धता और पक्षपातपूर्ण बातों को अस्वीकार कर सके, अपने निष्कर्षो को ठोस प्रमाणों पर आधारित करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रयोग कर सके एवं प्राचीन और निरर्थक रीति-रिवाजों, परम्पराओं और विश्वासों को त्यागकर उदार मस्तिष्क से लाभप्रद विचारों को ग्रहण कर सके। नागरिक में इस प्रकार के मानसिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। 

        विचार की स्पष्टता से भाषण और लेखन की स्पष्टता का घनिष्ठ सम्बन्ध है। लोकतन्त्र की सफलता के लिए ये तीनों बातें आवश्यक हैं। कारण यह है कि स्वतन्त्र वाद-विवाद और शान्तिपूर्ण विचार-विनिमय प्रजातन्त्र के आधार हैं। अत: दूसरों को प्रभावित और स्वस्थ जनमत का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रजातन्त्र का नागरिक भाषण और लेखन दोनों में अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करे। 

(10) अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास (Development of Inter Cultural Understanding)– भारत में अति प्राचीन काल से विभिन्न सांस्कृतिक धाराएँ बहती रही हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति विश्व के अन्य देशों की, संस्कृतियों के समान नहीं है। ऐसी परिस्थिति में भारत में विभिन्न भागों और विश्व की संस्कृतियों को समझना और उनका आदर करना सरल कार्य नहीं है। अत: यह आवश्यक है कि हमारी लोकतन्त्रीय शिक्षा इस ओर विशेष ध्यान दे।

इसके लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं:-

1. उच्च शिक्षा की संस्थाएँ ऐसे पाठ्यक्रम बनायें, जिनके द्वारा मनुष्यों और स्त्रियों को इस देश के विभिन्न भागों और विश्व की विभिन्न संस्कृतियों की शिक्षा दी जा सके। 

2 . भारतीय और विश्व इतिहास का विशेष रूप से अध्ययन किया जाए। 

3 . भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा सांस्कृतिक गोष्ठियों का आयोजन किया जाए। 

4. विभिन्न भारतीय राज्यों और देशों के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों में परस्पर ज्ञान को आदान-प्रदान करने के लिए अवसर प्रदान किये जाएँ। 

5. सामाजिक विज्ञानों में "भ्रमणकारी अध्यापक-संस्था" (Institution of Roving Professorship) की स्थापना की जाए। 

6. इसके प्राध्यापक भारतीय राज्यों और अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में समय-समय पर जाकर अपने भाषणों द्वारा वहाँ के व्यक्तियों को भारतीय संस्कृति के ज्ञान से उन्हें अवगत करायें। 7. सांस्कृतिक मण्डलों, गायकों, नृत्यकारों, कलाकारों और लेखकों का आदान-प्रदान किया जाए।

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