भारत छोड़ो आंदोलन को सरकार द्वारा बलपूर्वक दबाने के परिणाम स्वरूप क्रांतिकारियों कार्रवाइयाँ को गुप्त रूप से आंदोलन चलाने को बाध्य होना पड़ा। बिहार के विभिन्न जिलों में गुप्त क्रांतिकारी शुरू हो चुकी थी। 12 अक्टूबर, 1942 को पटना के अंडारी गाँव में एक विस्फोट हुआ। 26 अक्टूबर , 1942 को एक पुलिस दस्ते ने मुंगेर जिला में जमालपुर के समीप एक जंगल में मिल्स - ग्रेनेड से भरे 17 बक्से बरामद किए। इस तरह की कई घटनाएं हुई, जिसमें हिंसात्मक रूप का प्रदर्शन किया गया।
गुप्त गतिविधियों में आजाद दस्ता का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता जयप्रकाश नारायण थे। आन्दोलन के आरम्भ में ही जयप्रकाश नारायण गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 09 नवम्बर, 1942 को दीपावली की रात में जयप्रकाश नारायण अपने साथियों- रामानंद मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, गुलाब चन्द्र गुप्त और शालिग्राम के साथ हजारीबाग में जेल की दीवार फांद कर फरार हो गए। इस क्रम में जयप्रकाश नारायण नेपाल की तराई के जंगलों में भूमिगत हो गए। संपूर्ण देश में कार्य करने के लिए यहीं पर जयप्रकाश नारायण, कार्त्तिक प्रसाद और ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह के द्वारा 'आजाद दस्ता' का गठन किया गया। इस दस्ते का गठन विशेष रूप से सरकार के विरुद्ध तोड़ - फोड़ की कार्रवाइयों के लिए किया गया था ताकि युद्ध कार्यों में सरकार को बाधा पहुंचे।
नेपाल में ही आजाद दस्ते का अखिल भारतीय केन्द्र और बिहार प्रांतीय कार्यालय संगठित हुआ। आजाद दस्ते में अनेक क्रांतिकारी तरुण शामिल हुए। यहाँ जयप्रकाश जी के साथ श्यामनन्दन सिंह और डॉ. राम मनोहर लोहिया भी आ चुके थे। डॉ. लोहिया संचार और प्रचार विभाग का निर्देशन करते थे। बिहार के लिए सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में बिहार प्रांतीय आजाद परिषद् का गठन किया गया। काम करने के लिए तीन प्रशिक्षण शिविर शुरू करने का निर्णय लिया गया। नेपाल शिविर का मुख्य प्रशिक्षक सरदार नित्यानन्द सिंह को बनाया गया। 1943 के मार्च - अप्रैल में नेपाल के राज - विलास जंगल में आजाद दस्ता के पहले प्रशिक्षण शिविर में बिहार के 25 युवकों को आग्नेयास्त्रों को चलाने की शिक्षा दी गई।
इसके अतिरिक्त आजाद दस्ता के सदस्यों को तोड़फोड़ के लिए तीन तरह की कार्रवाइयों की शिक्षा दी जाती थी-
1. यातायात के साधनों को क्षति पहुँचाना,
2. औद्योगिक प्रतिष्ठानों को क्षति पहुँचाना और
3. संचार साधनों को नष्ट करना।
इसके लिए तीन तरह के उपाय भी किये गये थे-
1. सामान्य तोड़फोड़ के लिए हथियारों और औजारों का उपयोग।
2. अग्निकांड द्वारा सरकारी फाइलों आदि का विनाश और
3. रासायनिक पदार्थों और बारुद द्वारा विस्फोट से मिलों, कार्यालयों आदि का विनाश।
इन कार्यों के लिए दो तरह के दल तैयार किये गये। एक ओर वे लोग थे जो गुप्त ढंग से तोड़ - फोड़ कर इन कार्रवाईयों को चला रहे थे, दूसरी और वैसे लोग थे जो व्यापक जन आंदोलन का एक अंग बनकर हिंसात्मक संघर्ष को आगे बढ़ा रहे थे।
ऐसे संगठनों की आवश्यकता दो कारणों से महसूस की गयी थी, जैसा कि राममनोहर लोहिया ने स्पष्ट किया था। एक तो इसलिए कि युवकों में जो हिंसा और संघर्ष की भावना बन रही थी उसे एक सही और सुनियोजित दिशा प्रदान की जाये। दूसरी इसलिए कि दोबारा किसी जनक्रांति के विस्फोट के समय क्रांतिकारियों के पास ऐसे साधन और संगठन हों जिससे वे सरकार के नृशंस दमन और राज्य द्वारा हिंसा के प्रयोग का भरपूर मुकाबला कर सकें।
मई, 1943 में भारत सरकार के दबाव में नेपाल सरकार ने जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, श्यामानन्द बाबू, श्री कार्तिक प्रसाद सिंह इत्यादि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें हनुमान नगर जेल भेज दिया। लेकिन सूरज नारायण सिंह और सरदार नित्यानन्द के नेतृत्व में जेल धावा बोलकर बंदियों को छुड़ा लिया गया। जयप्रकाश नारायण अपने सहयोगियों के साथ भागते हुए कोलकत्ता पहुँचे। यहाँ उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सरकार से सम्पर्क बनाने की कोशिश की मगर यह संभव नहीं हो सका। पुलिस भी इनका पीछा करती रही और अंततः 18 दिसम्बर , 1943 को उन्हें 'मुगलपुरा' में गिरफ्तार कर लिया गया। इस समय तक वसावन सिंह , रामनन्दन सिंह , श्री जोशी इत्यादि नेता भी गिरफ्तार किए जा चुके थे। 07 जुलाई , 1944 को श्री कार्मिक प्रसाद तथा भुनेश्वर यादव भी गिरफ्तार कर लिए गए। इन प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारियों ने आजाद दस्ते के कार्य को मंद और शिथिल कर दिया।
बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में सियाराम सिंह के नेतृत्व में 'सियाराम दल' ने उल्लेखनीय योगदान दिया। इस दल के कार्यक्रमों में चार बातें मुख्य थीं धन संचय, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण, सरकार का प्रतिरोध एवं जनसंगठन। कुछ लोग स्वेच्छा से धन देते और कभी - कभी ये लोग राजनीतिक डकैतियाँ भी डालते। इस दल द्वारा शस्त्र छीने भी जाते थे और खरीदे भी जाते थे। नित्यानन्द सिंह और पार्थ ब्रह्मचारी के आ जाने से शस्त्र चलाने के प्रशिक्षण कार्यक्रम में भी तेजी आयी। सियाराम दल का प्रभाव भागलपुर, मुंगेर, किशनगंज, बलिया, सुल्तानगंज, पूर्णियाँ, संथाल परगना आदि जिलों में था। बीहपुर इलाके में इस दल ने एक तरह की समानान्तर सरकार स्थापित कर ली थी। यह दल 1943-44 ई. के दौरान सक्रिय रहा।
भागलपुर इलाके में छापामार तरीके तथा हिंसात्मक ढंग से क्रियाशील कुछ अन्य क्रांतिकारी दलों में परशुराम दल और महेन्द्र गोप के दल उल्लेखनीय थे। श्री परशुराम सिंह मई, 1943 में गिरफ्तार कर लिए गए और उनका दल शिथिल पड़ गया।
इस तरह कहा जा सकता है कि भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बिहार में गुप्त संगठनों ने सत्ता के विरुद्ध संघर्ष में अहम भूमिका निभाई और अंग्रेजी सरकार की चूल हिलाकर रख दी।
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