बिहार में वहाबी आंदोलन
अरेबिया के धार्मिक गुरू मुहम्मद इब्न अब्ल-अल वहाब (1703-92) के शिष्यों द्वारा उत्तर अफ्रीका के तथाकथित विधर्मी अंग्रेजों के शासन के विरूद्ध प्रारम्भ किया गया, इस्लामी पुर्नरूत्थानवादी संघर्ष वहाबी आन्दोलन कहलाता है।
वहाबी आंदोलन का भारत एवं मुस्लिम इतिहास में काफी महत्व है। साथ ही इस आंदोलन का 19वीं सदी के बिहार के स्वतंत्रता संघर्ष में महत्वपूर्ण स्थान है। 1822-1868 ई. के बीच 46 वर्षों तक पटना इस आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा। यहाँ इसका निर्देशन नगर के सम्पन्न मुस्लिम परिवार द्वारा किया गया। इस परिवार के लोग अपनी विविधता एवं धर्म निष्ठता के लिए प्रख्यात थे।
मुसलमानों में पाश्चात्य प्रभावों के विरुद्ध सर्वप्रथम जो प्रतिक्रिया हुई उसे वहावी आंदोलन अथवा वलीउल्लाह आंदोलन के नाम से स्मरण किया जाता है। वास्तव में यह पुनर्जागरणवादी आंदोलन था। शाह वलीउल्लाह (1732-62 ई.) भारतीय मुसलमानों के प्रथम नेता थे जिन्होंने भारतीय मुसलमानों की स्थिति में गिरावट पर चिन्ता प्रकट की थी। उन्होंने भारतीय मुसलमानों के रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं में आई कुरीतियों की ओर ध्यान दिलाया।
भारत के सैय्यद अहमद बरेलवी के ऊपर उनकी शिक्षाओं का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। सैय्यद अहमद बरेलवी का जन्म 1776 ई. में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में हुआ था। उन्होंने मुस्लिम समाज के नैतिक उत्थान की बात की तथा मुसलमानों की बदहाली पर गौर करते हुए महसूस किया कि जब तक भारत से अंग्रेजी व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जाता तब तक भारत में मुसलमानों की स्थिति में कोई मौलिक सुधार नहीं हो सकता है। उन्होंने यह भी महसूस किया कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन रहकर उन्हें चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। फलतः उन्होंने पश्चिमोत्तर सीमांत के अफगान कबीलों की मदद से सितना में एक स्वतंत्र राज्य का गठन किया। 1821 ई. में उन्होंने पटना का दौरा किया और बड़ी संख्या में लोगों को अपने आंदोलन के प्रति आकर्षित किया। 1822 ई. से लेकर 1868 ई. तक लगभग 46 वर्षों के लिए पटना इस आन्दोलन का महत्वपूर्ण केन्द्र बना रहा। विलायत अली, शाह मुहम्मद हुसैन, इनायत अली एवं फरहाल हुसैन सैयद अहमद बरेलवी के प्रधान शिष्य बने।
1831 ई. में सिक्खों के खिलाफ बालाकोट की लड़ाई लड़ते हुए सैय्यद अहमद की मृत्यु हो गयी। अब नेतृत्व पटना के विलायत अली एवं इनायत अली के हाथों में आ गया। सितना के अलावा पटना भी उनकी गतिविधियों का केन्द्र बना। 1844 ई. में विलायत अली ने अस्सी (80) साथियों के साथ पटना से अफगानिस्तान के लिए प्रस्थान किया। उनके साथियों में फैज अली, याहिया अली एवं अकबर अली प्रमुख थे। रास्ते में लाहौर में ही रेजिडेंट लारेंस ने उन्हें रोक लिया और अपना हथियार अंग्रेजों को सुपुर्द करने के लिए बाध्य किया और उन्हें पटना वापस भेज दिया गया। पटना में विलायत अली ने वहाबी मत का जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया। 1850 ई. में वे पुनः अपने दो सौ पचास (250) साथियों के साथ पटना से सितना रवाना हुये। 1854 ई. में चौंसठ वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी।
सामान्य मुसलमानों के साथ मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर- II भी विलायत अली के शिष्य थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके छोटे भाई इनायत अली ने आंदोलन की बागडोर सम्भाली। उनके ही नेतृत्व में 1857-58 के विद्रोह में वहाबियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया और अंग्रेजी साम्राज्यवाद को जड़ से हिला दिया। 1858 ई. में इनायत अली की मृत्यु हो गयी।
उनकी मृत्यु के पश्चात् मौलवी मकसूद अली ने बहावी समुदाय का नेतृत्व किया। विलायत अली का सबसे बड़ा लड़का मौलवी अब्दुला ने भी इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। 15 नवम्बर 1864 ई . को इस आंदोलन के प्रमुख नेता अहमदुल्ला को गिरफ्तार कर लिया गया। 1865 में वहावियों पर राजद्रोह का मुदकमा चलाया गया और अहमदुल्ला एवं उनके साथियों को कालापानी की सजा दी गयी। 13 अप्रैल 1866 को पोर्ट ब्लयेर भेज दिया गया। उनके भाई याहिया अली, भतीजा अब्दुल रहीम एवं निष्ठावान सहयोगी जफर को भी 11 जनवरी 1866 को पोर्ट ब्लेयर भेज दिया गया।
अहमदुल्ला की अनुपस्थिति में मौलवी मुबारक अली पटना केन्द्र के प्रमुख नेता बने। इब्राहीम मंडल इस्लामपुर का रहनेवाला था उसके ऊपर मुकदमा चलाया गया और आजीवन कैद की सजा दी गयी। 1868 ई. में पटना के चुन्नी और मोहम्मद इस्माइल गिरफ्तार किये गये। 1868 ई . में अमीर खाँ एवं उसके सहयोगियों पर मुकदमा चलाया गया एवं आजीवन कालापानी की सजा बहाल कर उसे अंडमान भेज दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। हस्मत खाँ सजा भोगकर पटना वापस लौटा और 1869 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। 1870-71 ई. तक आते-आते पटना के बहावियों की शक्ति पूर्णतया समाप्त हो गयी।
बहावी आंदोलन को ब्रिटिश अधिकारियों एवं इतिहासकारों ने साम्प्रदायिक आंदोलन का रंग देने की कोशिश की और कहा कि यह आंदोलन मुख्य रूप से हिन्दू एवं सिक्खों के खिलाफ था। लेकिन वास्तव में यह आन्दोलन मुख्य रूप से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ज्यातियों के खिलाफ था जिसने भारत में ब्रिटिश शासन को निकाल बाहर करने पर जोर दिया।
इस तरह यह आंदोलन मुसलमानों का, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के लिए ही था। जिसका उद्देश्य भारत को दारूल-हर्व से दारूल इस्लाम (ब्रिटिश सत्ता के परिप्रेक्ष्य में) बनाना था। इस तरह वहाबी आंदोलन के माध्यम से बिहार में राष्ट्रीयता का अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से काफी विकास हुआ और यह अपने वास्तविक उद्देश्य भारत को अंग्रेजी सत्ता से मुक्त कराने में काफी सहायक भी सिद्ध हुआ।
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