शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

मेरे जीवन के अनमोल पल। Precious Moments of my life.


मेरे जीवन के अनमोल पल 

          कक्षा प्रथम से लेकर पाँचवी तक घर से स्लेट/तख्ती लेकर स्कूल जाते थे स्लेट को जीभ से चाटकर-चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी शायद यही वजह है की आज भी हिन्दी के ये सारे टेरे-मेढ़े शब्द मस्तिष्क पर अपनी छाप बनाये हुए है। इसी दरम्यान किसी ने कह दिया की मेरे द्वारा ऐसा करने से पाप लगेगा और विद्यामाता नाराज हो जायेंगी, बस क्या था उसके उपरांत शब्दों को मिटाने के लिए भृंगराज जिसे भोजपुरी में भेंगराज कहते हैं का प्रयोग करने लगे

       कक्षा के उत्पन्न तनाव को पेन्सिल एवं लिखो-फेको पेन का पिछला हिस्सा चबाकर ही हमनें मिटाया था। हमारे विद्यालय में बैठने के लिए कुर्सी बेंच की व्यवस्था नहीं थी इसकी अनुपलब्धता में घर से बोरी का टुकड़ा बैठने के लिए बगल में दबा कर या बोरे से ही निर्मित झोले में रखकर साथ ले जाते थे। कई दफा शरारत में बच्चे एक-दूसरे का बोरा या बोरे के नीचे रखें चप्पल को कहीं छुपा देते थे, कक्षा का अधिकतर समय शिक्षक को पढ़ाने से ज्यादा बच्चों की समस्या सुलझाने में ही बीत जाता था।

       जब हम कक्षा छः में गए तो पहली दफा अंग्रेजी का ऐल्फाबेट पढ़ा और पहली बार एबीसीडी (ABCD) देखी। एक नई भाषा को देखकर बहुत ही आश्चर्य हो रहा था और सीखने की इच्छा भी जागृत होने लगी। हिंदी में तो सारे अक्षर एक समान ही लिखे जाते हैं और पढ़े जाते हैं अंग्रेजी ही एक ऐसी भाषा है जिसमें छोटा अक्षर, बड़ा अक्षर और लिखे गए शब्द को भी दूसरे तरीके से पढ़ा जाता है। स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ (f) बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था और शायद अभी भी नहीं।

        करसीव राइटिंग भी तो कॉलेज में जाकर ही सीख पाये वह भी तब जब बीसीए (B.C.A.) में एडमिशन लिया था क्योंकि असाइनमेंट वगैरह इंग्लिश में ही लिखने होते थे।

उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलग ही दुनिया रहती थी।

       कपड़े या बोरे को काटकर बनाए गए थैले में किताब और कापियाँ जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। स्लेट/तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था। शायद इस कला में मैं महारत हासिल किया हुआ था तभी तो स्कूल के सारे बच्चों की कॉपियों एवं किताबों पर मेरे द्वारा ही जिल्द चढ़ाया जाता था। मेरे विद्यालय में मुझे और किसी काम के लिए तो ना सही लेकिन यदि कोई रजिस्टर फट जाए या उस पर नई जिल्द लगानी हो तो सर या मैडम सबसे पहले मुझे ही पुकारते थे।

      सफेद शर्ट और ब्लू पेंट में जब हम हाई स्कूल पहुँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें।

     साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे। घर पहुंचते ही सबसे पहले घरवालो को पता चल जाता कि आज इसने साइकिल में हवा भरी है।

       स्कूल में पिटाते, कान पकड़ कर घंटो मुर्गा बनते मगर हमारा ईगो (EGO) हमें कभी परेशान न करता.... हम उस जमाने के बच्चे शायद तब तक जानते नही थे कि 

#ईगो होता क्या है?

क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो जाता, और हम अपने पूरे खिलंदड़ेपन (Playfulness) से हंसते पाए जाते।

       रोज़ सुबह प्रार्थना🙏 के समय पीटी के दौरान एक हाथ फासला लेना होता, मगर फिर भी धक्का-मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। पीटी वाले सर के लाख समझाने के बावजूद भी बाय मुड़ और दाएं मुड़ में कभी भी सारे बच्चे एक साथ एक दिशा में नहीं मुड़े।

      हम उस जमाने के बच्चे सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते थे, अपनें माँ-पापा को भी ये कभी नही बता पाते थे कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था !

       हम उस जमाने से निकले बच्चे गिरते-सम्भलते, लड़ते-भिड़ते दुनियां का हिस्सा बने हैं। कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ यूं ही खो गए हैं। पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिले में कई शहर में रहें लेकिन जमीनी हकीकत जीवन पर्यन्त हमारा पीछा करती रहती है। अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है।अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास।]

       कितने भी बड़े क्यूँ न हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नहीं जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं।

हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं।

कह नहीं सकते की हम बुरे थे या अच्छे थे.... यह कार्य हम आप पर छोड़ रहे हैं। आप अपना कीमती सुझाव जरूर प्रदान कीजिएगा🙏

हमारा बचपन 

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