सन् 1857 ई . के स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक बाबू कुवर सिंह का जन्म 1777 ई. में शाहाबाद (वर्तमान भोजपुर) के जगदीशपुर के जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता बाबू साहेबजादा सिंह भारत के प्रसिद्ध राजा भोज के वंशजों में से थे। विदेशी शासन के विरोध की भावना उन्हें विरासत में मिली थी। देश प्रेम ने उनके अन्दर अद्भुत रणकौशल पैदा किया। इतिहासकार डॉ. रामशरण शर्मा के अनुसार- "वीर कुंवर सिंह धर्म निरपेक्षता एवं राष्ट्रीय एकता के प्रतीक थे।"
1857 के विद्रोह शुरू हो जाने के बाद अंग्रेजों में एक भय उत्पन्न हुआ। वर्तमान पटना के कमिश्नर विलियम टेलर कुंवर सिंह को संदेह की दृष्टि से देखता था। उसने कुंवर सिंह को पटना आकर भेंट करने का आमंत्रण दिया, परन्तु मौलवी अहमदुल्लाह आदि के साथ हुए विश्वासघात के कारण उन्होंने पटना न जाने का निर्णय लिया। इसी बीच 25 जुलाई 1857 को दानापुर की तीन सैनिक टुकड़ियाँ बगावत कर शाहाबाद जिले में प्रवेश कर गई। वहाँ जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह के सुयोग्य नेतृत्व में ब्रिटिश राज को चुनौती का सामना करना पड़ रहा था। कुंवर सिंह ने विद्रोह की आशंका के कारण अपने दुर्ग की मरम्मत करवा ली थी तथा अपने दुर्ग में बंदूकें एवं गोला-बारूद बनाने का एक कारखाना भी स्थापित कर लिया था एवं साथ ही 10 हजार देशभक्त सैनिकों को भी एकत्र कर रखा था। इस विद्रोह में कुंवर सिंह के प्रमुख सहयोगी उनके छोटे भाई अमर सिंह, भतीजे रथमंजन सिंह, निशान सिंह, हरकिशन सिंह एवं शाहाबाद के चार जमींदार थे।
कुंवर सिंह ने अपने सैनिकों के सहयोग से संघर्ष की शुरूआत कर दी। सैनिकों द्वारा आरा को मुक्त कराने का पहला प्रयास विफल रहा किन्तु दूसरे प्रयास में उन्होंने आरा पर कब्जा कर लिया और स्वतंत्र सरकार की घोषणा करते हुए स्वयं को इस क्षेत्र का शासक घोषित कर दिया। उन्होंने विद्रोह के दौरान अनुशासन बनाए रखा फलस्वरूप किसी भी यूरोपियन की हत्या नहीं हुई। इस खबर से हुकूमत सकते में आ गई और दानापुर से पाँच सौ यूरोपीयन और हिन्दुस्तानी फौजों के साथ कैप्टन डनवर सहायतार्थ आरा पहुँचा जहाँ 29-30 जुलाई को भीषण लड़ाई हुई और उसे करारी शिकस्त मिली। कुंवर सिंह की यह सबसे बड़ी जीत थी। कुंवर सिंह की इस जीत की खुशी में आम जनता भी शरीक हो गई इससे अंग्रेज अधिकारी घबरा गये। मेजर आयर ने प्रधान सेनापति को तार द्वारा सूचित किया कि “आरा अभियान के परिणाम बड़े दुख:द हैं। साथ ही कुंवर सिंह पटना पर आक्रमण करने की सोच रहा है। सोन नदी पर सभी नावों को उसने अपने अधिकार में ले लिया है।"
इसी बीच मेजर विंसेट आयर जो इलाहाबाद की ओर जा रहा था आरा पर आक्रमण कर दिया और 2-3 अगस्त को कुंवर सिंह के साथ घमासान युद्ध हुआ । इस युद्ध में कुंवर सिंह की स्थिति कमजोर होने लगी। वे गुरिल्ला युद्ध का सूत्रपात करते हुए जगदीशपुर की ओर बढ़े। यद्यपि इस युद्ध में उन्हें आरा छोड़ना पड़ा किन्तु उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। आयर उनका पीछा करते हुए जगदीशपुर पहुँच गया एवं उनका महल जला🔥 दिया गया, किन्तु कुंवर सिंह हाथ नहीं आये।
अंग्रेजों के इन दमनात्मक उपायों से विद्रोहियों का उत्साह नहीं थमा। कैमूर पहाड़ियों में विद्रोह का नेतृत्व कुंवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह ने किया। इसी बीच कुंवर सिंह सासाराम से नोखा होते हुए रोहतास पहुँचे, जहाँ रामगढ़ बटालियन के विद्रोही सैनिकों ने उन्हें अपना नेता माना। इन सैनिकों को साथ लेकर वह मिर्जापुर और रीवा होते हुए बान्दा पहुँचे। वहाँ उन्होंने तात्या टोपे से मिलने की कोशिश की।
बांदा से काल्पी होते हुए वे लखनऊ पहुँचे। लखनऊ के नवाब ने उन्हें वहाँ शाही पोशाक, हजारों रुपये और आजमगढ़ के किलों के लिए फरमान देकर विदा किया। वे फिर वहां से अयोध्या गए और नाना साहब पेशवा के साथ मिलकर कानपुर की लड़ाई में भाग लिया। 29 नवम्बर 1857 को कानपुर पर नाना साहब का कब्जा हो गया। इस लड़ाई में तात्या टोपे और नाना साहब के साथ बाबू कुंवर सिंह भी डिविजनल कमांडर थे। कानपुर की लड़ाई में बाबू कुवर सिंह की वीरता से सभी प्रभावित थे।
कानपुर में नाना साहब को सुस्थापित करने के बाद कुंवर सिंह आजमगढ़ की ओर बढ़े। रास्ते में अली करीम अपने तीन सौ सिपाहियों के साथ कुंवर सिंह की सेना से जा मिला। उधर घाघरा नदी (सरयू नदी) के पुराने घाट पर इनके भतीजे अट्ठारह सौ सैनिकों के साथ उपस्थित थे। कम्पनी के अधिकारियों ने कुंवर सिंह को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भरपूर कोशिश की। उनकी गिरफ्तारी के लिए 10,000 रुपये का इनाम रखा गया, किन्तु उनकी सामरिक सूझबूझ ही कुछ ऐसी थी कि वह दुश्मनों की तमाम कोशिशों को नाकाम करते रहे। आजमगढ़ से पूर्व अतरौलिया में उनके अन्य सभी साथी आ मिले।
आजमगढ़ की सुरक्षा के लिए कर्नल मिलमैन वहाँ पहले से ही मौजूद था। अतरौलिया के मैदान में 22 मार्च 1858 को जबरदस्त लड़ाई हुई। इस युद्ध में मिलमैन की आरम्भिक सफलता के बावजूद कुंवर सिंह की रणकौशल के सामने उसको सेना टिक नहीं सकी और उसे जान बचाकर भागना पड़ा। कुंवर सिंह ने अपनी विजयी सेना के साथ आजमगढ़ में प्रवेश किया और किला पर उनका अधिकार हो गया। बाद में आजमगढ़ पर कर्नल डेन्स का आक्रमण हुआ किन्तु वह भी विफल रहा।
आजमगढ़ में बाबू कुवर सिंह की इस सफलता से अंग्रेज भयभीत थे। गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग ने कुवर सिंह के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई का कड़ा आदेश दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजो का सैनिक दबाव उन पर बढ़ने लगा। इलाहाबाद से लार्ड काके और लखनऊ से लुगार्ड ने अपनी-अपनी सेना के साथ आजमगढ़ को प्रस्थान किया। कुंवर सिंह को भी इस बात की भनक लग गई थी। फलतः उन्होंने तत्काल आजमगढ़ छोड़ देने का निर्णय लिया। उन्होंने अपनी कूटनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपनी सेना को दो टुकड़ों में बाँट दिया। सेना की एक टुकड़ी को आजमगढ़ में रोक दिया और दूसरी टुकड़ी के साथ वह गाजीपुर की तरफ बढ़े। उनका मुख्य उद्देश्य जगदीशपुर लौटना था। आजमगढ़ में उनकी सेना ने लुगार्ड को उलझाये रखा और कुंवर सिंह वहाँ से निकल पड़े। भीषण संघर्ष के बाद लुगार्ड आजमगढ़ के किला पर विजय प्राप्त किया किन्तु कुंवर सिंह उनके हाथ नहीं आये।
लुगार्ड ने डगलस को कुंवर सिंह का पीछा करने के लिए भेजा। अंग्रेजों ने कुंवर सिंह को पकड़वाने वालों के लिए 25000 रुपये की पुरस्कार की घोषणा की। 17 अप्रैल 1858 को डगलस ने आक्रमण कर दिया किन्तु कुंवर सिंह की रण - कौशल एवं सूझ-बूझ के कारण डगलस को मुँह की खानी पड़ी। कुंवर सिंह की यात्रा जारी रही और 20 अप्रैल 1858 को गाजीपुर के मन्नाहार गाँव पहुँच गए। गाँव वालों ने उनका एक विजेता के रूप में स्वागत किया और उनकी सेना को गंगा नदी पार कराने के लिए बड़ी संख्या में नौका की व्यवस्था करवायी। इसी बीच डगलस का पुनः आक्रमण हुआ और उसे पुनः मुंह की खानी पड़ी। किन्तु इस युद्ध में बाबू कुंवर सिंह स्वयं भी घायल हो गये लेकिन गंगा नदी पार करने में वो सफल रहे।
बाबू कुंवर सिंह का एक हाथ और पैर बुरी तरह घायल हो चुका था। एक घायल हाथ को काटकर उन्होंने गंगा मैया को चढ़ा दिया था। फिर भी उनका उल्लास कम नहीं हुआ।
घायलावस्था में लड़ते हुए उन्होंने सैंकड़ों मील की दूरी तय कर 22 अप्रैल 1858 को अपने घर जगदीशपुर पहुँचे। इसी समय कैप्टन ली ग्रांड ने जगदीशपुर पर धावा (23 अप्रैल 1858) बोल दिया। घायल शेर अपनी मांद से बाहर निकला और ब्रिटिश सेना को बुरी तरह पराजित किया। 300 ब्रिटिश सैनिकों में से मात्र 20-30 सैनिक जिन्दा भागते हुए आरा लौट सके। इस तरह अपनी अन्तिम लड़ाई में विजय प्राप्त करने के तीन दिन बाद (26 अप्रैल 1858) नर केसरी बाबू कुंवर सिंह ने मातृभूमि का स्मरण करते हुए अपने प्राण त्याग दिये किन्तु उनकी मृत्यु के समय भी जगदीशपुर के किले पर आजाद देश का झण्डा लहरा रहा था। 23 अप्रैल 1858 में अंग्रेजों पर विजय के कारण ही इस दिन (23 अप्रैल) को बाबू कुवर सिंह की जयंती मनाई जाती है।
इस तरह कुवर सिंह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अमर हो गए। उनमें विद्यमान राष्ट्रीय भावना दूरदर्शिता, त्याग एवं बलिदान अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा स्रोत का काम किया। उनके उत्साह को देखते हुए ही कहा गया है कि-
“अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था। सब कहते हैं कुंवर सिंह बड़ा वीर💪 मर्दाना था।"
1857 E. The greatness of the freedom movement was born in the landlord of Jagdishpur of Shahabad (present Bhojpur) in 1777 AD. His father Babu Sahebjada Singh was from the descendants of the famous King Bhoj of India. The spirit of opposition to foreign rule was inherited. Country Prem created a wonderful ranked in them. According to the historian Dr. Ramsharan Sharma-
"Veer Kunwar Singh was a symbol of secularism and national unity."
After the rebellion of 1857 started a fear in the British. Current Patna's commissioner William Taylor was looking at Kunwar Singh in terms of suspicion. He invited Kunwar Singh to come to Patna, but due to the betrayal of Maulvi Ahmedullah etc., he decided to not go to Patna. Meanwhile, on July 25, 1857, the three soldiers of Danapur were rebelled and entered the Rahabad district. There was a challenge to the British Raj under the well-known leadership of Jamindar Kunwar Singh of Jagdishpur. Kunwar Singh had repaired his fort because of the fear of the rebellion and had also established a factory to make guns and ammunition in his fort and also collected 10 thousand patriotic soldiers. In this rebellion, Kunwar Singh's chief ally, his younger brother Amar Singh, nephew Rithmanjan Singh, Mark Singh, Harakishan Singh and four landlords of Shahabad were. Kunwar Singh started struggling with the help of his soldiers. The first attempt to free Jigsi by soldiers failed, but in the second attempt, he captured the Ara and declared himself as the ruler of this region. He maintained discipline during the rebellion, as a result, no European was killed. Captain Danwar Sahara Raha reached the Raha with five hundred European and Hindustani for five hundred European and Hindustani soldiers from Danapur, where there was a fierce battle and lost. Kunwar Singh's biggest victory was. In the happiness of this victory of Kunwar Singh, the general public was also involved, the British officials were nervous. Major Ayr informed the Prime Minister by the wire that "the results of the Aara campaign are great sadness. Also, Kunwar Singh is thinking of attacking Patna. He has taken all the boats in his rights on the Son River. "Meanwhile, Major Winset Aayer who was going towards Allahabad and attacked the Aara on August 2-3, the war was warned with Kunwar Singh. In this war, Kunwar Singh's position is weak He then went to Ayodhya and participated in the fight of Kanpur together with Nana Saheb Peshwa. Nana Sahab was captured on November 29, 1857. Babu Kunwar Singh was also a Divisional Commander with Tatya Tope and Nana Saheb in this fight. In the battle of Kanpur, Babu Kuvar Singh was all affected by the heroism. Kunwar Singh increased towards Azamgarh after reviewing Nana Saheb in Kanpur. On the way Ali Karim got to go from Kunwar Singh's army with his three hundred soldiers. On the old ghats of the Ghaghra River (Saryu River), their nephews were present with eighteen soldiers. The company's officials tried a lot to stop Kunwar Singh from moving forward. For his arrest, a reward of Rs 10,000 was kept, but his strategic understanding was something that he could fail all the efforts of the enemies. All other partners came from Azamgarh to Aaraulia. Colonel Milman was already present to protect Azamgarh. There was a tremendous fight on 22 March 1858 in the field of Aatolia. Despite the early success of Milman in this war, in front of Kunwar Singh's Rankal, he could not stand and he had to run away. Kunwar Singh entered Azamgarh with his victorious army and got his right to the fort. Later, Colonel Dains attacked on Azamgarh but he also failed. British was afraid of this success of Babu Kuvar Singh in Azamgarh. Governor General Lord Canning ordered a stronger action against Kuvar Singh. As a result the military pressure of the British started moving on them. Lord Kaka and Lucknow from Allahabad departure from Azamgarh with his army. Kunwar Singh also got a knife. Unlike they decided to leave immediately Azamgarh. He shared his army into two pieces while introducing his diplomatic foresight. Stop the army in Azamgarh and with the second troop, he grew up to Ghazipur. His main purpose was to return to Jagdishpur. In Azamgarh, his army got entangled to Lu Guard and Kunwar Singh got out of there. After the fierce struggle, Luuard won the fort of Azamgarh but Kunwar Singh did not get his hand. Lu Guard sent Douglas to pursue Kunwar Singh. The British announced a prize of Rs 25,000 for those who took Kunwar Singh. Douglas invaded Douglas on 17 April 1858 but Kunwar Singh's Rann - Douglas had to be mouthed due to skill and skill. Kunwar Singh's visit continued and reached the Mannahar village of Ghazipur on April 20, 1858. The villagers welcomed them as a winner and arranged a large number of boats to cross the Ganga river to their army. Meanwhile, Douglas was again attacked and she had to re-face her. But Babu Kunwar Singh himself was injured in this war but he was successful in crossing the Ganga river. Babu Kunwar Singh had a hand and legs were badly injured. Cutting a wounded hand and he had given Ganga Maaya. Still their glee did not decrease. While fighting in the clause, he reached his house Jagdishpur on 22 April 1858 on April 22, 1858. At the same time, Captain Lee Grand spoke Dhawa (April 23, 1858) on Jagdishpur. The injured lion turned out of his den and defeated the British army badly. Mere 20-30 soldiers from 300 British soldiers can return the jigsaw. Three days later to conquer their final battle (April 26, 1858) Male Kesari Babu Kunwar Singh recalled his life while remembering his life, but at the time of his death, the flag of Azad country on the fort of Jagdishpur. Due to Vijay on the British in April 23, 185, the birth anniversary of Babu Kuvar Singh is celebrated on this day (April 23).
In this way Kuar Singh became immortal in the history of independence movement. Among them, the national sentiment foresight, sacrifice and sacrifice worked the work of the source for other freedom fighters. Seeing his enthusiasm, it has been said that-
“अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था। सब कहते हैं कुंवर सिंह बड़ा वीर💪 मर्दाना था।"
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