18 वीं सदी के मध्य में पारम्परिक भारतीय चित्रकला की एक शाखा पटना में आकर एक नए कलेवर के साथ प्रस्फुटित हुई और लगभग दो शतकों तक पल्लवित होती रही। इस नये कलेवर वाली चित्रशैली को 'पटना कलम' की संज्ञा दी गई।
'पटना कलम'
1. विकास (मुगल काल के अवसान के क्रम में)
2. क्षेत्र (पटना, आरा, दानापुर .........)
3. प्रमुख चित्र (लकड़ी काटता बढ़ई, मछली बेचती स्त्री, खेत जोतता किसान ...... )
4. प्रमुख कलाकार (सेवक राम, हुलास लाल, ......... )
5. मौलिकता (मुगलों की शाही शैली (ईरानी प्रभाव) एवं मधुवनी शैली से तुलनात्मक अंतर)
वस्तुतः 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल बादशाह औरंगजेब लगातार युद्ध में प्रवृत्त रहा, फलस्वरूप उसके आर्थिक और मानव संसाधनों का अनवरत् क्षरण होता रहा था। ऐसी स्थिति में उसका कला जैसी श्रमसाध्य, व्ययसाध्य और समयसाध्य वृत्ति से विमुख होना स्वाभाविक ही था। चित्रकला जो उसके पूर्वजों की कलावृत्ति थी वह उपेक्षित होने लगी। चित्रकार जिन्हें राजकीय संरक्षण की आदत थीं, संरक्षण के अभाव को महसूस करने लगे। औरंगजेब के बाद अस्त होते मुगल शासन में राजकोष के अभाव तथा अरूचि ने, दरबारी चित्रकारों को संरक्षण की तलाश और जीविका की खोज में इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर किया।
मथुरा, राजस्थान, कांगड़ा घाटी में यद्यपि चित्रकर्म हो रहा था, पर पूर्व से कार्यरत्त चित्रकारों की बहुलता के कारण इन मुगल दरबारी आश्रयहीन चित्रकारों का मुक्त हृदय से स्वागत वहाँ सम्भव नहीं था। अतः ये चित्रकार बंगाल में मुर्शिदाबाद की ओर उन्मुख हुए। अतः चित्रकारों को पुनः गुणग्राही राज्याश्रय मिला जिसके वे आदी थे। दूसरी ओर नवाब ने भी दिल्ली के शाही चित्रकारों को आश्रय देने में गर्व महसूस किया। लगभग 30 वर्षों तक शान्तिपूर्ण प्रश्रय के बाद मराठों के आक्रमण तथा ईस्ट इण्डिया कंपनी के हस्तक्षेप के कारण नवाब की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होने लगी। इसी बीच सिराजुद्दौला की हत्या तथा उसके बाद की राजनीतिक उथल-पुथल के कारण चित्रकारों को पुनः विस्थापित होना पड़ा। अभी भी जो छोटे-छोटे रियासतें बची थी उनके राजकोष राज्याश्रय प्रदान करने के लिए बहुत छोटे थे। टेकारी, बेतिया, बनारस के राजघराने ने भी कुछ चित्रकारों को राज्याश्रय दिया पर सबको राज्याश्रय देना उनके वश में नहीं था। अत: चित्रकारों के लिए राज्याश्रय छोड़ना वाध्यता हो गयी। फलस्वरूप जीविका की तलाश में चित्रकारों का ध्यान व्यापारिक केन्द्रों की ओर आकर्षित हुआ।
वस्तुतः राजे-राजवाड़े के बाद अगर कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्हें प्रश्रय या प्रोत्साहन मिलने की सम्भावना थी तो उन व्यापारिक केन्द्रों में ही, जिसका नियंत्रण महाजनों, रईसों अथवा व्यापारियों के हाथों में था। पटना के बाजार ने इन विस्थापित और निराश्रित कलाकारों को अपने आश्रय में ले लिया। इस समय पटना एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में उभर रहा था। बिहार की खनिज सम्पदा ने पहले ईस्ट-इण्डिया कंपनी को और बाद में ब्रितानी हुकूमत का ध्यान आकृष्ट किया। हुकूमत की भारत से कच्चे माल के दोहन की नीति के कारण अनेक विदेशी व्यापारी पटना में आकर बस गए और अफीम तथा शोरे का व्यापार करने लगे। गंगा नदी के रूप में जलमार्ग उपलब्ध होने के कारण पटना का व्यावसायिक महत्व उत्तरोत्तर बढ़ने लगा फलस्वरूप हुकूमत द्वारा अनेक आला अफसर यहाँ तैनात किए गए। कुल मिलाकर रईसों, धनाढ्यों, व्यावसायियों तथा अफसरानों का केन्द्र होने के कारण चित्रकारों को अपने चित्रों के लिए बाजार की तलाश पटना में आकर पूरी हुई और वे पटना के लोदी कटरा, दीवान मुहल्ला, नित्यानंद का कुआँ, मच्छरहट्टा आदि इलाकों में आकर बस गए।
यह शैली चित्रकला का एक क्षेत्रीय रूप है, जो बिना किसी राजाश्रय के फली-फूली। इस कला के संरक्षक और खरीददार तत्कालीन नवधनाढ्य भारतीय एवं ब्रिटिश कला प्रेमी थे। इस चित्रकला के विकास का युग 18वीं सदी के मध्य (1750 ई.) से लेकर 20वीं सदी के आरम्भिक काल (1920 ई.) तक रहा। इस शैली के कलाकारों के पूर्वज मुगल शैली अथवा पहाड़ी आदि चित्र शैलियों के सुप्रसिद्ध चित्रकार थे। अत: इस शैली के प्रारम्भिक चित्रों पर मुगलशैली एवं पहाड़ी शैली की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इन कलाकारों का मुर्शिदाबाद और कलकत्ता से भी संपर्क रहा था। इनके माध्यम से वह यूरोपीय प्रभाव को भी ग्रहण किया एवं अपनी कृतियों में उसे प्रदर्शित किया। अर्थात् पटना कलम शैली मुख्यतः मुगलों द्वारा विकसित परम्परा, यूरोपीय चित्रकला और स्थानीय चित्रकला परम्पराओं का मिश्रण है। परन्तु, आगे चलकर इन चित्रों की प्रस्तुति में सादगी एवं विषय-वस्तु में सरलता तथा मौलिकता आती चली गई।
पटना कलम के चित्र लघुचित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर कागज पर और कहीं कहीं हाथी-दाँत पर भी बनाया गया है। इस शैली की प्रमुख विशेषता इसका सादगीपूर्ण तथा समानुपातिक होना है। इन चित्रों में मुगल चित्रों की भव्यता का अभाव है। साथ ही काँगड़ा चित्र शैली के विपरीत इनमें भवन स्थापत्य कला की विविधताएं भी अनुपस्थित हैं। इनमें चटख रंगों का प्रयोग नगण्य है। इस शैली के हर चित्र में विविधता एवं नयापन है तथा पूरी कृति में लयात्मकता है।
यह शैली विषय-वस्तु के लिहाज से राजकला न होकर जनकला थी। इस शैली में बिहार के सामान्य जन-जीवन का चित्रांकन हुआ है। इन चित्रों में श्रमिक वर्ग (कसाई, कहार, नौकरानी, भिश्ती आदि), दस्तकार वर्ग (बढ़ई, लोहार, जुलाहा, कुम्हार, दर्जी, पतंग बनाने वाला, कंघी बनाने वाला, सोनार, रंगरेज आदि) तत्कालीन आवागमन के साधनों (पालकी, घोड़ा, हाथी, एक्का, बैलगाड़ी आदि), बाजार के (मछली की दुकान, ताड़ी की दुकान, गाँजें की दुकान, मिठाई की दुकान) आदि का चित्रांकन दृश्य हुआ है। इसी तरह मदरसा, पाठशाला, दाह संस्कार, त्यौहारों (होली, दशहरा आदि) एवं साधु-संतों के भी चित्र बनाए गए हैं। साथ ही प्राचीन स्मारक (गोलघर, पश्चिमी दरवाजा आदि) के अलावा फूल-पत्ती एवं जीव-जन्तुओं को भी प्रचुरता में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त हर प्रकार के साजिन्दे तथा खेल-तमाशे वाले, यथा- मदारी, सपेरा, नट, बाजीगर, जादूगर आदि चित्र मध्य में उकेरे गए हैं।
जहाँ तक बारीकियों का प्रश्न है पटना कलम शैली के चित्रकारों को इसमें महारत हासिल थी। इस शैली के चित्रों में चिड़ियों का चित्रण खासतौर से देखने योग्य है। इन चित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन कलाकारों को पक्षियों के शरीर विज्ञान की गहन जानकारी थी। इन लघु चित्रों में पक्षियों के एक-एक पंख एवं रोयें का इतना स्पष्ट चित्रण किया गया है कि देखने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। कहीं-कहीं इन कलाकारों की दबी हुई कल्पनाएं अलंकरण के साथ मुखरित हो उठी हैं।
जैसे- महादेव लाल द्वारा बनायी गयी 'रागिनी गांधारी चित्र' जिसमें नायिका के विरह के अवसाद को बहुत बारीकी से दर्शाया गया है। माधोलाल द्वारा बनायी गयी 'रागिनी तोड़ी' पर आधारित चित्र भी उल्लेखनीय है, जिसमें विरहिणी नायिका को वीणा लिए हुए दिखाया गया है। इसी तरह शिवलाल द्वारा निर्मित 'मुस्लिम निकाह' का चित्र तथा यमुना प्रसाद द्वारा चित्रित “बेगमों की शराबखोरी" का चित्र भी महत्वपूर्ण है।
इस शैली में पृष्ठभूमि एवं लैंडस्केप का ज्यादा प्रयोग नहीं किया गया है। कारण इसमें चित्रकार की कल्पना को मूर्तरूप देना पूर्णरूप से संभव नहीं था क्योंकि उसके लिए पृष्ठभूमि एवं प्राकृतिक दृश्यों को बढ़ाना महँगा पड़ता और इसकी पूर्ति करने वाला कोई नहीं था। अतः उन लोगों ने कम खर्चीले प्रयोग करना ज्यादा उचित समझा।
जैसे- मनुष्य के चित्रों में ऊँची नाक, भारी भवें, पतले चेहरे, गहरी आँखें और घनी मूंछें दिखाई गई हैं।
कलाकार एक या दो बालों वाले ब्रशों का इस्तेमाल महीन कार्यों के लिए किया करते थे। तूलिकाएँ गिलहरी के दुम के बालों से तैयार की जाती थी क्योंकि वे सुदृढ़ एवं मुलायम होती थीं। मोटे कामों के लिए बकरी, सुअर अथवा भैंस की गर्दन की बालों का इस्तेमाल किया जाता था जो अपेक्षाकृत कड़े होते हैं। कड़े होने के कारण इन बालों को पहले उबाला जाता था, जिससे उसका कड़ापन कुछ कम हो जाता था। तब उसे तूलिका के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
इस शैली की विषयवस्तु को पेंसिल से रेखांकित (स्केच) कर उन्हें रंगने की प्रक्रिया सामान्यत: नहीं अपनायी जाती थी, बल्कि तुलिका एवं रंग से सीधे कागज पर चित्रांकन किया जाता था। चित्रों को अंकित करने की आधारभूमि सर्वप्रथम कागज पर ही बनायी जाती थी, परन्तु विविधता एवं स्थायित्व लाने के लिए बाद में इसे चमड़ा, धातु, शीशा, अभ्रक, हाथी दाँत आदि से पर भी बनाया जाने लगा। वे सामग्रियां सामान्यतः बनारस से मंगाई जाती थी। कागज हाथ से निर्मित होते थे, जो रद्दी कागजों की लुग्दी से कलाकार द्वारा स्वयं तैयार कर लिया जाता था। बांस से निर्मित नेपाली कागजों का इस्तेमाल भी चित्रकारी के लिए होता था। हालांकि बाद में चित्रकारी के लिए कागज यूरोप से भी आयातित होने लगा था।
इसके रंग प्राकृतिक होते थे जो चित्रकारों द्वारा स्वयं तैयार किया जाता था। चित्रकार विभिन्न छाँहों (शेड्स) के लाल रंग लाह से, सफेद रंग विशेष प्रकार की मिट्टी से, काला रंग कालिख अथवा जलाए गए हाथी दांत की राख से, नीला रंग नील से, लाजवर्त रंग लैपिस लेजुली नामक पत्थर से एवं गेरुआ रंग एक विशेष प्रकार की स्थानीय मिट्टी से तैयार करते थे। नीला और पीला रंग मिश्रित कर वे हरा रंग बनाते थे। इसके अलावा सोने एवं चांदी के वक्रो से क्रमशः सुनहरा एवं चाँदी सा रंग भी तैयार करते थे।
पटना कलम शैली पर मुगल शैली का प्रभाव रहते हुए भी यह शैली मुगल शैली से बहुत अर्थों में पूर्णतया भिन्न है। इस शैली में मुगल शैली के चित्रों की भव्यता का अभाव है। इसमें न तो मुगल शैली के चित्रों की भाँति राजे-रजवाड़ों से संबंधित विषय वस्तु हैं और न ही इनकी ट्रीटमेंट में उस वैभव के ही दर्शन होते हैं। पटना कलम में सजीवता और सामान्य जीवन से उनका घनिष्ठ संबंध सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। इसके अलावे रंगों के उपयोग और छायांकन के तरीके में भी स्पष्ट अंतर दिखता है। सजीवता एवं सुन्दरता में पटना कलम शैली के हाथी के दाँत पर बने लघुचित्र मुगल शैली के चित्रों से बेहतर माने गए हैं।
पटना शैली के कलाकारों में सबसे पहला नाम सेवकराम (1770-1830 ई.) का है। उन्हीं के समकालीन हैं हुलासलाल (1785-1875 ई.)। अन्य महत्वपूर्ण चित्रकारों में प्रमुख हैं- श्री जयराम दास, शिवदयाल लाल, गुरुसहाय लाल, झुमक लाल, फीकर चंद, टुन्नी लाल आदि। इस चित्रकला के अंतिम कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा के पटना से कलकत्ता चले जाने के बाद बिहार में इस कला की पहचान बरकरार रखने के लिए राधामोहन बाबू ने दिन-रात अथक प्रयास किया था। इस कला शैली के पारखी राधामोहन बाबू को शबिहो (पोट्रेट) की सर्जना का आचार्य कहा जाता है। पटना कलम शैली के आखिरी संरक्षक राधामोहन बाबू की मृत्यु 1996 ई. में हो गई।
लगभग डेढ़ शताब्दी तक यह शैली प्रचलित रही, लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस शैली का पतन आरम्भ हो गया। क्योंकि इस समय तक अनेक कला संरक्षक काल-कलवित हो गये थे एवं अनेक कलाकार आश्रयहीन हो गए थे। परिणामत: रोजी-रोटी की तलाश में एक-एक कर वे लोग सरकारी नौकरी अथवा अन्य व्यवसायों में लग गये। कुछ कलाकार रोजगार की तलाश में कलकत्ता एवं कुछ मथुरा आदि स्थानों पर चले गये। अतः यह कलम शैली विनिष्ट हो गई।
इस प्रकार पटना कलम शैली एक लोककला थी जिसमें प्राकृतिक रूपों का विशेष ध्यान रखा गया है। धन एवं आश्रय के अभाव में इस कला शैली का पतन हो गया किन्तु इसके चित्रों की महत्ता आज भी है। साथ ही बिहार की गौरवशाली कला-परम्परा का यह अमूल्य धरोहर है। इस शैली के चित्रों का संग्रह खुदाबख्श लाइब्रेरी, पटना एवं पटना म्यूजियम में सुरक्षित है।