शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार में गुप्त गतिविधियाँ । Secret activities in Bihar in Quit India Movement.


        भारत छोड़ो आंदोलन को सरकार द्वारा बलपूर्वक दबाने के परिणाम स्वरूप क्रांतिकारियों कार्रवाइयाँ को गुप्त रूप से आंदोलन चलाने को बाध्य होना पड़ा। बिहार के विभिन्न जिलों में गुप्त क्रांतिकारी शुरू हो चुकी थी। 12 अक्टूबर, 1942 को पटना के अंडारी गाँव में एक विस्फोट हुआ। 26 अक्टूबर , 1942 को एक पुलिस दस्ते ने मुंगेर जिला में जमालपुर के समीप एक जंगल में मिल्स - ग्रेनेड से भरे 17 बक्से बरामद किए। इस तरह की कई घटनाएं हुई, जिसमें हिंसात्मक रूप का प्रदर्शन किया गया। 

       गुप्त गतिविधियों में आजाद दस्ता का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रमुख कर्ताधर्ता जयप्रकाश नारायण थे। आन्दोलन के आरम्भ में ही जयप्रकाश नारायण गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 09 नवम्बर, 1942 को दीपावली की रात में जयप्रकाश नारायण अपने साथियों- रामानंद मिश्र, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, गुलाब चन्द्र गुप्त और शालिग्राम के साथ हजारीबाग में जेल की दीवार फांद कर फरार हो गए। इस क्रम में जयप्रकाश नारायण नेपाल की तराई के जंगलों में भूमिगत हो गए। संपूर्ण देश में कार्य करने के लिए यहीं पर जयप्रकाश नारायण, कार्त्तिक प्रसाद और ब्रजकिशोर प्रसाद सिंह के द्वारा 'आजाद दस्ता' का गठन किया गया। इस दस्ते का गठन विशेष रूप से सरकार के विरुद्ध तोड़ - फोड़ की कार्रवाइयों के लिए किया गया था ताकि युद्ध कार्यों में सरकार को बाधा पहुंचे। 

         नेपाल में ही आजाद दस्ते का अखिल भारतीय केन्द्र और बिहार प्रांतीय कार्यालय संगठित हुआ। आजाद दस्ते में अनेक क्रांतिकारी तरुण शामिल हुए। यहाँ जयप्रकाश जी के साथ श्यामनन्दन सिंह और डॉ. राम मनोहर लोहिया भी आ चुके थे। डॉ. लोहिया संचार और प्रचार विभाग का निर्देशन करते थे। बिहार के लिए सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में बिहार प्रांतीय आजाद परिषद् का गठन किया गया। काम करने के लिए तीन प्रशिक्षण शिविर शुरू करने का निर्णय लिया गया। नेपाल शिविर का मुख्य प्रशिक्षक सरदार नित्यानन्द सिंह को बनाया गया। 1943 के मार्च - अप्रैल में नेपाल के राज - विलास जंगल में आजाद दस्ता के पहले प्रशिक्षण शिविर में बिहार के 25 युवकों को आग्नेयास्त्रों को चलाने की शिक्षा दी गई। 

      इसके अतिरिक्त आजाद दस्ता के सदस्यों को तोड़फोड़ के लिए तीन तरह की कार्रवाइयों की शिक्षा दी जाती थी-

1. यातायात के साधनों को क्षति पहुँचाना, 

2. औद्योगिक प्रतिष्ठानों को क्षति पहुँचाना और 

3. संचार साधनों को नष्ट करना। 

इसके लिए तीन तरह के उपाय भी किये गये थे-

1. सामान्य तोड़फोड़ के लिए हथियारों और औजारों का उपयोग। 

2. अग्निकांड द्वारा सरकारी फाइलों आदि का विनाश और 

3. रासायनिक पदार्थों और बारुद द्वारा विस्फोट से मिलों, कार्यालयों आदि का विनाश।


        इन कार्यों के लिए दो तरह के दल तैयार किये गये। एक ओर वे लोग थे जो गुप्त ढंग से तोड़ - फोड़ कर इन कार्रवाईयों को चला रहे थे, दूसरी और वैसे लोग थे जो व्यापक जन आंदोलन का एक अंग बनकर हिंसात्मक संघर्ष को आगे बढ़ा रहे थे।

      ऐसे संगठनों की आवश्यकता दो कारणों से महसूस की गयी थी, जैसा कि राममनोहर लोहिया ने स्पष्ट किया था। एक तो इसलिए कि युवकों में जो हिंसा और संघर्ष की भावना बन रही थी उसे एक सही और सुनियोजित दिशा प्रदान की जाये। दूसरी इसलिए कि दोबारा किसी जनक्रांति के विस्फोट के समय क्रांतिकारियों के पास ऐसे साधन और संगठन हों जिससे वे सरकार के नृशंस दमन और राज्य द्वारा हिंसा के प्रयोग का भरपूर मुकाबला कर सकें।

         मई, 1943 में भारत सरकार के दबाव में नेपाल सरकार ने जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया, श्यामानन्द बाबू, श्री कार्तिक प्रसाद सिंह इत्यादि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें हनुमान नगर जेल भेज दिया। लेकिन सूरज नारायण सिंह और सरदार नित्यानन्द के नेतृत्व में जेल धावा बोलकर बंदियों को छुड़ा लिया गया। जयप्रकाश नारायण अपने सहयोगियों के साथ भागते हुए कोलकत्ता पहुँचे। यहाँ उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सरकार से सम्पर्क बनाने की कोशिश की मगर यह संभव नहीं हो सका। पुलिस भी इनका पीछा करती रही और अंततः 18 दिसम्बर , 1943 को उन्हें 'मुगलपुरा' में गिरफ्तार कर लिया गया। इस समय तक वसावन सिंह , रामनन्दन सिंह , श्री जोशी इत्यादि नेता भी गिरफ्तार किए जा चुके थे। 07 जुलाई , 1944 को श्री कार्मिक प्रसाद तथा भुनेश्वर यादव भी गिरफ्तार कर लिए गए। इन प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारियों ने आजाद दस्ते के कार्य को मंद और शिथिल कर दिया। 

        बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियों को आगे बढ़ाने में सियाराम सिंह के नेतृत्व में 'सियाराम दल' ने उल्लेखनीय योगदान दिया। इस दल के कार्यक्रमों में चार बातें मुख्य थीं धन संचय, शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण, सरकार का प्रतिरोध एवं जनसंगठन। कुछ लोग स्वेच्छा से धन देते और कभी - कभी ये लोग राजनीतिक डकैतियाँ भी डालते। इस दल द्वारा शस्त्र छीने भी जाते थे और खरीदे भी जाते थे। नित्यानन्द सिंह और पार्थ ब्रह्मचारी के आ जाने से शस्त्र चलाने के प्रशिक्षण कार्यक्रम में भी तेजी आयी। सियाराम दल का प्रभाव भागलपुर, मुंगेर, किशनगंज, बलिया, सुल्तानगंज, पूर्णियाँ, संथाल परगना आदि जिलों में था। बीहपुर इलाके में इस दल ने एक तरह की समानान्तर सरकार स्थापित कर ली थी। यह दल 1943-44 ई. के दौरान सक्रिय रहा।

          भागलपुर इलाके में छापामार तरीके तथा हिंसात्मक ढंग से क्रियाशील कुछ अन्य क्रांतिकारी दलों में परशुराम दल और महेन्द्र गोप के दल उल्लेखनीय थे। श्री परशुराम सिंह मई, 1943 में गिरफ्तार कर लिए गए और उनका दल शिथिल पड़ गया।

         इस तरह कहा जा सकता है कि भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान बिहार में  गुप्त संगठनों ने सत्ता के विरुद्ध संघर्ष में अहम भूमिका निभाई और अंग्रेजी सरकार की चूल हिलाकर रख दी।


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

एगो पुराना आशिक के आपन पुरनकी प्रेमिका के खातिर लव लेटर 👩‍❤️‍💋‍👨

 




जानेमन अनिशा,
प्यार भरा चुम्मा।😘 पिछली बार गोड़ छू के परनाम🙏 किये थे। इस बार मन हो रहा कि तुम्हारे सामने लोट जाएं और सैंडिल छुएं। पिछले सतरह बार से प्रेम-पत्र💌 लिखते-लिखते✍️ मन लेखक और कवि हुआ जा रहा है मगर तुम हो कि पिघल ही नहीं रही हो, एकदमे से ठंडा में जमल वनस्पति डालडा हो गयी हो।

     जैसे बंगाल की खाड़ी, अरब सागर और हिंद महासागर तीनों एक साथ कन्याकुमारी के पास आकर मिलते हैं तुम भी उसी तरह हमसे मिली थी। दक्षिण में परमोदवा था, पश्चिम में सुनिलवा और पूरब में हम थे। एक पल को तो लगा की तुम त्रिपुरा हो गयी हो जिसे बांग्लादेश ने तीनों तरफ से घेर रखा है पर तुमने हँसते मुस्कुराते पूरब दिशा को चुना था।

       उसी दिन अपन गाँव के जीन बाबा से लेकर ब्रहम बाबा ओउरी काली माई से लेके भोले बाबा तक को बताशा चढ़ाये थे, दुआर पर अगरबत्ती खोंसे थे। मनोहर बs भौजी के गोड़ रंग आये थे। धान ओसाये थे, गाय को नहलाये थे। माँ के हिस्से का गुदरा फ़ीच कर सुखाये थे....... और क्या-क्या लिखें कि उस दिन हम क्या-क्या कार्य नहीं किए थे। बस यह समझो कि पूरा दिन तुम्हारे लिए कुर्बान था।

    तब से लेके आज तक जब भी पुरबारी हवा बहा है मन अनिशामय हो गया है। फूलों जैसी वो मुस्कान याद आती है। याद आता है कि कैसे तुमने दुपट्टा में उँगली लपेट कर सेकंड से भी कम समय में सभी दिशाओं को नकारकर पूरब हो जाना चुना था, की.......

हम अपने इख़्तियार की हद से गुजर गए।
चाहा तुम्हें तो प्यार की हद से गुजर गए।।

      याद तो ये भी आ रहा है कि यही कोई स्कूल से लौटने का समय था। उस दिन तुम स्कूल नहीं आयी थी। शायद सब्जी काट रही थी। हमने तुम्हारे दुआरी पर खड़े होकर पूछा था- क्या काट रही हो अनिशा?

फिर क्या था.... तुम्हारी माई हँसुआ, खुरपी लेकर मुझे काटने दौड़ गयी। बोलती है कोईरी-गावां के लईका सब धैल आवारा हो गईल बाड़सन।

      जानती हो अनिशा ई बात नाs गाँव के स्कूल तक पहुँच गयी। अगले दिन गणित के माटसाब बारह का स्क्वायर करके एक सौ चौयालिस डंडा पीटे थे और पीटी टीचर ने मुर्गा से लेकर शुतुरमुर्ग बनने तक का डार्विनवाद अभ्यास करवाया था।

मैं मार खाते-खाते, तुम्हारे आँखो में आँसू देखते रहा।

मुझे ये भी याद है कि उस दिन अंग्रेजी की आखिरी कक्षा थी और छुट्टी के समय तुमने उसी मरखण्ड मास्टर के कुर्सी पर चढ़कर लिखा था-

ए से अनिशा, बी से विश्वजीत ....पी से प्यार। 

ये पढ़कर तो मेरे सारे दर्द दूर हो गए और आशीष जोग की एक पंक्ति याद आयी थी-

बड़ा बेदर्द है ये दर्द अब सहूँ कैसे,
है देने वाला कौन ये भी मैं कहूँ कैसे।

अच्छा सुनो, अब जाने दो। तुम्हारी यादें मन के पन्नों पर जो कैद है उसे तुम्हारे लिए चिट्ठियों📨 में कैद करके भेज रहा हूँ। इसे सीने से लगाकर अपना मान लेना।

आँसू आये तो दुपट्टे के कोरी से पोछ लेना यदि न आये तो दुपट्टा पानी से भींगाकर आँख का कोरी पोछ लेना।

तुम्हारा विश्वजीत✍️

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

धूलगढ़ बना फूलगढ़


 धूलगढ़ बना फूलगढ़

         धूल से भरा हुआ एक गॉंव था जिसमें चारों तरफ धूल ही धूल दिखाई देती थी। इस गॉंव की जमीन बंजर स्वभाव की थी। जिस कारण गॉंव में बहुत कम जमीन पर ही खेती होती थी और अधिकांश जमीन का हिस्सा खाली पड़ा रहता था। दूर-दूर तक केवल बड़े बड़े खाली मैदान दिखाई पड़ते थे जिनमें धूल उड़ती रहती थी। गॉंव के लोग बहुत गरीब थे क्योंकि वो केवल इस बंजर भूमि में उतना ही अनाज पैदा कर पाते थे जितना उनका पेट भर सके। यहॉं के बच्चे भी गॉंव के प्राथमिक विद्यालय में पॉंचवीं कक्षा तक ही पढ पाते थे क्योंकि गरीबी के कारण कोई भी अपने बच्चों को शहर पढ़ने नहीं भेज पाता था।

        लंगोटिलाल और उसकी पत्नी लुंगीदेवी ने निश्चय कर लिया कि उन्हें कुछ भी करना पड़े परन्तु वो दोनों अपने बेटे गम्छा सिंह को इतना पढ़ाएंगे की वो पढ लिखकर इस गॉंव की जमीन को सुधार सके। गम्छा सिंह चौथी कक्षा ‌में गॉंव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ रहा था। उसके मॉं-बाप उसे समझाते कि बेटा, तुझे खूब पढ़ना है और पढ लिखकर अपने गॉंव के लिए कुछ ऐसा करना है जिससे इस गॉंव की ग़रीबी दूर हो जाए, सभी बच्चे पढ सके, गॉंव तालाब, पेड़ पौधों और रंग बिरंगी फूलों से भरा हुआ हो। सभी के खेतों में अच्छी पैदावार हो सके। गम्छा सिंह तो बच्चा था, उसे अपने मॉं-बाप की कुछ ही बाते समझ में आती थी। उसे तो एक ही चीज की समझ थी कि सुबह आठ बजे विद्यालय जाना, कुछ देर पढ़ना और फिर खिचड़ी खाना तथा छुट्टी होते ही घर को दौड़ लगा देना। घर आकर थैला फेंक तुरंत दोस्तों के साथ कंचे खेलना, गित्ती-टोल खेलना, छुई-छुआ खेलना और साइकिल का टायर घुमाना। गम्छा सिंह ने पॉंचवीं कक्षा पास कर ली। आज गम्छा सिंह भी गॉंव के अन्य लोगों के बराबर पढा-लिखा बन गया था। लेकिन लंगोटिलाल ने अपनी हैसियत से बाहर जाकर अपने बेटे का प्रवेश नजदीक के कस्बे में छठवीं कक्षा में इंटर कॉलेज में करवा दिया जिसके लिए उसने अपनी पत्नी के हाथों की सोने की चुड़ियॉं गिरवी रख दी। गम्छासिंह आज पहले दिन गॉंव से बाहर पढ़ने जाने वाला था तो उसकी मॉं ने एक बार फिर से उसे वो बात बताई जिसके लिए उसे आगे पढ़ाया जा रहा है। उसकी मॉं सुबह जल्दी उठती, फिर उसके लिए पराठे बनाती थी। जिसमें से वह दो खा लेता था और दो रखकर ले जाता था। जब गॉंव में पढ़ने जाता था तो एक झोले में किताबें रखकर ले जाता था परन्तु अब वो कस्बे में जाने लगा था तो लंगोटिलाल उसके लिए बाजार से स्कूल बैग खरीदकर लाया। प्राथमिक विद्यालय में तो स्कूल यूनिफॉर्म और किताबें भी मुफ्त में मिल जाती थी लेकिन अब उसके लिए नयी यूनिफॉर्म और किताबें भी ख़रीदनी पड़ी। इस प्रकार गम्छासिंह  ने बारहवीं कक्षा पास कर ली परन्तु उसकी अब तक की पढ़ाई में होने वाले खर्चे के कारण उसकी मॉं के हाथों की चूड़ियॉं वापस नहीं लौट सकी। लंगोटिलाल और लूंगी देवी अभी हार नहीं मानने वाले थे, उन्हें तो बेटे को और पढाना था। लंगोटिलाल ने गॉंव के प्राथमिक विद्यालय के हेडमास्टर साहब से पूछा कि मेरे लड़के ने विज्ञान विषय के साथ इंटर पास कर ली है तो मैं आगे उसे किस कक्षा में पढ़ाऊं ताकि वो गॉंव की बंजर जमीन को सुधार सके और गॉंव को हरियाली तथा फूलों से भर सके। मास्टर साहब बोले कि तुम अपने लड़के का प्रवेश बी एस सी एग्रीकल्चर BSC (Agriculture) में करा दो परन्तु इसके लिए तुम्हें अपने लड़के को शहर भेजना पड़ेगा क्योंकि बी एस सी एग्रीकल्चर के कॉलेज केवल शहर में ही हैं। इसके लिए तुम्हें बहुत रूपयों कि भी जरुरत पड़ेगी क्योंकि बी सी सी में प्रवेश के लिए काफी रूपये लगते हैं और तुम्हें उसे रहने के लिए होस्टल भी दिलाना पड़ेगा और उसके रुपये अलग से देने पड़ेंगे। उनकी इन सब बातों में लंगोटिलाल को एक बात समझ में आ गई कि उसे बेटे को आगे पढ़ाने के लिए काफी रूपयों की जरूरत है। लंगोटिलाल ने लूंगी देवी के कानों के कुंडल और नाक की नथनी बेचकर गम्छासिंह का प्रवेश बी एस सी एग्रीकल्चर के प्रथम वर्ष में शहर के एक जाने माने डिग्री कॉलेज में करा दिया और एक साल के लिए हॉस्टल का इंतजाम भी करा दिया। आज जब गम्छासिंह शहर जाने वाला था तो उसे उसकी मॉं द्वारा एक बार फिर बताया गया कि उसे क्यूं पढ़ाया जा रहा है।

        पहली साल रुमाल सिंह ने पास की तो दूसरी साल के लिए उसकी मॉं का मंगलसूत्र बेचना पडा और फिर तीसरी साल के लिए लंगोटिलाल ने अपना घर ही बेच दिया। दोनों पति-पत्नी एक झोपड़ी में रहने लगे। अब गम्छासिंह की पढाई की अंतिम साल शेष थी जिसके लिए फिर से रुपयों की जरुरत थी परन्तु इस बार लंगोटिलाल के पास एक बिघा जमीन के अलावा कुछ भी बेचने को नहीं था। यदि वो इस जमीन को बेच दे तो खायेगा क्या? परन्तु लंगोटिलाल ने बीना सोचे समझे एक बिघा जमीन भी बेच दी और लडके का प्रवेश चौथे वर्ष में करा दिया। जमीन बेचने के बाद गम्छासिंह के मॉं-बाप  की स्थिति क्या हो गई है और उसे पढ़ाने के लिए उसके मॉं-बाप ने क्या क्या किया है? गम्छासिंह इन सब बातों से अनजान था। गम्छासिंह के चाचा और ताऊ ने उसके मॉं-बाप से उनके घर रहने के लिए कहा परन्तु लंगोटिलाल स्वाभिमानी प्रकृति का आदमी था इसलिए उसने अपने भाईयों के घर रहने से मना कर दिया और ये एक साल दूसरे लोगों के यहॉं पर काम कर करके बिताई। वे सुबह से शाम तक जिसके यहॉं काम करते थे उसी के यहॉं से दो वक्त की रोटी मिल जाती थी। गम्छासिंह ने बी एस सी एग्रीकल्चर का अंतिम वर्ष भी पास कर लिया और सम्पूर्ण यूनिवर्सिटी में प्रथम स्थान पाया। जब ये खबर उसके मॉं-बाप को मिली तो उनके खुशी के ठिकाने न थे। गॉंव के सब लोग गम्छासिंह के घर आने का इंतजार कर रहे थे। लंगोटिलाल और लूंगी देवी का सपना पूरा होने वाला था। सभी को बड़ी उम्मीद थी कि गम्छासिंह आएगा और गॉंव को हरा भरा कर देगा परन्तु यूनिवर्सिटी टॉप करने के कारण एक कृषि संस्थान ने गम्छासिंह को अच्छे पैकेज पर अपने यहॉं काम करने के लिए कहा और वह भी तैयार हो गया। जब लंगोटिलाल को यह बात पता चली तो वह अपने बेटे के पास गया और उसे समझाया कि हमने तुझे किसी कंपनी में काम करने के लिए नहीं पढ़ाया था बल्कि इसलिए पढ़ाया था ताकि तू पढ लिखकर गॉंव आए और अपने धूल से भरे गॉंव को हरा भरा कर दें। लंगोटिलाल ने कहा कि अगर तुझे पैसे ही कमाने है तो गॉंव चल वहॉं जाकर कोई ऐसा काम शुरू कर जिससे गॉंव वालों को भी रोजगार मिल सके। गम्छासिंह ने गॉंव लौटने से मना कर दिया। लंगोटिलाल उदास होकर चेहरा लटकाएं वापस लौट आया। उसकी ऐसी हालत और उसे अकेला लौट आते देखकर उसकी पत्नी और गॉंव वाले समझ गये कि उसके साथ क्या हुआ होगा? उसकी सारी उम्मीदें टूट गई। एक आदमी बोला कि बच्चों को शहर ही नहीं भेजना चाहिए। शहर की चमक में वो मॉं-बाप, घर-परिवार और गॉंव को भूल जाते हैं। गम्छासिंह ने कुछ दिनों में एक घर भी खरीद लिया और गम्छासिंह को एक लड़की पसंद आ गई जिससे वह शादी करना चाहता था। उसने अपने मॉं-बाप को फोन करके बताया कि मैं शादी करना चाहता हूॅं और आप दोनों शहर आ जाओ। लेकिन लंगोटिलाल ने कहा कि तू ही गॉंव आ जा। यही धूम धाम से शादी करेंगे। गम्छासिंह बोला कि मैं गॉंव में आकर अपनी पत्नी के सामने अपनी हॅंसी नहीं करना चाहता हूॅं। तब उसके बाप ने भी कह दिया कि तुझे शादी करनी है तो कर ले लेकिन हम शहर नहीं आयेंगे। उसने शादी कर ली। जब वह नौकरी पर जाता था तो उसकी पत्नी अकेली रह जाती थी और घर पर उसका मन नहीं लगता था। उसने ये बातें अपने पति को बताई। तब गम्छासिंह ने अपनी मॉं को फोन किया और कहा कि तुम यहॉं आ जाओ मेरे नौकरी पर जाने के बाद तौलिया अकेली रह जाती है। उसकी मॉं बोली कि अगर तू गॉंव में होता तो सारे मोहल्ले की लड़कियॉं तेरी बहू के पास ही रहती और खूब मन लगाती पर मैं शहर नहीं आ सकती। कुछ दिनों बाद गम्छासिंह को सांस की खतरनाक बिमारी हों गई। डॉक्टर ने बताया कि शहर के प्रदूषण की वजह से ऐसा हुआ है । तुम कुछ दिन गॉंवों चलें जाओ और ये दवाइयॉं खाओ जल्दी ठीक हो जाओगे। परन्तु वह गॉंव नहीं गया। अब वो इतना बिमार हों गया कि नौकरी पर भी नहीं जा पा रहा था। उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। तौलिया को ही घर भी देखना और अस्पताल भी, तौलिया बहुत परेशान हो गयी। उसने फिर अपनी सास को फोन किया और सारी बात बताई तथा आने को कहा लेकिन उसने मना कर दिया और कहा देख लो शहर का नतीजा। यदि यहॉं होते तो सारा परिवार, हम दोनों, तुम्हारे चाचा का परिवार और ताऊ का परिवार तुम्हारे पति की देखभाल में होता और सारे पड़ोसी भी और तुम्हें बिल्कुल परेशानी नहीं होती। गम्छासिंह धीरे धीरे ठीक हो गया। अब तौलिया के मॉं बनने की खबर गम्छासिंह को पता चली। उसने अपने मॉं-बाप को भी खबर सुनाई और वो दोनों खुश होकर शहर पहुंच गए। उन्होंने गम्छासिंह को समझाया कि बेटा तू तो नौकरी करने जाएगा और बहू घर पर अकेली रहेगी। बहू का ऐसी हालत में अकेला रहना ठीक नहीं है। जैसे शहर के प्रदूषण से तू बिमार हुआ था वैसे ही कही बच्चे को कोई बिमारी ना हो जाए। इसलिए हमारे साथ बहू को लेकर गॉंव की ताजी हवा में चल। तौलिया बोली आपके पास तो घर भी नहीं है । हम कहॉं रहेंगे? वो बोलें कि कुछ दिनों तक अपने चाचा के घर रह लेना और जल्दी ही कोई काम शुरू कर ये नया घर बना लेगा। लेकिन उन्होंने मना कर दिया। एक दिन गम्छासिंह नौकरी पर गया हुआ था। तौलिया के पेट में अचानक बहुत तेज दर्द होने लगा। उसने गम्छासिंह को फोन किया। वो सुनते ही वहॉं से चल दिया परन्तु रास्ते में जाम लगा था। गम्छासिंह ने फोन पर बताया कि जाम के कारण मुझे पहुंचें में देर हो जायेगी। तुम ऐसा करो किसी पड़ोसी से मदद मांगों। तौलिया दर्द से चिल्लाती हुई पड़ोसियों को आवाज देने लगी परन्तु किसी ने भी दरवाजा नहीं खोला। 

      गम्छासिंह को उसने बताया कि किसी ने दरवाजा नहीं खोला। अब गम्छासिंह ने एम्बुलेंस को फोन किया परन्तु सारी एम्बुलेंस व्यस्त थीं। जब गम्छासिंह लगभग तीन घंटे बाद घर पहुंचा तो उसकी ऑंखें फटी की फटी रह गई। उसकी पत्नी फर्श पर पड़ी हुई थी और उसके मुॅंह से झाग निकल रहें थे। उसने दुनिया छोड़ने से पहले लड़के को जन्म दिया था जिसकी गर्भनाल अभी भी जुड़ी हुई थी और वो रो रहा था। गम्छासिंह ने स्वयं गर्भनाल को काट उसकी मॉं से जुड़े पवित्र बंधन से उसे अलग कर दिया। उससे भगवान ने ममता का आंचल छीन लिया इस बात से अंजान वो बालक नयी दुनिया में सांस ले रहा था। गम्छासिंह ने गॉंव में इस घटनाक्रम के बारे में विलकते हुए बताया। शीघ्र अतिशीघ्र उसके मॉं-बाप सहित सारा गॉंव वहॉं पहुंच गया। सभी गॉंवों वालों को देख गम्छासिंह की ऑंखें खुल गईं। तौलिया के मृत शरीर को गॉंव लाकर विधि विधान के साथ उसके कुछ ही घंटे के बच्चे के हाथों पंच तत्वों में विलीन करा दिया गया। गम्छासिंह के चाचा और ताऊ उन्हें अपने घर ले गए। गम्छासिंह ने अपने मॉं-बाप से माफी मॉंगी और कहा कि मैं शहर नहीं जाऊंगा तथा यही रहकर आपके सपने को पूरा करुंगा। गम्छासिंह के बेटे का नाम रुमाल सिंह रखा गया। रुमाल सिंह को कोई भी एक पल के लिए अकेला नहीं छोड़ता था। कभी उसकी अम्मा उसे अपने कुल्हे से लगाएं बगल में दबाए फिरती,कभी उसके बाबा कंधे पर उठाएं फिरते, कभी उसकी पड़ोस की बुआ और जीजी उसे गोद में लटकाएं रहती तो कभी उसके पापा उसे सिने से लगाएं रहते। अब गम्छासिंह ने शहर की नौकरी छोड़ दी और वहॉं का मकान बेचकर गॉंव में मकान बना लिया और गॉंव के बच्चों को मुफ्त में पढ़ाना शुरू कर दिया। पूरा परिवार अपने नये घर में रहने लगा। एक दिन गम्छासिंह सिंह अपने गॉंव की मिट्टी की जॉंच अपने जनपद के क़ृषि विभाग में कराने गया। वहॉं उसे मिट्टी में जो भी कमी थी सब पता चल गयी। उसी कमी के अनुसार उसने गॉंव की बंजर जमीन का उपचार करना शुरू कर दिया। इस प्रकार रुमाल सिंह के बड़े होने के साथ साथ गॉंव भी बडा हो रहा था। अब गॉंव में सभा आयोजित की गई जिसमें गम्छासिंह ने बताया कि हमारे गॉंव में जितनी बंजर जमीन है उसके हिसाब से गॉंव के प्रत्येक परिवार पर लगभग तीस-तीस विघा जमीन आ जायेगी। उसने कहा यदि आप बंजर जमीन को आपस में बांटने के लिए सहमत हो तो जैसे जैसे मैं बताऊं सभी अपनी अपनी जमीन का उपचार करें तो गॉंव की सारी जमीन उपजाऊ बन जायेंगी। सभी लोग सहमत हो गए। फिर क्या था? गम्छासिंह सिंह गॉंव वालों को नये नये तरीके बताता था और उसी के अनुसार सभी जमीन का उपचार करते और देखते ही देखते जमीन में फसलें पैदा होने लगी। एक दिन गम्छासिंह ने सभी गॉंवों वालों से कहा कि सभी अपने अपने पशुओं का गोबर एक स्थान पर एकत्रित करे। गॉंव वालों ने ऐसा ही किया। गम्छासिंह सिंह जिला कृषि केंद्र से केंचुए ले आया और गोबर से जैविक खाद बनाने लगा। जिसके उपयोग से सारे खेत बहुत अच्छी फसल देने लगें। इसके बाद गम्छासिंह ने गॉंव वालों की सहायता और जिला कृषि केंद्र से सहायता लेकर गॉंव में पशुशाला का निर्माण कराया। जिसमें आवारा घुमने वाले पशुओं को पकड़ पकड़ कर लाया गया और उन पशुओं को भी उसी में रखा गया जिन्हें गॉंव वाले जरुरत ना होने पर छोड़ देते थे। पशुशाला की गायों और भैंसों से दूध प्राप्त होने लगा और सांडों और कटलो से वीर्य प्राप्त होने लगा। पशु वीर्य काफी महॅंगा बिकता था और दूध से भी अच्छे पैसे प्राप्त होते थे। पशुओं से प्राप्त गोबर से जैविक खाद बनाई जाती थी जिसका प्रयोग गॉंवों के खेतों में किया जाता था और बाकी को बेच दिया जाता था। गॉंव के लिए गम्छासिंह ने एक और मॉडल तैयार किया गया। जिसके तहत गॉंवों के सभी रास्तों और छोटी छोटी गलियों के दोनों ओर तरह तरह के रंग बिरंगी फूलों के पौधे लगाए गए जिनमें चमेली, गुड़हल, गुलाब, गुलमोहर, कनेर और अन्य पौधों थे। प्रत्येक खेत के चारों कोनों पर एक एक फल का पेड़ लगाया गया जिनमें नाशपाती, जामुन, आम, पपीता, अमरुद, अनार, बेर, लीची और अन्य फलदार पौधे थे। गॉंव के प्रत्येक घर के दरवाजे पर एक और छतो पर अनेक गमलों में फूलदार पौधे लगाए गए। इस प्रकार गॉंव फूलों से भरा बहुत सुंदर सा बगीचा बन गया। गम्छासिंह सिंह ने गांव में वर्षा के पानी को एकत्रित करने के लिए चार तालाब भी खुदवाये जो बर्षा होते ही पानी से भर गये। तालाब के पानी का प्रयोग सिंचाई के लिए किया गया। एकतरफ तो पशुशाला के कारण गॉंव दूध, पशु वीर्य और जैविक खाद का अच्छा केन्द्र बन गया था। वहीं दूसरी तरफ अनाज, फल और फूल उत्पादन का भी अच्छा केन्द्र बन गया था। पशुशाला के उत्पादों की देखरेख और गॉंव में लगे अनेक फूलों और फलों को तोड़ने और उन्हें बेचने के लिए गॉंवों के कुछ लोगों को जिम्मेदारी दी गई। खेतों में होने वाले अनाज की जिम्मेदारी खेत वाले की ही थी। फूलों से भरे होने के कारण गॉंवों की सुन्दरता की चर्चा दूर दूर तक होने लगी और दूर दूर से लोग गॉंवों को देखने आने लगें। अब कही भी पूरे गॉंवों में धूल नजर नहीं आती थी नजर आते थे तो केवल फूल।

      पशुशाला से पशुओं की भी बिक्री होने लगी। पशुओं, दूध, वीर्य, फल और फूलों को बेचकर जो भी धन आता उसमें से सभी की देखरेख में हुएं खर्चे को काटकर शेष धन को बैंक में गॉंवों के नाम से खुलवाएं गये खाते में जमा करा दिया जाता था। धीरे धीरे इस धन से गॉंवों में एक इन्टर कॉलेज का निर्माण कराया गया। गम्छासिंह सिंह को जिसका प्रधानाचार्य बनाया गया। गॉंवों के सभी बच्चों और गॉंवों से बाहर के भी गरीब बच्चों को उसमें निशुल्क शिक्षा दी जाने लगी। अन्य गॉंवों के अमीर लोगों के बच्चे भी पढ़ने लगे जिनसे कुछ मासिक शुल्क ली जाती थी जो वहॉं पढ़ाने वाले अध्यापकों को उनके वेतन के रुप में दी जाती थी। गॉंवों के इतनी तेजी से विकास और सुन्दरता की खबरें बहुत तेज हो गई और राज्य के मुख्यमंत्री साहब तक भी पहुंच गयी। मुख्यमंत्री साहब स्वयं गॉंव के भ्रमण पर आए और गॉंवों का विकास, पशुशाला, अच्छा दूध केन्द्र, वीर्य केन्द्र, इन्टर कॉलेज देखकर बहुत खुश हुएं। गॉंवों के फूलों की सुन्दरता ने तो उन्हें अन्दर तक प्रभावित कर दिया। उन्होंने पूछा कि गॉंवों को इस रुप में किसने बदला है तब गम्छासिंह ने बताया कि ये तो सभी गॉंवों वालों ने किया है परन्तु गॉंवों वालों ने लंगोटिलाल और लूंगी देवी के त्याग और गम्छासिंह के महनत की सारी कहानी मुख्यमंत्री साहब को सुनाई। लंगोटिलाल और लूंगी देवी के त्याग की कहानी सुनकर मुख्यमंत्री साहब की ऑंखें भर आई और उन्होंने लंगोटिलाल, लूंगी देवी और गम्छासिंह को राज्य का पर्यावरण का सर्वोच्च पुरस्कार तथा गॉंवों को स्वच्छता और सुन्दरता का सर्वोच्च पुरस्कार देने की घोषणा की। उन्होंने गॉंवों का नाम भी धूलगढ़ से बदलकर फूलगढ़ कर दिया।

 

मौर्य कला Mourya Kala.

       कला किसी काल के मानवीय कल्पनाओ के मृत रूप को प्रदर्शित करता है। भारतीय इतिहास में कला परंपरा का विकास सिंधु घाटी सभ्यता से ही प्रारंभ हुआ परंतु स्थाई एवं निरंतर कला परंपरा का विकास मौर्य काल से ही माना जाता है क्योंकि मौर्य काल से पूर्व लकड़ी एवं मिट्टी के कला रूपों का विकास हुआ जिसमें निरंतरता का अभाव रहा।

         मौर्य कला शैली जहां स्थानीय एवम भारतीय परंपरा शैली एवं विदेशी ईरानी शैली को सम्मिश्रित रूप से प्रदर्शित करते हैं, जबकि इस पर कहां तक ईरानी प्रभाव हैं यह एक विमर्श का विषय हैं।

 कला समीक्षकों के अनुसार मौर्य काल में समृद्ध राजनीतिक स्थिति में कला के विभिन्न रुपों का विकास हुआ। राजकीय संरक्षण में जहां स्थापत्य कला को प्रधानता दी गई वही स्थानीय लोक-कला में मूर्ति कला का अभूतपूर्व विकास हुआ। 

(1) स्थापत्य कला:- शक्तिशाली केंद्रीय शासन व्यवस्था के दौरान स्थापत्य कला के विभिन्न रूप यथा- राजप्रसाद, स्तंभ, स्तूप एवं बिहार का अभूतपूर्व विकास हुआ। 

(क) राजप्रसाद:- मौर्य काल में चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा निर्मित राजप्रसाद (पाटलिपुत्र में स्थित) अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध था 80 स्तम्भो वाला सभा भवन, लकड़ी के फर्श एवं छत 140 फुट लंबा एवं 120 फुट चौड़ा राजप्रसाद की प्रमुख विशेषताएं थी। 

         यूनानी यात्री एरियन ने इसकी भव्यता की तुलना सुशा एवं एकबतना (मध्य एशिया) के राजप्रसादो से की है। चीनी यात्री फाहियान ने तो इसकी तुलना देवताओं द्वारा निर्मित राजप्रसाद से कर चुके है। मेगास्थनीज पाटलिपुत्र नगर की विशेषताओं का वर्णन अपनी पुस्तक इंडिका में किया है।

(ख) स्तम्भ:- स्तम्भ कला परंपरा का विकास भारत में मौर्य काल से ही हुआ। अशोक ने इसका निर्माण मुख्यत: धम्म के प्रचार के लिए करवाया और भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में स्थापित करवाया। इन स्तम्भो की प्रमुख विशेषताएं हैं-

  • एकाश्म पत्थर से निर्मित 
  • चुनाव एवं मथुरा के लाल बलुआ पत्थर से बना हुआ। 
  • चमकदार पॉलिश का प्रयोग 
  • इसकी  संरचनात्मक विशेषता को निम्न आकृति में देखा जा सकता है-

 


  • सिंह - लौरिया नंदनगढ़, वैशाली 
  • हाथी - संकिसा (उत्तर प्रदेश) 
  • बैल - लौरिया अरेराज, रामपुरवा।
(ग) स्तूप:- स्तूप कला का निर्माण मौर्य काल से पहले से चला आ रहा था परंतु इसमें व्यवस्थित संरचनात्मक रूप मौर्य काल के दौरान ही प्राप्त हुआ। स्तूप वास्तव में बौद्ध धर्म से जुड़ा एक धार्मिक स्थल है। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, अशोक ने 84000 बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया था। हालांकि इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है। फिर भी, साची, भरहुत, केसरिया स्तूप मौर्य काल में बने प्रमुख स्तूप हैं। इसकी संरचनात्मक विशेषता को निम्न आकृति में देखा जा सकता है-

(घ) विहार:- विहार मुख्यत: भिक्षुओं के निवास केंद्र होते थे। मौर्य काल में पहाड़ों को काटकर गुफा विहारो का निर्माण कराया गया। गया के बराबर एवं नागार्जुनी पहाड़ों में गुफा विहार के प्रमाण मिलते हैं। इनका निर्माण मुख्यतः अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने करवाया था। सुदामा, कर्णचौपार, गोपी, वडथिका, विश्व खोपड़ी, आदि। गुहा विहारो के उदाहरण हैं।
        ये गुहा बिहार वर्गाकार या आयताकार रूप में बने थे जिनके दीवारों एवं छत पर चमकदार पॉलिश की गई थी।

(2) मूर्तिकला:- मौर्य काल के दौरान मूर्तिकला के रूप में भी कला का अभूतपूर्व विकास हुआ। इस कला में विकसित मूर्तिकला को दो वर्गों में विभाजित कर देखा जा सकता है- 

(क) स्तम्भ के ऊपर:- स्तम्भ के ऊपर मूर्तिकला का विकास राजकीय संरक्षण में हुआ। इसमें मुख्यत: पशुओं की आकृति को प्रधानता दी गई। सिंह, हाथी, बैल, आदि। प्रमुख थे। इसमें सबसे प्रसिद्ध शेर की मूर्ति है जो सारनाथ स्तंभ से प्राप्त हुई है। चार शेरो की ये कलात्मक मूर्तिकला के अद्भुत रूप को प्रदर्शित करते हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वतंत्रता के उपरांत इस शेर आकृति को राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में अपनाया गया तथा इसके नीचे अंकित 24 तिलियो वाले चक्र को राष्ट्रीय ध्वज🇮🇳 के मध्य अंकित किया गया।

प्रमुख स्तंभ जहां से यह पशु मूर्तियां मिली है-

  • सिंह - लौरिया नंदनगढ़, सारनाथ, वैशाली 
  • हाथी - संकिसा 
  • बैल - लौरिया अरेराज, रामपुरवा 
(ख) स्वतंत्र रूप से विकसित मूर्तिकला:-  केंद्रीय संरक्षण के अतिरिक्त मौर्य काल में स्थानीय स्तर पर भी मूर्तिकला का अभूतपूर्व विकास हुआ। स्थानीय स्तर पर निर्मित यक्ष-यक्षणियों की मूर्ति लोक प्रतीकों का सूचक थी जो आगे चलकर देवी-देवताओं के रूप में विकसित हुई। कलात्मक रूप से निर्मित यह मूर्तियां अपने आप में जीवंत प्रतीत होती है। इन पर की गई चमकदार पॉलिश इन्हें और सुंदर रूप प्रदान करते हैं। इनके प्रमुख साक्ष्यों को निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं- 
  • दीदारगंज (पटना) - यक्षिणी की मूर्ति 
  • बुलंदी बाग (पटना) - नारी एवं बालक की मूर्ति 
  • लोहानीपुर (पटना) - जैन तीर्थंकर की मूर्ति 
  • परखम (मथुरा) - यक्ष की मूर्ति 
  • धौलि (ओडिशा) - हाथी की मूर्ति 
(3) अन्य:- स्थापत्य एवं मूर्तिकला के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर कला के अन्य रूपों का भी विकास हुआ। मौर्य काल के दौरान निर्मित मृदभांड के कई अवशेष बिहार एवं भारत के अन्य भागों से प्राप्त हुए हैं। मौर्य काल में निर्मित उत्तरी काशी पॉलिश मृदभांड कला के सुंदर रूप को प्रदर्शित करते हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर निर्मित घेरेदार कुएं भी कला के विशेष रूप को प्रदर्शित करते हैं।

*आलोचना:-
  • कुछ प्रसिद्ध विद्वान जैसे- जॉन मार्शल, पर्सी ब्राउन, आदि मौर्य कला को ईरानी कला की देन के रूप में मानते हैं। 
  • मौर्यकालीन राजप्रसाद को ईरान के आखमेनिया वंश द्वारा निर्मित राजप्रसाद की नकल मानते हैं। 
  • मौर्य काल में शुरू स्तम्भ परंपरा की भी ईरानी एकदम परंपरा की नकल मानते हैं।

मौर्य कला एवं ईरानी कला में अंतर


समीक्षा/निष्कर्ष:- मौर्य काल भारतीय इतिहास में राजनैतिक एकीकरण के दौर का प्रारंभिक बिंदु माना जाता है। ठीक उसी प्रकार मौर्य काल में विकसित मौर्य कला भारतीय परंपरा का प्रस्थान बिंदु है। इस काल के दौरान विकसित कला परंपरा आज भी कला प्रेमियों के मध्य प्रेरणा का विषय बना हुआ है।



सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

जिला कला एवं संस्कृति पदाधिकारी के प्रारंभिक परीक्षा सामान्य अध्ययन (PT) का उत्तर। Answer of District Arts and Culture Officer Preliminary Examination (PT) General Studies.


           जिला कला एवं संस्कृति पदाधिकारी (प्रारम्भिक) प्रतियोगिता परीक्षा (वि.सं. 01/2021) के अन्तर्गत सामान्य अध्ययन (General Studies) विषय की परीक्षा दिनांक 29.01.2022 को आयोजित की गयी थी। उक्त परीक्षा के सामान्य अध्ययन विषय की प्रश्न पुस्तिका श्रृंखला 'A', 'B', 'C' एवं 'D' के सभी प्रश्नों के औपबंधिक उत्तर दिनांक 21.02.2022 से आयोग के वेबसाईट www.bpsc.bih.nic.in पर प्रदर्शित हैं। 

       उक्त परीक्षा में सम्मिलित (Appeared) किसी भी उम्मीदवार को उक्त विषय के किसी भी प्रश्न पुस्तिका श्रृंखला के किसी भी प्रश्न के औपबंधिक उत्तर पर किसी भी तरह की आपत्ति हो, तो वे इस सम्बन्ध में प्रामाणिक स्रोत / साक्ष्य के साथ अपनी आपत्ति / सुझाव नीचे दिये गये आपत्ति प्रपत्र में BPSC को भेजेंगे।


     संयुक्त सचिव- सह - परीक्षा नियंत्रक, बिहार लोक सेवा आयोग, 15, नेहरू पथ (बेली रोड). पटना 800001 को स्पीड पोस्ट से इस प्रकार भेजेंगे कि वह दिनांक 04.03.2022 की संध्या 05.00 बजे तक बिहार लोक सेवा आयोग में प्राप्त हो जाए। लिफाफा पर परीक्षा का नाम एवं विज्ञापन संख्या अवश्य लिखें। 


BPSC के द्वारा संपन्न हुई परीक्षा का औपबंधिक उत्तर 👇👇






Note:- Image पर क्लिक करके इमेज को डाउनलोड कर सकते हैं एवं स्पष्ट भी देख सकते हैं।

धन्यवाद🙏


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रविवार, 20 फ़रवरी 2022

International Mother Language Day 21 February.

   





International Mother Language Day 21 February 

        International Mother Language Day is a worldwide annual observance held on 21 February to promote awareness of linguistic and cultural diversity and to promote multilingualism.


अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस 21 फरवरी 


Video Link Click Here.

      अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस 21 फरवरी को भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देने और बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए आयोजित एक विश्वव्यापी वार्षिक उत्सव है।

शकुंतला राजा रवि वर्मा की एक प्रसिद्ध चित्रकला।

 

शकुंतला 
(1898, कैनवस पर तैल, संग्रह:  श्री चित्रा आर्ट गैलरी, त्रिवेंद्रम)


        बीज रूप में शकुंतला की कथा महाभारत में भी है, लेकिन जब कालीदास ने "अभिज्ञानशाकुंतलम" के रूप में इसकी पुनर्रचना की तो उनके इस नाटक को गौरव ग्रंथ होने का सौभाग्य मिला। गेटे ने भी इस नाटक की भूरी-भूरी प्रशंसा की है। रवि वर्मा के इस चित्र में ऋषि कन्या शकुंतला अपने पैर से कांटा निकालने के बहाने पीछे मुड़कर दुष्यंत को कामना भरी नज़रों से देख रही हैं।

पाल कला Paal Kala

 
सामान्य परिचय:-
         कला किसी भी संस्कृति की मूलभूत पहचान होती हैं। इस दृष्टि से पूर्व मध्यकालीन बिहार (08वीं - 12वीं सदी) में विकसित पाल कला का विशेष महत्व है क्योंकि इससे ना केवल मौर्य काल से विकसित हो रहे कला परंपरा को निरंतरता एवं विस्तार प्रदान किया बल्कि इसे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित एवं प्रसारित भी किया। इस काल में विकसित विभिन्न कला रूप स्थापत्य, मूर्ति एवं चित्रकला को निम्न रूप में देखा जा सकता है-

(1) स्थापत्य कला:-

     पाल कला के दौरान धार्मिक एवं निवास स्थान दोनों रूपों में स्थापत्य कला का विकास हुआ। स्थापत्य के विभिन्न रूपों को हम निम्न बिंदुओं में देख सकते हैं-

(i) महाविहार:- 

     पाल कला के दौरान महाविहारो का निर्माण, बौद्ध भिक्षुओं के निवास तथा शिक्षा के केंद्र के रूप में हुआ। महाविहारो की संरचनात्मक विशेषता को हम निम्न आकृति में देख सकते हैं-

  • खुले आंगन 
  • आंगन के पीछे 
  • बरामदे के पीछे कमरे 
  • कुछ कमरे दो मंजिलें तथा उनपर जाने के लिए सीढ़िया 
  • पक्की ईंटों से निर्मित
      पाल कला में बने कुछ महाविहारो के उदाहरण को निम्न बिंदुओं पर देख सकते हैं- 
  • उदंतपुरी महाविहार - गोपाल 
  • विक्रमशिला महाविहार - धर्मपाल 
  • सोमपुर महाविहार - धर्मपाल
(ii) चैत्य:-
        यह बौद्ध मंदिर थे एवं बौद्ध पूजा केंद्रों के रूप में प्रसिद्ध थे। चैत्यों के निर्माण की परंपरा भले ही प्राचीन हो लेकिन इसके स्वरूप में पाल कला के दौरान अत्यधिक विस्तार हुआ। साथ ही बड़ी संख्या में पाल शासकों ने चैत्यों का निर्माण करवाया। इसके कई प्रमाण बिहार के विभिन्न भागों से प्राप्त होते हैं।

(iii) मंदिर:-

           पाल शासक बौद्ध धर्म को मानते थे परंतु उन्होंने हिंदू मंदिरों के निर्माण को भी प्रोत्साहन दिया। इस काल में बने मंदिर नागर शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

पाल काल में बने कुछ हिंदू मंदिर-

  1. कहलगांव (भागलपुर) का गुफा मंदिर 
  2. गया में स्थित विष्णुपद मंदिर 
विष्णुपद मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता उसमें निर्मित अर्द्धमंडप है।

(iv) स्तूप:-

         स्तूप बौद्ध धर्म के प्रमुख धार्मिक केंद्र थे। पाल शासन के दौरान स्तूप का निर्माण किया गया। इस काल में स्तूपो की संरचना को और व्यवस्थित रूप मिला। इसकी संरचनात्मक विशेषता को निम्न आकृति में देख सकते हैं-


(2) मूर्तिकला 

       पाल कला के दौरान मूर्तिकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। मूर्तियों का निर्माण कांसे एवं पत्थर दोनों रूपों में निर्मित होने लगा।

(i) कांसे की मूर्ति:- ये पाल कला की सर्वश्रेष्ठ कला उपलब्धि मानी जाती है। कांसे की मूर्तियों का निर्माण सांचे में ढालकर की जाती थी, इसमें अलंकरण की प्रधानता थी। नालंदा निवासी धीमन विठपाल दो प्रमुख मूर्तिकार थे, जो धर्मपाल एवं देवपाल के समकालीन थे। कांसे की इन मूर्तियों की कलात्मकता की तुलना चोल काल में निर्मित कांसे की नटराज मूर्ति से की जाती है। कांसे की इन मूर्तियों में बौद्ध एवं हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया। जिनमें बौद्ध, बोधिसत्व, विष्णु, बलराम, आदि प्रमुख है। कांसे की ये मूर्तियां नालंदा, कुरकीहार (गया), सुल्तानगंज से प्राप्त हुई है। 

(ii) पत्थर की मूर्ति:- पाल काल में कांसे के अतिरिक्त पत्थर की मूर्तियों का भी निर्माण हुआ। इन मूर्तियों का निर्माण काले बेसाल्ट पत्थर से होता था जो संथाल परगना एवं मुंगेर से प्राप्त होती थी। इन मूर्तियों में भी अलंकरण पर जोर दिया जाता था।

(iii) चित्रकला:- पाल कला में स्थापत्य एवं मूर्तिकला के साथ-साथ चित्रकला के भी विभिन्न रूपों का विकास हुआ। जिन्हें दो भागों में विभाजित कर देखा जा सकता है- 
  • पांडुलिपि चित्र:- यह चित्र मुख्यत: ताम्रपत्रो पर होता था जिसका उपयोग सजावट के लिए किया जाता था। इन चित्रों में लाल, काला, नीला, सफेद के साथ-साथ हरा रंग एवं बैगनी रंगों का प्रयोग किया जाता था। इसके प्रमुख उदाहरण "अष्टसह्रसरिक प्रज्ञापारमिता" एवं पंचरक्ष है जो वर्तमान में ब्रिटेन के कैंब्रिज संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
  • भित्तिचित्त इसका निर्माण दीवारों, गुफाओं आदि के चित्रण के लिए किया जाता था। इन चित्रों में फल-फूल, पशु, मानव तथा ज्यामितीय रूप की प्रधानता है। इसके प्रमुख उदाहरण सराय किला (नालंदा) से प्राप्त हुआ है। एक तख्ती पर महिला द्वारा श्रृंगार करते हुए अपने रूप को निहारते चित्र को प्रदर्शित किया गया है जो कला के साथ-साथ मानवीय मनोवृति को प्रदर्शित करता है।
आलोचना:-

  • स्थापत्य कला में अत्यधिक ईटों का प्रयोग हुआ है, पत्थर का प्रयोग बहुत कम दिखाई देता है। जिस वजह से इमारते स्थायित्व नहीं है। 
  • मूर्तियों में अग्रभाग पर जोर जबकि पिछला भाग पूर्णत: समतल 
  • मूर्तियों में अलंकरण की प्रधानता है जिससे वास्तविक सुंदरता का छुप जाना। 
  • कला के विभिन्न रूपों में धार्मिक विषय पर अधिक जोर तथा स्थानीयता को कम महत्व।

समीक्षा/निष्कर्ष:-

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि पाल शासन के दौरान कला के विविध रूपों का अभूतपूर्व विकास हुआ इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि त्रिपक्षीय संघर्ष में निरंतर व्यस्त होने के बावजूद भी पाल शासकों ने कला परंपरा को एक नई ऊंचाई प्रदान की।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

नाहीं मनबू तs दुनाली देखाइब तोहके।



नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


हईं आजमगढ़ के गुड्डा ये रानी मोछमुंड्डा।🥸

लिआइब  हीरोहोण्डा  बिठाइब  तोहके।

नाहीं  मनबूs तs  दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


कहबूs तs आजमगढ़ पूरा घुमाइब।

पूरा  घुमाइब  हो  पूरा  घुमाइब। 

जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर देखाइब।

जौनपुर, देवरिया, गोरखपुर देखाइब।

बुढ़नपुर  से  बाली  देआइब  तोहके।

दिआइब तोहके हो, दिआइब तोहके। 

नाहीं  मनबूs तs  दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।



कहबू जियनपुर से हरवा गढ़ाइब।

हरवा  गढ़ाइब  हो, हरवा गढ़ाइब। 

सरायमीर से तोहके साड़ी दिआइब।

साड़ी  दिआइब  हो, साड़ी दिआइब। 

बिलरियागंज  बर्फी  खिआइब तोहके।

खिआइब तोहके हो, खिआइब तोहके। 

नाहीं  मनबूs तs  दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।



जवन जवन कहबू हम सगरो दिआइब।

सगरो  दिआइब  हो पूरा   घुमाइब। 

निजामाबाद में तोहके चूड़ी पहिनाइब।

चूड़ी   पहिनाइब  हो  चूड़ी  पहिनाइब। 

लालगंज  क लाली दिआइब तोहके।

दिआइब तोहके हो दिआइब तोहके। 

नाहीं   मनबू  दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


भवंरनाथ ले जाके दर्शन कराइब।

दर्शन  कराइब  हो, दर्शन कराइब। 

भैरों बाबा शीतल माईं माथा टेकाइब।

माथा टेकाइब हो, माथा   टेकाइब। 

फूलपुर  से,  फुलपुर  से  बिंदिया।

देआइब तोहके दिआइब तोहके। 

नाहीं  मनबूs तs दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


मनबू हमार तोहके रानी बनाइब।

रानी  बनाइब  हो,  रानी  बनाइब। 

बिछुआ,  पायल और मांगटिका दिआइब।

टिका दिआइब हो, टिका दिआइब। 

अरे!!! कनवा   के,  अरे!!!  कनवा  के।

झुमका लिआइब तोहके लिआइब तोहके।

नाहीं  मनबूs तs दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


हां  करबू तs तोहके दुलहिन बनाइब।

दुलहिन बनाइब हो, दुलहिन बनाइब। 

रानी  बनाके  हो  घरवा  ले जाइब।

घरवां  लेजाइब हो, घरवां लेजाइब। 

हो नाहीं करबू तs हो नाहीं करबू त। 

भल हम बताइब तोहके, बताइब तोहके।

नाहीं   मनबू s तs दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।


हईं आजमगढ़ के गुड्डा ये रानी मोछमुंड्डा।🥸

लिआइब  हीरोहोण्डा  बिठाइब  तोहके।

नाहीं  मनबूs तs  दुनाली  देखाइब  तोहके।

हो, नाहीं मनबूs तs दुनाली देखाइब तोहके।




साभार:- सोशल मीडिया

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

ख्वाहिशें (Aspirations)


 ख्वाहिशें 

हजारों ख्वाहिशें हमने भी पाल रखी है ... 

जिन्दगी जीने की वो कसमें जो खा रखी है। 

तारों की दुनिया में युँ आसमा सजा रखी है🎇 

आखों👀 में तो सुनहरे सपने जो सजा रखी है। 

हाँ, हजारों ख्वाहिशें हमने भी पाल रखी है, 

जिन्दगी जीने की वो कसमें जो रखा रखी हैं। 

विनित कुमार✍️


Aspirations


 We have also kept thousands of wishes...


 The vows that he has taken to live life.


 In the world of stars, the sky is decorated like this.🎇


 There are golden dreams in the eyes👀 which are the punishment.


 Yes, we have also kept thousands of wishes,


 Those vows to live life that have been kept.


 Vinit Kumar✍️

शेरो-शायरी। Shero-shayari.


 सवाल न करिए कि क्या किए जा रहे है।

हालात कुछ यूँ है कि फ़क़त लहू किए जा रहे है।।


किसी को तमन्ना हुई मेरे जनाजे की बहत।

मसलन तब से खुदकुशी किए जा रहे है।। 


ये दुनिया अब फ़रेब लगने लगी है मुझे।

सो हम चेहरे पर दो चार चेहरे किए जा रहे है।।


मेरी शख़्सियत तो ना रही कभी ऐसी वैसी।

न जाने क्यूँ देख कर वो पर्दे किए जा रहे है।।


इब्तिदा से ही मुझसे हो कर कोई गुजरा नहीं।

तन्हाईयों में भी हम फ़क़त तन्हा किए जा रहे है।।


मुझको लगने लगा है डर मेहनती कुछ लड़के से बहत।

बाजारों में फंदे बेहद सस्ते किए जा रहे है।।


बिन दाद के लग रहा मुझे ये क्यूँ कामिल।

गूंगो में हम कीमती शेर ज़ाया किए जा रहे है।।


साभार:- सोशल मीडिया



बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

......कौन चाहता है........ ......Who wants........



 ......... कौन चाहता है ...........

अपनों से दूर होना, कौन चाहता है ..... 

यादों के झरोखों को भूलना, कौन चाहता है .....

सफर पे रास्तों का खोना, कौन चाहता है ..... 

अपनी किस्मत पे रोना, आखिर कौन चाहता है ..... 

अपने सपनों को जलाना, कौन चाहता है .....

सांसो का टुट जाना, कौन चाहता है .....

एक उम्मीद के दामन को छोड़ना, कौन चाहता है ..... 

जिन्दगी से हार जाना, आखिर कौन चाहता है। 

विनित कुमार✍️


......... Who wants ...........


 Who wants to be away from loved ones.....


 To forget the windows of memories, Who wants.....


 Losing the paths on the journey, who wants to.....


 Crying on your luck, after all who wants.....


 Who wants to burn your dreams.....


 Breaking of breath, who wants.....


 Who wants to give up on one's hope.....


 Who wants to lose life?


 Vinit Kumar✍️

अंत (The End)

अंत

  इस शाम का भी अंत अब हो रहा था। 

नीचे जमीं ऊपर आसमा हो रहा था।

 नजरें थकी हुई थी, पर उमंग नया हो रहा था। 

ये चाँद भी अब जवां हो रहा था। 

ख्वावों- ख्यालों में एक नशा अब हो रहा था।

 इस शाम का भी अंत अब हो रहा था।

विनित कुमार✍️


Ending


 This evening too was coming to an end.


 The sky was rising above and below the ground.


 His eyes were tired, but the excitement was renewing.


 This moon too was getting young now.


 An intoxication was now happening in the dreams.


 This evening too was coming to an end.


Vineet Kumar✍️

शेरो-शायरी। Shero-shayari.


 वहम में इतना कि अपना ही किरदार क़यामत कर आए।

इस-क़दर गुज़रे वहशत से कि आँखों को भी ख़जालत कर आए।।


मुनासिब  लग नहीं रहा था लफ़्ज़ दफ़्नाना ज़ेहन में हर बार।

मसलन हम करते भी क्या सो खुद से ही बगावत कर आए।। 


चाह कर भी मार न सका मिरा दुश्मन निहत्था जान कर मुझे।

हजार बारूदो के बावजूद उसे इक मुस्कुराहट से बे-ताक़त कर आए।।


मलाल करने को तो पर करूँ क्यूँ भला मैं किसी पल।

जब सारे दर्द को  रखने खुद ही को इक इमारत कर आए।।


गले लगा कहता रहा इक जमाने से जिसे अपना  जान-ए-मन।

ज़रा सा नब्ज़ बिगड़ते वो मिरे मौत के लिए इबादत कर आए।।


हमने तो अदब से ता'रीफ़ में लिखा था परीज़ाद उसे कामिल।

वो नासमझ इबारत पे मसअला कर फ़ुज़ूल ही हमसे अदावत कर आए।।


नींदें गँवाई है हमने यार ईनाम थोड़ी है।

निगाहों में किसी के लिए ख्वाब अब सरेआम थोड़ी है ।।


मलाल करता भी तो भला  क्यूँ हिज्र पे मै।

फ़क़त बदन इश्क की आखरी मुक़ाम थोड़ी है ।।

साभार:- सोशल मीडिया


शायरी में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ


क़यामत - विनाश , बर्बाद , उथल पुथल 

वहशत - पागलपन  

ख़जालत - लज्जित 

ज़ेहन - मन 

मसलन - अर्थात 

निहत्था - बिन अस्त्र शस्त्र के 

बे-ताक़त - शक्तिहीन , हरा देना 

मलाल - पश्चाताप 

इबादत - प्राथना 

अदब - सलीका , ढंग 

परीज़ाद - बहत सुंदर , जन्नत की परी 

इबारत - भाषा , शैली 

फ़ुज़ूल - अनावश्यक 

अदावत - दुश्मनी


Need review🙏

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

पटना कलम Patna Kalam

  



         18 वीं सदी के मध्य में पारम्परिक भारतीय चित्रकला की एक शाखा पटना में आकर एक नए कलेवर के साथ प्रस्फुटित हुई और लगभग दो शतकों तक पल्लवित होती रही। इस नये कलेवर वाली चित्रशैली को 'पटना कलम' की संज्ञा दी गई। 

'पटना कलम' 

1. विकास (मुगल काल के अवसान के क्रम में) 
2. क्षेत्र (पटना, आरा, दानापुर .........)
3. प्रमुख चित्र (लकड़ी काटता बढ़ई, मछली बेचती स्त्री, खेत जोतता किसान ...... ) 

4. प्रमुख कलाकार (सेवक राम, हुलास लाल, ......... ) 
5. मौलिकता (मुगलों की शाही शैली (ईरानी प्रभाव) एवं मधुवनी शैली से तुलनात्मक अंतर) 

       वस्तुतः 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल बादशाह औरंगजेब लगातार युद्ध में प्रवृत्त रहा, फलस्वरूप उसके आर्थिक और मानव संसाधनों का अनवरत् क्षरण होता रहा था। ऐसी स्थिति में उसका कला जैसी श्रमसाध्य, व्ययसाध्य और समयसाध्य वृत्ति से विमुख होना स्वाभाविक ही था। चित्रकला जो उसके पूर्वजों की कलावृत्ति थी वह उपेक्षित होने लगी। चित्रकार जिन्हें राजकीय संरक्षण की आदत थीं, संरक्षण के अभाव को महसूस करने लगे। औरंगजेब के बाद अस्त होते मुगल शासन में राजकोष के अभाव तथा अरूचि ने, दरबारी चित्रकारों को संरक्षण की तलाश और जीविका की खोज में इधर-उधर भटकने के लिए मजबूर किया।
 
       मथुरा, राजस्थान, कांगड़ा घाटी में यद्यपि चित्रकर्म हो रहा था, पर पूर्व से कार्यरत्त चित्रकारों की बहुलता के कारण इन मुगल दरबारी आश्रयहीन चित्रकारों का मुक्त हृदय से स्वागत वहाँ सम्भव नहीं था। अतः ये चित्रकार बंगाल में मुर्शिदाबाद की ओर उन्मुख हुए। अतः चित्रकारों को पुनः गुणग्राही राज्याश्रय मिला जिसके वे आदी थे। दूसरी ओर नवाब ने भी दिल्ली के शाही चित्रकारों को आश्रय देने में गर्व महसूस किया। लगभग 30 वर्षों तक शान्तिपूर्ण प्रश्रय के बाद मराठों के आक्रमण तथा ईस्ट इण्डिया कंपनी के हस्तक्षेप के कारण नवाब की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होने लगी। इसी बीच सिराजुद्दौला की हत्या तथा उसके बाद की राजनीतिक उथल-पुथल के कारण चित्रकारों को पुनः विस्थापित होना पड़ा। अभी भी जो छोटे-छोटे रियासतें बची थी उनके राजकोष राज्याश्रय प्रदान करने के लिए बहुत छोटे थे। टेकारी, बेतिया, बनारस के राजघराने ने भी कुछ चित्रकारों को राज्याश्रय दिया पर सबको राज्याश्रय देना उनके वश में नहीं था। अत: चित्रकारों के लिए राज्याश्रय छोड़ना वाध्यता हो गयी। फलस्वरूप जीविका की तलाश में चित्रकारों का ध्यान व्यापारिक केन्द्रों की ओर आकर्षित हुआ। 

        वस्तुतः राजे-राजवाड़े के बाद अगर कहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्हें प्रश्रय या प्रोत्साहन मिलने की सम्भावना थी तो उन व्यापारिक केन्द्रों में ही, जिसका नियंत्रण महाजनों, रईसों अथवा व्यापारियों के हाथों में था। पटना के बाजार ने इन विस्थापित और निराश्रित कलाकारों को अपने आश्रय में ले लिया। इस समय पटना एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में उभर रहा था। बिहार की खनिज सम्पदा ने पहले ईस्ट-इण्डिया कंपनी को और बाद में ब्रितानी हुकूमत का ध्यान आकृष्ट किया हुकूमत की भारत से कच्चे माल के दोहन की नीति के कारण अनेक विदेशी व्यापारी पटना में आकर बस गए और अफीम तथा शोरे का व्यापार करने लगे। गंगा नदी के रूप में जलमार्ग उपलब्ध होने के कारण पटना का व्यावसायिक महत्व उत्तरोत्तर बढ़ने लगा फलस्वरूप हुकूमत द्वारा अनेक आला अफसर यहाँ तैनात किए गए। कुल मिलाकर रईसों, धनाढ्यों, व्यावसायियों तथा अफसरानों का केन्द्र होने के कारण चित्रकारों को अपने चित्रों के लिए बाजार की तलाश पटना में आकर पूरी हुई और वे पटना के लोदी कटरा, दीवान मुहल्ला, नित्यानंद का कुआँ, मच्छरहट्टा आदि इलाकों में आकर बस गए।

         यह शैली चित्रकला का एक क्षेत्रीय रूप है, जो बिना किसी राजाश्रय के फली-फूली। इस कला के संरक्षक और खरीददार तत्कालीन नवधनाढ्य भारतीय एवं ब्रिटिश कला प्रेमी थे। इस चित्रकला के विकास का युग 18वीं सदी के मध्य (1750 ई.) से लेकर 20वीं सदी के आरम्भिक काल (1920 ई.) तक रहा। इस शैली के कलाकारों के पूर्वज मुगल शैली अथवा पहाड़ी आदि चित्र शैलियों के सुप्रसिद्ध चित्रकार थे। अत: इस शैली के प्रारम्भिक चित्रों पर मुगलशैली एवं पहाड़ी शैली की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। इन कलाकारों का मुर्शिदाबाद और कलकत्ता से भी संपर्क रहा था। इनके माध्यम से वह यूरोपीय प्रभाव को भी ग्रहण किया एवं अपनी कृतियों में उसे प्रदर्शित किया। अर्थात् पटना कलम शैली मुख्यतः मुगलों द्वारा विकसित परम्परा, यूरोपीय चित्रकला और स्थानीय चित्रकला परम्पराओं का मिश्रण है। परन्तु, आगे चलकर इन चित्रों की प्रस्तुति में सादगी एवं विषय-वस्तु में सरलता तथा मौलिकता आती चली गई।


      पटना कलम के चित्र लघुचित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर कागज पर और कहीं कहीं हाथी-दाँत पर भी बनाया गया है। इस शैली की प्रमुख विशेषता इसका सादगीपूर्ण तथा समानुपातिक होना है। इन चित्रों में मुगल चित्रों की भव्यता का अभाव है। साथ ही काँगड़ा चित्र शैली के विपरीत इनमें भवन स्थापत्य कला की विविधताएं भी अनुपस्थित हैं। इनमें चटख रंगों का प्रयोग नगण्य है। इस शैली के हर चित्र में विविधता एवं नयापन है तथा पूरी कृति में लयात्मकता है। 


         यह शैली विषय-वस्तु के लिहाज से राजकला न होकर जनकला थी। इस शैली में बिहार के सामान्य जन-जीवन का चित्रांकन हुआ है। इन चित्रों में श्रमिक वर्ग (कसाई, कहार, नौकरानी, भिश्ती आदि), दस्तकार वर्ग (बढ़ई, लोहार, जुलाहा, कुम्हार, दर्जी, पतंग बनाने वाला, कंघी बनाने वाला, सोनार, रंगरेज आदि) तत्कालीन आवागमन के साधनों (पालकी, घोड़ा, हाथी, एक्का, बैलगाड़ी आदि), बाजार के (मछली की दुकान, ताड़ी की दुकान, गाँजें की दुकान, मिठाई की दुकान) आदि का चित्रांकन दृश्य हुआ है। इसी तरह मदरसा, पाठशाला, दाह संस्कार, त्यौहारों (होली, दशहरा आदि) एवं साधु-संतों के भी चित्र बनाए गए हैं। साथ ही प्राचीन स्मारक (गोलघर, पश्चिमी दरवाजा आदि) के अलावा फूल-पत्ती एवं जीव-जन्तुओं को भी प्रचुरता में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त हर प्रकार के साजिन्दे तथा खेल-तमाशे वाले, यथा- मदारी, सपेरा, नट, बाजीगर, जादूगर आदि चित्र मध्य में उकेरे गए हैं।


       जहाँ तक बारीकियों का प्रश्न है पटना कलम शैली के चित्रकारों को इसमें महारत हासिल थी। इस शैली के चित्रों में चिड़ियों का चित्रण खासतौर से देखने योग्य है। इन चित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन कलाकारों को पक्षियों के शरीर विज्ञान की गहन जानकारी थी। इन लघु चित्रों में पक्षियों के एक-एक पंख एवं रोयें का इतना स्पष्ट चित्रण किया गया है कि देखने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। कहीं-कहीं इन कलाकारों की दबी हुई कल्पनाएं अलंकरण के साथ मुखरित हो उठी हैं। 

जैसे- महादेव लाल द्वारा बनायी गयी 'रागिनी गांधारी चित्र' जिसमें नायिका के विरह के अवसाद को बहुत बारीकी से दर्शाया गया है। माधोलाल द्वारा बनायी गयी 'रागिनी तोड़ी' पर आधारित चित्र भी उल्लेखनीय है, जिसमें विरहिणी नायिका को वीणा लिए हुए दिखाया गया है। इसी तरह शिवलाल द्वारा निर्मित 'मुस्लिम निकाह' का चित्र तथा यमुना प्रसाद द्वारा चित्रित “बेगमों की शराबखोरी" का चित्र भी महत्वपूर्ण है।


            इस शैली में पृष्ठभूमि एवं लैंडस्केप का ज्यादा प्रयोग नहीं किया गया है। कारण इसमें चित्रकार की कल्पना को मूर्तरूप देना पूर्णरूप से संभव नहीं था क्योंकि उसके लिए पृष्ठभूमि एवं प्राकृतिक दृश्यों को बढ़ाना महँगा पड़ता और इसकी पूर्ति करने वाला कोई नहीं था। अतः उन लोगों ने कम खर्चीले प्रयोग करना ज्यादा उचित समझा। 

जैसे- मनुष्य के चित्रों में ऊँची नाक, भारी भवें, पतले चेहरे, गहरी आँखें और घनी मूंछें दिखाई गई हैं। 


          कलाकार एक या दो बालों वाले ब्रशों का इस्तेमाल महीन कार्यों के लिए किया करते थे। तूलिकाएँ गिलहरी के दुम के बालों से तैयार की जाती थी क्योंकि वे सुदृढ़ एवं मुलायम होती थीं। मोटे कामों के लिए बकरी, सुअर अथवा भैंस की गर्दन की बालों का इस्तेमाल किया जाता था जो अपेक्षाकृत कड़े होते हैं। कड़े होने के कारण इन बालों को पहले उबाला जाता था, जिससे उसका कड़ापन कुछ कम हो जाता था तब उसे तूलिका के लिए इस्तेमाल किया जाता था।


        इस शैली की विषयवस्तु को पेंसिल से रेखांकित (स्केच) कर उन्हें रंगने की प्रक्रिया सामान्यत: नहीं अपनायी जाती थी, बल्कि तुलिका एवं रंग से सीधे कागज पर चित्रांकन किया जाता था। चित्रों को अंकित करने की आधारभूमि सर्वप्रथम कागज पर ही बनायी जाती थी, परन्तु विविधता एवं स्थायित्व लाने के लिए बाद में इसे चमड़ा, धातु, शीशा, अभ्रक, हाथी दाँत आदि से पर भी बनाया जाने लगा। वे सामग्रियां सामान्यतः बनारस से मंगाई जाती थी। कागज हाथ से निर्मित होते थे, जो रद्दी कागजों की लुग्दी से कलाकार द्वारा स्वयं तैयार कर लिया जाता था। बांस से निर्मित नेपाली कागजों का इस्तेमाल भी चित्रकारी के लिए होता था। हालांकि बाद में चित्रकारी के लिए कागज यूरोप से भी आयातित होने लगा था। 


          इसके रंग प्राकृतिक होते थे जो चित्रकारों द्वारा स्वयं तैयार किया जाता था। चित्रकार विभिन्न छाँहों (शेड्स) के लाल रंग लाह से, सफेद रंग विशेष प्रकार की मिट्टी से, काला रंग कालिख अथवा जलाए गए हाथी दांत की राख से, नीला रंग नील से, लाजवर्त रंग लैपिस लेजुली नामक पत्थर से एवं गेरुआ रंग एक विशेष प्रकार की स्थानीय मिट्टी से तैयार करते थे। नीला और पीला रंग मिश्रित कर वे हरा रंग बनाते थे। इसके अलावा सोने एवं चांदी के वक्रो से क्रमशः सुनहरा एवं चाँदी सा रंग भी तैयार करते थे। 


         पटना कलम शैली पर मुगल शैली का प्रभाव रहते हुए भी यह शैली मुगल शैली से बहुत अर्थों में पूर्णतया भिन्न है। इस शैली में मुगल शैली के चित्रों की भव्यता का अभाव है। इसमें न तो मुगल शैली के चित्रों की भाँति राजे-रजवाड़ों से संबंधित विषय वस्तु हैं और न ही इनकी ट्रीटमेंट में उस वैभव के ही दर्शन होते हैं। पटना कलम में सजीवता और सामान्य जीवन से उनका घनिष्ठ संबंध सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। इसके अलावे रंगों के उपयोग और छायांकन के तरीके में भी स्पष्ट अंतर दिखता है। सजीवता एवं सुन्दरता में पटना कलम शैली के हाथी के दाँत पर बने लघुचित्र मुगल शैली के चित्रों से बेहतर माने गए हैं। 


        पटना शैली के कलाकारों में सबसे पहला नाम सेवकराम (1770-1830 ई.) का है। उन्हीं के समकालीन हैं हुलासलाल (1785-1875 ई.)। अन्य महत्वपूर्ण चित्रकारों में प्रमुख हैं- श्री जयराम दास, शिवदयाल लाल, गुरुसहाय लाल, झुमक लाल, फीकर चंद, टुन्नी लाल आदि। इस चित्रकला के अंतिम कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा के पटना से कलकत्ता चले जाने के बाद बिहार में इस कला की पहचान बरकरार रखने के लिए राधामोहन बाबू ने दिन-रात अथक प्रयास किया था। इस कला शैली के पारखी राधामोहन बाबू को शबिहो (पोट्रेट) की सर्जना का आचार्य कहा जाता है। पटना कलम शैली के आखिरी संरक्षक राधामोहन बाबू की मृत्यु 1996 ई. में हो गई। 


        लगभग डेढ़ शताब्दी तक यह शैली प्रचलित रही, लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इस शैली का पतन आरम्भ हो गया। क्योंकि इस समय तक अनेक कला संरक्षक काल-कलवित हो गये थे एवं अनेक कलाकार आश्रयहीन हो गए थे। परिणामत: रोजी-रोटी की तलाश में एक-एक कर वे लोग सरकारी नौकरी अथवा अन्य व्यवसायों में लग गये। कुछ कलाकार रोजगार की तलाश में कलकत्ता एवं कुछ मथुरा आदि स्थानों पर चले गये। अतः यह कलम शैली विनिष्ट हो गई।


        इस प्रकार पटना कलम शैली एक लोककला थी जिसमें प्राकृतिक रूपों का विशेष ध्यान रखा गया है। धन एवं आश्रय के अभाव में इस कला शैली का पतन हो गया किन्तु इसके चित्रों की महत्ता आज भी है। साथ ही बिहार की गौरवशाली कला-परम्परा का यह अमूल्य धरोहर है। इस शैली के चित्रों का संग्रह खुदाबख्श लाइब्रेरी, पटना एवं पटना म्यूजियम में सुरक्षित है।