सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

मेरे बचपन की यात्रा

 


       बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान शिक्षक द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच रॉकेट की गति से गिड़ते-पड़ते सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित (Undeclared) प्रतियोगिता होती थी। 

     जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कॉपी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले तो मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ "अजीमो शाह शहंशाह" बना क्लास में घूम-घूम कर कॉपीया बाँटता और बाकी के बच्चे मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह अपनी बेंच से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते। शिक्षक की उपस्थिति में क्लास के भीतर चहल-कदमी की अनुमति आज के समय की कामयाबी की तरफ पहला कदम माना जाता था। 

       हम कभी-कभी सोचते हैं की उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे 

  • कला वाले सर ने हमारी ड्रॉइंग पर GOOD लिख दिया।
  • सर ने क्लास में सभी बच्चों के बीच अगर हमें हमारे नाम से पुकार लिया.....
  • गलती से किसी प्रश्न का उत्तर सबसे पहले दे दिए। 

        यदि कभी सर अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर भूल जाते और हमे लाने की बोल दिये तो फीलिंग ऐसे आती थी कि कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन हो गया हो और कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज प्रधानमंत्री के पास ले जा रहे हो

      आज भी याद है जब बहुत छोटे थे तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारे शिक्षक दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। पता नही क्यों??? किसी भी सार्वजनिक जगह पर सर को देख उन से वार्तालाप करने की हिम्मत नहीं होती थी।

        हम कैसे भूल सकते है, अपने उन गणित के सर को जिनके खौफ से 07, 13, 17 और 19 का पहाड़ा याद कर पाए थे और a+b का होल स्क्वायर जिन्हें याद ना करने पर कई दफा क्लास से बाहर खड़ा होना पड़ा था।

       कैसे भूल सकते है उन हिंदी के शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नही ज्वर पीड़ित होने के साथ विनम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश मिल सकता था। बारिश होती है होता नहीं है और ना जाने और कई सारे हिन्दी शब्द जिनका उच्चारण एवं लेखन वो सही कराते थे, जिसके बदौलत मैं आज कुछ लिख पाता हूं।

     वो शिक्षक तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने आपकी क्लास को स्कूल की सबसे शैतान क्लास की उपाधि से नवाज़ा था।😎

        उन शिक्षक को तो कतई नही भुलाया जा सकता हैं जो होमवर्क की कॉपी घर पर भूलने पर ये कहकर कि  ...“कभी खाना खाना भूलते हो?” ... बेइज़्ज़त करने वाले इस तकिया कलाम  से हमें शर्मिंदा करते थे।

       शिक्षक के महज़ इतना कहते ही कि  "एक कोरा पेज़ देना" पूरी कक्षा में फड़फड़ाते 50 पन्ने फट जाते थे। 

       शिक्षक के टेबल के पास खड़े रहकर अपनी कॉपी चेक कराने के बदले यदि सौ दफा सूली पर लटकना पड़े तो वो ज्यादा आसान लगता था। 

      क्लास में शिक्षक के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़कों के हाव-भाव ऐसे होते थे कि उत्तर तो उनके ज़ुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ में नहीं आ रहा। ये ड्रामेबाज छात्र🙄 उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते-झेलते आखिर शिक्षक के सब्र का बांध टूट जाता। तब शिक्षक आजिज़ होकर कहते:- you, yes you!!! Get out from my class😠

      सुबह की प्रार्थना-सत्र🙏 में जब हम दौड़ते-भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान प्रार्थना में कम और आज सौभाग्य से कौन-कौन से शिक्षक अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा रहता था। 

       आपको वो शिक्षक तो जरूर याद है न, जिन्होंने ज्यादा बात करने वाले दोस्तों की जगह बदल उनकी दोस्ती कमजोर करने की साजिश की थी। 

      मैं आज भी दावा के साथ यह कह सकता हूँ कि एक या दो शिक्षक शर्तिया ऐसे होते है जिनके सिर के पीछे की तरफ़ अदृश्य नेत्र👀 का वरदान मिलता है, ये शिक्षक ब्लैक बोर्ड पर लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे। 

       अभी तक तो आपको वो शिक्षक जरूर याद आ गए होंगे जो चॉक का उपयोग लिखने में कम और बात करते बच्चों पर भाला फेंक शैली में मारने में ज्यादा लाते।

     हर क्लास में एक ना एक ऐसा बच्चा जरूर होता था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी और वो प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते और सादगी से कहते- मैम आई हैव आ डाउट  इन क्वैशच्यन नम्बर 11. हमें डेफिनेशन के साथ उदाहरण भी देना है क्या? उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख मेरा खून खौलने लगता😡।

      परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे, कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते  शिक्षक साक्षात सुनामी🌊 लगते थे। 

      ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई  'विद्या कसम' के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य हुआ करता था। 

     मेरे लिए आज तक यह रहस्य अनसुलझा ही है शायद आपके लिए भी हो कि खेल के पीरियड का 40 मिनिट छोटा और इतिहास का पीरियड वही 40 मिनिट लम्बा कैसे हो जाता था🤔 ??

        क्लास रूम में मेरी पसंदीदा सबसे आगे की सीट हुआ करती थी। जानते हैं कि सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चॉक खत्म हुई तो मैम/सर के इतना कहते ही कि "कोई भी जाओ  बाजू वाली क्लास से चॉक ले आना" सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में "मे आई कम इन मैंम/सर" कह सिंघम वाली स्टाइल में एंट्री करते।

        "सरप्राइज़ चेकिंग" पर, हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी। सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कॉपी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कॉपियों के ऊँचे ढेर में अपनी कॉपी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान🌊 को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी लेकिन तूफान अभी आये या कुछ देर बाद नुकसान उतना ही करता है जितना उसे करना होता है।

          सबसे अधिक दर्द तो वे निर्दयी शिक्षक देते थे जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे। चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते हैं जो मैम के क्लास में प्रवेश करते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे "मैम कल आपने होमवर्क दिया था।" जी में आता था इस आइंस्टीन की औलाद को डंडों से धुन के धर दे लेकिन कभी कर ना पाएं।

       इन सभी तमाम शरारतों के बावजूद भी ये बात सौ आने सही हैं कि बरसों बाद उन शिक्षक के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक मिल जाएं तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे तो कतई नहीं। आज भी जब मैं अपने उत्क्रमित कन्या प्राथमिक विद्यालय, कोइरी-गाँवा की बिल्डिंग के सामने से गुजरता  हूँ तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न मेरे दोस्त हैं न हमको पढ़ाने वाले वो शिक्षक। बच्चों को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नहीं दिखते जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते थे “गेटवां बंद मत करs ऐ भैया हम आवते बानी।” और हम दौड़ते हुए गेट के पास जाते। अब तो वो बूढ़े से बाबा भी नहीं हैं जो मैदम से हस्ताक्षर लेने जब जब लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में प्रवेश करते तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती की “कल छुट्टी है।” 

        अब उस विद्यालय के सामने से निकलने पर एक टीस सी उठती है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छिन गयी हो। आज भी जब उस इमारत के सामने से निकलता हूँ तो पुरानी यादों में खो जाता हूं।😣

        स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाइत्वों को निभाते, दूसरे शहरों में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है। जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है। जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया। 

उन सभी मेरे आदर्श शिक्षकों को मेरा प्रणाम🙏.


1 टिप्पणी:

  1. "बचपन की यादों से जो छू लिया है हम सबका मन
    इस अविस्मरणीय कार्य के लिए ए मित्र आपको है नमन🙏।"

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