सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं :-
1. परम्परामूलक दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त है- विश्व की प्रयोजनपरक व्याख्या। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु पूर्व निर्धारित नमूने के आधार पर घटती है जिसका धक्का मानव सहित सम्पूर्ण विश्व को गतिशील बनाये रखता है। यह समाज विज्ञान की सीमा से बाहर है।
2. परिवर्तन स्वयं में विश्व की प्रकृति में अन्तर्निहित है जिसके कारण सामाजिक परिवर्तन तार्किक तथा चक्राकार क्रम से घटता है। इस प्रकार के परिवर्तन की भविष्यवाणी करना सम्भव है।
चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक सोरोकिन, पैरेटो एवं टायनबी माने जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार व्यक्ति का जन्म, वृद्धि एवं मृत्यु की प्रक्रियाएँ होती हैं। उसी प्रकार संस्कृतियों का चक्र भी चलता है।
सोरोकिन के अनुसार,
परिवर्तन सांस्कृतिक दशाओं के बीच उतार-चढ़ाव है। वस्तुतः परिवर्तन उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में दो सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था ही विशेष रूप से होती है। सोरोकिन के अनुसार, समाज या संस्कृति एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था के तीन सम्भावित स्वरूप होते हैं-
(१) चेतनात्मक संस्कृति (Sensate Culture)
(२) भावनात्मक संस्कृति (Ideational Culture)
(3) आदर्शात्मक संस्कृति (Idealistic Culture)।
3. आदर्शात्मक संस्कृति चेतनात्मक तथा भावनात्मक संस्कृतियों की मिली-जुली व्यवस्था है। इसमें धर्म और विज्ञान दोनों का अपूर्व सन्तुलन होता है। चेतनात्मक संस्कृति भावनात्मक संस्कृति की ओर गतिशील होती है और फिर भावनात्मक संस्कृति की चरम सीमा पर पहुँचकर फिर चेतनात्मक संस्कृति की ओर लौट जाती है। चढ़ाव-उतार की यह प्रक्रिया चलती रहती है। सोरोकिन ने सीमाओं के इस सिद्धान्त द्वारा चक्रीय परिवर्तन को समझाया है। टॉयनबी ने सभ्यताओं के विकास, स्थिरता तथा पतन के रूप में चक्रीय परिवर्तन को समझाया है।
4. सामाजिक परिवर्तन मात्र एक व्यापक घटक से वर्णनीय है। आध्यात्मिक विश्वास सामाजिक प्रक्रिया को अध्यात्मवाद की ओर निर्देशित कर सकता है, उसी तरह अन्तिम सत्य मानकर पदार्थ में विश्वास करना जीवन की गति को मार्क्सवाद के पक्ष में परिवर्तित कर सकता है। सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र के लिए मात्र आर्थिक घटकों या राजनीतिक घटकों को उत्तरदायी बनाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या के लिए संकीर्ण एवं स्थूल है।
5. एक साथ मिले हुए अनेक घटकों का परिणाम तथा विविध समन्वयों में एक-दूसरे को प्रभावित करता हुआ सामाजिक परिवर्तन एक जटिल क्रिया है। एक प्रकार से यह स्वयं संस्कृति का पर्यायवाची है जो किसी एकमात्र घटक के कार्य की अपेक्षा अनेक शक्तियों की सापेक्षिक व्यवस्था है।
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