बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

महाभारत के युद्ध के बाद।

             महाभारत के युद्ध के बाद का प्रथम दीपावली पर्व आने वाला था। महारानी द्रौपदी अपने कक्ष मे बैठी थीं। उसने अपनी गोद मे बालक परीक्षित को बिठा रखा था। उसी कक्ष मे सुभद्रा व उत्तरा भी बैठी हुई थी। उन तीनों के मध्य कुछ घरेलू बातें हो रही थीं। बाल परीक्षित रह-रहकर अपनी मुट्ठी मे द्रौपदी के सिर के बालों को पकड़ ले रहा था। उसके हाथों से बालों को छुड़ाने मे एक बार तो द्रौपदी की आंखों से आंसू निकल पड़े।

        उत्तरा ने उठकर परीक्षित को अपनी गोद मे लेते हुए बोली- दादी के बाल पकड़कर खींचना अच्छी बात नहीं, देखो दादी रोने लगी। यह दादा से तुम्हारी शिकायत करेंगी!!! ऐसा कह परीक्षित की बलैया लेते हुए उसने हंसते हुए द्रौपदी की तरफ देखा, उस समय द्रौपदी ने आंखें बन्द कर रखी थीं। उसके चेहरे पर असीम वेदना के भाव दृष्टिगत हो रहे थे। आंखों से आंसूओं के निर्झर झर रहे थे। सुभद्रा ने उठकर द्रौपदी के सिर को अपने हाथों मे भर पूछा क्या हुआ दीदी?

    कुछ नहीं, एक संक्षिप्त उत्तर देते हुए उसने स्वंय के बहते आंसुओं को पोछने लगी। उत्तरा ने हल्की सी प्यार भरी चपत परीक्षित को लगाते हुए बोली बहुत शैतान हो गया है यह, ऐसे ही मेरे बालों को भी मुट्ठी मे पकड़ खींच देता है। बहुत तेज़ दर्द होता है। ऐसा सुन द्रौपदी ने झपटकर परीक्षित को गोद मे ले लिया और बोली- नहीं बेटी, इसके ऐसा करने से लगा की जैसे कोई मेरे घाव पर मरहम लगा रहा हो, और मारे खुशी के मैं रो पड़ी।

      उसी समय कक्ष के बाहर खड़ी दासी ने आवाज लगायी कि महारानी महल की प्रधान व्यवस्थापिका आपसे मिलने की आज्ञा चाहती है। आज्ञा है। ऐसा द्रौपदी ने कहा। अब द्रौपदी और सुभद्रा अपने आसन पर बैठ गयीं, उनकी आज्ञा लेकर उत्तरा परीक्षित को लेकर अपने कक्ष में चली गयीं। प्रधान व्यवस्थापिका ने कक्ष मे आकर बारी बारी से द्रौपदी और सुभद्रा को प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। द्रौपदी ने पूछा- कहो, क्या कहना चाहती हो? 

      उसने कहा- हे महारानी राजमहल के प्रत्येक कक्ष और दरबार की साफ-सफाई और रंग-रोगन का कार्य हो गया है। केवल द्यूतक्रीड़ा गृह का नहीं हुआ है। 

क्यों, क्या समस्या है? क्या वहाँ की ताली (Key) तुम्हारे पास नहीं है? 

ऐसा नहीं है महारानी। उसकी ताली मेरे ही पास है, परन्तु उस कक्ष को खोलने की आज्ञा नहीं है मुझे। 

किसने रोक रखा है? 

महारानी, ऐसी आज्ञा महारानी गांधारी की थीं। उनके ही आज्ञा से उस कक्ष को खुले चौदह साल होने जा रहे हैं।

        चौदह साल यानी कि.......!! द्रौपदी बोलते-बोलते रह गयी और चुप हो व्यवस्थापिका की तरफ देखने लगी! 

उसने सिर झुका लिया और बोली- हां महारानी जैसा आप सोच रही हैं वैसा ही है। आप सभी के वनगमन की शाम को ही महारानी गांधारी ने उस द्यूतक्रीड़ा गृह को ताला बंद करवाकर उसकी ताली मुझे सौंप दिया। साथ ही आदेश दिया कि बिना मेरे आदेश के इसे ना खोला जाये। आज से यह किसी भी पुरुष के प्रवेश के लिए निषिद्ध रहेगा। हे महारानी, उस दिन से आज तक वह कक्ष कभी नहीं खुला।

       द्रौपदी और सुभद्रा नि:शब्द उसे सुनती रहीं। अपनी बातों को कह उसने पूछा महारानी क्या आज्ञा है उस कक्ष को खोल सफाई करवा दूं? 

नहीं उस कक्ष की ताली मुझे देदो और चली जाओ।

        उसी दिन शाम को सुभद्रा को साथ लिए द्रौपदी द्यूतक्रीड़ा गृह पहुंची, कोई दासी साथ नहीं। कक्ष का दरवाजा सुभद्रा ने खोला। सब कुछ वैसा ही था जैसा कि उस दिन था। अन्तर यही था कि उस दिन इस कक्ष का एक भी आसन खाली नहीं था आज सारे के सारे खाली पड़े हैं।

      द्रौपदी ने कहा- हे सुभद्रा, मैं जब भी पुत्रवधू उत्तरा को श्वेत वस्त्रों मे देखती हूँ तो मेरा कलेजा फट जाता है। मुझे अपने और तेरे प्रसवपीड़ा के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। मेरी कल्पना मे मेरे पिता का वह भरा-भरा दरबार जिसमें मेरे महाप्रतापी पिता और महाबीर भाई दिखने लगते हैं। परन्तु हे सुभद्रा, मुझे अभी भी वह दिन नहीं भूलता।

      मेरे खुले केशों को पकड़ घसीटते हुए जब दु:साशन इस सभा मे लाया था तब कुरु राजपरिवार का कौन नहीं था इस कक्ष मे? सभी तो थे। वह भी थे जो इस महाभारत मे मारे गये वह भी थे जो आज जिंदा हैं। उस ऊंचे सिंहासन पर महाराज धृतराष्ट्र, इस आसन पर पितामह, यहाँ आचार्य श्रेष्ठ, यहाँ कुलगुरु, यहाँ काका श्री विदुर जी। अस्त्र-शस्त्र व आभूषण आभासी मेरे पांचो पति यहाँ बैठे थे, सिर झुकाये। आतताईयों का समूह यहाँ बैठा था निर्लज्जता के साथ। काका व विकर्ण को छोड़ किसी ने भी प्रतिकार नहीं किया इन पापियों का। लगातार बोले जा रही थी द्रौपदी ऐसा लग रहा था जैसे विक्षिप्त हो गयी हो।

      क्या करे वह समझ नहीं पा रही थी। तभी उसे टूटा हुआ एक काला लम्बा केश दिखा। उसे उठा उसने द्रौपदी से दिखाते हुए पूछा दीदी यह तेरा केश है क्या? कितना काला और लम्बा है। उस समय द्रौपदी एक दर्पण के पास खड़ी थी। उसने उस केश को हाथों मे लेकर कहा- हां री यह मेरा ही है। परन्तु देख ना अब यह कैसे श्वेत हो गये हैं अब। जुए की एक बाजी ने क्या से क्या दिन दिखा दिया हमे। उसकी आंखों से अश्रुधार का निर्झर बह रहा था।

         आंखों के आंसू पोछ दासी को आवाज लगाकर बोली- साफ करवाकर इस कक्ष को खुला छोड़ दो आमजन के लिए!! लोग देखें इसे और विचार करें कि जुए की एक ही बाजी क्या से क्या कर देती है कुल के कुल खत्म हो जाते हैं।

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