भोजपुरी की एक पुरानी किताब "ननदी-भौजइया" लेखक:- डॉ. शंकर मुनि राय।
भोजपुरी लोकभाषा में बोलना-बतियाना यानी की Communication करना और इस संस्कृति में जीना आज के लोगो के लिए जैसे पिछड़ा होने जैसा है। परन्तु हर भाषा, बोली, रीति-रिवाज एवं उस समय की अपनी कुछ खासियत होती है। आज से कुछ वर्ष पहले जब सुदूर गाँवो में लिखने-पढ़ने के लिए आज जैसी सुविधाएं नहीं थीं, तब मौखिक परंपरा में कथा-कहानी और लोकगीत-गाथा जिसे हम लोक-गाथा भी कहते हैं। आदि ही हमारी शिक्षा के प्रमुख साधन हुआ करते थे। आज के इस लेख में हम ऐसी ही एक लोक गाथा शैली की किताब "ननदी-भौजइया" का जिक्र करेंगें। यह लेख आपको कैसा लगा comment करके जरूर बताइएगा।
ननदी-भौजइया एक छोटी-सी पुस्तिका है। बचपन में सुने एवं देखे थे की गांव की चाची, भउजी, दिदिया, बुआ, सभी लोग इस गीत को गुनगुनाती थीं। महा शिवरात्री के दिन जब हरदिया के शिव मंदिर में मेला लगता था तब गांव के छोटे बच्चे से लेकर बड़े बुजुर्ग तक सभी इस मेले में जाते थे। तब गांव की महिलाएं उनसे यह किताब मंगवाती थीं। एक किताब गांव में आता था और गांव भर की युवतियां इसे रट (कंठस्थ कर) लेती थीं। उन्हें पढ़ना भले ही न आये लेकिन कंठस्थ करने में वे सभी माहिर थीं। लोकभाषा के स्वर में पूरे भोजपुरी इलाके में इसे बड़े प्रेम से महिलाओं के द्वारा गाया जाता था।
2019-20 में बिहार की लोक कला "भोजपुरी चित्रकला के विशेष संदर्भ में" प्रस्तावित शोध प्रारूप तैयार करने के दरम्यान बनारस में बहुत खोजने के बाद यह पुस्तक प्राप्त हुईं।
इसके प्रकाशक का नाम है- ठाकुर प्रसाद एन्ड संस, बुकसेलर, राजादरवाजा, वाराणसी। कीमत- एक रूपया पचास पैसा। कुल १५ पेज की इस पुस्तक के मुद्रक है- बॉम्बे मुद्रण प्रेस, नाटी इमली, वाराणसी।
लोकगाथा शैली की इस किताब के रचनाकार का नाम-पता गीत-पंक्ति में ही दिया हुआ है, जो इस प्रकार है-
रामप्यारे राम सइयां मरडा के ग्राम बसे।
करबो में आपन उपाय रे भउजिया।।
पोस्ट तो ओजीगंज जिला है हमार गया।
अपने से जइबो असरार रे भउजिया।।
लोकगाथा शैली की इस पुस्तक में बड़ी ही श्रृंगारिक कथा गाई गई है। परन्तु अपनी-अपनी समझ के अनुसार इसके कई भाव हैं। मेरे विचार से यह निर्गुण शैली की कथा हो सकती है। यह संसार एक ससुराल की तरह है। जीवात्मा को यहाँ रहने का तरीका मालूम हो जाय तो यह ससुराल बहुत ही आनंदी है वरना दुःख से भरा हुआ है। जो दुल्हन ससुराल का दायित्व जान जाती है उसे ससुराल में ही मजा आने लगता है और वह अपने नइहर को भूल जाती है। इस गाथा में परोक्ष रूप (indirectly) से पारिवारिक जीवन की शिक्षा भी दी जा रही है। जब गांव में शिक्षा की उतनी व्यवस्था नहीं थीं तब लड़कियों को इस गीत के माध्यम से ही ससुराल की रीती समझा दी जाती थीं ताकि वहां उन्हें किसी प्रकार की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़े।
इस लोकगाथा की कथा का सार इस प्रकार है-
गांव की किसी कन्या की शादी कम उम्र में ही हो जाती है। बढ़ती उम्र के कारण उसे जीवन साथी की आवश्यकता महसूस होने लगती है तब वह अपने मन की बात अपनी भउजाई से कहती है। वह बताती है कि भइया से कहकर मेरे गवना का दिन तय करा दे क्योंकि अब उम्र की मांग के अनुसार लगता है कि कुछ ऊंच-नीच न हो जाय। वह प्रतीकात्मक ढंग से कहती है कि मेरी जवानी चुराने के लिए कई युवा चोर नजर गड़ाए हुए है।
यहाँ एक पंक्ति है आप भी देखे-
सइयां नहीं अइले भोजन तैयार भइले।
छैला सब दीहें जुठियाई रे भउजिया।।
निजुठ लिखल नाही सइयां के करमावां में।
जूठे फल करिहें फलहार रे भउजिया।।
अपनी ननद की रस भरी बातें सुनकर भौजाई उसे समझाते हुए कहती है कि इतनी कम उम्र में ही तुम क्यों बेचैन हो गई? मेरी शादी जब हुई थीं, तब तुमसे भी ज्यादा जवान थीं मैं। शादी के छह साल बाद गवना हुआ था मेरा तब भी मैं संयम में थीं। तुम्हारे इस व्यवहार से गांव-नगर में हमारी प्रतिष्ठा गिरेगी। वह यह भी बताती है कि ससुराल के बारे में तुम नहीं जानती हो। वहाँ रहना बहुत आसान नहीं है। सास-ससुर, ननद, देवर आदि के साथ बहुत सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। इसलिए अभी कुछ दिन नइहर में ही रह कर कुछ लोक-व्यवहार सीख लो।
इसी बिच एक दिन ससुराल से गवना का दिन लेकर नाऊ (Barber) आता है और बताता है कि अगहन माह के शुक्ल पक्ष पंचमी को गवना का दिन बन रहा है। पत्र पढ़ कर भाई-भौजाई, बहन, माँ-बाप सभी दुखी हो जाते है। सभी कल्पना करते है कि बेटी विदा होने से घर सुना हो जायेगा।
खैर, गवना के दिन पूरा परिवार रोते-विलखते जब उसे विदा करता है तब बहुत ही करुण दृश्य उत्पन्न होता है।
भउजी सुसुकि रोवे माई पक्का फारि रोवे।
बबुनी न छोड़े मोरा अंचरा गवनवाँ।।
माई मोरा कबहु न सुधि बिसरइहें से।
बबुआ के पीछे से पेठाईहे रे गवनवाँ।।
कवि कहते है कि विलखती हुई दुल्हन सोचती है कि जिस तरह मुझे रुलाया जा रहा है वैसे ही मैं भी अपने दूल्हे को रुलाऊँगी। पर बात पलट जाती है. दुल्हन को ससुराली जिम्मेदारी का बोध नहीं है। वह अब तक अपने बाबा की दुलारी थीं, माँ की प्यारी थीं. यहाँ घऱेलू काम करने की मांग है, जिसमे वह असफल हो जाती है। तब उसे अपने नइहर की याद आने लगती है। एक दिन अपने देवर से विनती करती है कि वह किसी तरह उसे नइहर पहुँचाने का उपाय करे। तब देवर समझाता है कि आपको ससुराली काम का बोध नहीं है इसलिए यहाँ बुरा लग रहा है। जिस दिन यहाँ का काम करने आ जायेगा। उस दिन आप अपने मायके को भूल जाओगी।
नइहर के सुख भूली माई बाप सब भूली।
छुटि जइहन संग के सहेली दुल्हिनियां।।
नइहर नगर जइबू उहाँ न रहल जाइ।
जब काबू भइया के सुरति दुलहिनिया लाल।।
सारांश यह हैं कि यह दुनिया बहुत सूंदर हैं. पर इसके लिए यहाँ जीने कि कला आना बहुत जरुरी हैं। वरना, संसार त्यागने में ही भला हैं क्योंकि अनजान के लिए यह संसार अछरंग लगाने में माहिर है।
एक लाइन देखिए-
कुहुँकि-कुहुँकि कर कब ले सहूँ मैं दुःख।
रात-दिन हमके रोवावे नइहरवा।।
यमराज सिरवा पर जेकरे टिकल बाटे।
मोरा ब्याह ओहि से करावे नइहरवा।।
आउर दोहाई देहुँ राजा परमेसर के।
बड़ा दुःख अबला दिखावे नइहरवा।।
कुम्भी पाक नरक से बेहतर जो होवे वही।
वसुधा में जगह ई पावे नइहरवा।।
मेरे विचार से इस किताब को स्त्री शिक्षा के पाठ्य-क्रम में शामिल करना चाहिए। लोकभाषा में अध्यन-अध्यापन की शैली में यह किताब बहुत ही रुचिकर साबित हो सकती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें