कला के अभ्युत्थान में 'दिल्ली शिल्पी चक्र' का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 25 मार्च 1949 ई. को प्रगतिशील प्रवृत्ति के कतिपय कलाकारों के एक ग्रुप ने इस आर्ट सर्कल की स्थापना की जो नई अभिजात संस्कृति के संस्कारों और आधुनिक कला-प्रणालियों की प्रतिक्रिया स्वरूप मौजूदा समय और वातावरण के साथ कदम से कदम मिलाते हुए एक नए 'एडवेंचर' के शौक़ को लेकर आगे बढ़ा कलाकार का दायरा उसकी अपनी सीमाओं में बंधा है, पर इसमें संदेह नहीं कि एकोन्मुख से बहुन्मुख प्रसार किसी भी विकासमान कला की कसौटी है। युग और परिवेश का जो अनिवार्य प्रभूत प्रभाव सृजनात्मक विधाओं पर पड़ता है उसे नए उभरते मूल्यों के साथ समेटते हुए इस रूप में दर्शाना चाहिए जो अपने देश की मिट्टी की उपज हो। विभिन्न विश्वजनीन मूल्य कला को झकझोर रहे हैं और इन भिन्न-भिन्न तत्वों के भीतर से फूटती मूल चेतना ही आरंभ प्रसार की चेतना है। प्रतिभावान कलाकार उन मूल्यों और से कसौटियों को निजी माध्यमों से सामने लाते हैं। किसी भी अंधानुकृति द्वारा नहीं वरन अपने देश की प्रगति और परंपरा के अनुरूप उनकी कला युग मन का मुकुर है अर्थात् समस्त सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की जीवंत चित्र।
प्राचीन कलादशों के पक्षपातियों में जो एक प्रकार की सामंतवादी जड़ता और रूढ़िवादिता घर कर बैठी थी उक्त 'शिल्पी चक्र' ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। नव्य जीवन मूल्यों का स्वर मुखर करने वाले इन अभिनव अन्वेषियों ने कला के क्षेत्र में एक नवीन दृष्टि, नवीन सौंदर्यबोध और नवीन भंगिमा को प्रश्रय दिया। नव निर्माण के यात्रापथ पर समृद्ध शिल्प वैभव की थाती लिए उन्होंने नए-नए प्रयोग किए, उनकी भीतरी छटपटाहट न जाने कितने प्रभावों को आत्मसात करती हुई नए-नए मानों में मुखर हुई नवीन विचार दृष्टि की ईप्सा में सस्ती भावुकता, कल्पनाभास या अंधाधुंधी उनमें नहीं है, न हीं वे अनुकृत भावुकता की बहक में विचलित हुए हैं, बल्कि प्राचीन अर्वाचीन में साम्य स्थापित कर वे सदा स्वस्थ मौलिक मनोवृत्ति के कायल रहे हैं।
"अत्याधुनिक की धकापेल में आज जबकि सही रास्ता खोज पाना दुश्वार है अनेक परिपक्व बुद्धि के कलाकार अपनी मुख्तलिफ अदाओं के साथ प्रतियोगिता के खुले मैदान में आ गए हैं। इतस्ततः जो बिखरा है- कोमल-पुरुष, सुंदर-असुंदर सबको अपने अखंड प्रवाह में समेट कर वे तरह-तरह से सृजन में लगे हैं। किसी दकियानूसी रूढ़ियों के कारागार में कला अब बंदी नहीं, बल्कि वैयक्तिक चेतना को मुक्त कर जड़ पाषाणों को लॉधती अपनी भावनाओं के मुक्त निर्झर को बहिर्गत करने के लिए मचल रही है। अपने इस अभियान में वह कहां तक सफल हुई है उसे तो आने वाला समय ही बता सकता है।
हालांकि अधिकांश कलाकार, जो विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आ गए थे, दिल्ली की 'आल इंडिया फाईन आर्ट्स एंड क्राफ्टस सोसाइटी' (1928 ई . में स्थापित ) के सदस्य बन गए थे, लेकिन वे इसकी कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं थे। इसका कारण संक्षेप में यह था कि आईफैक्स की गतिविधियों की योजना तथा नियंत्रण उसके गैर व्यावसायिक सदस्यों के हाथों में था और सदस्यों की कला के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। कुछ कलाकारों बी.सी. सान्याल, कंवल कृष्ण, के.एस. कुलकर्णी, धनराज भगत, प्राणनाथ मागो, इत्यादि ने मिलकर आईफैक्स के स्थाई सदस्यों के साथ समस्या का समाधान खोजने के लिए एक असफल बार्ता की। फलस्वरूप कंवल कृष्ण तथा के. एस. कुलकर्णी, तथा मागो जो आइफैक्स की साधारण सभा (1948 49 ई.) के सदस्य थे, उन्होंने त्यागपत्र देकर धनराज भगत व बी.सी. सान्याल के साथ मिलकर 'शिल्पी चक्र' की स्थापना की। इसमें हरकृष्ण लाल, के.सी. आर्यन, दमयंती चावला, दिनकर कौशिक, जया अप्पासामी, एस. एल. परासर, श्रीनिवास पंडित तथा ब्रजमोहन भनोट भी सम्मिलित हुए। यह ग्रुप निरंतर उन्नति करता चला गया तथा अनेक सहसदस्य व छात्र सदस्य भी जुड़ने लगे, जिनमें देवयानी कृष्ण, सतीश गुजराल, रामकुमार, रामेश्वर लूटा, अविनाश चंद्र, केवल सोनी, विशंभर खन्ना, राजेश मेहरा, जगमोहन चोपड़ा, परमजीत सिंह, अनुपम सूद बाद में बहुत ही प्रतिष्ठित कलाकार के रूप में जाने गए। अपने आदर्श वाक्य 'कला जीवन को प्रदीप्त करती है' की व्याख्या करते हुए शिल्पी चक्र के घोषणापत्र में कहा गया था- "इस ग्रुप का मानना है कि एक गतिविधि के रूप में कला का जीवन से संबंध टूटना नहीं चाहिए, किसी भी राष्ट्र की कला को अपने लोगों की आत्मा को अभिव्यक्त करना चाहिए उसे प्रगति की प्रक्रिया में सहायक होना चाहिए।" शिल्पी चक्र के अधिकांश कलाकार विभाजन की त्रासदी को झेल चुके थे। शिल्पी चक्र की वार्षिक प्रदर्शनी में सदैव एक गैर सदस्य कलाकार भी आमंत्रित होता था, जिनमें शैलोज मुखर्जी तथा के. जी. सुब्रमण्यन उल्लेखनीय हैं। प्रारंभ में दिल्ली शिल्पी चक्र की बैठकें जंतर-मंतर में खुले में होती थी, बाद में जंतर-मंतर रोड पर फिर 26 गोल मार्केट सान्याल के स्टूडियों में होने लगी। 1957 ई. में इस संगठन को स्थाई कार्यालय शंकर मार्केट का फ्लैट 19 एफ आवंटित हुआ। इस स्थान पर वार्षिक प्रदर्शनियां व संगोष्ठियां होने लगीं। यहां से चित्र विक्रय किए जाने लगे। शिल्पी चक्र 1960 ई. तक अधिक सक्रिय रहा तथा इसके पश्चात शिथिल होता गया। वस्तुतः शिल्पी चक्र ने भारतीय समकालीन कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसका ऐतिहासिक महत्व है।
जीवन के नवीन मूल्यों को सुदृढ़ करने वाले इन अभिनव कलाकारों ने कला क्षेत्र में एक गंभीर और पारखी चित्रकार के रूप में अनेक माध्यमों में विभिन्न दृष्टिकोणों के सामंजस्य द्वारा कला प्रणालियों को विकासमान दिशा की ओर अग्रसर किया के. एस. कुलकर्णी ने ऐसे अछूते प्रयोग किए जो पूर्व व पश्चिम की नवीन प्रणालियों के प्रतिनिधि हैं अभिव्यंजनावाद तथा प्रभाववाद के साथ लोक-कला का भी उन पर प्रभाव रहा। कंवल कृष्ण ने अपनी कला तकनीक को एक नवीन वैचारिकता प्रदान की धनराज भगत ने मूर्तिकला की परंपरा में परिवर्तन का सूत्रपात किया। जया अप्पासामी की विशाल भू-अंचल और उसमें फैली पर्वत श्रृंखला, रामकुमार के अमुर्त दृश्य चित्र, कृष्ण खन्ना के बैंडबाजा विषयक चित्र, रामेश्वर बूटा के आदिम रूप, सतीश गुजराल के भित्ति-चित्र भारतीय समकालीन कला के विकास में महती भूमिका निभाते हैं।
राकेश गोस्वामी✍️
(कला इतिहासकार एवं समीक्षक)
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