सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

बंगाल की लोककला, पटुआ-चित्र व कालीघाट शैली (1800-1930) का सम्पूर्ण विश्लेषण।

   

     बंगाल के पटुआ-चित्रों का सम्बन्ध रोजमर्रा की जिंदगी से रहा है। इसे पटुआ कला के नाम से भी जाना जाता है। पटुआ कला अंग्रेजों के आगमन तथा कोलकाता में बसने से पूर्व की है। बांकुरा गाँव पट-चित्रों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह कला सरल है तथा मानव द्वारा समझे गये प्रकृति के सारभूत तत्त्वों की अभिव्यक्ति है। इसमें प्रकृति की यथार्थ प्रतिकृिति नहीं है वरन् चारों ओर के वातावरण से मानव-मन में उठे संवेगों की सीधी अभिव्यक्ति है। 

      पटुआ कला के मूल स्रोत स्थानीय मिथक एवं विश्वास हैं जिनमें किसी भी पदार्थ, वस्तु या आकार की आवश्यक तात्विक विशेषताओं को लेकर रूप रचना की जाती है। सभी रूप एक काल्पनिक अन्तर्जगत् की वस्तु है जो एक रहस्य सूत्र से परस्पर सम्बन्धित है। इन रूपों का वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता हैं। ये चित्र टेम्परा माध्यम में गहरे व भड़कीले रंगों में बनाये जाते थे। रेखांकन मोटा व गतिशील होता था जिसके आस-पास गहरी छाया लगाई जाती थी। चित्र की पार्श्वभूमि को अलंकृत नहीं किया जाता था। चित्र फलक के रूप में कागज, कपड़े या कपड़े चिपके कागज तथा केनवास का प्रयोग किया जाता था। परम्परागत विधि में टाट पर गोबर व मिट्टी का छना हुआ गाढ़ा लेप लगाकर सुखा लिया जाता था एवं सूखने पर इसे घोट कर चिकना कर चित्रण करते थे तथा एक घिरी पर लपेट लिया जाता था। यह खर्रा पटवा कहलाता था और इनको बनाने वाले पटुआ कहलाते थे। इस कला को बंगाल की लोककला के रूप में भी जाना जाता है ।

       कोलकाता शहर बसने के पश्चात् कुछ पटुआ कलाकार कालीघाट में जाकर बस गये। पटना से मुगल शैली तथा मुर्शिदाबाद से कम्पनी शैली के इन कालाकारों के आने से पटुआ कला का रूप परिष्कृत होने लगा तथा यह शैली कालीघाट शैली के नाम से जानी जाने लगी। इस शैली का विकास कोलकाता में प्रसिद्ध काली मन्दिर से 1800 ई. से 1930 ई. तक जुड़ा रहा। उस समय बंगाल में काली की आराधना का महत्त्व अधिक था। भक्तगण धार्मिक भावना से प्रेरित होकर पट चित्रों को क्रय करते थे। फलस्वरूप इस चित्रण परम्परा को प्रोत्साहन मिला तथा पद्धति में भी परिवर्तन होने लगा। मूल भावना लुप्त होने के साथ यांत्रिक पुनरावृत्ति तथा व्यवसायिकता का समावेश होने लगा। राम, कृष्ण, महाभारत काली, शक्ति एवं देवी के विविध रूपों तथा अन्य धार्मिक आख्यानों के अतिरिक्त वेश्यावृत्ति, पान चबाते, मदिरापान, पति-पत्नी का मन-मुटाव, कामुक दृश्य, बंगाली युवतियों का श्रृंगार, मछली पकड़ने आदि दृश्यों के साथ हास्य तथा व्यंग्य विषयों का भी कालीघाट कलाकारों ने आकर्षक व चटकीले रंगों में चित्रिण किया।

          इस कला शैली को बाजार शैली के नाम से भी जाना गया क्योंकि इसमें विषयवस्तु मात्र धार्मिक ही नहीं थे अपितु ऐसे विषय चित्रित होने लगे थे जिनका बाजार में अधिक प्रचलन था ये चित्र टेम्परा माध्यम में मोटी व गतिशील रेखाओं से गहरे चटक रंगों में चित्रित किये जाते थे तथा शीघ्रता से छाया लगाकर पूर्ण किये जाते थे। पार्श्वभूम को किसी भी प्रकार के रूप में चित्रण की आवश्यकता न समझते हुए सपाट छोड़ा जाता था। 

        सस्ते चित्र उपलब्ध करवाने के कारण ये चित्र नितान्त साधारण बनाये जाते थे। चित्रों के सैट्स भी तैयार किये जाते थे जिन्हें 'फिरका' कहा जाता था। इस प्रकार के चित्र मिदानपुर, हुगली, बर्दवान, मुर्शिदाबाद तथा वीरभूमि क्षेत्रों में भी बने। इस शैली के कुछ चित्रकारों एन. सी. घोष, के.सी. घोष, नीलमणि दास, गोपाल दास, पाल तथा वैरागी के नाम उपलब्ध हैं। 

         1947 ई . में स्टयार्ड किपलिंग ने कालीघाट के कुछ चित्र "विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट म्यूजियम" लन्दन को भेंट किये जिनके आधार पर कला मर्मज्ञ अजीतघोष ने शोध लेख प्रकाशित किये। इसके पश्चात् कला विद्वानों का ध्यान कालीघाट शैली की ओर आकृष्ट हुआ। 1932 ई . में श्रीमती एस. सी. बेलनोस की पुस्तक "ट्वन्टी फोर प्लेट्स इलस्ट्रेटिव ऑफ हिन्दू एण्ड यूरोपियन मैनर्स इन बंगाल", मुकुल चन्द्र डे का लेख "ड्राइंग्स एण्ड पेन्टिग्स ऑफ कालीघाट", 1941 ई . में ए. के. मुखर्जी का शोध पत्र "कालीघाट फोक पेन्टर्स", 1971 ई . में डब्लू. जी. आर्चर की पुस्तक "कालीघाट पेन्टिग्स" आदि। प्रकाशित हुए। भारत की प्रसिद्ध कला पत्रिका "मार्ग" का भी एक अंक पूर्णतः कालीघाट चित्रों को ही समर्पित रहा।



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