3-4 दिनों तक घर पूरा भरा-भरा सा रहता है, बाहर के मेले से कहीं ज्यादा अच्छा घर मे लगा मेला लगता है। सब का साथ मे खाना, देर रात तक एक साथ बैठ के बतियाना। चूंकि बच्चे घर से बाहर रहते हैं इसलिए खाशकर के उनकी पसंद का खाना बनाना और फिर सुबह से लेकर दूसरे दिन के सुबह तक उसको ये कहकर खिलाना कि - "ताहरा ई निमन लागेला ऐहि से तनी जादे बना दनिया, तनी सा बा, खा लs।" एक अलग ही माहौल घर का बना रहता है और शायद यही सब हमारे यहाँ के पर्व-त्योहारों को खुद से जोड़ने पर मजबूर करती है।
दशहरा, दिवाली एवं छठ पूजा खत्म होने के दूसरे दिन से ही बच्चों के जाने के तैयारी होने लगती है। पूजा में उतना व्यस्त एवं थके होने के बाद भी माई का ध्यान लगा रहता है कि बेटा को क्या-क्या देना है? कहीं कोई चीज छूट ना जाए इसीलिए वो घर का काम जल्दी-जल्दी खत्म कर के जैसे ही समय मिले उसे जुटाने में लगी रहती है। कभी ये देहरी (अनाज रखने का पात्र) से पुरनका चावल निकाल रही होती है तो कभी ठंठी बढ़ जाने के चलते थोड़ा अच्छा दिखने वाला कम्बल, बिछावन एवं नवका बेडसीट जो कुछ दिन पहले ही फेरीवाले से खरीदी है निकाल रही होती है और बीच-बीच मे बेटे से आकर पूछती भी है - "आलू ले जइबs घरे के हवे पुरनका। अभी नयका तs महँगा न मिलत होई। तनी घरे वाला चना ले लिहs ऐहुँ लेखाs फुला के खईहs चाहे न तो मन करी तs सब्जी भी बना लिहs। अचार का चीज के ले जइबs कटहल वाला बढ़िया बनल बाs तनी सा दे तानी।" और न जाने क्या-क्या पूछती और रखती जाती। लड़का बेचारा बस हाँ ना में ही जवाब दे रहा होता है। क्योंकि उसे पता है कि यहां पर हम कुछ भी जवाब दे वह सभी चीजों को रखेंगे ही।
उधर पापा थोड़ा हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी करने के लिए गुस्सा भी दिखा रहे होते हैं। चाचा लोग तो पहले से ही आसपास के लोगों के तरक्की का किस्सा/कहानी सुना चुके थे कि "फलनवा के लईका के उ चीज में नौकरी हो गईल बा, बहुत मेहनती कइलस तब जाके भइल। अउरी ई विजय के बेटावां तs फोटोग्राफी में बड़ा नाम कमाता कालेहs पेपर_में फ़ोटो अउर नाम भी छपल रहे। का जानी हमार घर के कहियां नसीब होई।"
इन तमाम चीजों के बीच जो सबसे मुश्किल काम होता है वो माँ-बाप और बच्चे तीनों का खुद के भावनाओं को संभाल कर रखना। जहाँ लड़का चुप-चाप सबकी बातो को सुन कर घर परिवार से दूर जाने के गम को छुपाते हुए इस बार और मेहनत का वादा खुद से कर रहा होता है तो वहीं माँ अपने बेटे के दूर जाने की भावना को दबाये जल्दी-जल्दी सब कार्य कर के मन ही मन रो भी रही होती है और भगवान से प्रार्थना भी करते रहती है कि ये जो दूर भेजने का कष्ट वो कर रही है उसका फल अच्छा मिले और बेटा कुछ अच्छा कर के सबको जवाब दे। बाप बस में बेटे को चढ़ाने तक खुद को इन तमाम भावनाओं से दूर दिखाने की कोशिश में रहते है की जैसे उन्हें तो कोई फर्क ही नही पड़ रहा है। बस जल्दी करने का हल्ला किये जा रहे होते हैं, मन से इस उम्मीद के साथ कि बेटे को किसी चीज़ का दिक्कत नहीं होने दे रहे हैं तो बच्चा भी इसका परिणाम अच्छा ही देगा। जल्दी ही वह अपने पैरों पर खड़ा होगा और नाम पेपर में आये चाहे न आये पर बेटा आगे चलकर काम जरूर आयेगा। उसके बाद अच्छी जगह इसकी शादी करायेंगे। अब ये सिर्फ बेटों तक ही सीमित नहीं रहा बेटियां भी बाहर जाने लगीं है। भले डेरा की जगह हॉस्टल ने ले लिया हो।
हम अपने विद्यार्थी जीवन से आगे बढ़कर नौकरी करने लगे हो पर घर से आते समय आने वाला माँ का प्यार, बाप का विश्वास, और चाचा-बाबा के द्वारा अगल-बगल के लोगों के सफलता की कहानी आज भी वही है। अंतर बस इतना हुआ है कि आज हम भी इस कहानी के पात्र हो गए है जो कभी सुना करते थे। आज भी हम उन बच्चो की तरह भारी मन के साथ आगे कुछ और अच्छा करने के वादे और नई जिम्मेदारी के साथ घर से विदा हो रहे हैं।
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