हां, मैं पेंसिल ही बना रहा,
हां, मैं पेंसिल ही बना रहा,
तुम पेन बन इतराते रहे।
सारी मेहनत तो थी मेरी,
अंतिम में तुम बस आते रहे।
हां, मैं पेंसिल ही........
कितनी बार लिखे और मिटाए,
छिल-छिल कर पैना और पैना करते रहे।
लेकिन,
अंतिम पृष्ठ पर मैंने तेरे ही हस्ताक्षर पाये।
हां मैं पेंसिल ही......
हर मोड़ पर मैंने तेरी तारीफें सुनी,
अपना जिक्र कहीं ना पाया।
पेन बन तुम बढ़ते ही रहे,
पेंसिल बन हम मिटते ही रहे।
हां मैं पेंसिल ही बना रहा,
तुम पेन बन इतराते रहे।
विश्वजीत कुमार✍️
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