जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्याप्त नहि, लपटे रहत भुजंग।।
रहीमन निज मन की व्यथा, मन ही राखौ गोय।
सुनि अठिलैहें लोग सब, बाँटि न लैहे कोय ।।
रहीमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय।
जोड़े से फिर न जुरै, जुरै गाँठ परि जाय ।।
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पानि।
कही रहीम पर काज हित, संपत्ति सँचहिं सुजान।।
रहीम देखि बड़ेन को, लघु न दीजै डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तरवारि।।
रहीमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
यो रहीम सुख होत हैं, उपकारी के संग।
बाँटनवारे को लगे, ज्यों मेंहदी का रंग॥
कारज धीरे होत हैं, काहे होत अधीर।
समय पाइ तरुवर फले, केतक सींचो नीर।।
शब्दार्थ :
- निज - अपना
- गोय - गुप्त, छिपाकर
- बाँटि - बाँटना
- अठिलैहे - उपहास करना
- सरवर - तालाब
- परकाज - परोपकार
- तरुवर - वृक्ष
- सँचहि - इकट्ठा करना
- उत्तम - बहुत अच्छा
- कुसंग - खराब लोगों का साथ
- लघु - छोटा
- तरवारि - तलवार
- मुए - मृत
- परकाज - परोपकार
- प्रकृति - स्वभाव
- भुजंग - साँप
- बड़ेन - उच्च, महान
- माँगन - माँगना
- निकसत - निकलता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें