रविवार, 19 सितंबर 2021

उर्दू और फ़ारसी के अज़ीम शायर "मीर" जिन्हें शायरी का ख़ुदा भी कहते हैं।

 


सिरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो 

अभी टुक रोते-रोते सो गया है 

मीर✍️

            उर्दू और फ़ारसी के अज़ीम शायर जिन्हें ‘ख़ुदा-ए-सुख़न, (शायरी का ख़ुदा) कहा जाता है। मोहम्मद तक़ी उर्फ मीर तकी “मीर” का साल 1810 में 87 की उम्र में आज ही के दिन यानी 20 सितंबर को इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर गए थे। 

        दस साल की उम्र में इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद मीर आगरा से नौकरी खोजने दिल्ली चले आए और नवाब सम्सामुद्दौला के पास एक रुपया रोज़ की नौकरी की। दिल्ली में कुछ अच्छे शायरों की सोहबत में इन्होंने उर्दू की अदब और ज़ुबान पर पकड़ मज़बूत की। अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आंखों से देखा था जो उनकी ग़ज़लों में भी हमें देखने को मिलता है। अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था- 

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने 

दर्द -ओ-ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

         लड़ाइयों और मारकाट से शायराना दिल को चोट के बाद मीर ने अपनी ज़िंदगी में इतनी बुरी परिस्थितियां देखीं कि उनके दिमाग पर गुस्सा हावी रहने लगा, जिस वजह से कई बार वो लोगों से झगड़ा कर लेते थे। हालात यह थे कि कुछ लोग तो उन्हें बेदिमाग तक कहने लगे थे। मीर ने ख़ुद अपने लिए लिखा है- 

सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग है 

मजलिसों में नाम मेरा 'मीरे' बेदिमाग

         मीर तक़ी मीर ने जब लिखना शुरू किया तो बस लिखते रहे। तक़रीबन ढाई हज़ार ग़ज़लें और उनमें से निकले शेर लिखने वाले मीर के बाद अच्छे और बड़े शायरों की एक लम्बी फेहरिस्त है लेकिन इसके बावजूद 'मीर' की चमक फीकी नहीं पड़ती।

       उर्दू शायरी में जो मकाम मिर्ज़ा ग़ालिब का है उससे ऊंचा मकाम मीर का है। ख़ुद मिर्ज़ा ग़ालिब ने भी कहा है- 

“रेख़्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, 

कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।” 

उनकी बरसी पर खिराज-ए-अकीदत पेश है 

"अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे 

पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे”


लेख के अंत में मीर की कुछ शायरीयो पर गौर🤗 फरमाइए।

इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है

सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है

मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया


जम गया ख़ूँ कफ़-ए-क़ातिल पे तिरा 'मीर' ज़ि-बस
उन ने रो रो दिया कल हाथ को धोते-धोते


किन नींदों अब तू सोती है ऐ चश्म-ए-गिर्या-नाक
मिज़्गाँ तो खोल शहर को सैलाब ले गया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें