रविवार, 31 अक्टूबर 2021

खेल-रत्न पुरस्कार 2021 में नामित खिलाड़ी।

   11 Athletes Nominated for the Major Dhyanchand Khel Ratna and 35 for the Arjuna award for 2021. It's great to see athletes from non-mainstream sports in India getting the due credits and recognition.


      11 एथलीटों को मेजर ध्यानचंद खेल रत्न के लिए और 35 को 2021 के अर्जुन पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। भारत में गैर-मुख्यधारा के खेलों के एथलीटों को उचित क्रेडिट और मान्यता प्राप्त करते हुए देखना बहुत अच्छा है।


List of Nominees 


  1. Neeraj Chopra (Athletics)
  2. Ravi Dahiya (Wrestling)
  3. PR Sreejesh (Hockey)
  4. Lovlina Borgohain (Boxing)
  5. Sunil Chettri (Football)
  6. Manish Narwal (Shooting)
  7. Mithali Raj (Cricket)
  8. Pramod Bhagat (Badminton)
  9. Sumit Antil (Athletics)
  10. Avani Lekhara (Shooting)
  11. Krishna Nagar (Badminton)

नीरज चोपड़ा (एथलेटिक्स)


 रवि दहिया (कुश्ती)


 पीआर श्रीजेश (हॉकी)


 लवलीना बोर्गोहेन (मुक्केबाजी)


 सुनील छेत्री (फुटबॉल)


 मनीष नरवाल (शूटिंग)


 मिताली राज (क्रिकेट)


 प्रमोद भगत (बैडमिंटन)


 सुमित अंतिल (एथलेटिक्स)


 अवनि लेखारा (शूटिंग)


 कृष्णा नगर (बैडमिंटन)



सामान्य ज्ञान (General Knowledge) सभी प्रकार के प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण।


1. Buxwaha forest भारत में कहाँ स्थित है?

A. कर्नाटक

B. मध्य प्रदेश

C. महाराष्ट्र

D. उत्तर प्रदेश


Ans. B

व्याख्या: Buxwaha forest मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है।


2. Buxwaha Forest अभियान क्यों शुरू किया गया है?

1. यह जंगल में हीरा खनन के खिलाफ शुरू किया गया है.

2. यह मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में लगभग 2.15 लाख पेड़ों की कटाई के खिलाफ है.

A. केवल 1

B. केवल 2

C. 1 और 2 दोनों

D इनमे से कोई भी नहीं


Ans. C

व्याख्या: यह अभियान मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में लगभग 2.15 लाख पेड़ों की कटाई के खिलाफ है. इस क्षेत्र में स्थानीय लोगों द्वारा हीरा खनन प्रक्रिया के खिलाफ आवाज उठाई गई है।


3. निम्न में से कौन सा वन मध्य प्रदेश में पाया जाता है?

A. अल्पाइन वन (Alpine Forest)

B. उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन (Tropical Dry deciduous forest)

C. शुष्क शीतोष्ण (Dry temperate)

D. उष्णकटिबंधीय अर्ध सदाबहार वन (Tropical Semi Evergreen forest)


Ans. B

व्याख्या: उष्णकटिबंधीय शुष्क पर्णपाती वन (Tropical Dry deciduous forest) मध्य प्रदेश राज्य की प्रमुख वनस्पति है।


4. OPEC में कौन से देश शामिल हैं?

A. लीबिया (Libya)

B. एलजीरिया (Algeria)

C. नाइजीरिया (Nigeria)

D. उपरोक्त सभी


Ans. D

व्याख्या: OPEC के 13 सदस्य देश हैं जिनमें ऊपर वर्णित तीनो शामिल हैं। ओपेक (Organization of the Petroleum Exporting Countries (OPEC)) पेट्रोलियम उत्पादक 13 देशों (2018 में कतर के बाहर हो जाने के बाद) का संगठन है। इसके सदस्य हैं:- सऊदीअरब, अल्जीरिया, ईरान, ईराक, कुवैत, अंगोला, संयुक्त अरब अमीरात, नाइजीरिया, लीबियावेनेजुएला

5. निम्नलिखित में से कौन से देश OPEC के संस्थापक सदस्य रहे हैं?

A. Iran

B. Kuwait

C. Venezuela

D. उपरोक्त सभी


Ans. D

व्याख्या: पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन या OPEC एक स्थायी, अंतर सरकारी संगठन है जिसे 1960 में बगदाद के सम्मेलन में बनाया गया था। रचनाकारों में ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेनेजुएला शामिल थे।


6. OPEC का मुख्यालय कहां स्थित है?

A. स्वीडन (Sweden)

B. ऑस्ट्रिया (Austria)

C. ईरान (Iran)

D. स्विट्ज़रलैंड (Switzerland)


Ans. B

व्याख्या: OPEC का मुख्यालय ऑस्ट्रिया के विएना (Vienna) में स्थित है।



7. OPEC Plus group में कौन से देश शामिल हैं?

A. रूस (Russia)

B. नाइजीरिया (Nigeria)

C. जापान (Japan)

D. कनाडा (Canada)


Ans. A

व्याख्या: OPEC के अलावा कच्चे तेल का निर्यात करने वाले देशों को OPEC Plus देशों के रूप में जाना जाता है। इनमें शामिल हैं:- Azerbaijan, Bahrain, Brunei, Kazakhstan, Malaysia, Mexico, Oman, Russia, Sudan.


8. भारतीय सेना के लिए एक एक्सोस्केलेटन सूट (Exoskeleton suit) किसके द्वारा बनाया गया है?

A. DRDO

B. HAL

C. DDP

D. AFMC


Ans. A

व्याख्या: भारतीय सेना के लिए एक्सोस्केलेटन सूट (Exoskeleton suit) का निर्माण रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) द्वारा किया गया है।


9. निम्नलिखित में से कौन-सा एक्सोस्केलेटन सूट (Exoskeleton suit) के लाभों में से एक है?

1. यह सैनिकों की अतिरिक्त भार वहन क्षमता को लगभग 100 kg बढ़ा देता है.

2. यह कम से कम 8 घंटे का परिचालन समय और बैटरी बैकअप होने पर 3-5 घंटे प्रदान करता है.

A. केवल 1

B. केवल 2

C. 1 और 2 दोनों

D इनमे से कोई भी नहीं


Ans. C

व्याख्या: कहा जाता है कि एक एक्सोस्केलेटन सूट (Exoskeleton suit) एक सैनिक की अतिरिक्त भार वहन क्षमता के लिए लगभग 100 किलोग्राम बढ़ाने का काम करता है. यह कम से कम 8 घंटे के परिचालन समय के लिए किया जा सकता है और इसमें 3-5 घंटे का बैटरी बैकअप होता है।



10. OPEC किस प्रकार का संगठन है?

A. अस्थायी अंतरसरकारी (Temporary Intergovernmental)

B. गैर सरकारी संगठन (Non Government Organization)

C. स्थायी अंतर सरकारी संगठन (Permanent Intergovernmental Organization)

D. इनमे से कोई भी नहीं


Ans. C

व्याख्या: पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन या OPEC एक स्थायी, अंतर सरकारी संगठन (Permanent Intergovernmental Organization) है जिसे 1960 में बगदाद के सम्मेलन में बनाया गया था।

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

प्रेरणादायक बातें।

क़सूर नींद का नही जो आती नही, 

क़सूर तो सपनों का हैं जो सोने नही देते।




“तू ख़ुद की खोज में निकल"

तू किसलिए हताश है।




तू चल तेरे वजूद की,

समय को भी तलाश है।




जो तुझसे लिपटी बेड़ियाँ,

समझ न इनको वस्त्र तू।




ये बेड़ियाँ पिघाल के,

बना ले इनको शस्त्र तू।




तू ख़ुद की खोज में निकल…


"पर्वत पुरुष" श्री दशरथ मांझी को समर्पित एक कविता।


🌸🌸पर्वत पुरुष 🌸🌸


काट लेते हैं नस आशिक,

अपने प्यार में नाकाम होकर।

मैंने देखा है एक ऐसा आशिक,

काट डाला पहाड़ जीवनसाथी से बिछड़ कर।


जान से बढ़कर चाहा जिसे,

जुदाई में बन गया पागल उसी के।

असंभव को संभव करने चल पड़ा अकेला,

अपने दिल-जिगर और मन में यह ठान के।


 खोया था दुख के सागर में,

साथी की सुनहरी यादों में तर।

 बस मन में एक बात की कसक

जिए ना कोई यह दुख झेल कर।


प्यार और जुनून का है अनमोल तोहफा,

 पहाड़ों के बीच से गुजरता हुआ यह रास्ता।

 कर्मठता का अमिट मिशाल बनकर,

'पर्वत पुरुष' के नाम से दशरथ का है वास्ता।


साभार:- सोशल मीडिया

अभिवंचित या वंचित का अर्थ एवं वंचित वर्ग की शिक्षा (Meaning of deprived and education of deprived class) S-1 D.El.Ed.2nd Year. B.S.E.B. Patna.

          वंचित होने का अर्थ है रहित होना, विहीन होना। यदि हम किसी सुविधा से किसी को विहीन कर देते हैं तो वह वंचित हो जाता है। जैसे:- हमें प्यास लगी है और पानी चाहिए, भूख लगी है तो भोजन चाहिए। पानी और भोजन से विहीन कर देना इनसे वंचित कर देना है। वंचित होने पर असन्तोष होना स्वाभाविक है। वंचित बालक का अर्थ है कि बालक को किसी चीज से रहित किया गया है, उसमें इसीलिए कुछ कमी है और इस कमी के कारण उसमें असन्तोष है।

 वंचित वर्ग की शिक्षा 

(Education of Deprived) 

         समाज में वंचित वर्ग के प्रति हमारी उदासीनता इतनी ज्यादा है कि उनकी इच्छाओं का ध्यान नहीं दिया जाता है। आज भी बहुत से लोगों में अशिक्षा होने से उनके विचारों में रूढ़िवादिता (conservatism) का समावेश है। रूढ़िवादिता अधिकांशत: अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों में अधिक से अधिक होने का कारण अशिक्षा है। ये लोग पुराने विचारों, रीतियों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलाना चाहते हैं। उन्हें छोड़ने में वे अपनी पुरानी पीढ़ी का अपमान समझते हैं। परन्तु शिक्षा के विकास के साथ धीरे-धीरे रूढ़िवादी विचारों में कमी आती जा रही है।

        भारतीय समाज के वर्तमान पतन का एक कारण लड़कियों को शिक्षा से वंचित रखना भी था। जबकि एक तरफ हम सभी स्वतन्त्रता का 75वाँ वर्ष मना रहे हैं, एवं इस युग को हम 'नारी जागरण युग' कहते हैं किन्तु वास्तव में अब तक नारियों की सामाजिक पराधीनता की बेड़ियाँ काटकर हम फेंकने में असफल रहे हैं। स्वतन्त्र भारत के संविधान में समस्त क्षेत्रों में समानता के अवसरों की गारण्टी के बावजूद अभी भी स्त्रियों को मानवीय रूपों में स्थान नहीं मिल पाया है। एक जाति विशेष में यह समस्या विकराल रूप धारण किये है जबकि स्वयंसेवी संस्थाओं ने इस जाति विशेष की बालिकाओं को शिक्षित होने के लिये महिला शिक्षा समितियों की स्थापना की है। हरिजन बस्तियों में नगर पालिकाओं एवं स्थानीय संस्थाओं द्वारा प्राथमिक विद्यालय खोले गये, जिनमें इन्हें निःशुल्क शिक्षा देने का प्रावधान किया गया। इन संस्थाओं के द्वारा सरकार ने हरिजनों के प्रति उदारता दिखलायी एवं अनेक नियम बनाकर उनकी शिक्षा को प्रत्येक सम्भव रीति से प्रोत्साहित किया। फिर भी अनुसूचित जाति की बालिका शिक्षा में वांछित प्रगति नहीं कर पाई। इस सम्बन्ध में कई कारणों जैसे निर्धनता एवं गृह कार्य के अतिरिक्त माता-पिता की अशिक्षा और बालिकाओं को शिक्षित करने के प्रति निरुत्साहपूर्ण दृष्टिकोण भी एक बहुत बड़ा कारण है।

        अनुसूचित जाति के लोगों को समाज में प्रारम्भ से ही अति निम्न स्तर प्राप्त था। उन्हें शिक्षा प्रदान करने हेतु कभी कोई प्रयास ही नहीं किया गया था। लेकिन नवीन समाज के निर्माण के साथ ही इनकी शिक्षा पर ध्यान तो दिया गया पर आज भी यह स्थिति नहीं आ पाई है कि यह कहा जा सके कि शिक्षा की सभी प्रक्रिया अनुसूचित जातियों में ठीक प्रकार से चल रही है।

        प्रथम स्थिति में तो माता-पिता पूरी तरह अशिक्षित हैं जो शिक्षा की उपयोगिता ही नहीं समझ पाते, इसलिए अपने बच्चों को भी शिक्षा दिलाने में उचित रुचि नहीं लेते हैं। ये लोग अभी तक वर्षों से चले आ रहे परम्परागत जीवन के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते हैं। ये अन्य भारतीयों की अपेक्षा अधिक अन्धविश्वासी और रूढ़िवादी हैं। सभ्य एवं शिक्षित समाज के सम्पर्क में कम आने के कारण ये लोग सांस्कृतिक वंचना (Cultural Deprivation) के शिकार हो जाते हैं।

        समाज के वंचित वर्ग के व्यक्ति अशिक्षित रह जाते हैं क्योंकि ये लोग शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते हैं परिणाम यह है कि शिक्षा प्रसार के लिये इनके क्षेत्र में समाज की ओर से सरकार को कोई विशेष सहयोग उपलब्ध नहीं होता है। प्रथम तो ये लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजना पसन्द नहीं करते हैं और यदि बच्चे जाते भी हैं तो इच्छानुसार उनका स्कूल बन्द कर देते हैं।

     इसके अतिरिक्त यदि माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा दिलाना भी चाहते हैं तो निर्धनता के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। अनुसूचित जाति के लोग भूमिहीन श्रमिक रहे हैं तथा समाज में अन्य वर्ग में गिने जाने वाले व्यक्तियों की निर्धनता के शिकार होते रहे हैं। निर्धनता के कारण परिवार के सभी सदस्यों को आवश्यक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये एकजुट होकर कार्य करना पड़ता है। परिणामतः आज भी माता-पिता अपने बच्चों को घर पर कार्य में मदद करवाने के लिये रोक लेते हैं तथा कभी-कभी बीच में ही पढ़ने वाले बच्चों को स्कूल जाना बन्द करवा देते हैं। किन्हीं परिवारों में यदि अभिभावक स्कूल भेजने में सफल हो जाते हैं तो बच्चों को पढ़ाई में आवश्यक अध्ययन सामग्री उपलब्ध नहीं करा पाते, जिससे मजबूरी में उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ती है। 

          अनुसूचित जातियों का एक बड़ा वर्ग गाँवो में निवास करता है। ग्रामों में आज भी स्कूलों का अभाव-सा है। पिछड़े इलाकों में तो कई गाँव के बीच एक स्कूल है। अभिभावक अधिक दूर स्कूल होने के कारण प्रायः अपने बच्चों को स्कूल भेजने से हिचकते हैं। किन्हीं स्थानों में विद्यालय भी होते हैं और अस्पृश्य जाति के लोग अपने बच्चों को विद्यालय भेजना शुरू कर देते हैं तो भी उचित सुविधाएँ व माहौल नहीं जुटा पाते हैं जिससे बच्चे कक्षा में असफल होने लगते हैं जिससे अपव्यय होता है और बार-बार अवरोधन भी जिससे क्षुब्ध होकर ये अपने बच्चों को रोक लेते हैं और उनकी शिक्षा अधूरी रह जाती है।

         अनुसूचित जातियाँ अधिकतर क्षेत्रीय या प्रान्तीय भाषा जानती हैं। बहुत बड़े वर्ग की यह एक प्रमुख समस्या होती है क्योंकि उन्हें उनकी अपनी भाषा में पाठ्यक्रम उपलब्ध नहीं होता है और इसी कारण वह वास्तविक भाव व अर्थ समझ नहीं पाते हैं और शिक्षा के प्रति उनकी रुचि उत्पन्न न होने के कारण असफल हो जाते हैं। भाषा के साथ ही पाठ्यक्रम भी उनकी रुचि का नहीं होता है। किताबों का पाठ्यक्रम सामान्य वर्ग व सामान्य स्तर का होता है परन्तु उनका घर-परिवार व आस-पास का माहौल वैसा नहीं होता। जिस वजह से वह शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त (Principles of Social Change) S-1, D.El.Ed. 2nd Year B.S.E.B. Patna.


 

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं :-

1. परम्परामूलक दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों में से एक सिद्धान्त है- विश्व की प्रयोजनपरक व्याख्या। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु पूर्व निर्धारित नमूने के आधार पर घटती है जिसका धक्का मानव सहित सम्पूर्ण विश्व को गतिशील बनाये रखता है। यह समाज विज्ञान की सीमा से बाहर है। 

2. परिवर्तन स्वयं में विश्व की प्रकृति में अन्तर्निहित है जिसके कारण सामाजिक परिवर्तन तार्किक तथा चक्राकार क्रम से घटता है। इस प्रकार के परिवर्तन की भविष्यवाणी करना सम्भव है। 

       चक्रीय सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक सोरोकिन, पैरेटो एवं टायनबी माने जाते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार व्यक्ति का जन्म, वृद्धि एवं मृत्यु की प्रक्रियाएँ होती हैं। उसी प्रकार संस्कृतियों का चक्र भी चलता है। 

सोरोकिन के अनुसार, 

        परिवर्तन सांस्कृतिक दशाओं के बीच उतार-चढ़ाव है। वस्तुतः परिवर्तन उतार-चढ़ाव की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में दो सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था ही विशेष रूप से होती है। सोरोकिन के अनुसार, समाज या संस्कृति एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था के तीन सम्भावित स्वरूप होते हैं- 

(१) चेतनात्मक संस्कृति (Sensate Culture)  

(२) भावनात्मक संस्कृति (Ideational Culture) 

(3) आदर्शात्मक संस्कृति (Idealistic Culture)। 

3. आदर्शात्मक संस्कृति चेतनात्मक तथा भावनात्मक संस्कृतियों की मिली-जुली व्यवस्था है। इसमें धर्म और विज्ञान दोनों का अपूर्व सन्तुलन होता है। चेतनात्मक संस्कृति भावनात्मक संस्कृति की ओर गतिशील होती है और फिर भावनात्मक संस्कृति की चरम सीमा पर पहुँचकर फिर चेतनात्मक संस्कृति की ओर लौट जाती है। चढ़ाव-उतार की यह प्रक्रिया चलती रहती है। सोरोकिन ने सीमाओं के इस सिद्धान्त द्वारा चक्रीय परिवर्तन को समझाया है। टॉयनबी ने सभ्यताओं के विकास, स्थिरता तथा पतन के रूप में चक्रीय परिवर्तन को समझाया है। 

4. सामाजिक परिवर्तन मात्र एक व्यापक घटक से वर्णनीय है। आध्यात्मिक विश्वास सामाजिक प्रक्रिया को अध्यात्मवाद की ओर निर्देशित कर सकता है, उसी तरह अन्तिम सत्य मानकर पदार्थ में विश्वास करना जीवन की गति को मार्क्सवाद के पक्ष में परिवर्तित कर सकता है। सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र के लिए मात्र आर्थिक घटकों या राजनीतिक घटकों को उत्तरदायी बनाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या के लिए संकीर्ण एवं स्थूल है। 

5. एक साथ मिले हुए अनेक घटकों का परिणाम तथा विविध समन्वयों में एक-दूसरे को प्रभावित करता हुआ सामाजिक परिवर्तन एक जटिल क्रिया है। एक प्रकार से यह स्वयं संस्कृति का पर्यायवाची है जो किसी एकमात्र घटक के कार्य की अपेक्षा अनेक शक्तियों की सापेक्षिक व्यवस्था है।

विषमता/असमानता का अर्थ (Meaning of Inequality) S-1, D.El.Ed. 2nd Year B.S.E.B. Patna.

       विषमता या असमानता की अवधारणा को उचित एवं सही रूप से समझने के लिए समानता की अवधारणा को समझना आवश्यक है। सामान्य अर्थों में समानता का तात्पर्य सभी प्रकार के सन्दर्भों में समस्त लोगों में बिना किसी भेदभाव के आपसी बराबरी से है। इसका आशय यह है कि मानव, मानव के मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव विद्यमान न हो। सभी मनुष्यों को समान शिक्षा, सुविधाएँ, वेतन, सम्पत्ति अर्जन एवं जीवन अवसर बिना किसी भेदभाव के सरलता से प्राप्त हों।

            समानता की अवधारणा में यह बोध अन्तर्निहित रहता है कि सभी व्यक्तियों को अपने सर्वांगीण विकास के समान अवसर प्राप्त हैं तथा समस्त प्रकार की निर्योग्यताओं और विशेषाधिकारों पर बल दिया जाता है। इसका आशय यह है कि जाति प्रजाति, लिंग, धर्म, भाषा, प्रान्त-स्थान, क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक स्थिति आदि के आधार पर किसी भी प्रकार का विभेद न तो वास्तविक रूप में किया जाता है और न ही स्वीकार किया जाता है तथा न ही इसे किसी भी रूप में सामाजिक स्वीकृति, मान्यता एवं संस्तुति प्रदान की जाती है। मूलत: सामाजिक असमानता का तात्पर्य किसी भी समरूप समाज में प्रमुखतया पारिवारिक पृष्ठभूमियों, सामाजिक परम्पराओं एवं परिपाटियों, आय-सम्पदा, राजनैतिक प्रभाव, आचरण, शिक्षा, नैतिकता इत्यादि पर आधारित भिन्नताओं के कारण सामाजिक पद-प्रतिष्ठा अधिकार एवं अवसरों में उत्पन्न अन्तर को सामाजिक असमानता के सम्बोधन से अभिहित करते हैं। सामाजिक प्रतिष्ठा की भिन्नता का हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पारिवारिक संस्थाओं, सम्पत्ति स्वामित्व एवं उत्तराधिकार की संस्थाओं के साथ-साथ समान सामाजिक वर्ग श्रेणी के व्यक्तियों के सम्पकों द्वारा सम्भव होता है।

           विषमता में लोगों को अपने व्यक्तित्व हेतु सर्वांगीण विकास के अवसर प्राप्त नहीं होते। समाज में विशेषाधिकार विद्यमान रहता है तथा जन्म, जाति, प्रजाति, धर्म, भाषा, आय व सम्पत्ति के आधार पर अन्तर पाया जा सकता है। इन्हीं आधारों पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से, एक समूह दूसरे समूह से, एक समुदाय अन्य समुदाय से, एक जाति या प्रजाति अन्य जाति या प्रजाति से, एक धर्म दूसरे धर्म से उच्चता एवं निम्नता का भेद बनाए रखने के साथ-साथ उचित सामाजिक दूरी भी बनाता है। विषमता को अभिव्यक्त करने वाले प्रमुख कारकों में शक्ति, सत्ता, पद, प्रभुत्व, आर्थिक असमानता, सामाजिक विभेद तथा उत्पादन के साधनों पर असमान अधिकार आदि प्रमुख स्थान रखते हैं। विषमता का आशय किसी समूह, समुदाय अथवा समाज के लोगों के जीवन अवसर तथा जीवन शैली की भिन्नताओं से है, जो विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में इनकी असमान स्थिति में जीवनयापन करने से होती है। प्रख्यात समाजशास्त्री आन्द्रे बिताई का मत है कि सामाजिक परम्पराओं एवं मानदण्डों के बिना किसी भी समाज की कल्पना करना असम्भव है और ये ही सामाजिक असमानताओं को जन्म देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। 

🌹दीपावली, कुम्हार, और गोधन पूजा🌹

 

🌹दीपावली, कुम्हार, और  गोधन पूजा🌹

       बचपन की कुछ स्मृतियाँ बार-बार मन मस्तिष्क पर आ ही जाती है। हर सभी के मन में दिया-दियारी (दीपावली) त्योहार के दस-पन्द्रह दिन पहलें से पटाखा का विचार मन में आ ही जाता है। हर गाँव में कुम्हार लोग मिट्टी के बने सुन्दर दीयाँ, कोशी, गुल्लक, घाटी, जतोला ले करके आ जातें थे। उसके बदले में कुछ लोग पैसा देते थे, नही तो अधिकतर लोग खेतों से आयी नयी फसल धान को दे देते थे। मेरे यहाँ बड़हरिया एवं बंगरा के कुम्हार लोग आते थे क्योकि मेरे यहाँ कुम्हार जाती के लोग नही थे। सभी का अपना अलग-अलग सीवान (किसी भी गाँव का कोना) बटा रहता था। कोई दूसरा व्यक्ति दूसरें के सीवान में अपना सामान देने नहीं जाता था। गाँव के लोग उनकों पूरा सम्मान देते थे। दीपावली के दिन दीपक जलाने के लिए जो बातीं बनती थी वह घर के बुजुर्गों के धोती से बनती थी। उसको धोबी के यहाँ पहलें दे करके अच्छी तरह से साफ करवा दिया जाता था। त्योहार में सब लोग अपनी-अपनी जिम्मेदारी का अच्छी तरह से निवर्हन करते थे।

         उस समय तीसी व सरसों की पैदावार अच्छी होती थी।अधिकांशतः घरों पर तेल नही खरीदना पड़ता था। धन-धान्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता था। पटाखा भी लोग अनाज से ही खरीद लेते थे। एक किलो या एक सेर में एक दो पैकेट पटाखा🎉 व छुरछुरी🎆 मिल जाया करती थी। आज भी मुझे नागिन🐍 पटाखा याद है।

        आज के जैसे लोग की तरह लोग धूल मिट्टी से परहेज नही करते थे। दीपावली के दूसरे दिन से ही सभी के घरों के बच्चे घर के सदस्यों से अपने खेलने का समान माँगने लगते थे और खूब धूल इकट्ठा करके उसको पीसते थे। फिर जब वापस घरों पर जाते थे तो जो इकट्ठा धूल का ढेर रहता था उसकों फेंक करके चलें जाते थे। 

       दीपावली के दूसरे दिन गोधन का दिन होता था। उस दिन सुबह में गांव की औरतें और महिलाएं मिलकर एक मोहल्ले या टोले में गाय के गोबर से गोधन की आकृतियां बनाती थी और अगले दिन फिर उन्हें कुटा जाता था। बड़ा ही मनोरम दृश्य होता था, गीत-संगीत के माहौल से पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता था। उसी दिन रात में सुप एवं कंडा से बाजा बजाते हुए दलिदर खेडने की प्रथा थी जो आज भी चल रही है। उसके बाद से ही घर में जवान हो रहे लड़के एवं लड़कियों की शादी की चर्चाएं होने लगती थी यानी यू कह सकते हैं कि शादी का माहौल शुरू हो जाता था। इन सभी पूजा के बाद फिर आता था बिहार का सबसे बड़ा पर्व छठ महापर्व जिसके बारे में हम अगले लेख में चर्चा करेंगे। 

धन्यवाद🙏

दिल्ली शिल्पी चक्र : सामंतवादी जड़ता और रूढ़िवादिता के खिलाफ देश का पहला संगठन।

          कला के अभ्युत्थान में 'दिल्ली शिल्पी चक्र' का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 25 मार्च 1949 ई. को प्रगतिशील प्रवृत्ति के कतिपय कलाकारों के एक ग्रुप ने इस आर्ट सर्कल की स्थापना की जो नई अभिजात संस्कृति के संस्कारों और आधुनिक कला-प्रणालियों की प्रतिक्रिया स्वरूप मौजूदा समय और वातावरण के साथ कदम से कदम मिलाते हुए एक नए 'एडवेंचर' के शौक़ को लेकर आगे बढ़ा कलाकार का दायरा उसकी अपनी सीमाओं में बंधा है, पर इसमें संदेह नहीं कि एकोन्मुख से बहुन्मुख प्रसार किसी भी विकासमान कला की कसौटी है। युग और परिवेश का जो अनिवार्य प्रभूत प्रभाव सृजनात्मक विधाओं पर पड़ता है उसे नए उभरते मूल्यों के साथ समेटते हुए इस रूप में दर्शाना चाहिए जो अपने देश की मिट्टी की उपज हो। विभिन्न विश्वजनीन मूल्य कला को झकझोर रहे हैं और इन भिन्न-भिन्न तत्वों के भीतर से फूटती मूल चेतना ही आरंभ प्रसार की चेतना है। प्रतिभावान कलाकार उन मूल्यों और से कसौटियों को निजी माध्यमों से सामने लाते हैं। किसी भी अंधानुकृति द्वारा नहीं वरन अपने देश की प्रगति और परंपरा के अनुरूप उनकी कला युग मन का मुकुर है अर्थात् समस्त सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना की जीवंत चित्र। 

बी.सी. सान्याल 'निजामुद्दीन के मेले में' (1950 ई. , कैनवस पर तैल रंग संग्रह राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय , नई दिल्ली)

      प्राचीन कलादशों के पक्षपातियों में जो एक प्रकार की सामंतवादी जड़ता और रूढ़िवादिता घर कर बैठी थी उक्त 'शिल्पी चक्र' ने उसे छिन्न-भिन्न कर दिया। नव्य जीवन मूल्यों का स्वर मुखर करने वाले इन अभिनव अन्वेषियों ने कला के क्षेत्र में एक नवीन दृष्टि, नवीन सौंदर्यबोध और नवीन भंगिमा को प्रश्रय दिया। नव निर्माण के यात्रापथ पर समृद्ध शिल्प वैभव की थाती लिए उन्होंने नए-नए प्रयोग किए, उनकी भीतरी छटपटाहट न जाने कितने प्रभावों को आत्मसात करती हुई नए-नए मानों में मुखर हुई नवीन विचार दृष्टि की ईप्सा में सस्ती भावुकता, कल्पनाभास या अंधाधुंधी उनमें नहीं है, न हीं वे अनुकृत भावुकता की बहक में विचलित हुए हैं, बल्कि प्राचीन अर्वाचीन में साम्य स्थापित कर वे सदा स्वस्थ मौलिक मनोवृत्ति के कायल रहे हैं। 

        "अत्याधुनिक की धकापेल में आज जबकि सही रास्ता खोज पाना दुश्वार है अनेक परिपक्व बुद्धि के कलाकार अपनी मुख्तलिफ अदाओं के साथ प्रतियोगिता के  खुले मैदान में आ गए हैं। इतस्ततः जो बिखरा है- कोमल-पुरुष, सुंदर-असुंदर सबको अपने अखंड प्रवाह में समेट कर वे तरह-तरह से सृजन में लगे हैं। किसी दकियानूसी रूढ़ियों के कारागार में कला अब बंदी नहीं, बल्कि वैयक्तिक चेतना को मुक्त कर जड़ पाषाणों को लॉधती अपनी भावनाओं के मुक्त निर्झर को बहिर्गत करने के लिए मचल रही है। अपने इस अभियान में वह कहां तक सफल हुई है उसे तो आने वाला समय ही बता सकता है।

          हालांकि अधिकांश कलाकार, जो विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली आ गए थे, दिल्ली की 'आल इंडिया फाईन आर्ट्स एंड क्राफ्टस सोसाइटी' (1928 ई . में स्थापित ) के सदस्य बन गए थे, लेकिन वे इसकी कार्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं थे। इसका कारण संक्षेप में यह था कि आईफैक्स की गतिविधियों की योजना तथा नियंत्रण उसके गैर व्यावसायिक सदस्यों के हाथों में था और सदस्यों की कला के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। कुछ कलाकारों बी.सी. सान्याल, कंवल कृष्ण, के.एस. कुलकर्णी, धनराज भगत, प्राणनाथ मागो, इत्यादि ने मिलकर आईफैक्स के स्थाई सदस्यों के साथ समस्या का समाधान खोजने के लिए एक असफल बार्ता की। फलस्वरूप कंवल कृष्ण तथा के. एस. कुलकर्णी, तथा मागो जो आइफैक्स की साधारण सभा (1948 49 ई.) के सदस्य थे, उन्होंने त्यागपत्र देकर धनराज भगत व बी.सी. सान्याल के साथ मिलकर 'शिल्पी चक्र' की स्थापना की। इसमें हरकृष्ण लाल, के.सी. आर्यन, दमयंती चावला, दिनकर कौशिक, जया अप्पासामी, एस. एल. परासर, श्रीनिवास पंडित तथा ब्रजमोहन भनोट भी सम्मिलित हुए। यह ग्रुप निरंतर उन्नति करता चला गया तथा अनेक सहसदस्य व छात्र सदस्य भी जुड़ने लगे, जिनमें देवयानी कृष्ण, सतीश गुजराल, रामकुमार, रामेश्वर लूटा, अविनाश चंद्र, केवल सोनी, विशंभर खन्ना, राजेश मेहरा, जगमोहन चोपड़ा, परमजीत सिंह, अनुपम सूद बाद में बहुत ही प्रतिष्ठित कलाकार के रूप में जाने गए। अपने आदर्श वाक्य 'कला जीवन को प्रदीप्त करती है' की व्याख्या करते हुए शिल्पी चक्र के घोषणापत्र में कहा गया था- "इस ग्रुप का मानना है कि एक गतिविधि के रूप में कला का जीवन से संबंध टूटना नहीं चाहिए, किसी भी राष्ट्र की कला को अपने लोगों की आत्मा को अभिव्यक्त करना चाहिए उसे प्रगति की प्रक्रिया में सहायक होना चाहिए।" शिल्पी चक्र के अधिकांश कलाकार विभाजन की त्रासदी को झेल चुके थे। शिल्पी चक्र की वार्षिक प्रदर्शनी में सदैव एक गैर सदस्य कलाकार भी आमंत्रित होता था, जिनमें शैलोज मुखर्जी तथा के. जी. सुब्रमण्यन उल्लेखनीय हैं। प्रारंभ में दिल्ली शिल्पी चक्र की बैठकें जंतर-मंतर में खुले में होती थी, बाद में जंतर-मंतर रोड पर फिर 26 गोल मार्केट सान्याल के स्टूडियों में होने लगी। 1957 ई. में इस संगठन को स्थाई कार्यालय शंकर मार्केट का फ्लैट 19 एफ आवंटित हुआ। इस स्थान पर वार्षिक प्रदर्शनियां व संगोष्ठियां होने लगीं। यहां से चित्र विक्रय किए जाने लगे। शिल्पी चक्र 1960 ई. तक अधिक सक्रिय रहा तथा इसके पश्चात शिथिल होता गया। वस्तुतः शिल्पी चक्र ने भारतीय समकालीन कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया जिसका ऐतिहासिक महत्व है।

प्राणनाथ मागो  'मातम करते हुए' (1950 ई., कैनवस पर तैलरंग संग्रह:- राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली)

         जीवन के नवीन मूल्यों को सुदृढ़ करने वाले इन अभिनव कलाकारों ने कला क्षेत्र में एक गंभीर और पारखी चित्रकार के रूप में अनेक माध्यमों में विभिन्न दृष्टिकोणों के सामंजस्य द्वारा कला प्रणालियों को विकासमान दिशा की ओर अग्रसर किया के. एस. कुलकर्णी ने ऐसे अछूते प्रयोग किए जो पूर्व व पश्चिम की नवीन प्रणालियों के प्रतिनिधि हैं अभिव्यंजनावाद तथा प्रभाववाद के साथ लोक-कला का भी उन पर प्रभाव रहा। कंवल कृष्ण ने अपनी कला तकनीक को एक नवीन वैचारिकता प्रदान की धनराज भगत ने मूर्तिकला की परंपरा में परिवर्तन का सूत्रपात किया। जया अप्पासामी की विशाल भू-अंचल और उसमें फैली पर्वत श्रृंखला, रामकुमार के अमुर्त दृश्य चित्र, कृष्ण खन्ना के बैंडबाजा विषयक चित्र, रामेश्वर बूटा के आदिम रूप, सतीश गुजराल के भित्ति-चित्र भारतीय समकालीन कला के विकास में महती भूमिका निभाते हैं।                                                              

 राकेश गोस्वामी✍️

(कला इतिहासकार एवं समीक्षक)

पौराणिक कथा .........और लक्ष्मी जी जीत गयी।

 

.......और लक्ष्मी जी जीत गयी।

        शेषनाग पर लेटे हुए विष्णु भगवान लक्ष्मी जी से बात कर रहे थे। दीवाली का भोर था इसीलिए लक्ष्मी जी काफी थकी हुई लग रही थीं परंतु अंदर से प्रसन्न थी। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा- 'हे देव, कल देखा आपने। मृत्युलोक में कितना लोग मुझे चाहते हैं। विष्णु भगवान कुछ अनमने से दिखे। बोले!! देखिये लक्ष्मी जी,  दीवाली के दिन तो बात ठीक है, लोग आपकी पूजा करते हैं, आपका स्वागत करते हैं, बाकी के दिनों में भगवान तो भगवान होता है। हो सकता है कि कुछ दरिद्र और अशिक्षित लोग आप की आकांक्षा रखते हो आपका स्वागत करते हों और आप को बड़ा मानते हो परंतु शिक्षित वर्ग और योग्य लोग भगवान को लक्ष्मी से ऊपर रखते हैं। लक्ष्मी जी ने मुस्कुरा कर कहा नाथ- ऐसा नहीं है। बाकी के दिनों में भी मृत्यलोक के प्राणी मुझे ही ज्यादा पसंद करते हैं और पढ़े-लिखे योग्य लोगों की तो आप बात ही मत करिए।

       बात विष्णु भगवान को खल गई। बोले, "प्रिये, आइए चलते हैं इस बात की परीक्षा ले ली जाए। हालांकि लक्ष्मी जी दीवाली में थक कर चूर हो चुकी थीं पर यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं थीं।

      देवलोक से भूलोक पर उतरते हुए भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी से कहा, हे देवी!! किस की परीक्षा ली जाए। लक्ष्मी जी ने कहा, जिस पर आपको भरोसा हो प्रभु। काफी सोच-विचार कर विष्णु भगवान ने एक छोटे से राज्य को चुना। राज्य छोटा था परंतु राजा उसका बड़ा पराक्रमी, वीर, होशियार और दानवीर था। उस राजा के एक गुरुजी थे, जिन पर वह अपार श्रद्धा रखता था। गुरुजी हिमालय में निवास करते थे।

      विष्णु और लक्ष्मी के आगमन के समय राजा के महल में एक ब्रह्मभोज चल रहा था। विष्णु ने राजा के गुरु का वेश धारण किया और महल में पहुंच गए। अपने गुरु को देखते ही राजा की आंखों में जल भर आया। वह उनके चरणों में दंडवत हो गया। अरे! महाराज, आपको कितना खोजा आप मिले ही नहीं। मेरे अहोभाग्य आप सही समय पर पधारे है। गुरु का रूप धरे विष्णु भगवान को राजमहल के सबसे सुंदर कक्ष में चांदी के पलंग पर आसन दिया गया। गुरु जी की सेवा में राजा जी लग गए। उधर लक्ष्मी मैया ने एक भिखारिन का रूप धरा। कंधे पर झोला लटकाए राज महल के दरवाजे पर पहुंच गईं।

        दरवाजे पर पहुंचकर बुढ़िया ने आवाज लगाई ओ भैया, कुछ खाने को हो तो दे दो बहुत भूख लगी है। सुबह से कुछ भी नहीं खाया। द्वारपालों ने उसे बाहर हांकते हुए कहा, जाओ मां देर हो गई है। अब कुछ नहीं हो सकता। भोज का वक्त खत्म हो चुका है शाम होने वाली है। यह बतकही राजा ने सुनी। राजा द्वार तक आ पहुंचे। राजा के गुरु जी आए हुए थे राजा अंदर से प्रसन्न थे। कोई बात नहीं इसे भेज दीजिए अंदर और खाना खिला दीजिए।

    अगर आपको खाना खिलाना है मुझे तो आदर भी देना पड़ेगा। राजा मुस्कुराया, कोई बात नहीं। नौकरों को आदेश हुआ कि बुढ़िया को अंदर बैठाकर भोजन कराया जाए।

       बुढ़िया हाथ पैर धो आसन पर बैठ गई। उसने अपने साथ लिए गंदे से झोले में हाथ डाला और एक-एक कर बर्तन निकालने लगी। सबसे पहले उसने सुंदर सी चांदी की थाली निकाली। फिर सोने की कटोरियां, सोने का गिलास और सोने का चम्मच। दरबारियों ने खाना परोस दिया। बुढ़िया खाने लगी और यह बर्तनों की बात पूरी राजमहल में जंगल की आग की तरह फैल गई। बात राजा तक भी पहुंची राजाजी दौड़े-दौड़े आए देखा बुढ़िया चांदी और सोने के बर्तनों में आराम से बैठे खाना खा रही थी। खाना खाने के बाद बुढ़िया ने बर्तन वही छोड़े और अपना झोला संभालते हुए उठ खड़ी हुई। अच्छा महाराज, बड़ा स्वादिष्ट खाना था अब मैं चलती हूं। लेकिन माता जी आपके यह बर्तन। राजा का स्वर बदल चुका था। बुढ़िया से वह माता जी पर उतर आए थे। अरे बेटा!! मैं जहां खाना खाती हूं, ये बर्तन वहीं छोड़ देती हूँ और अगली बार खाना खाने के लिए फिर से निकाल लेती हूं। बेटा हर बार मैं नए बर्तनों में ही खाना खाती हूं। राजा भौंचक्के से उसे देखते रह गए। बुढ़िया अपना झोला संभाल कर जाने लगी। राजा चकित से खड़े रहे। अचानक वह चेतना में आए और बुढ़िया के पीछे दौड़ लगा दी।

      राजा बुढ़िया से हाथ जोड़कर बोले, माताजी आप कुछ दिन यहीं क्यों नहीं निवास करतीं। बुढ़िया के वेश में लक्ष्मी जी मुस्कुराईं। बेटा, बात तो आप ठीक कह रहे हैं मैं रुक भी सकती हूं और हमेशा के लिए भी रुक सकती हूँ, लेकिन आप हमारा सम्मान नहीं कर पाएंगे। राजा उतावले होते हुए बोले- अरे आप आदेश कीजिए माताजी। आप जो-जो कहेंगी, मैं वह-वह करूंगा।

        लक्ष्मी जी लौटते हुए बोली, ठीक है बेटा तुम इतना आग्रह कर रहे हो तो रुक जाती हूं। लेकिन मेरी कुछ शर्तें है। पहली शर्त यह है कि जिस कमरे में वह बुड्ढा बैठा हुआ है ... राजा ने प्रतिवाद करते हुए कहा, नहीं माताजी वह मेरे गुरु जी हैं मेरे आदरणीय गुरु जी जिनका मैं बहुत सम्मान करता हूं।  हां हां ठीक है, लक्ष्मी जी ने कहा, जो भी है मैं उसी कमरे में और उसी पलंग पर रहूंगी। दूसरी शर्त यह कि वह बुड्ढा, जब तक मैं कमरे में आराम करूंगी तब तक वह दरवाजे पर चौकीदारी करेगा। राजा आग-बबूला😡 हो गया, बुढ़िया की शर्तें सुनकर।

     ठीक उसी समय सोने-चांदी के बर्तनों की चमक राजा की आँखों मे घुस कर बैठ गयी। कहाँ तो राजा उस बुढ़िया को पकड़वा कर जेल मे ठूँसने जा रहे था, कहाँ अचानक संयत हो कर बोला। अरे माता जी!! ये क्या बच्चों जैसी जिद कर रही हैं आप?

    आप के लिए एक अच्छे से सुंदर कमरे मे चांदी का पलंग लगवा देते हैं। आप जब तक चाहें यहाँ निवास करें। नौकरों की फौज लगा देंगे आपके लिए। लेकिन वह हमारे गुरु जी हैं।


गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु, गुरुर देवो महेश्वरः।

गुरुर साक्षात परमब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः।।


        हमारे बहुत पूज्यनीय हैं। मैं उनसे ये शर्तें कैसे कहूँ। बुढ़िया ने अपना झोला उठाया और चलने को आतुर हुई, "फिर ठीक है आप संभालिए अपने गुरु को" राजा बुढ़िया के चरणों पर गिर गए। माताजी, आप चाहें तो मेरे विशाल कमरे मे रह सकती हैं पर बुढ़िया को न मानना था, न मानी।

      भारी मन से राजा गुरुजी के पास पहुंचे। विष्णु जी मन ही मन आतंकित हुए। बोले हे राजन! मैं तुम्हारे मन की बात समझ रहा हूँ। देखो उस बुढ़िया के चक्कर मे मुझे यहाँ से हटने के लिए नहीं कहना। मैं साक्षात ब्रम्ह हूँ, स्वयं विष्णु हूँ, मैं ही ज्ञान हूँ। इन सांसारिक वस्तुओं के लिए तुम मेरा अपमान  नहीं कर सकते।

       राजा तब तक मन बना चुके थे। बोले, देखिये गुरुजी ये प्रवचन आपके ठीक हैं परंतु अभी राज्य को विस्तारित करने के लिए धन की आवश्यकता है और धन इस बुढ़िया के पास अथाह है। आप बात को समझिए, थोड़े दिनों मे मैं आपके लिए पूरा महल बनवा दूंगा, तब तक आप शर्तें मान जाइए।

        गुरुजी भी अड़े हुए थे, मानने को बिलकुल तैयार नहीं। बुढ़िया को तो खैर मानना ही नहीं था। राजा के लिए दुविधा की स्थिति थी। पर जीत तो लक्ष्मी की ही होनी थी। चार सेवकों से जबरदस्ती गुरुजी को उठवा कर कक्ष के दरवाजे पर एक कुर्सी से बांध दिया गया। बुढ़िया मुस्कराती हुई बगल से निकल कर पलंग पर बैठ गयी।

      सुबह होने से पहले तो खैर दोनों लोगों को गायब होना ही था।

       क्षीरसागर के रास्ते तक विष्णु भगवान का मुंह फूला रहा और लक्ष्मी जी मंद-मंद मुस्कुराती रहीं। रात मे जब शेषनाग की शैया पर लक्ष्मी जी विष्णुजी के पैरों को दबा रहीं थीं तो विष्णु भगवान ने भुनभुनाते हुए कहा- लक्ष्मी, तुम्हारा मन मुझे पलंग पर से हटाने भर से नहीं भरा जो तुमने उसमे चौकीदारी की शर्त भी जोड़ दी?

       लक्ष्मी जी ने मासूम सा मुंह बनाते हुए कहा- हे नाथ! वह भावावेश मे मैं ऐसा कह गयी। मेरा मंतव्य तो बस आपकी दी हुई परीक्षा को अच्छे अंकों से पास करना ही था। स्वामी मुझे क्षमा कीजिये।

साभार:- सोशल मीडिया

मनोविज्ञान के सिद्धांतों को समझने के लिए जिसने भी ये कविता बनाई है जबरदस्त बनाई है.....👍

मनोविज्ञान के सिद्धांत 

तेरे हाल पॉवलव के कुत्ते सा !

मैं थाइनडाइक की कैट प्रिये !!

तू झट अनुबन्ध कर लेता !

मैं प्रयास त्रुटि में सेट प्रिये !!


तू कोहलर का चिम्पेजी सा !

मैं स्किनर की व्हाइट रेट प्रिये !! 

तू सूझ-बुझ से काम करे !

मैं क्रिया-प्रसूत में सेट प्रिये !!


तू गेने के अधिगम सोपान सा !

मैं बांडूरा की जोकर डॉल प्रिये !!

तू आठ रूप से सीखता रहता !

मैं अनुकरण करूं मॉडल प्रिये !!


तू टोलमैन का संकेत चिन्ह सा !

मै कुर्ट लेविन की तरनरूप प्रिये !! 

तू जीन पियाजे की संज्ञान स्कीमा !

मैं कार्ल रोजर्स का अनुभव प्रिये !!


तू वाईगोत्स्की का सोशल निर्मित वाद !

मै मेरलो रोजर्स की मानवता वाद प्रिये !!

तू सी एल हल का प्रबलन यथार्थ !

मैं गुथरी के समीप प्रतिस्थापन प्रिये !!


तेरे हाल पॉवलव के कुत्ते सा !

मैं थाइनडाइक की कैट प्रिये !!

साभार:- सोशल मीडिया

जिला कला एवं संस्कृति पदाधिकारी (विज्ञापन संख्या 01/2021) के संबंध में आवश्यक सूचना।

     यदि आप जिला कला एवं संस्कृति पदाधिकारी (विज्ञापन संख्या 01/2021) के लिए आवेदन किये है और परीक्षा का इंतजार कर रहे हैं तो आपके लिए एक महत्वपूर्ण सूचना है। इस पद के लिए निर्धारित प्रतियोगिता परीक्षा के अंतर्गत प्रारंभिक परीक्षा एवं मुख्य (लिखित परीक्षा) में विभिन्न कोटि के उम्मीदवार के लिए निर्धारित न्यूनतम नंबर प्राप्त करने की सूचना दी गई है जिसमें सामान्य श्रेणी को 40%, पिछड़ा वर्ग को 36.5% अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 34% अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिला एवं दिव्यांग उम्मीदवार को 32% अंक प्राप्त करना अनिवार्य होगा।


 

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

समकालीन भारतीय समाज की चुनौतियाँ और शिक्षा (CHALLENGES AND EDUCATION OF CONTEMPORARY INDIAN SOCIETY) S-1 D.El.Ed.2nd Year. B.S.E.B. Patna.

 


             भारत एक विशाल देश है। इसका भौगोलिक विस्तार एवं विस्तृत क्षेत्रफल इसे और भी विशालता प्रदान करता हैं। यहाँ प्राकृतिक विविधता, जातिगत, भाषा, धर्म सम्बन्धी विविधता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। इसके साथ ही भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों की ओर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि यह बहिर्मुखी (Extrovert) होने की अपेक्षा अंतर्मुखी (Introvert) अधिक है। यदि इसके मूल स्वरूप को देखा जाए तो भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता (spirituality) पर अत्यधिक बल देती है। भारत के सभी 10 दर्शन में हमें भारतीय संस्कृति की झलक मिल जाती है।

Note:- भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व ज्ञान कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है।

विकिपीडिया

       कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक राजस्थान से अरुणाचल प्रदेश तक विविधताओं से भरे होने के पश्चात् भी इसमें अंतर्निहित एकता को आप महसूस कर सकते हैं। 


विविधता का अर्थ 
(Meaning of Diversity)


       विविधता एक बहुआयामी शब्द है। विविधताओं से असमानताओं का जन्म होता है। भारतीय संविधान समानता पर बल देता है। तत्पश्चात् देश में विविध प्रकार की विभिन्नताएँ या विविधता विद्यमान हैं। विविधता विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। समानता की पोशाक रही भारतीय संस्कृति वर्तमान में असमानताओं से त्रस्त है। समानता का अर्थ- जन्म, वंश, स्थान, लिंग, धर्म, जाति, पद प्रतिष्ठा आदि के आधार पर समस्त नागरिकों से समान प्रकार का व्यवहार करने से है। वर्तमान परिस्थितियों में अपने देश में प्रत्येक क्षेत्र में भेदभाव प्रचुर मात्रा में पाया जा रहा है। सरकार हर प्रकार की समानताओं को दूर करने के लिए निरंतर अग्रसर है लेकिन इसकी जड़ें भारतीय जनमानस में इस तरह बैठ गई हैं कि पक्षपात के बगैर किसी कार्य में होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। विविधता व्यक्तियों के समान अवसरों में बाधा पैदा करती है। जिससे व्यक्ति का सर्वांगीण विकास संभव नहीं हो पाता है। 

भारतीय समाज में विविधता 

       समाज में विविधता से तात्पर्य है- किसी भौगोलिक-राजनैतिक क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न सामाजिक समूहों का अपनी विशिष्टता के साथ सह-अस्तित्व भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह विविधता विभिन्न रूपों में पायी जाती है। भारत जो कि एक समृद्ध संयुक्त एवं बहुल संस्कृति का केन्द्र है जहाँ विभिन्न शारीरिक संरचना, क्षेत्र, बोली, भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति के लोग अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के साथ जीवन यापन करते हैं। 

विविधता के विविध रूप अग्रलिखित हैं-

1. क्षेत्रीय या भौगोलिक विविधता 

        उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में अरुणाचल प्रदेश से लेकर में राजस्थान तक विभिन्न भौगोलिक विविधतायें है। कश्मीर में बहुत ठंड है तो दक्षिण भारतीय क्षेत्र बहुत गर्म है। गंगा का मैदान है जो अधिक उपजाऊ है तथा इसी के किनारे कई प्रमुख राज्य, शहर, सभ्यता और विकसित हुए। हिमालयी क्षेत्र में अनेक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल जैसे बद्रीनाथ, केदारनाथ तथा गंगा, यमुना, सरयू, ब्रह्मपुत्र, आदि। नदियों का उद्भव स्थल है। देश के पश्चिम में हिमालय से भी पुरानी अरावली पर्वतमाला हैं। कहाँ रेगिस्तानी भूमि है तो वहीं दक्षिण में पूर्वी और पश्चिमी घाट, नीलगिरी की पहाड़ियाँ भी हैं। यह भौगोलिक विविधता भारत को प्राकृतिक रूप से मिला उपहार है।

 2. भाषायी विविधता 

       भारत एक बहुभाषी राष्ट्र है, प्राचीन काल से ही भारत में विभिन्न भाषाओं व बोलियों का प्रचलन रहा हैं। वर्तमान में भारत में 18 राष्ट्रीय भाषाएँ तथा 1,652 के लगभग बोलियाँ पाई जाती हैं। भारत में रहने वाले इतनी भाषाएँ व बोलियाँ इसलिए बोलते हैं क्योंकि, यह उपमहाद्वीप एक लम्बे समय से विविध प्रजातीय समूहों की नींव रहा है। भारत में बोली जाने वाली भाषाओं को मुख्य रूप से चार भाषा परिवारों में बाँटा जा सकता हैं-

  •  ऑस्ट्रिक परिवार- इसके अन्तर्गत मध्य भारत की जनजातीय-पट्टी की भाषाएँ आती है जैसे :- संथाल, मुण्डा, आदि। 
  • द्रावीड़ियन परिवार- तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, गोंडी, आदि।
  • साइनो तिब्बतन परिवार- सामान्यतः उत्तर-पूर्वी भारत की जनजातियाँ। 
  • इंडो-यूरोपियन परिवार- भारत में सबसे अधिक संख्या में बोली जाने वाली भाषाएँ व बोलियाँ इण्डो आर्य भाषा परिवार की हैं। जहाँ एक ओर पंजाबी, सिंधी भाषाएँ व बोलियाँ बोली जाती। वहीं दूसरी ओर मराठी, कोंकणी, राजस्थानी, गुजराती, मारवाड़ी, हिन्दी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, बंगाली, मैथिली, कुमाउंनी, गढ़वाली जैसी भाषाएँ व बोलियाँ बोली जाती हैं। 
           भारतीय संविधान की 8वीं अनुसूची में केवल 22 भाषाएँ ही सूचीबद्ध हैं। यह भाषाएँ असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, बंगला, मराठी, मलयालम, संस्कृत, सिंधी, हिन्दी, नेपाली, कोंकणी, मैथली, बोड़ो भाषा, डोगरी भाषा, संथाली भाषा और मणिपुरी हैं। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 343 (2) के रूप में हिन्दी के साथ अंग्रेजी भाषा को भी सरकारी काम-काज की भाषा माना गया। सभी भाषाओं में हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो 2001 की जनगणना के अनुसार सबसे अधिक लोगो द्वारा बोली जाती हैं अर्थात् 248 करोड़।

3. प्रजातीय विविधता 

         प्रजाति ऐसे व्यक्ति का समूह है जिनमें त्वचा का रंग, नाक का आकार, बालों के रंग के प्रकार कुछ स्थायी शारीरिक विशेषताएँ पायी जाती हैं। भारत को प्रजातियों का अजायबघर (Museum) इसीलिए कहा गया। क्योंकि, यहाँ समय-समय पर अनेक बाहरी प्रजातियाँ किसी-न-किसी रूप में आती रहीं और उनका एक-दूसरे में मिश्रण होता रहा। भारतीय मानवशास्त्री सर्वेक्षण के अनुसार देश की प्रजातीय स्थिति को अच्छी तरह समझ पाना कठिन है। प्रजाति व्यक्तियों का ऐसा विशाल समूह है जिसकी शारीरिक विशेषताओं में अत्यधिक बदलाव न आकर यह आगे की पीढ़ियों में चलती रहती हैं। संसार में मुख्यतः 03 प्रजातियाँ कॉकेशाय, मंगोलॉयड, नीग्रॉयड पाई जाती हैं। अन्य शब्दों में इन्हें हम ऐसे मानव-समूह के नाम से सम्बोधित करते जिनके शरीर का रंग सफेद, पीला तथा काला हो भारतीय समाज में शुरू से ही द्रविड़ तथा आर्य प्रजातीय रूप से एक-दूसरे से अलग थे। द्रविड़ों में नीग्रॉयड तथा आर्यों में कॉकेशायड प्रजाति की विशेषताएँ अधिक पायी जाती थीं। बाद में शक, हूण, कुषाण व मंगोलों के आने पर मंगोलॉयड प्रजाति भी यहाँ बढ़ने लगी  व धीरे-धीरे यह सभी आपस में इतना घुल-मिल गई कि, आज हमें भारत में सभी प्रमुख प्रजातियों के लोग मिल जाते हैं। 

4. धार्मिक विविधता 

        भारत में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं। एक समय तक भारत में एक साथ विश्व के कई धर्म फले-फूले हैं जैसे हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, सिक्ख धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, इत्यादि। यहाँ हिन्दू धर्म के कई रूपों तथा सम्प्रदायों के रूप में वैदिक धर्म, पौराणिक धर्म, सनातन धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म, शाक्त धर्म, नानक पन्थी, आर्यसमाजी, आदि अनेक मतों के मानने वाले अनुयायी मिलते हैं। इस्लाम धर्म में भी शिया और सुन्नी दो मुख्य सम्प्रदाय मिलते हैं। इसी प्रकार सिक्ख धर्म भी नामधारी और निरंकारी , जैन धर्म में दिगम्बर व श्वेतांबर और बौद्ध धर्म हीनयान व महायान में विभाजित है। भारतीय समाज विभिन्न धर्मों तथा मत-मतान्तरों का संगम स्थल रहा है। 

      भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है, जहाँ सभी को अपने-अपने धर्म का आचरण व पालन करने की स्वतन्त्रता मिली है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में हिन्दू धर्म के अनुयायी सबसे अधिक अर्थात् 81.92 प्रतिशत, मुस्लिम धर्म के 12.29 प्रतिशत, इसाई धर्म के 2.16 प्रतिशत, सिक्ख धर्म 2.02 प्रतिशत, बौद्ध धर्म 0.79 प्रतिशत जैन धर्म के 0.40 प्रतिशत तथा अन्य 0.42 प्रतिशत हैं। इस प्रकार सभी धर्मों के लोगों की उपस्थिति को देखकर यह कहा जा सकता है कि देश की धार्मिक संरचना बहुधर्मी है। 

5. जातिगत विविधता

        'प्यूपिल ऑफ इण्डिया' के अनुसार भारत में करीब 4,635 समुदाय है। यह भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता है, जो और कहीं नहीं पायी जाती। यह व्यक्ति को जन्म के आधार पर एक समूह का सदस्य मान लेता है, जिसके अन्तर्गत समूह अपने सदस्यों के खान-पान, विवाह और व्यवसाय, सामाजिक सम्बन्धों के लिए कुछ प्रतिबन्धों को लागू करता है। आज बाहरी प्रजातियाँ भी हमारी जातियों में ही समाहित हो गई हैं, यह इस व्यवस्था की व्यापकता को ही दर्शाता है। यद्यपि कई विचारकों जैसे के. एम. पणिक्कर और ईरावती कर्वे ने माना है कि जाति-व्यवस्था ने हिन्दू समाज को विभिन्न भागों में बाँट दिया है। 

6. सांस्कृतिक विविधता 

        भारतीय संस्कृति में हम प्रथाओं, वेश-भूषा, रहन-सहन, परम्पराओं, कलाओं, व्यवहार के ढंग, नैतिक मूल्यों, धर्म, जातियों आदि के रूप में भिन्नताओं को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। उत्तर भारत की वेशभूषा, भाषा, रहन-सहन आदि अन्य प्रान्तों यथा दक्षिण पूर्व व पश्चिम से अलग हैं। नगर और गाँवों को संस्कृति अलग है, विभिन्न जातियों के व्यवहार के ढंग, विश्वास अलग हैं। हिन्दुओं में एक विवाह तो मुस्लिमों में बहुपत्नी प्रथा का चलन है, देवी-देवता भी सबके अलग-अलग हैं। भारतीय मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 91 संस्कृति क्षेत्र हैं। गाँवों में संयुक्त परिवार प्रथा और श्रमपूर्ण जीवन है तो शहरों में एकांकी परिवार हैं। अतः स्पष्ट है कि भारत सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्न विविधताएँ लिए हैं। 

7. जनांकिकीय विविधता (Demographic Diversity)

       सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 102 करोड़ से अधिक थी जो आज 121 करोड़ तक पहुँच चुकी है। देश के विभिन्न राज्यों में जनसंख्या में बहुत विविधता पायी जाती है। उत्तर प्रदेश में जनसंख्या का कुल 16.17 प्रतिशत भाग है तो उत्तर-पूर्वी राज्यों सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर, आदि। में कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत भाग रहता है। दिल्ली में औसतन 9,294 लोग एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में रहते हैं तो वहीं अरुणाचल प्रदेश में में 13 लोग रहते हैं। साक्षरता की दृष्टि से भारत का अध्ययन करने पर पता चलता है कि, सबसे कम साक्षरता बिहार में 47 प्रतिशत एवं सबसे अधिक लोग 99.1 प्रतिशत केरल में साक्षर हैं। देश में 6.78 करोड़ के लगभग विभिन्न जनजातियों के लोग रहते हैं जिनकी जीवन शैली बिल्कुल अलग हैं। कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों की जनसंख्या लगभग 47% है।


बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

भारत के प्रमुख ऐतिहासिक एवं दर्शनीय स्थल।

  •  अमरनाथ गुफा - कश्मीर 
  • सूर्य मन्दिर (इसे ब्लैक पगोडा भी कहा जाता हैं।) - कोणार्क 
  • वृहदेश्वर मन्दिर – तन्जौर 
  • दिलवाड़ा जैन मन्दिर - माउंट आबू (राजस्थान)
  • वृन्दावन गार्डन – मैसूर 
  • चिल्का झील - ओड़ीसा 
  • अजन्ता की गुफाएँ - औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
  • ताजमहल - आगरा (उत्तर प्रदेश)
  • इण्डिया गेट - दिल्ली 
  • काशी विश्वनाथ मन्दिर - वाराणसी 
  • साँची का स्तूप – भोपाल (मध्य प्रदेश) 
  • आमेर दुर्ग - जयपुर 
  • इमामबाड़ा - लखनऊ 
  • गोमतेश्वर श्रवणबेलगोला - कर्नाटक 
  • बुलन्द दरवाजा - फतेहपुर सीकरी 
  • अकबर का मकबरा - सिकन्दरा, आगरा
  • मालाबार हिल्स – मुम्बई 
  • शान्ति निकेतन - कोलकाता 
  • रणथम्भौर का किला - सवाई माधोपुर 
  • आगा खां पैलेस - पुणे 
  • महाकाल का मन्दिर - उज्जैन 
  • कुतुबमीनार - दिल्ली 
  • एलिफैंटा की गुफाएँ - मुम्बई 
  • अकबर का मकबरा - सिकन्दरा, आगरा 
  • जोग प्रपात – मैसूर 
  • निशात बाग - श्रीनगर 
  • मीनाक्षी मन्दिर - मदुरै 
  • स्वर्ण मन्दिर - अमृतसर 
  • एलोरा की गुफाएँ - औरंगाबाद 
  • हवामहल - जयपुर 
  • जंतर-मंतर - दिल्ली एवं जयपुर 
  • शेरशाह का मकबरा - सासाराम, बिहार
  • एतमातुद्दौला - आगरा 
  • सारनाथ - वाराणसी के समीप 
  • नटराज मन्दिर - चेन्नई 
  • जामा मस्जिद - दिल्ली 
  • जगन्नाथ मन्दिर - पुरी (उड़ीसा)
  • गोलघर - पटना (बिहार)
  • विजय स्तम्भ – चित्तौड़गढ़ 
  • गोल गुम्बद - बीजापुर
  • विजय स्तम्भ – चित्तौड़गढ़
  • गोलकोण्डा - हैदराबाद 
  • गेटवे ऑफ इण्डिया - मुम्बई 
  • जलमन्दिर - पावापुरी (बिहार) 
  • बेलूर मठ - कोलकाता 
  •  दखमा/टावर ऑफ साइलेंस - मुम्बई 

        दखमा या 'टॉवर ऑफ साइलेंस' (निस्तब्धता का दुर्ग) पारसियों के कब्रिस्तान को कहते हैं। यह गोलाकार खोखली इमारत के रूप में होता है जिसमें शव कौओं, चीलों आदि के खाने के लिए फेंक दिये जाते हैं। यहां पर पारसी लोग अपने मृत जनों का अंतिम संस्कार करते हैं। पारसी समुदाय में मृत शवों को न ही जलाया जाता है और न ही दफनाया जाता है, बल्कि उन शवों की चील, कौओं और अन्य पशु-पक्षियों के लिए आहार स्वरूप छोड़ दिया जाता है।
          दरअसल, पारसी पृथ्वी, जल और अग्नि को बहुत पवित्र मानते हैं, इसलिए समाज के किसी व्यक्ति के मर जाने पर उसकी देह को इन तीनों के हवाले नहीं करते। इसके बजाय मृत देह को आकाश के हवाले किया जाता है। मृत देह को एक ऊंचे बुर्ज (टावर ऑफ साइलेंस) पर रख दिया जाता है, जहां उसे गिद्ध और चील जैसे पक्षी खा जाते हैं। इस ऊंचे या शव निपटान के स्थान को “दाख्मा” कहते हैं और पूरी प्रक्रिया को “दोखमेनाशीनी” कहा जाता है। मुंबई के मालाबार हिल पर एक टावर ऑफ साइलेंस स्थित है। मालाबार हिल्स मुंबई का सबसे पॉश इलाका है। यह चारों ओर से घने जंगल से घिरा हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि इसका निर्माण 19 वीं सदी में हुआ था। टावर ऑफ़ साइलेंस में केवल एक ही लोहे का दरवाज़ा है। टावर का ऊपरी हिस्सा खुला रहता हैं, जहां शवों को रखा जाता है।
-wikipedia.

महाभारत के युद्ध के बाद।

             महाभारत के युद्ध के बाद का प्रथम दीपावली पर्व आने वाला था। महारानी द्रौपदी अपने कक्ष मे बैठी थीं। उसने अपनी गोद मे बालक परीक्षित को बिठा रखा था। उसी कक्ष मे सुभद्रा व उत्तरा भी बैठी हुई थी। उन तीनों के मध्य कुछ घरेलू बातें हो रही थीं। बाल परीक्षित रह-रहकर अपनी मुट्ठी मे द्रौपदी के सिर के बालों को पकड़ ले रहा था। उसके हाथों से बालों को छुड़ाने मे एक बार तो द्रौपदी की आंखों से आंसू निकल पड़े।

        उत्तरा ने उठकर परीक्षित को अपनी गोद मे लेते हुए बोली- दादी के बाल पकड़कर खींचना अच्छी बात नहीं, देखो दादी रोने लगी। यह दादा से तुम्हारी शिकायत करेंगी!!! ऐसा कह परीक्षित की बलैया लेते हुए उसने हंसते हुए द्रौपदी की तरफ देखा, उस समय द्रौपदी ने आंखें बन्द कर रखी थीं। उसके चेहरे पर असीम वेदना के भाव दृष्टिगत हो रहे थे। आंखों से आंसूओं के निर्झर झर रहे थे। सुभद्रा ने उठकर द्रौपदी के सिर को अपने हाथों मे भर पूछा क्या हुआ दीदी?

    कुछ नहीं, एक संक्षिप्त उत्तर देते हुए उसने स्वंय के बहते आंसुओं को पोछने लगी। उत्तरा ने हल्की सी प्यार भरी चपत परीक्षित को लगाते हुए बोली बहुत शैतान हो गया है यह, ऐसे ही मेरे बालों को भी मुट्ठी मे पकड़ खींच देता है। बहुत तेज़ दर्द होता है। ऐसा सुन द्रौपदी ने झपटकर परीक्षित को गोद मे ले लिया और बोली- नहीं बेटी, इसके ऐसा करने से लगा की जैसे कोई मेरे घाव पर मरहम लगा रहा हो, और मारे खुशी के मैं रो पड़ी।

      उसी समय कक्ष के बाहर खड़ी दासी ने आवाज लगायी कि महारानी महल की प्रधान व्यवस्थापिका आपसे मिलने की आज्ञा चाहती है। आज्ञा है। ऐसा द्रौपदी ने कहा। अब द्रौपदी और सुभद्रा अपने आसन पर बैठ गयीं, उनकी आज्ञा लेकर उत्तरा परीक्षित को लेकर अपने कक्ष में चली गयीं। प्रधान व्यवस्थापिका ने कक्ष मे आकर बारी बारी से द्रौपदी और सुभद्रा को प्रणाम कर हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। द्रौपदी ने पूछा- कहो, क्या कहना चाहती हो? 

      उसने कहा- हे महारानी राजमहल के प्रत्येक कक्ष और दरबार की साफ-सफाई और रंग-रोगन का कार्य हो गया है। केवल द्यूतक्रीड़ा गृह का नहीं हुआ है। 

क्यों, क्या समस्या है? क्या वहाँ की ताली (Key) तुम्हारे पास नहीं है? 

ऐसा नहीं है महारानी। उसकी ताली मेरे ही पास है, परन्तु उस कक्ष को खोलने की आज्ञा नहीं है मुझे। 

किसने रोक रखा है? 

महारानी, ऐसी आज्ञा महारानी गांधारी की थीं। उनके ही आज्ञा से उस कक्ष को खुले चौदह साल होने जा रहे हैं।

        चौदह साल यानी कि.......!! द्रौपदी बोलते-बोलते रह गयी और चुप हो व्यवस्थापिका की तरफ देखने लगी! 

उसने सिर झुका लिया और बोली- हां महारानी जैसा आप सोच रही हैं वैसा ही है। आप सभी के वनगमन की शाम को ही महारानी गांधारी ने उस द्यूतक्रीड़ा गृह को ताला बंद करवाकर उसकी ताली मुझे सौंप दिया। साथ ही आदेश दिया कि बिना मेरे आदेश के इसे ना खोला जाये। आज से यह किसी भी पुरुष के प्रवेश के लिए निषिद्ध रहेगा। हे महारानी, उस दिन से आज तक वह कक्ष कभी नहीं खुला।

       द्रौपदी और सुभद्रा नि:शब्द उसे सुनती रहीं। अपनी बातों को कह उसने पूछा महारानी क्या आज्ञा है उस कक्ष को खोल सफाई करवा दूं? 

नहीं उस कक्ष की ताली मुझे देदो और चली जाओ।

        उसी दिन शाम को सुभद्रा को साथ लिए द्रौपदी द्यूतक्रीड़ा गृह पहुंची, कोई दासी साथ नहीं। कक्ष का दरवाजा सुभद्रा ने खोला। सब कुछ वैसा ही था जैसा कि उस दिन था। अन्तर यही था कि उस दिन इस कक्ष का एक भी आसन खाली नहीं था आज सारे के सारे खाली पड़े हैं।

      द्रौपदी ने कहा- हे सुभद्रा, मैं जब भी पुत्रवधू उत्तरा को श्वेत वस्त्रों मे देखती हूँ तो मेरा कलेजा फट जाता है। मुझे अपने और तेरे प्रसवपीड़ा के दृश्य दिखाई देने लगते हैं। मेरी कल्पना मे मेरे पिता का वह भरा-भरा दरबार जिसमें मेरे महाप्रतापी पिता और महाबीर भाई दिखने लगते हैं। परन्तु हे सुभद्रा, मुझे अभी भी वह दिन नहीं भूलता।

      मेरे खुले केशों को पकड़ घसीटते हुए जब दु:साशन इस सभा मे लाया था तब कुरु राजपरिवार का कौन नहीं था इस कक्ष मे? सभी तो थे। वह भी थे जो इस महाभारत मे मारे गये वह भी थे जो आज जिंदा हैं। उस ऊंचे सिंहासन पर महाराज धृतराष्ट्र, इस आसन पर पितामह, यहाँ आचार्य श्रेष्ठ, यहाँ कुलगुरु, यहाँ काका श्री विदुर जी। अस्त्र-शस्त्र व आभूषण आभासी मेरे पांचो पति यहाँ बैठे थे, सिर झुकाये। आतताईयों का समूह यहाँ बैठा था निर्लज्जता के साथ। काका व विकर्ण को छोड़ किसी ने भी प्रतिकार नहीं किया इन पापियों का। लगातार बोले जा रही थी द्रौपदी ऐसा लग रहा था जैसे विक्षिप्त हो गयी हो।

      क्या करे वह समझ नहीं पा रही थी। तभी उसे टूटा हुआ एक काला लम्बा केश दिखा। उसे उठा उसने द्रौपदी से दिखाते हुए पूछा दीदी यह तेरा केश है क्या? कितना काला और लम्बा है। उस समय द्रौपदी एक दर्पण के पास खड़ी थी। उसने उस केश को हाथों मे लेकर कहा- हां री यह मेरा ही है। परन्तु देख ना अब यह कैसे श्वेत हो गये हैं अब। जुए की एक बाजी ने क्या से क्या दिन दिखा दिया हमे। उसकी आंखों से अश्रुधार का निर्झर बह रहा था।

         आंखों के आंसू पोछ दासी को आवाज लगाकर बोली- साफ करवाकर इस कक्ष को खुला छोड़ दो आमजन के लिए!! लोग देखें इसे और विचार करें कि जुए की एक ही बाजी क्या से क्या कर देती है कुल के कुल खत्म हो जाते हैं।

कोशिश कर, हल निकलेगा।

 कोशिश कर, हल निकलेगा। 

आज नही तो, कल निकलेगा। 

अर्जुन के तीर सा सध, 

मरूस्थल से भी जल निकलेगा। 

मेहनत कर, पौधो को पानी दे, 

बंजर जमीन से भी फल निकलेगा। 

ताकत जुटा, हिम्मत को आग दे, 

फौलाद का भी बल निकलेगा। 

जिन्दा रख, दिल में उम्मीदों को, 

गरल के समन्दर से भी गंगाजल निकलेगा। 

कोशिशें जारी रख कुछ कर गुजरने की, 

जो है आज थमा-थमा सा, 

वो भी चल निकलेगा।


कोशिश कर, हल निकलेगा। 

आज नही तो, कल निकलेगा। 

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

पाश्चत्य कलाकारों के कुछ चित्र संपूर्ण विश्लेषण के साथ।

घनवाद का चित्र


1. चित्र का नाम??
➡द ब्लू रुम 

2. चित्रकार का नाम??
➡पाब्लो पिकासो

3. किस पर बना है??
➡कैनवास

4. किस माध्यम से बना है?
➡तैल माघ्यम

5. किस सन मे बना??
➡1901 ई०

6. किस काल का चित्र है?
➡घनवाद का चित्र

7. किस आकार का है??
➡50.8 X 60.96cm(21" X 24")

8. कहाँ पे संग्रहीत है??
➡फिलिप्स संग्रह

         यह 2014 में एक्स-रे तकनीक का उपयोग करके एक अलग पेंटिंग छिपा हुआ पाया गया था, जो वाशिंगटन में फिलिप्स संग्रह के कला इतिहासकारों और वैज्ञानिकों के एक समूह द्वारा कॉर्नेल विश्वविद्यालय के उच्च ऊर्जा सिन्क्रोट्रॉन स्रोत से वैज्ञानिकों द्वारा सहायता प्राप्त की गई थी।


1. चित्र का नाम??
➡वुमेन ऑफ़ अल्जीयर्स

2. चित्रकार का नाम?
➡पाब्लो पिकासो

3. किस पर बना है?
➡कैनवास

4. किस माध्यम से बना है?
➡तैल माध्यम

5. किस सन मे बना?
➡1955 ई०

6. किस काल का चित्र है?
➡घनवाद का चित्र

7. किस अकार का है?
➡114cm X 146.4cm(45" X 57.6")

8. कहाँ पे संग्रहीत है?
➡हमद बिन-जसीम बिन जोबेर अल थानी के निजी संग्रह में-दोहा (कतर)


1. चित्र का नाम?
➡द विपिंग वुमन

2. चित्रकार का नाम?
➡पाब्लो पिकासो

3. किस पर बना है?
➡कैनवास

4. किस माध्यम से बना है?
➡तैल माघ्यम

5. किस सन मे बना?
➡1937 ई०

6. किस काल का चित्र है?
➡घनवाद का चित्र

7. किस अकार का है?
➡66 cm X 49 cm (60" X 49")

8. कहाँ पे संग्रहीत है?
➡ टेट मॉडर्न - लंदन

घनवाद का प्रथम चित्र


1. चित्र का नाम?
➡आविन्यों की स्त्रियाँ

2. चित्रकार का नाम?
➡पाब्लो पिकासो

3. किस पर बना है?
➡कैनवास

4. किस माध्यम से बना है?
➡तैल माघ्यम

5. किस सन मे बना?
➡1907 ई०

6. किस काल का चित्र है?
➡घनवाद का चित्र

7. किस अकार का है?
➡243.9cm X 233.7cm (96" X 92")

8. कहाँ पे संग्रहीत है?
➡म्यूजियम आफ मॉडर्न आर्ट- न्यूयार्क


1 चित्र का नाम??
➡सिस्टीन मेडोना
2 चित्रकार का नाम??
➡राफेल
3 किस माध्यम से बना??
➡तैल
4 किस पर बना है??
➡कैनवास
5 किस सन मे बना??
➡1512ई०
6 किस अकार का है??
➡265cmX196cm (104"X77")
7 कहाँ पे संग्रहीत है??
➡जेमाल्डगर्ली अल्टे मिस्टर, ड्रेसडेन


1. चित्र का नाम?
➡द ओल्ड गिटारिस्त
2. चित्रकार का नाम?
➡पाब्लो पिकासो
3. किस माध्यम से बना?
➡तैल
4. किस पर बना है?
➡पैनल
5. किस सन मे बना?
➡1903-1904
6. किस अकार का है?
➡122.9cm X 82.6cm
    48.4 X 32.5 इंच
7. कहाँ पे संग्रहीत है?
➡Art institute of chicago
   ( शिकागो के कला संस्थान में)

सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

वर्तमान परिदृश्य पर सटीक बैठता दोहा


गुरु शिष्य बधिर, अंध का लेखा। 

एक न सुनहि, एक नहीं देखा।


गुरु और शिष्य में अंधे और बहरे का सबंध हैं। गुरु ज्ञान की दृष्टि से अंधा है तथा शिष्य गुरु की बात सुनने को तैयार नहीं हैं। 

मेरे बचपन की यात्रा

 


       बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान शिक्षक द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच रॉकेट की गति से गिड़ते-पड़ते सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित (Undeclared) प्रतियोगिता होती थी। 

     जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कॉपी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले तो मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ "अजीमो शाह शहंशाह" बना क्लास में घूम-घूम कर कॉपीया बाँटता और बाकी के बच्चे मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह अपनी बेंच से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते। शिक्षक की उपस्थिति में क्लास के भीतर चहल-कदमी की अनुमति आज के समय की कामयाबी की तरफ पहला कदम माना जाता था। 

       हम कभी-कभी सोचते हैं की उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे 

  • कला वाले सर ने हमारी ड्रॉइंग पर GOOD लिख दिया।
  • सर ने क्लास में सभी बच्चों के बीच अगर हमें हमारे नाम से पुकार लिया.....
  • गलती से किसी प्रश्न का उत्तर सबसे पहले दे दिए। 

        यदि कभी सर अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर भूल जाते और हमे लाने की बोल दिये तो फीलिंग ऐसे आती थी कि कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन हो गया हो और कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज प्रधानमंत्री के पास ले जा रहे हो

      आज भी याद है जब बहुत छोटे थे तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारे शिक्षक दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। पता नही क्यों??? किसी भी सार्वजनिक जगह पर सर को देख उन से वार्तालाप करने की हिम्मत नहीं होती थी।

        हम कैसे भूल सकते है, अपने उन गणित के सर को जिनके खौफ से 07, 13, 17 और 19 का पहाड़ा याद कर पाए थे और a+b का होल स्क्वायर जिन्हें याद ना करने पर कई दफा क्लास से बाहर खड़ा होना पड़ा था।

       कैसे भूल सकते है उन हिंदी के शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नही ज्वर पीड़ित होने के साथ विनम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश मिल सकता था। बारिश होती है होता नहीं है और ना जाने और कई सारे हिन्दी शब्द जिनका उच्चारण एवं लेखन वो सही कराते थे, जिसके बदौलत मैं आज कुछ लिख पाता हूं।

     वो शिक्षक तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने आपकी क्लास को स्कूल की सबसे शैतान क्लास की उपाधि से नवाज़ा था।😎

        उन शिक्षक को तो कतई नही भुलाया जा सकता हैं जो होमवर्क की कॉपी घर पर भूलने पर ये कहकर कि  ...“कभी खाना खाना भूलते हो?” ... बेइज़्ज़त करने वाले इस तकिया कलाम  से हमें शर्मिंदा करते थे।

       शिक्षक के महज़ इतना कहते ही कि  "एक कोरा पेज़ देना" पूरी कक्षा में फड़फड़ाते 50 पन्ने फट जाते थे। 

       शिक्षक के टेबल के पास खड़े रहकर अपनी कॉपी चेक कराने के बदले यदि सौ दफा सूली पर लटकना पड़े तो वो ज्यादा आसान लगता था। 

      क्लास में शिक्षक के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़कों के हाव-भाव ऐसे होते थे कि उत्तर तो उनके ज़ुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ में नहीं आ रहा। ये ड्रामेबाज छात्र🙄 उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते-झेलते आखिर शिक्षक के सब्र का बांध टूट जाता। तब शिक्षक आजिज़ होकर कहते:- you, yes you!!! Get out from my class😠

      सुबह की प्रार्थना-सत्र🙏 में जब हम दौड़ते-भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान प्रार्थना में कम और आज सौभाग्य से कौन-कौन से शिक्षक अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा रहता था। 

       आपको वो शिक्षक तो जरूर याद है न, जिन्होंने ज्यादा बात करने वाले दोस्तों की जगह बदल उनकी दोस्ती कमजोर करने की साजिश की थी। 

      मैं आज भी दावा के साथ यह कह सकता हूँ कि एक या दो शिक्षक शर्तिया ऐसे होते है जिनके सिर के पीछे की तरफ़ अदृश्य नेत्र👀 का वरदान मिलता है, ये शिक्षक ब्लैक बोर्ड पर लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे। 

       अभी तक तो आपको वो शिक्षक जरूर याद आ गए होंगे जो चॉक का उपयोग लिखने में कम और बात करते बच्चों पर भाला फेंक शैली में मारने में ज्यादा लाते।

     हर क्लास में एक ना एक ऐसा बच्चा जरूर होता था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी और वो प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते और सादगी से कहते- मैम आई हैव आ डाउट  इन क्वैशच्यन नम्बर 11. हमें डेफिनेशन के साथ उदाहरण भी देना है क्या? उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख मेरा खून खौलने लगता😡।

      परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे, कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते  शिक्षक साक्षात सुनामी🌊 लगते थे। 

      ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई  'विद्या कसम' के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य हुआ करता था। 

     मेरे लिए आज तक यह रहस्य अनसुलझा ही है शायद आपके लिए भी हो कि खेल के पीरियड का 40 मिनिट छोटा और इतिहास का पीरियड वही 40 मिनिट लम्बा कैसे हो जाता था🤔 ??

        क्लास रूम में मेरी पसंदीदा सबसे आगे की सीट हुआ करती थी। जानते हैं कि सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चॉक खत्म हुई तो मैम/सर के इतना कहते ही कि "कोई भी जाओ  बाजू वाली क्लास से चॉक ले आना" सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में "मे आई कम इन मैंम/सर" कह सिंघम वाली स्टाइल में एंट्री करते।

        "सरप्राइज़ चेकिंग" पर, हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी। सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कॉपी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कॉपियों के ऊँचे ढेर में अपनी कॉपी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान🌊 को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी लेकिन तूफान अभी आये या कुछ देर बाद नुकसान उतना ही करता है जितना उसे करना होता है।

          सबसे अधिक दर्द तो वे निर्दयी शिक्षक देते थे जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे। चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते हैं जो मैम के क्लास में प्रवेश करते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे "मैम कल आपने होमवर्क दिया था।" जी में आता था इस आइंस्टीन की औलाद को डंडों से धुन के धर दे लेकिन कभी कर ना पाएं।

       इन सभी तमाम शरारतों के बावजूद भी ये बात सौ आने सही हैं कि बरसों बाद उन शिक्षक के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक मिल जाएं तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे तो कतई नहीं। आज भी जब मैं अपने उत्क्रमित कन्या प्राथमिक विद्यालय, कोइरी-गाँवा की बिल्डिंग के सामने से गुजरता  हूँ तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न मेरे दोस्त हैं न हमको पढ़ाने वाले वो शिक्षक। बच्चों को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नहीं दिखते जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते थे “गेटवां बंद मत करs ऐ भैया हम आवते बानी।” और हम दौड़ते हुए गेट के पास जाते। अब तो वो बूढ़े से बाबा भी नहीं हैं जो मैदम से हस्ताक्षर लेने जब जब लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में प्रवेश करते तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती की “कल छुट्टी है।” 

        अब उस विद्यालय के सामने से निकलने पर एक टीस सी उठती है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छिन गयी हो। आज भी जब उस इमारत के सामने से निकलता हूँ तो पुरानी यादों में खो जाता हूं।😣

        स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाइत्वों को निभाते, दूसरे शहरों में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है। जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है। जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया। 

उन सभी मेरे आदर्श शिक्षकों को मेरा प्रणाम🙏.