सोमवार, 9 मई 2022

बिहार की लोककला (भोजपुरी चित्रकला के विशेष संदर्भ में) शोध-प्रारूप (synopsis)

 बिहार की लोककला 

(भोजपुरी चित्रकला के विशेष संदर्भ में) 


         कला, संस्कृति एवं सभ्यता मानव के विकास की निधि है, मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए भी एक विशेष प्रकार समाजिक वातावरण, प्रथाओ धर्म, दर्शन, लिपि एवं भाषा के द्वारा विभिन्न प्रकार की कलाओ का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करता है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की रचना भी कुछ इसी प्रकार से हुई है। देश के किसी भी भाग की सभ्यता एवं संस्कृति की स्थायी सफलता उसकी कला निहित होती है।


      सृष्टि के आरम्भ से ही कला और संस्कृति का विकास निरन्तर होता रहा हैं, इसका निर्माण घर, आंगन और प्रान्तों से शुरू होता है, लौकिक अथवा अलौकिक जो भी अनुभूति एक कलाकार ग्रहण करता है उसमें से अपनी बुद्धि के अनुसार अपने मस्तिष्क के चित्रफलक पर अंकित करने की चेष्टा करता है। 


      लोककला मानव जीवन के विभिन्न पक्षो को रसमय बनाती है, यही इसकी महानता का भी प्रतीक है। बिहार का क्षेत्र कला एवं संस्कृति में हमेशा से ही अग्रणी रहा हैं। यहां की कला यहां के संस्कारों से बंधी हुई होती है। कुछ ऐसे पर्व एवं त्यौहार है जो बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में अपने-अपने तरिके से मनाये जाते है एवं सभी में किसी न किसी रूप में लोक कला को बनाने का प्रचलन रहा है। पर्व त्यौहारो पर बनने लोक कलाओ को जीवन्त रखने एवं उन्हें नये रूप में प्रस्तुत करने का पूरा श्रेय ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओ को जाता है इसीलिए लोक-कला को महिलाओ की कला भी कहा गया है। 


         बिहार की लोक कलाओ को मुख्यत: 05 क्षेत्रो में विभाजित किया गया है-


(1). मिथिलांचल क्षेत्र की मधुबनी चित्रकला 

(2). अंग क्षेत्र की मंजुषा चित्रकला

(3). मगध क्षेत्र की टिकुली कला 

(4). वनांचल क्षेत्र की जादोपटिया लोक चित्रकला 

(5). भोजपुर क्षेत्र की भोजपूरी चित्रकला 


        बिहार के परिदृश्य में लोक कला का परिक्षेत्र अत्यधिक विस्तृत होने की वजह से अध्ययन की सुविधा के लिए मैंने अपना विषय एवं कार्य क्षेत्र बिहार की पांचवी लोक चित्रकला भोजपूर क्षेत्र की भोजपूरी चित्रकला का चयन किया है। 


भोजपूरी चित्रकला


      भोजपुर क्षेत्र की कला जिसे हम भोजपुरी चित्रकला के नाम से जानते है। इस चित्रशैली को चार भागो में बाटा गया है:-  

1. पिड़िया लेखन कला 

2. गोदना कला 

3. थापा कला 

4. कोहबर कला 


1. पिड़िया लेखन कला:- पिड़िया कला भोजपुर क्षेत्र की उत्कृष्ठ लोक कला है। यह कला वर्ष में एक बार दिवार पर बनायी जाती है इसे पिड़िया लेखन के नाम से भी जाना जाता है। यह लेखन काफी कलात्मक एवं सौन्दर्यात्मक होता है। 

     'पिड़िया' शब्द सुनते ही हमारे मन में एक सम्पूर्ण आयोजन परिकल्पना होने लगती है। पिड़िया लेखन की शुरुआत गोधन (गोवर्धन) पूजा के दिन से ही आरम्भ होती है एवं विभिन्न रुपी में एक महिने तक इसमें लेखन का कार्य चलता रहता है। इस आयोजन के प्रारम्भ से अन्त तक कला की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसमें बनायी जाने वाली आकृतियों के लिए गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है। 

      जब हम बिहार के परिप्रेक्ष्य में देखते है तो पाते है कि गोधन की पूजा सम्पूर्ण परिक्षेत्र में युवतियो एवं महिलाओ के द्वारा की जाती है किन्तु गोधन पूजा के उपरान्त पिड़िया लेखन की परम्परा केवल भोजपुरी भाषी क्षेत्रो में ही विद्यमान है, आज भी पिड़िया लेखन कला वहां जिवित है।

भोजपुरी चित्रकला का रेखांकन


(2). गोदना कला:-
गोदना कला सम्पूर्ण बिहार राज्य में बहुत ही प्रसिद्ध रहा है लेकिन भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इसकी मान्यता कुछ अलग ही है। गोदना के पिछे यह मान्यता है कि गोदना गोदवाने से स्त्रियो का सुहाग अमर हो जाता है एवं जिन 
स्त्रियो के हाथ में गोदना गुदा रहता है उनके हाथ का बना भोजन हमेशा स्वादिष्ट होता है। शादी के बाद प्रत्येक स्त्री को गोदना गुदवाना अति आवश्यक समझा जाता है। वर्तमान समय में बिहार के लगभग परिदृश्य में यह प्रथा समाप्त हो रही है परन्तु भोजपूरी भाषी क्षेत्री के गांवो में यह पम्परा आज भी जीवित है।

(3). थापा कला:- थापा कला काफी प्राचीन कला है इसकी शुरुआत प्रागतिहासिक काल से मानी जाती है। इसके अन्तर्गत हाथ की हथेली एवं उंगलियों के सहयोग से थापा (थप्पा) मारने से जो चित्र अंकित होता है उसे ही थापा कला की संज्ञा दी गयी है। यह चित्र परिवारिक एकता, पंचो की साक्षी, पंचतत्वों की समग्रता तथा युगल सहयोग का प्रतीक चिह्न है। 


(4). कोहबर:- भोजपुर जनपद की महिलाओ के द्वारा विवाह के अवसर पर वर-वधू के कमरे में बनाया गया भित्तिचित्र है। कोहबर बनाने के कुछ नियम होते है जिसके अन्तर्गत घर की बहू-बेटिया ही मिलकर इसे बनाती है। 

       कोहबर के चित्र सामान्यतः सुखद दाम्पत्य जीवन एवं सांसारिक क्रिया-कलापो को प्रतीकात्मक रूप में दर्शाते है, जिसमे वर-वधू के सुन्दर भविष्य की कामना छिपी हुई होती है। कोहबर का निर्माण करते समय अक्सर वहां की महिलाएं यह गीत गुनगुनाती है -


"कौशल्या माता कोहबर लिखली हो, 

बड़ा ही जतन से। 

गंगा जमुना के बिछावन करेली हो, 

बड़ा ही जतन से" 


     कोहबर में विभिन्न प्रकार के प्रतीक चिह्न बनाये जाते है जो एक विशेष अर्थ प्रदान करते हैं।

जैसे - 

पालकी - वर वधु का 

बांस - वंश बढ़ने का 

स्वस्तिक - शुभ संकेतो का

कजरौटा - बुरी नजरो से बचने का 

मछली - मैथुन का 

आईना - श्रृंगार का 

पुरईन का पत्ता - परिवार एवं संतान का  

सिन्दूर - सुहाग का

कमल - परम्परा का 

घोड़ा - सुखद दाम्पत्य जीवन का 


        इन सारे प्रतीक चिह्नो का प्रयोग कोहबर निर्माण के समय किया जाता है। 


शोध-उद्देश्य 


        बिहार राज्य के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी एक विशेष कला शैली है और उसका अपना अस्तित्व भी है इन्ही कला शैलियो के क्रमबद्ध अध्ययन को ध्यान मे रखते हुए मैने यह विषय अपने शोध कार्य के लिए चुना है जिसका उद्देश्य एवं विशेष क्षेत्र अध्ययन की दृष्टि से अभी अभिष्ट है जिसे इस ऐतिहासिक शोध के माध्यम से प्रकाशित करना है। साथ ही साथ साहित्यिक एवं समकालीन स्थितियों का अध्ययन करना भी इस शोध प्रारूप का उद्देश्य होगा।


विश्वजीत कुमार✍️

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