पाल शैली (730-1197 ई.)
स्थानेश्वर के सम्राट 'हर्ष' व गौड़ के राजा 'शशांक' के पश्चात् लगभग 100 वर्षो तक बंगाल को शासन व्यवस्था बिगड़ी रही और सन् 730-740 ई. के मध्य बंगाल की जनता ने विद्रोह आरम्भ किया। बंगाल की जनता ने 'गोपाल' नामक व्यक्ति को चुन कर अपना राजा घोषित कर दिया और इस प्रकार बंगाल में 'शांति' एवं 'पाल राजवंश' की स्थापना हो पाई। 'राजा गोपाल', जो बंगाल के 'पाल वंश' का 'प्रथम शासक' था, ने शीघ्र ही दक्षिणी बिहार तक अपना राज्य स्थापित कर लिया गोपाल के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी पुत्र राजा 'धर्मपाल' रहा। (लगभग 810 ई.) उसने अपने साम्राज्य को और अधिक सुदृढ़ किया। वह अति धार्मिक प्रवृत्ति, विद्या व्यसनी व कला का संरक्षक था। उसने गंगा के किनारे 'भागलपुर' में 'विक्रमशिला महाविद्यालय' बनवाया था। धर्मपाल ने ही ओदान्तपुरी व सोमपुरी विहारों को 'वारेन्द्र' (उत्तरी बंगाल) में बनवाया। धर्मपाल के पुत्र 'देवपाल' (810-850 ई.) ने अपनी सीमा का विस्तार किया। वह वास्तु चित्रकला एवं मूर्तिकला का महान् उन्नायक था। उसने 'सारनाथ', 'गया', 'नालन्दा', 'कुर्कीहार' आदि स्थानों पर मूर्तियाँ व उकेरियाँ बनवाई। देवपाल के बाद उनके पुत्र 'नारायणपाल' ने सत्ता संभाली। इसके बाद 'महीपाल' इस राजवंश का प्रतिभाशाली सम्राट हुआ। इसके समय में अनेक पाल पोधियों का चित्रण हुआ।
महीपाल ने कई 'चैत्य', 'मूलगंघकुटी' व 'धर्मराजिका' स्तूप बनवाये। महीपाल का पुत्र 'जयपाल' था और जयपाल का पुत्र 'विग्रहपाल तृतीय' था। ये सभी सम्राट बौद्धधर्म के अनुयायी थे। 'बुद्ध योग मुद्रा में कमल पर आसीन '1087 ई.' चित्र इस समय का उत्तम उदाहरण है। विग्रहपाल तृतीय के राज्यकाल में उत्तरी बंगाल में सेन वंश के उदय से, बंगाल पालवंश के बाद, इस प्रदेश पर 'सेन राजवंश' की स्थापना हो गई।
11 वीं शताब्दी के मध्य 'नवकल्याणी' के 'चालुक्य राजा विक्रमादित्य' ने बंगाल पर आक्रमण किया, तब उसके एक सेनापति 'सामन्तसेन' ने उत्तरी उड़ीसा में सुवर्ण रेखा नदी के किनारे 'काशीपुरी' नामक नगरी में एक राजवंश की स्थापना की। 12वीं शताब्दी में इसी राजवंश के किसी विजयसेन ने पालों से बंगाल जीत लिया और पालवंश की शक्ति को क्षीण कर दिया। 'विजयसेन', 'वल्लासेन' और वल्लासेन के पुत्र 'लक्ष्मण सेन' क्रमशः राजा हुए।
'लक्ष्मणसेन' एक विद्वान एवं शक्तिशाली राजा था। गीत-गोविन्द के रचयिता 'जयदेव', 'उमापतिधर', 'श्रीधरदास', 'हलायुध', 'गोवर्धनाचार्य' जैसे विद्वान एवं कवि उसके दरबार की शान थे। लक्ष्मण का पुत्र 'माधवसेन' कुतुबद्दीन के सेनापति से 1199 ई. में हार गया।
इस वंश के राजा 'सेन' नाम से प्रसिद्ध थे। वे ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे व बौद्ध धर्म के विरोधी। सन् 1199 ई. में तुर्कों ने नालन्दा पर जो आक्रमण किया था, उससे बौद्ध संस्कृति व चित्रकला को गहरा धक्का लगा।
पाल शैली का नामकरण
जैसा कि आप जानते हैं कि पाल राजा बौद्ध धर्म के महान् संरक्षक थे। इन्हीं के प्रयत्नों से बौद्ध धर्म एवं संस्कृति तिब्बत तथा दक्षिणी पूर्वी देशों में फैली।
तिब्बती इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने लिखा है कि 7वीं शताब्दी के पश्चिम भारत में जिस चित्र शैली का निर्माण हुआ था , उससे भिन्न 9 वीं शताब्दी के पूर्वी भारत (बंगाल) में एक नवीन चित्र शैली का उदय हुआ, जो पूर्वी शैली कहलायी, लेकिन यह नाम भी उचित न लगा, क्योंकि पाल शैली को समुन्नत करने वाले केवल पाल राजा थे, अतः पूर्वी शैली से उनका योगदान प्रकट नहीं हो पाया।
प्रसिद्ध कला समीक्षक 'हेलन रूबीसो' ने इस शैली को 'बिहार शैली' कहा। क्योंकि यह शैली बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, नेपाल, बंगाल आदि क्षेत्रों में भी पनपी। अतः बिहार शैली का नामकरण देकर इसे केवल मात्र बिहार से जोड़ना उचित नहीं जान पड़ा, अत: इसका 'पाल शैली' ही सबसे उपयुक्त नाम रहा।
कलाकार 'धीमान' एवं उसके पुत्र 'वितपाल' ने इस शैली को पनपने में सहायता प्रदान की। पाल शैली के तीन प्रमुख केन्द्रों में बंगाल, बिहार और नेपाल हैं।
बंगाल के पट चित्र : बंगाल में जिन चित्रों का प्रचलन हुआ, उनके निर्माणकर्त्ता अशिक्षित और व्यवसायी थे, इसीलिये न तो वे प्राचीन परम्परा को ग्रहण करने में समर्थ हो सके, न ही वे अजन्ता तथा बाघ आदि के भव्य वर्ण-विधान तथा लोकप्रिय विषय-वस्तु ही ग्रहण कर सके। वस्तुतः तो उनमें अपनी कल्पना थी, न अपने भाव और न नूतन अभिव्यंजना ही।
ये पट चित्र में थे, जिनको उनके निर्माता कलाकार परम्परा से प्राप्त अपने ज्ञान को हर तरह की घिसी-पिटी शैली में चला रहे थे। दूसरे उन्होंने उसे घरेलू व्यवसाय का रूप दे दिया था। उनके बहुधा कुछ गिने-चुने विषय हुआ करते थे, जिनमें दो प्रमुख थे- एक तो वह जो मेले में बेचने के उद्देश्य से बनाये जाते थे और उनका मूल्य भी कम होता था। दूसरे प्रकार के चित्र वे होते थे, जिनको घूम-घूम कर प्रचारित किया जाता था। वे थे रामायण या महाभारत अथवा कृष्ण काव्य एवं तांत्रिक देवी-देवताओं के चित्र।
इस प्रकार ये पट चित्र मनोरंजन विनोद और आजीविका के साधन माने जाने लगे, जिनमें लोक शैली का पुट होने से इन्हें कुछ महत्व तथा प्रसिद्धि प्राप्त हुई। सचित्र पोथियों को अच्छे ताल-पत्र, पत्ते या राजताल पर लिखा गया है। ये ताल-पत्र लगभग 02 इंच लम्बे तथा 2.5 इंच चौड़े हैं। इन ताल-पत्रों से बने पृष्ठों पर देवनागरी लिपि में सुन्दर और कटे छापे के समान अक्षरों में यह पोथियाँ लिखी गई हैं। कुछ पोधियों में काली पृष्ठभूमि पर सफेद रंग से लिखाई की गई है। लिपिकार बड़ी सावधानी से इन कथाओं को सुन्दर अक्षरों में लिखता था।
इन पृष्ठों के बीच-बीच में आयताकार या वर्गाकार स्थान खाली छोड़ दिया जाता था, जिनमें महायान देवी-देवताओं (बौद्ध धर्म संबंधी चित्र) के चित्र बनाये जाते थे। ये चित्र एक या दो इंच वर्गाकार के होते थे।
इन 'पोधियों को ढकने' के लिये (पोथियों पर जिल्द) 'दोनों ओर पटरे' लगाये जाते थे। इन्हें 'दफतियाँ' या 'काष्ट पट' कहा जाता था। इन पर भी 'भगवान बुद्ध की जीवनी' तथा 'उनके शिक्षा संबंधी चित्र' अंकित हैं, जो जातक कथाओं पर आधारित हैं। इस शैली के चित्रों पर अजन्ता शिल्प का प्रभाव है।
पाल शैली की सचित्र पोथियाँ
पाल पोथियों में सचित्र पोथियाँ दो दर्जन से कम मिलती हैं और जो प्राप्त हैं, उनमें 'साधनमाला', 'गन्धव्यूह', 'करनदेवगुहा', 'पंचशिखा', 'महायान' बौद्ध पोथियाँ हैं।
बंगाल तथा बिहार में लिखी गई10 वीं शताब्दी एवं परवर्ती काल व महायान बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक पोथियों के चित्र प्राप्त हुये हैं, जो पुस्तकों के दृष्टान्त चित्र ही हैं।
- इन दृष्टान्त चित्रों में सर्वप्रथम वे चित्र हैं जो 'अष्टसहंस्त्रिका प्रज्ञापारमिता बौद्ध ग्रन्थों पर आधारित हैं। इन ग्रन्थों की अनेक प्रतियाँ 10वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के भीतर बंगाल , नेपाल, बिहार, नालन्दा, विक्रमशीला में चित्रित हुई, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
- रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल (सं. 4713), महीपाल के राज्यारोहण के छठे वर्ष में चित्रित।
- रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल (सं. 15) वाली, सन् 1071 ई. की चित्रित। इसमें तारामंडल व लोकेश्वर का चित्र है , जो अजन्ता जैसा है।
- रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल की (सं. 4203) प्रति
- महिपाल के राज्यारोहण के पाँचवें वर्ष में चित्रित केम्ब्रिज वाली प्रति (सं. 1464)।
- रामपाल के 39वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित हुई, वरेडेन वर्ग संग्रह वाली प्रति।
- हरिवर्मा के 19वीं राज्यारोहण में चित्रित, वारेन्द्र अनुसंधान समिति (राजशाही) के संग्रह वाली।
- ब्रिटिश संग्रहालय (सं. 6902) गोपाल तृतीय के 15वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित। यह विक्रमशिला महाविहार में चित्रित हुई।
- 'पंचशिखा'- राजा जयपाल के 14वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित की गई और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित है। उपरोक्त सभी पोथियाँ तालपत्र पर हैं, जिसमें सुन्दर लिपि, तराशे हुए अक्षर और चमकीली स्याही का प्रयोग है।
- 'गन्धव्यूह ग्रन्थ', जिसकी प्रतियाँ कुल्लू, स्वेतस्लाव रोरिक इत्यादि के संग्रह में है। इसमें 126 चित्र हैं, जो अजन्ता परम्परा के अनुरूप हैं।
- 'बौधिचर्यावत्र', इसकी एक प्रति बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका व वारेन्द अनुसंधान समिति राजशाही में सुरक्षित है।
- पाल शैली के अधिकांश चित्र पोथियों में ही प्राप्त होते हैं और जो स्फुट चित्र प्राप्त हैं, वे बंगाल के पट चित्र हैं। पृष्ठों के बीच - बीच में जो चित्र बनाये गये, वे पोथियों के चित्र आकार में लघु हैं और उनमें लाल (सिन्दूर, हिंगुल तथा महावर), नीला (लाजवर्दी या नील), सफेद खड़िया या कासगर काला (काजल) तथा मूल रंगों के मिश्रण से बनाये गये गुलाबी, बैंगनी तथा फाखताई रंगों का प्रयोग किया गया है।
- मानवाकृतियों के अधिकतर चेहरे सवाचश्म हैं और एक ही प्रारूप में बनाये गये हैं। सिर चपटे हैं, नाक लम्बी, जो परले गाल से आगे निकली हुई है। आँखें बड़ी-बड़ी, कर्णस्पर्शी और वक्र रेखाओं से बनाई गई हैं। कुल मिलाकर आकृतियों में सजीवता और स्वच्छन्दता का अभाव है और पास-पास हैं। आकृतियों के हाथों तथा पैरों की मुद्राओं में अकड़न है।
- चित्रों की रेखाएँ काले रंग से बनाई गई हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि तूलिका की जगह निब का प्रयोग किया गया है। रेखाओं में प्रवाह तो है, परन्तु मोटाई से क्रमिक उतार - चढ़ाव नहीं है। इन दृष्टान्त चित्रों में अलंकारिता का पर्याप्त समावेश है।
- यह पोथियाँ उत्तम प्रकार के ताल-पत्रों को छाया में सुखाकर बनाये गये पत्रों पर तैयार की गई हैं। इनकी लम्बाई 22 इंच तथा चौड़ाई 2 इंच है, जिन पर महायान देवी - देवताओं तथा भगवान बुद्ध से संबंधित चित्र हैं।
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