मंगलवार, 24 मई 2022

जैन बौद्ध कृतियों में चित्रकला।


जैन बौद्ध कृतियों में चित्रकला 


      जैन बौद्धों के प्राकृत तथा पाली भाषाओं में रचित ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि पढ़े-लिखे विद्वान् एवं साहित्यकार और जन-सामान्य का चित्रकला के प्रति अनुराग था। 


      चित्रकला के क्षेत्र में श्वेताम्बरीय जैनों का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। उनके व्याकरण ग्रन्थ 'प्रश्नव्याकरणसूत्र'- (2/5/16) में चित्रों की तीन प्रमुख श्रेणियों का उल्लेख किया गया है। 

  1. 'संचित' में मानव, पशु व पक्षी, 
  2. 'अचित' में नदी, पहाड़, आकाश, नदी और 
  3. मिश्र संयुक्त है और जो चित्र लकड़ी, कपड़े और पत्थर पर अनेक रंगों के योग से उकेरे जाते हैं।
       उन चित्रों का सामूहिक नाम 'लेपकम्प' कहा गया है। मिट्टी, पत्थर तथा हाथीदाँत पर भी चित्र बनाने की प्रथा थी। जैन ग्रंथों में हमें 'अल्पना चित्रों' की परम्परा का पता चलता है जो उस समय प्रचलित लोक-कला का उन्नत स्वरूप था।


       तत्कालीन राजवर्ग के व्यक्तियों में चित्रकला के प्रति अनुराग का पता 'नायधम्भिकहाओं' ( 1/1/17) की कथा से विदित होता है कि 'महाराज श्रेणिक' के महल की दीवारों पर अच्छे चित्र उकेरे हुये थे। ठीक उसी प्रकार के चित्र 'मेघकुमार' के महल में भी सज्जित थे। (1/1/18) 


      राजवर्गीय व्यक्तियों के अतिरिक्त जन - सामान्य में भी चित्रकला को एक मनोरंजन के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठा पाये देखते हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के ग्रन्थ 'अन्तगडदसाओ' (6 / 3) में लिखा है कि नागरिकों ने अपने मनोविनोद के लिये कुछ ऐसी संस्थाओं की स्थापना की थी, जहाँ वे संध्याकाल में अवकाश के समय एकत्र होकर अपना मनोविनोद किया करते थे। 'नाया धम्म कहाओ' (1 / 16 / 77-80) से यह पता चलता है कि 'चम्पा' नामक नगरी में ऐसी ही ललित गोष्ठी (ललियाएणामं गोठ्ठी) नाम की एक प्रमोद सभा विद्यमान थी।


        11 वीं -12 वीं शताब्दी में रचित जैन साहित्य की कथा-कृतियों में चित्रकला के संबंध में बड़ी ही उपयोगी चर्चाएँ देखने को मिलती है।


सुरसुन्दरी कहा (1038 ई.) सुरसुन्दरी कहा प्राकृत मागधी भाषा की जैन कहानी है, जिसमें चित्रकला का वर्णन है, जो इस प्रकार है- एक चित्रकार ने कक्ष के धरातल पर एक मोर पंख का चित्र इस प्रकार अंकित किया कि उठाने वाले व्यक्ति के नख में चोट आ गई। एक अन्य श्लेषोक्ति के द्वारा किसी नायक की एकान्त प्रेमासक्ति को भ्रमर और कुमुदिनी का चित्र बनाकर व्यक्त किया। 


तरंगवती (11 वीं -12 वीं शताब्दी) : तरंगवती भी एक जैन कथा है जो सम्भवतः आँधभृत्य राजाओं के आश्रय में निर्मित हुई, जिसमें प्रेम प्रसंग के रूप में चित्रकला का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है- तरंगवती का नायक जब विदेश चला जाता है, तो नायिका तरंगवती, नायक की खोज में एक चित्र प्रदर्शनी का आयोजन करती है, ताकि उसका रुष्ट प्रेमी पति उस प्रदर्शनी को देखने के बाबत ही आ जाये।


त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित (1082-1172 ई.) : इस महाकाव्य की रचना जैनाचार्य 'हेमचंन्द' ने की थी और श्वेताम्बर जैन लोगों में इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है। इसकी कथा के अनुसार उस समय राजदरबार में अनेक चित्रकारों की एक विशेष सभा होती थी, जो भित्तिचित्रों से सुसज्जित होती थी। 


    बौद्धों के 'पिटकों', 'जातकों' तथा 'गाथा विषयक' अनेक ग्रन्थों में तत्कालीन समाज में प्रचलित मनोरंजन के साधनों का उल्लेख मिलता है, जिसमें चित्रकला का भी एक स्थान है। 


विनयपिटक (400 ई.पू. से 300 ई.पू.) : यह पाली भाषा का बौद्ध ग्रन्थ है (5 / 6/36) इस के एक प्रसंग में बताया गया है कि कौशलराज प्रसेनजित के प्रमोद - उद्यान के एक भाग में मनोरम चित्रागार (चित्र संग्रहालय) की स्थापना की गई थी, जिसे देखने के लिये प्रतिदिन लोगों का मेला लगा रहता था। यहाँ तक अनेक प्रतिबंधों के बावजूद भी कुछ भिक्षुणियाँ इन चित्रों को देखने का लोभ संवरण न कर पाती थीं। कुछ बौद्ध ग्रन्थों से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में चित्रकर्म को आजीविका का एक साधन भी माना जाता था। 


  'जातक' में (1/4/18) चित्तकर्म 'सेलित्तक' अथवा 'सेक्खरा - खियन सिप्प' में थक्का लगाने की कला का उल्लेख है।


'धम्मपद' (2/69) के एक प्रसंग में बताया गया कि वाराणसी निवासी एक ब्राह्मण इस विद्या में इतना निपुण था कि वह चक्का चलाकर बरगद की पत्तियों पर हाथी - घोड़े आदि जानवरों के चित्र बना कर बदले में भोजन या भोजन सामग्री प्राप्त करता था। 


      'जातक ग्रन्थों' (6/333, 6/432) में यह बताया गया है कि 'ओसधि' नामक एक राजकुमार ने अपने सहयोगियों से चंदा एकत्र करके भव्य क्रीड़ाशाला का निर्माण करवाया, जिसको दीवारों को चारों ओर से सुन्दर-सुन्दर चित्रों से सज्जित करवाया। इसी ग्रन्थ की अन्य कथा से पता चलता है कि महोसघनाककुमार ने पातालपुरी के महल में पत्थर की आदि के उत्कृष्ट चित्र बनवाये थे । सुरम्य स्त्री मूर्तियाँ , दीवारों पर इन्द्र की क्रीड़ा भूमि, समुद्र से परिवृत्त सिनेरू पर्वत, महासमुद्र, चारों महाद्वीप, नागाधिराजहिमालय, अनुत्तम झील, चंद्र, सूर्य, चतुरमहाराजिक और स्वर्ग आदि के उत्कृष्ट जीत बनवाए थे।


थेरगाथा (400 ई.पू. से 300 ई.पू.) में कहा गया है कि 'राजा विम्बिसार' (543-614 ई.पू.) ने रागुन के राजा तिस्स को बुद्ध भगवान की जीवनी का एक चित्र फलक और स्वर्णपत्र पर अंकित भागवत तथागत के जीवनवृत्तों के दृश्य भेंटस्वरूप प्रदान किये थे। 


'मिलिन्द प्रश्न' (2/121) में कहा गया है कि दान के समय चित्र नहीं दिये जाने चाहिये। कुछ कला प्रेमी राजाओं ने चित्रकला की शिक्षा के लिये कला निकेतनों को भी स्थापित किया था।


महावंश के एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि महाराज ज्येष्ठतिष्य एक अच्छे चित्रकार थे और अपने इसी कला प्रेम के कारण उन्होंने अपनी प्रजा में चित्रकला के प्रचारार्थ चित्र विद्या शिक्षा के लिये विशेष प्रबन्ध किया था। इन सभी बातों के बावजूद जैन और बौद्ध युग में हमें एक अन्य बात देखने को मिलती है।


'आचारागसूत्र' (2/2/3/13) से ज्ञात होता है कि बौद्ध भिक्षुणियों, जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों को चित्र शालाओं में जाने तथा ऐसे स्थानों पर रुकने के लिये कठोर प्रतिबन्ध लगाया था। राजा नल के 'प्रमोद भवन' की भित्तियों तथा दीवारों पर जो चित्र बने थे, वे जीवन्त थे।

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