सोमवार, 23 मई 2022

पुराणों में कला विषयक सामग्री


पुराणों में कला विषयक सामग्री 


       'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के 'चित्रसूत्र' में 'चित्रकला' को कलाओं में सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'कलानां प्रवरं चित्रम् ।' इसके अतिरिक्त शिल्प तथा कला विषयक सामग्री का भण्डार पुराणों में उपलब्ध है, जैसे - अग्नि, हरिवंश, स्कन्द और पदम् आदि।  


विष्णुधर्मोत्तर पुराण :- यह ग्रन्थ छठी शताब्दी में लिखा गया था। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का चित्रसूत्र भारतीय चित्रकला की प्रौढ़ परम्परा को दर्शित करने वाला, एकमात्र ग्रन्थ है। इस चित्रसूत्र का सर्वप्रथम अनुवाद 'डॉ. स्टेला क्रेमरिश' और बाद में 'डॉ. आनन्द कुमारस्वामी' ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तीसरे खण्ड के 35वें अध्याय से लेकर 43वें अध्याय पर्यन्त 'चित्रसूत्र' नामक एक प्रकरण है। चित्रसूत्र के आरम्भिक श्लोकों को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि चित्रांकन के संबंध में इससे भी पहले ही से विचार होने लगा था और मुनिवर्ग के मनीषी लोग इस क्षेत्र में क्रियात्मक रूप से भाग लेने लगे थे। इस ग्रन्थ में एक कथा का उल्लेख है कि पुराकाल में उर्वशी की सृष्टि करते हुए नारायण मुनि ने लोगों की हित-कामना में चित्रसूत्र की रचना की थी। महामुनि ने निकट आई हुई सुर-सुन्दरियों को छलने के लिये अति सुगन्धित आम्र फल का रस लेकर पृथ्वी पर एक रूपवती स्त्री का श्रेष्ठ चित्र बनाया। चित्र में अंकित उस अत्यन्त रूपसी स्त्री को देखकर वे सभी सुर-सुन्दरियाँ लज्जित हो गई। इस चित्र से ही नारायण ने विश्वकर्मा को चित्रकला सिखाई और सृष्टि का चित्र चित्रित किया। इस प्रकार चित्रकला के लक्षणों से युक्त उस चित्रकृति को महामुनि ने विश्वकर्मा को समर्पित कर दिया। इसी से 'चित्रसूत्र का श्रीगणेश' माना जाता है। 


        सम्पूर्ण चित्रसूत्र नौ अध्यायों में विभक्त है, जिनमें चित्र का आयाममानवर्णन, प्रमाणवर्णन, सामान्यमानवर्णन, प्रतिमालक्षणवर्णन, क्षयवृद्धि, रंगव्यतिकार, वर्त्तना, रूपनिर्माण और शृंगारादि भावकथन आदि के विषय में पर्याप्त चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि जिस कृति में आत्मीयता, वेदना (छंद) और अनिर्वचनीय रसमयता है, वही चित्र कहा जा सकता है। 


       'चित्रलक्षण' में 'नौ रस' माने गये हैं:-

  1. श्रृंगार 
  2. हास्य 
  3. करुण 
  4. रौद्र 
  5. वीर 
  6. भयानक 
  7. वीभत्स 
  8. अद्भुत
  9. शान्त 
       इनका प्रयोग किस रूप में होना चाहिए, का भी निर्देश दिया गया है। इस ग्रन्थ में 'चार प्रकार के चित्र' बनाये गये हैं-  सत्य, वैनिक, नागर तथा मिश्र। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में 'पाँच प्रकार के मुख्य रंग' बताये गये हैं- 

  1. श्वेत 
  2. पीत 
  3. लाल 
  4. कृष्ण 
  5. नोला 


        इन पाँच रंगों के संयोग से अन्य सैकड़ों रंग बनाने की बात कही गई है। इसी प्रकार भिन्न प्रमाण विधियाँ तथा नाप-जोख की रीतियाँ बताई गई है। प्राचीन आचार्यों ने 'पाँच प्रकार के मनुष्य' बताये हैं- 

  1. हंस 
  2. भद्र 
  3. मालव्य 
  4. रूचक
  5. शशक

अन्य प्रकार की 'पाँच आकृतियों' का वर्णन है। यथा- नर, क्रूर, असुर, बाल और कुमार तथा बच्चों को आकृतियों इत्यादि का भी वर्णन है। साथ ही उनके माप और लक्षण भी बताये गये हैं। स्त्रियों के बालों, नेत्रों तथा अंग-भंगिमाओं के अनेक प्रकार बताये गये हैं। आकृतिचित्रण, प्रकृतिचित्रण, व्यक्तिचित्रण और लघुचित्र आदि चित्रों के भी भेद बताये गए हैं।


अग्निपुराण (200-400 ई. के बीच) यह महापुराणों में एक प्रौढ़ रचना है, जिसका सांस्कृतिक, साहित्यिक, शिल्प और कला आदि अनेक विषयों की दृष्टि से बड़ा महत्व माना गया है। साथ ही इस पुराण का शिल्पकला विवेचन अधिक वैज्ञानिक और खोजपूर्ण भी है। इसके ( 42-46, 49-55, 60-62, 104 और 106) इन सोलह अध्यायों में 'शिल्प के अनुभागों' की विस्तार से विवेचना की गई है। ग्रन्थ के 13 अध्यायों में केवल 'मूर्तिकला' पर प्रकाश वर्णित है। 


हरिवंशपुराण (400 ई.) : (2/118/6270) के प्रसंग में यह बताया गया है कि वाणासुर की पुत्री, उषा को उदास देखकर उसकी सखी चित्रलेखा ने संसारभर के तत्कालीन प्रसिद्ध व्यक्तियों के चित्र उकेरकर उसके सामने प्रस्तुत किये थे, जिनको देखकर उसने अपना प्रियतम पहचान लिया था।


मत्स्यपुराण (500 ई.) : इसके लगभग आठ अध्यायों में शिल्प तथा कला की चर्चा की गई है।


स्कन्धपुराण (800 ई.) : इसके 'माहेश्वर' और 'वैष्णभ' नामक खंडों में शिल्प और कला के संबंध में उपयोगी बातें की गई हैं। इस पुराण के 'नागर खण्ड' से ज्ञात होता है कि राजकुमारी रत्नावली जब विवाह योग्य हो गई थी, तो उसके पिता अनर्तराज ने सुयोग्य वर की तलाश के लिये दूर-दूर देशों में अपने चित्रकारों को भेजा था कि वे प्रत्येक सुयोग्य राजकुमार का चित्र खींचकर उसके राज्य में उपस्थित करे। इस प्रकार चित्रकारों के द्वारा लाये गए चित्रों को देखकर राजकुमारी ने अपने लिये वर का चुनाव कर लिया था। 


पद्मपुराण (1200-1500 ई.) : इसके उत्तरखण्ड (221/1-11) में कहा गया है कि केरल राज्य के मंत्री को सुपुत्री ने तीर्थ यात्रा की चित्र-पुस्तिका राजकुमारी 'हेम गौरांगो' को दिखाई थी। इस तीर्थ पुस्तिका को देखकर राजकुमारी ने निश्चय किया था कि उसमें निर्दिष्ट तीर्थों का वह अवश्य भ्रमण करेगी। इसी पुराण के 'सृष्टि खण्ड' (431/441) कहा गया है कि भगवान शंकर के क्रीड़ा-गृह की भीत पर पालतू मयूरों और राजहंसों के में भव्य चित्र उकेरे हुये थे।

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