शनिवार, 14 मई 2022

कला का इतिहास, कुषाण काल 25 ई० पू० - 200 ई० (History of Art, Kushan period 25 BC - 200 AD) Online Class Notes 11/05/2022.

 मथुरा शैली 

(दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से छठी शताब्दी ईस्वी तक)

मथुरा शैली का लगभग 800 वर्षों तक कालखंड रहा हैं। यह कला गंधार कला से भी प्राचीन है। शुंग, कुषाण एवं गुप्त काल में इस शैली की मूर्तियां बनती रही। 

     शुंग काल में यहां पर टेरा-कोटा की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाई गई है। मथुरा शैली में निर्मित मूर्तियों के विषय जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म तीनों की मूर्तियां बनी है। 


   मथुरा के कंकाली टीला से जैन धर्म की मूर्तियां प्राप्त होती है जो कि सफेद चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर (रेतीला पत्थर) से निर्मित है इसे भरतपुर, राजस्थान से मंगाया जाता था।

    यहां से प्राप्त मूर्तियों का माध्यम टेराकोटा, पत्थर एवं हाथीदांत था लेकिन सबसे प्रमुख माध्यम पत्थर था। यहां से हमें कास्य एवं तांबा की भी प्रतिमाएं प्राप्त होती है।


मथुरा कला में निर्मित प्रथम ब्राह्मण शिल्प अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है।


कंकाली टीला:- यहां से खड़ी हुई अप्सराओं (जैन धर्म) की मूर्तियां प्राप्त हुई है। इसके अलावा,

बोधिसत्व मैत्रे:- अभय मुद्रा

प्रसाधिका यक्षी:- मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। 

कनिष्क की प्रतिमा:- सिर विहीन, लबादा पहने हुए। वर्तमान में मथुरा संग्रहालय में रखी गई है।


कनिष्क की सिर विहीन प्रतिमा।

पूजा करती यक्षी की प्रतिमा।

       इसके अलावा सूर्य, शिव, विष्णु, चंद्रमा, कुबेर, इत्यादि की भी प्रतिमाएं प्राप्त हुई है।

  मथुरा से प्राप्त जैन धर्म की मूर्तियों को 03 भागों में बांटा गया है:-

  1. जैन तीर्थंकरों की प्रतिमा (जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं।)
  2. जैन देवियों की प्रतिमा (16 देवियां जैन धर्म में मानी गई है।)
  3. आयागपट्ट (अयागापता या अयागपट्ट जैन धर्म में उपासना से जुड़ी एक प्रकार की वात पटिया है।)
    यह एक वर्गाकार शिलापट्ट होता है जो पूजा के काम में आता है। इस पर दिगंबर मुनि सुपर्ण एवं शालभंजिका की आकृतियां बनी होती थी।


आयागपट्ट- कंकाली टीला-मथुरा, दूसरी शताब्दी ईस्वी कुषाण काल।

  मूर्तिपूजा के पहले अर्हतो की पूजा हेतु आयागपट्टो का उपयोग होता था।
  इस आयागपट्ट के मध्य में पद्मासन तीर्थंकर विराजित है, आयागपट्ट के ऊपरी भाग में क्रमशः मीनयुगल, नंद्यावर्त, श्रीवत्स व वर्धमान है। नीचे नंद्यावर्त, पुष्पपात्र,भद्रासन व मंगल कलश है। दोनो तरफ स्तम्भ है पहले स्तम्भ के शीर्ष पर 15 आरो का धम्मचक्क व दूसरे स्तम्भ के शीर्ष पर हाथी अवस्थित है।

      जैन धर्म की कुछ प्रतिमाएं सर्वतो भद्रो शैली में बनी है। जिनमें से नेमिनाथ, आदिनाथ, पार्श्वनाथ, इत्यादि हैं। 

विशेषताएं:- 

           यहां की मूर्तियां पूर्णयता भारतीय शैली में बनी है। इनके शरीर में गोलाईपन है। इनकी कल्पना यथार्थ ना होकर आदर्शनात्मक बनाई गई है। इन मूर्तियों में बाल नहीं दिखाए गए हैं। यदि दिखाएं भी गए है तो बहुत छोटे-छोटे हैं। मथुरा शैली में आभामंडल सादा बना हुआ है। मूर्तियों को प्रायः खड़े या बैठे दिखाया गया है। जिसमें त्रिभंग मुद्रा सर्वाधिक दिखाई देता है।

कुषाण कालीन राजाओं की प्रतिमा:-

           मथुरा से 08 मील दूर माठ नामक स्थान पर एक राजभवन है उसमें देवकूल स्थान पर यहां के राजा अपने पूर्वजों की मूर्तियां लगवाते थे। जहां से कुछ मूर्तियां कुषाण काल की भी प्राप्त है।

वीम्बतक्षक (केकडफिसेस की प्रतिमा):- यह प्रतिमा कुषाण कालीन है। याह शासक हिंदू धर्म को मानने वाला था, जिसने अपने सिक्कों पर शिव, नंदी तथा त्रिशूल को अंकित करवाया। 


शक राजा चैस्टेन की मूर्ति:- इनकी नाक चपटी होती थी एवं चेहरा चौड़ा होता था।

     मथुरा से प्राप्त बौद्ध एवं जैन धर्म की मूर्तियों को अलग करने का कार्य श्री वत्स ने किया था। 

     राजा कनिष्क के शासन काल में कुषाण राजवंश:-

मथुरा (2BC - 06 AD)

गंधार (50 BC - 300 AD)

मथुरा (2BC - 06 AD)
  • गंधार (02 BC - 06 AD)
  • फ्रिस्टैटिग स्कल्पचर (सर्वतोभद्र) उभारदार मूर्तियों का निर्माण हुआ है। 
  • आध्यात्मिक भावना से ओतप्रोत 
  • लाल रंग के पत्थर पर सफेद रंग की चीती (बलुआ पत्थर) 
  • भारतीय प्रभाव 
  • चरम - गुप्तकाल 
  • यहां पर आभामंडल सादा बना है।
  • सर्वप्रथम बुद्ध की मूर्ति यहीं से प्राप्त होती है।
गंधार (50 BC - 300 AD)
  • गंधार (50 BC - 300 AD)
  • फ्रिस्टैटिग स्कल्पचर (सर्वतोभद्र) उभारदार मूर्तियों का निर्माण हुआ है।
  • यथार्थ (वास्तविक) मूर्तियों का निर्माण 
  • शिष्ट पत्थर (काला स्लेटी) 
  • विदेशी प्रभाव 
  • चरम - कुषाण काल 
  • यहां पर आभामंडल अलंकित बनाया गया है।
  • सर्वप्रथम आभामंडल बना।
गुप्त राजवंश 
(250/75ई o - 550ईo)

यह हिंदू (वैष्णव धर्म) था। 
राजकीय चिन्ह - गरुड़ पक्षी।

        कुषाण रावंश के पतन होते ही दक्षिण में वाकाटक वंश तथा उत्तर भारत में एक नया राजवंश स्थापित होता है, जिस के संस्थापक होते हैं :- श्री गुप्त और इस वंश का नाम है:- गुप्त राजवंश।लेकिन इस राज वंश का वास्तविक संस्थापक चंद्रगुप्त प्रथम को माना जाता है।
संस्थापक - श्री गुप्त 
वास्तविक संस्थापक - चंद्रगुप्त प्रथम 
चरमोत्कर्ष - चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)

      गुप्त राजवंश को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। गुप्त राजवंश भारतीय कला का स्वर्ण काल था। कुमारगुप्त (चंद्रगुप्त द्वितीय का पुत्र) बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई थी। 
गुप्त काल में मंदिरों का, विहारों (गुफाओ) का, विश्वविद्यालयों का, स्तूपो, इत्यादि का निर्माण हुआ।

      चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। (399-414 ईo तक) लगभग 15 वर्ष तक वो भारत में रहा।

गुप्तकालीन कला का केंद्र 

  1. मथुरा 
  2. अहिछत्रा 
  3. कन्नौज 
  4. राजगृह 
  5. सारनाथ 
  6. कौशांबी 
  7. श्रावस्ती 
  8. सुल्तानगंज 
गुप्त काल की विशेषता:- मंदिरों का निर्माण

गुप्तकालीन शिखर शैली/नागर शैली के मंदिर 

Note:- आर्य शिखर शैली नागर शैली को कहते हैं। शिखर का अर्थ होता है- नागर 
  1. सांची का मंदिर संख्या-17 यह मंदिर मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित है। गुप्त काल का सबसे प्राचीन मंदिर है इसमें शिखर नहीं प्राप्त है यह चपटा हैं।
  2. तिगवा का मंदिर मध्य प्रदेश के जबलपुर में स्थित है यह मंदिर गुप्तकालीन विष्णु को समर्पित है।
  3. भूमरा का शिव मंदिर मध्यप्रदेश के सतना में भगवान शिव को समर्पित है। 
  4. नचना कुठार मंदिर मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में स्थित है एवं माता पार्वती को समर्पित है।
  5. भीतरगांव का मंदिर कानपुर (विक्रटेंपल) ईंटो का मंदिर है जो कि लक्ष्मण को समर्पित हैं।
  6. ऐरण का मंदिर मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित है एवं भगवान विष्णु को समर्पित है। 
  7. सिरपुर का मंदिर छत्तीसगढ़ में स्थित है एवं लक्ष्मण को समर्पित है। 
  8. अहींछत्रा का मंदिर उत्तर प्रदेश के बरेली में स्थित है भगवान शिव को समर्पित है। 
  9. मुकुंदरा का मंदिर राजस्थान, कोटा में स्थित है। 
  10. महाबोधि मंदिर गुप्तकाल, बिहार के गया में स्थित है।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें