साहित्य में चित्रकला
महाभारत (600 ई.पू. से 500 ई.पू.):- यह भारतीय साहित्य की उन्नत परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इस समय तक चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कला के इन विभिन्न अंगों का अनेक उपांगों में पूर्ण विकास हो चुका था। महाभारत में रूपभेदों की विभिन्नता पर प्रकाश डाला गया है, जो उन्नीस (19) प्रकार के हैं।
महाभारत (3/293/13) में 'सत्यवान' के संबंध में बताया गया है कि उसे बचपन में घोड़ों का शौक था और वह वन में माता-पिता के साथ रहते हुए मिट्टी के घोड़े बनाता था। भित्ति पर भी घोड़े के चित्र अंकित करता था। इसी कारण बचपन में उसका नाम 'चित्राश्व' पड़ गया था।
महाभारत में 'उषा अनिरुद्ध' की एक सुन्दर प्रेम कथा के प्रसंग में चित्रकला का उल्लेख आया है। राजकुमारी उषा ने स्वप्न में एक सुन्दर युवक को अपने साथ वाटिका में विहार करते देखा और वह उससे प्रेम करने लगी। प्रातः जागकर राजकुमारी उषा, युवराज की स्मृति में दुखी होकर एकान्त चली गई। जब उसकी परिचारिका 'चित्रलेखा' को इस घटना के बारे में पता चला, तो उसने समस्त महापुरुषों, देवताओं तथा उस समय के सभी युवराजों के छवि-चित्र स्मृति के आधार पर बनाकर उषा के सम्मुख पेश किये। उषा ने स्वप्न में देखे राजकुमार का चित्र पहचान लिया, जो कृष्ण के प्रपौत्र 'अनिरुद्ध' का था। व्यकित चित्र को देखकर राजकुमारी प्रसन्न हो गई। इस प्रकार अन्य कथाएँ भी प्रचलित हैं , जिनमें स्मृति से व्यक्ति चित्र बनाने की चर्चा आई है।
एक प्रसंग में (महाभारत सभापर्व, अध्याय 3 तथा 47) 'युधिष्ठिर की सभा' का बड़ा रोचक वर्णन मिलता है। सभागृह के संबंध में लिखा है कि सभा भवन की दीवार में जहाँ दरवाजा दिखाई देता था, वहाँ वह वस्तुतः दरवाजा नहीं रहता और जहाँ नहीं दिखाई देता था, वहीं पर दरवाजा बना होता था। ऐसे स्थान पर दुर्योधन को भ्रम हो गया और वह धोखे में आ गया।
एक अन्य जगह दीवार पर एक ऐसा चित्र बनाया गया है, जिसमें एक सच्चा दरवाजा खुला दिखाई पड़ता था, परन्तु जब कोई उसमें प्रवेश करता, तो उसका सिर दीवार से टकरा जाता था।
एक जगह स्फटिक भूमि बनाकर उसमें ऐसी कला दर्शायी गई है कि वहाँ पानी का आभास होता था और अन्य जगह पर स्फटिक के एक हौज में पानी भरा हुआ था। उसमें स्फटिक का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण ऐसा प्रतीत होता था कि वहाँ पानी बिल्कुल नही है। इस सभा गृह को बनाने वाला कारीगर फारस देश के अर्थात् 'असुर' थे। उपरोक्त वर्णनों से हमें पता चलता है कि उस समय चित्रकला के साथ - साथ स्थापत्य का भी बोलबाला था।
रामायण ( 600 ई.पू. से 500 ई.पू. ) : रामायण के समय का समाज कला के प्रति बड़ा निष्ठावान था। इस काल में चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कलाकारों का पूर्ण विकास हो चुका था। 'बालकाण्ड' के 'छठे' सर्ग में महामुनि ने अयोध्यावासियों का जो परिचय दिया है, उसको देखकर विदित होता है कि वे लोग 'कलाविद्' और 'सौन्दर्यप्रेमी' थे।
सौन्दर्य प्रसाधनों के संबंध में स्थान-स्थान पर महामुनि ने जो केशसज्जा, अंगराग, चित्र - विचित्र, वस्तुओं का व्यवहार, स्त्रियों के कपोलों पर पत्रावली का अंकन, राजप्रासादों, गृहों, रथों तथा पशुओं की सज्जा, नगरों एवं उद्यानों की कलापूर्ण रचना और उत्सवों की विशद् चर्चाएँ हुई हैं। उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज की कला तथा सौन्दर्य के प्रति हार्दिक अभिरुचि थी।
'रामायण' में कला के अर्थ में 'शिल्प' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसके अन्तर्गत गीत, नृत्य, वाद्य, चित्रकर्म आदि सभी ललित कथाओं का अंतर्भाव किया गया है। कहा जाता है कि कला के प्रति उत्कृष्ट अभिरुचि के कारण राम भी अछूते न रह सके थे। कला उच्च आस्था थी, राजा की दृष्टि से भी उसका उतना ही महत्त्व था, के प्रति समाज में इसका पता हमें उस प्रसंग को देखकर चलता है, जहाँ महामुनि ने राम को संगीत, वाद्य तथा चित्रकारी आदि मनोरंजन के साधनों का ज्ञाता बताया है।
एक अन्य कार्मिक प्रसंग, जिसमें 'राम ने अपनी सहधर्मिणी सीता की सुवर्ण प्रतिमा का निर्माण कराया था', जो तत्कालीन शिल्प-विधान का श्रेष्ठ प्रसंग एवं 'मय' नामक शिल्पी की अद्भुत देन थी।
'रामायण' में दीवारों, कक्षों, रथों तथा राजभवनों पर चित्रांकित करने के संबंध में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। रावण का पुष्पक विमान चाँदी तथा मूंगे के पक्षियों, भाँति-भाँति के रत्न-सर्पों, रत्नों, हेमपक्षों से विभूषित था। इस प्रकार दृष्टि और मन को सुख देने वाले और आश्चर्यचकित कर देने वाले नाना प्रकार के दृश्य अंकित थे और अगल बगल में उसकी शोभा बढ़ाने वाले बेल-बूटों के चित्र अंकित थे।
इसी प्रकार रामायण के 'सुन्दरकाण्ड' और 'लंकाकाण्ड' में चित्रकला के संबंध में भी लिखा है- रावण को लंका में सीता की खोज करते समय हनुमान को एक चित्रशाला और चित्रों से सुसज्जित कई क्रीड़ागृह देखने को मिले थे।
रामायण में उल्लिखित 'चित्रशाला गृहाणि' से भी प्रतीत होता है कि उस समय चित्रशालाएँ थीं और रावण की चित्रशाला अपने युग की विख्यात चित्रशालाओं में थी। ये चित्रशालाएँ व्यक्तिगत, सामाजिक और राजकीय आदि अनेक प्रकार की थीं। बाली और रावण का शव ले जाने के लिये जो पालकियाँ बनवाई गई थीं, उनमें चित्र सज्जा का अद्भुत वर्णन है। (4 / 25 / 22-24) कैकेयी के राजप्रासाद एवं राम के राजप्रासाद में अनुपम भित्ति चित्र उत्कीर्ण थे (2/10/13) व (2/15/35) उस युग में हाथियों के मस्तिष्कों पर एवं रमणियों के कपोलों पर सुन्दर चित्र रचना होती थी।
अष्टध्यायी:- रामायण, महाभारत के पश्चात् रचे गए जिन ग्रंथों में चित्रकला का उल्लेख मिलता है, उनमें पाणिनि (500 ई.पू.) की 'अष्टध्यायी' का नाम आता है। इसमें शिल्प को चारू (ललित) और कारू (उद्योग) दोनों अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। साथ ही राज्यों के अंक और सांकेतिक लक्षणों के प्रसंग में पक्षी, पशु, पुष्प, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि के लक्षणों की चर्चा की गई है। साथ ही उनको किस विधि से अंकित किया जाता था, इसका भी उल्लेख मिलता है।
नाट्यशास्त्र (प्रथम शताब्दी ई.पू.) :- आचार्य भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में निश्चित विषय में पर्याप्त चर्चा की है। सर्वप्रथम 'कला शब्द' का प्रयोग इसी ग्रन्थ में किया गया है। वर्ण-मिश्रण संबंधी तकनीकों एवं विधियों पर भी प्रकाश डाला गया है। रंगों द्वारा भावाभिव्यक्ति तथा रंगों के मन पर पड़ने वाले प्रभाव की भी इस ग्रन्थ में चर्चा की गई है। लाल, पीले तथा श्याम रंग को मूल माना है तथा सफेद रंग के योग से अनेक रंग बनने की बात लिखी है। नाट्यशास्त्र (2/75) में यह भी बताया गया है कि नाट्यशाला की भित्ति पर नर-नारी की मूर्तियों, बेल-बूटों और अनेक मनोरम दृश्यों को अंकित किया जाना चाहिये।
मेघदूत तथा रघुवंश (प्रथम शताब्दी ई.पू.) :- महाकवि कालिदास द्वारा रचित लघु काव्य 'मेघदूत' में विरहणी यक्षणी द्वारा अंकित उसके प्रवासी पति 'यक्ष' का चित्र बनाने की चर्चा हुई है, जो उल्लेखनीय है।
कालीदास की कृतियों से यह भी स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि उस समय स्त्री-पुरुष दोनों वर्ग चित्रकारी (चित्रकर्म) करते थे। चित्रों के द्वारा अपने प्रेमी को प्रेम संदेश भेजने की भी रीति प्रचलित थी। वियोग की व्यथा कम करने के लिये नायक-नायिका एक-दूसरे का चित्र बनाकर मन बहलाया करते थे। यही नहीं, चित्रों को देखकर विवाह निश्चित किये जाते थे। देवी-देवताओं के चित्र बनाकर उसकी पूजा भी करने का प्रचलन था। मंगल कामना की दृष्टि से नगरवासियों के घरों और राजाओं के महलों में चित्र सज्जित रहा करते थे।
कालिदास के 'रघुवंश महाकाव्य' में (8/168) में 'ललित कला' शब्द का भी उल्लेख हुआ है। रघुवंश के 16वें सर्ग में विध्वस्त अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहाँ के प्रासादों की भित्तियों पर नाना-भाँति के पद्यवनों के मध्य क्रीड़ा करते हाथियों को चित्रित किया गया था। उन हाथियों में उनकी हथनियाँ कमल का डंठल देती हुई चित्रित की गई थीं। चित्र इतने सजीव थे कि काल रूपी सिंहों ने इनको असली हाथी समझ कर अपने नाखूनों से उसका गंडस्थल विदीर्ण कर दिया था।
कोश :- प्राचीन कोश ग्रन्थों में भी चित्रकला संबंधी सामग्री मिलती है। केशवस्वामी के 'नानार्यर्णवसंक्षेप' में चित्रकार ने तूलिका (कुंची) को वर्तिका कहा है। इसी प्रकार 'मेदिनीकोश' के रचयिता ने चित्रकार को 'वर्णाट' कहा है, जिसका मतलब है अनेक रंगों के विश्लेषण में निपुण होना।
कादम्बरी (700 ई.) :- असामान्य गद्यकार कवि व इतिहासज्ञ बाणभट्ट की संस्कृत भाषा में लिखी कृति 'कादम्बरी' है, जिसमें पाँच शुद्ध वर्णों का उल्लेख हुआ है।
नील
पीत
लोहित
धवल (शुक्ल)
हरित (कृष्ण)
साथ ही वर्णचित्रों, भावचित्रों और रेखाचित्रों की प्रशंसा की गई है। राजप्रासादों तथा राजभवनों आदि में सुरक्षित चित्रशालाओं और चित्रशाला के संबंध की अनेक अनूठी बातों की सूचनाएँ देखने को मिलती हैं।
हर्षचरित:- वाणभट्ट द्वारा लिखित ऐतिहासिक गद्य काव्य 'हर्षचरित' के अध्ययन से यह विदित होता है कि उस समय जो वस्तुएँ राजा को भेंट में दी जाती थीं, उनमें चित्रण संबंधी सामग्री एवं चित्र भी होते थे। हर्षचरित (5/214) के एक प्रसंग में यह भी वर्णित है कि कुछ लोग परलोक के काल्पनिक चित्र दिखाकर पैसा कमाते थे।
दशकुमारचरित (700 ई.) :- दक्षिणात्य आचार्य 'दंडी' भी बाणभट्ट की भाँति प्रौढ़ लेखक और काव्य शास्त्र के क्षेत्र में एक मात्र विद्वान माना जाता था। दक्षिण भारत के रजवाड़ों में यह नियम था कि अन्य विषयों की भाँति राजकुमार के लिए चित्रकला की शिक्षा प्राप्त करना भी आवश्यक है 'दशकुमारचरित' में ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है कि 'कुमार उपहार वर्मा' ने अपना चित्र स्वयं बनाया था।
तिलकमंजरी (10 वीं शताब्दी) :- ‘धनपाल' द्वारा लिखित गद्यकृति 'तिलकमंजरी' में चित्रकला संबंधी तीन पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख है-
1. 'निपुण चित्रकार', अर्थात् चित्रकर्म में अत्यन्त निष्णात मास्टर पेंटर 'मालविकाग्निमित्र' में यह शब्द चित्राचार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
2. 'चित्रपट' अर्थात् किसी सम्पूर्ण कथा को चित्रों में अंकित करना, जिसको 'उत्तर रामचरित' में 'वीथिका' कहा गया है।
3. 'प्रतिबिंब' अर्थात् 'विद्वचित्र', जिसे फारसी में 'शबीह' कहते हैं। प्रतिबिम्ब चित्रों का अपर नाम 'प्रकृति चित्र', 'सादृश्य चित्र' या 'प्रतिछंदक चित्र' भी कहा गया है ।
तिलकमंजरी में 'गंधर्वक' नामक एक युवा चित्रकार द्वारा निर्मित लम्बे चित्रपट का वर्णन मिलता है, जिसमें राजकुमारों की चित्रित आकृति के विषय में लिखा है कि वे सुन्दर हैं, जिसमें यथोचित रंगों का प्रयोग है और शरीर के भागों की बनावट आकर्षक है। साथ में सचेतन में दिखाई देने वाले पक्षी तथा मृग सभी जीवन्त एवं सुन्दर दिखाई देते हैं।
कथासरित्सागर :- गुणाढ्य की वृहत्कथा के संप्रति तीन प्रामाणिक संस्करण मिलते हैं, जो अति उत्तम हैं- प्रथम तो 'नेपाल के बुद्धस्वामी' का श्लोक संग्रह (8 वीं 9 वीं शताब्दी), दूसरा 'क्षेमेन्द्र का वृहत्कथामंजरी', तीसरा 'सोमदेव का कथासरित्सागर', यह लोक संस्करण लोक-जीवन के सम्बन्ध में होने के कारण सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। 'सोमदेव' व 'क्षेमेन्द्र' दोनों काश्मीर के निवासी थे और उनका स्थितिकाल 11वीं शताब्दी ई. था। इसकी अनेक कथाओं में चित्रकला की चर्चाएँ देखने को मिलती हैं। एक कथा के अनुसार 'उदयन' का 'कुमार नरवाहनदत्त' चित्रकला, मूर्तिकला और संगीतकला में निपुण था।
एक अन्य कथा से भी ज्ञात होता है कि 'पद्मावती' ने 'वासवदत्ता' के घर की भीत पर 'विरहणी सीता' की चित्रित मूर्ति को देखकर आश्वासन प्राप्त किया था।
इसी प्रकार मणिपुर की राजकुमारी 'रूपलता' के प्रति अपने प्रेम प्रकट करने हेतु चित्रकार 'कुमारदत्त' के द्वारा 'राजा पृथ्वीरूप' ने अपना एक चित्र भेजा था।
एक अन्य कथा से यह भी जानने को मिलता है कि 'परिव्राजिका कात्यायनी' चित्रविद्या में अत्यन्त निपुण थी। उसने 'राजकुमार सुन्दरसेन' के आग्रह पर 'राजकुमारी मन्दारवती' का एक सजीव चित्र अंकित किया था और इसी प्रकार राजकुमार के मित्रों के आग्रह पर उसने राजकुमार का भी सुन्दर चित्र बनाया था।
कथासरित्सागर में वर्णित 'राजा विक्रमादित्य' के दरबारी चित्रकार के संबंध में कहा गया है कि उसका सामंतों के समान स्थान था और जीविकोपार्जन के लिये सौ गाँवों को जागीर मिली हुई थी।
एक अन्य कथा से यह भी जानने को मिलता है कि राजा 'नरवाहनदत' चित्रकला की प्रतियोगिता आयोजित करके बहुधा बड़े-बड़े प्रतिस्पर्धी चित्रकारों को पराजित करता था।
प्रतिष्ठानगरी के राजा 'पृथ्वीरूप' के दरबार में 'कुमारदत्त' एवं 'रोलदेव' नामक चित्रकार का विदर्भ देश के राजा के दरबार में होने का कथासरित्सागर में उल्लेख है।
इस प्रकार ग्रन्थों में अनेक कथाओं के वर्णन से तत्कालीन समाज में चित्रकला के महत्त्व का पता चलता है।