सोमवार, 30 मई 2022

क्या एक शिक्षक को अपने क्लास में बच्चों के बीच हँस कर पढ़ाना चाहिए? Should a teacher teach with laughter to the children in his class?



कक्षा में हास्यवृत्ति (Sense of Humour) कितनी सहायक ?


       हास्य कला - हास्य उत्पन्न करना भी एक कला ही है। हास्य को विज्ञान भी कहा गया है। यह एक प्राकृतिक सार्वभौमिक क्रिया है कक्षा का हास्यमय होना – शिक्षक एवं शिक्षार्थी के लिए, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक — दोनों प्रकार से लाभकारी है। आज के युग में जबकि जीवन जटिलतर होता जा रहा है, हास्य से मानसिक तनाव कम होता है और मन को विश्राम मिलता है।


       हर शिक्षार्थी मुस्कराहट और हास्य प्रवृत्ति वाले शिक्षक की सराहना करता है, हास्य कला एक संक्रामक प्रक्रिया है , जो कि संबंधों को सुदृढ़ बनाती है। 


      यह एक प्रभावी विज्ञापन रणनीति है। कार्टून की सहायता से शिक्षण, एक बहुत प्रभावी विधि है। 

संक्षेप में कहें तो कक्षा में छात्र हास्यजनक उपाख्यानों से आनंदित रहते हैं, मस्तिष्क अधिक क्रियाशील होता है, पाठ्य-वस्तु से होने वाली नीरसता की सम्भावना कम हो जाती है और इससे कक्षा में छात्र उपस्थिति बढ़ती है। परन्तु हास्य कितनी मात्रा में हो और किस स्तर का रहे, पाठ्य एवं हास्य में संतुलन बनाना एक शिक्षक के लिए चुनौती है, उसको समय-समय पर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि छात्र अनुशासन में भी रहें


     जब भी हम जीवन में धनात्मक परिवर्तन चाहते हैं, इसका अर्थ हैं कि हम प्रगति के पथ पर अग्रसर होना चाहते हैं।





 How helpful is Sense of Humor in class?



     Humor Art - Generating humor is also an art.  Humor has also been called science.  It is a natural universal action that being humorous in the classroom is beneficial both physically and psychologically for the teacher and the learner.  In today's era when life is getting more complicated, humor reduces mental stress and gives relaxation to the mind.



      Every learner appreciates a teacher with a smile and a sense of humor, humor art is an infectious process that strengthens relationships.



      This is an effective advertising strategy.  Teaching with the help of cartoons is a very effective method.


     In a nutshell, students are more likely to enjoy humorous anecdotes in the classroom, the brain is more active, the dullness of the text is less likely, and this increases student attendance in the class.  But how much humor should be and what level it should be, it is a challenge for a teacher to balance the text and humor, he should ensure from time to time that the students also remain in discipline.



 Whenever we want a positive change in life, it means that we want to move forward on the path of progress.


मनोवैज्ञानिक विकास (Psychological Development)

 


मनोवैज्ञानिक विकास

(Psychological Development)  


         शिक्षा तथा मनोविज्ञान को जोड़ने वाली प्रमुख कड़ी मानव व्यवहार है तथा शिक्षा मनोविज्ञान का सीधा संबंध शिक्षण में अधिगम क्रियाकलापों से ही बनता है। 

   मनोविज्ञान के सिद्धांतों, नियमों, विधियों का उपयोग शिक्षा में क्षेत्र में व्यापक प्रयोग किया जाता है। 


        शिक्षा मनोविज्ञान की प्रकृति वैज्ञानिक होती है, क्योंकि शैक्षिक वातावरण में अधिगमकर्ता के व्यवहार का वैज्ञानिक विधियों, नियमों तथा सिद्धांतों के माध्यम से अध्ययन किया जाता है। 


बी. एफ. स्किनर (Burrhus Frederic Skinner) के अनुसार:-  शिक्षा मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है। जिसका संबंध अध्ययन तथा सीखने से है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में उन सभी ज्ञान और विधियों को शामिल किया जाता है। जो सीखने की प्रक्रिया से अधिक अच्छी प्रकार समझने और अधिक कुशलता से निर्देशित करने के लिए आवश्यक है। 


कॉलेस्निक (W.B. Kolesnik):- मनोविज्ञान के सिद्धांतों व परिणामों का शिक्षा में अनुप्रयोग करना शिक्षा मनोविज्ञान है। 


एलिस क्रो (Alice Crow):- शिक्षा मनोविज्ञान मानव प्रतिक्रियाओं के वैज्ञानिक रूप से व्युत्पन्न सिद्धांतों के अनुप्रयोग का प्रतिनिधित्व करता हैं जो शिक्षण और सोखने को प्रभावित करते हैं। 


क्रो एंड को (Crow and Crow):- शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक अधिगम के अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है। 


जे. एम. स्टीफन (J. M. Stephon):- शिक्षा मनोविज्ञान बालक के शैक्षिक विकास का क्रमबद्ध अध्ययन है।


थार्नडाइक (Thorndike):- शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत शिक्षा से संबंधित संपूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व आ जाता है।


        मनोविज्ञान के ज्ञान द्वारा शिक्षक बालक की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करता है। उचित शिक्षण विधियों का चयन करता है तथा कक्षा-कक्ष में अनुशासन स्थापित करता है। 


जर्मन दार्शनिक हरबर्ट (Herbert) को 'वैज्ञानिक शिक्षा शास्त्र' का जन्मदाता माना जाता है।

           शिक्षा मनोविज्ञान को सर्वप्रथम आधार प्रदान करने का श्रेय पेस्टोलॉजी द्वारा किया गया। यह विधायक (constitutive) और नियामक (regulative) दोनों प्रकार का विज्ञान है। विधायक विज्ञान तथ्यों पर जबकि नियामक विज्ञान मूल्यांकन पर आधारित होता है।


       शिक्षा का स्वरूप संश्लेषणात्मक होता है, जबकि शिक्षा मनोविज्ञान का स्वरूप विश्लेषणात्मक माना जाता है।


Note 👉 शिक्षा मनोविज्ञान एक वस्तुपरक विज्ञान (Material science) है।

संज्ञानात्मक विकास क्या होता हैं? Cognitive Development kya hota hai ?



 संज्ञानात्मक विकास 

(Cognitive Development)

 

    'संज्ञान' शब्द का अर्थ है- 'जानना' या 'समझना'। यह एक बौद्धिक प्रक्रिया है, इसमें विचारों के द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है। मनोवैज्ञानिक 'संज्ञान' का प्रयोग ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के रूप में करते हैं। 


     संज्ञानात्मक विकास शब्द का प्रयोग मानसिक विकास के व्यापक अर्थ में किया जाता है। इस में बुद्धि के अतिरिक्त सूचना का प्रत्यक्षीकरण (perception), पहचान (recognition), प्रत्याह्वान (remembering) और व्याख्या (explanation) आदि भी आते हैं। 


       विकिपीडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार, संज्ञान में मानव की विभिन्न मानसिक गतिविधियों का समन्यवीकरण (coordination) होता है। 'संज्ञानात्मक मनोविज्ञान' शब्द का प्रयोग गुस्ताव नाइसर (Gustav Neisser) ने सन् 1967 ई० में किया था। संज्ञानात्मक विकास इस बात पर बल देता है कि मनुष्य किस प्रकार तथ्यों को ग्रहण करता है और किस प्रकार से उसका उत्तर भी देता है। संज्ञान उस मानसिक प्रक्रिया को सम्बोधित करता है, जिसमें चिन्तन, स्मरण, अधिगम और भाषा के प्रयोग का समावेश होता है। जब हम शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया में संज्ञानात्मक पक्ष पर बल देते है तो इसका अर्थ है कि हम तथ्यों और अवधारणाओं की समझ पर बल देते हैं।


       यदि हम विभिन्न अवधारणाओं के मध्य के सम्बन्धों को समझ लेते हैं तो हमारी संज्ञानात्मक समझ में वृद्धि होती है। संज्ञानात्मक सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति किस प्रकार सोचता है, किस प्रकार महसूस करता है और किस प्रकार व्यवहार करता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया अपने अन्दर ज्ञान के सभी रूपों यथा स्मृति चिन्तन, प्रेरणा और प्रत्यक्षण को शामिल करती है।


        जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है :-

1. संगठन और 2. अनुकूलन। 


     संगठन से तात्पर्य बुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है। एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है। वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।


       पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है:-

1. संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष 

2. पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2 से 7 वर्ष 

3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से 11 वर्ष 

4. अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 11 से 18 वर्ष।


गुरुवार, 26 मई 2022

पाल शैली (730-1197 ई.)

 


पाल शैली (730-1197 ई.)

 

       स्थानेश्वर के सम्राट 'हर्ष' व गौड़ के राजा 'शशांक' के पश्चात् लगभग 100 वर्षो तक बंगाल को शासन व्यवस्था बिगड़ी रही और सन् 730-740 ई. के मध्य बंगाल की जनता ने विद्रोह आरम्भ किया। बंगाल की जनता ने 'गोपाल' नामक व्यक्ति को चुन कर अपना राजा घोषित कर दिया और इस प्रकार बंगाल में 'शांति' एवं 'पाल राजवंश' की स्थापना हो पाई। 'राजा गोपाल', जो बंगाल के 'पाल वंश' का 'प्रथम शासक' था, ने शीघ्र ही दक्षिणी बिहार तक अपना राज्य स्थापित कर लिया गोपाल के पश्चात् उसका उत्तराधिकारी पुत्र राजा 'धर्मपाल' रहा। (लगभग 810 ई.) उसने अपने साम्राज्य को और अधिक सुदृढ़ किया। वह अति धार्मिक प्रवृत्ति, विद्या व्यसनी व कला का संरक्षक था। उसने गंगा के किनारे 'भागलपुर' में 'विक्रमशिला महाविद्यालय' बनवाया था। धर्मपाल ने ही ओदान्तपुरी व सोमपुरी विहारों को 'वारेन्द्र' (उत्तरी बंगाल) में बनवाया। धर्मपाल के पुत्र 'देवपाल' (810-850 ई.) ने अपनी सीमा का विस्तार किया। वह वास्तु चित्रकला एवं मूर्तिकला का महान् उन्नायक था। उसने 'सारनाथ', 'गया', 'नालन्दा', 'कुर्कीहार' आदि स्थानों पर मूर्तियाँ व उकेरियाँ बनवाई। देवपाल के बाद उनके पुत्र 'नारायणपाल' ने सत्ता संभाली। इसके बाद 'महीपाल' इस राजवंश का प्रतिभाशाली सम्राट हुआ। इसके समय में अनेक पाल पोधियों का चित्रण हुआ। 


         महीपाल ने कई 'चैत्य', 'मूलगंघकुटी' व 'धर्मराजिका' स्तूप बनवाये। महीपाल का पुत्र 'जयपाल' था और जयपाल का पुत्र 'विग्रहपाल तृतीय' था। ये सभी सम्राट बौद्धधर्म के अनुयायी थे। 'बुद्ध योग मुद्रा में कमल पर आसीन '1087 ई.' चित्र इस समय का उत्तम उदाहरण है। विग्रहपाल तृतीय के राज्यकाल में उत्तरी बंगाल में सेन वंश के उदय से, बंगाल पालवंश के बाद, इस प्रदेश पर 'सेन राजवंश'  की स्थापना हो गई।


       11 वीं शताब्दी के मध्य 'नवकल्याणी' के 'चालुक्य राजा विक्रमादित्य' ने बंगाल पर आक्रमण किया, तब उसके एक सेनापति 'सामन्तसेन' ने उत्तरी उड़ीसा में सुवर्ण रेखा नदी के किनारे 'काशीपुरी' नामक नगरी में एक राजवंश की स्थापना की। 12वीं शताब्दी में इसी राजवंश के किसी विजयसेन ने पालों से बंगाल जीत लिया और पालवंश की शक्ति को क्षीण कर दिया। 'विजयसेन', 'वल्लासेन' और वल्लासेन के पुत्र 'लक्ष्मण सेन' क्रमशः राजा हुए। 


        'लक्ष्मणसेन' एक विद्वान एवं शक्तिशाली राजा था। गीत-गोविन्द के रचयिता 'जयदेव', 'उमापतिधर', 'श्रीधरदास', 'हलायुध', 'गोवर्धनाचार्य' जैसे विद्वान एवं कवि उसके दरबार की शान थे। लक्ष्मण का पुत्र 'माधवसेन' कुतुबद्दीन के सेनापति से 1199 ई. में हार गया। 


          इस वंश के राजा 'सेन' नाम से प्रसिद्ध थे। वे ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे व बौद्ध धर्म के विरोधी। सन् 1199 ई. में तुर्कों ने नालन्दा पर जो आक्रमण किया था, उससे बौद्ध संस्कृति व चित्रकला को गहरा धक्का लगा। 


पाल शैली का नामकरण 


        जैसा कि आप जानते हैं कि पाल राजा बौद्ध धर्म के महान् संरक्षक थे। इन्हीं के प्रयत्नों से बौद्ध धर्म एवं संस्कृति तिब्बत तथा दक्षिणी पूर्वी देशों में फैली।


       तिब्बती इतिहासकार 'लामा तारानाथ' ने लिखा है कि 7वीं शताब्दी के पश्चिम भारत में जिस चित्र शैली का निर्माण हुआ था , उससे भिन्न 9 वीं शताब्दी के पूर्वी भारत (बंगाल) में एक नवीन चित्र शैली का उदय हुआ, जो पूर्वी शैली कहलायी, लेकिन यह नाम भी उचित न लगा, क्योंकि पाल शैली को समुन्नत करने वाले केवल पाल राजा थे, अतः पूर्वी शैली से उनका योगदान प्रकट नहीं हो पाया।


        प्रसिद्ध कला समीक्षक 'हेलन रूबीसो' ने इस शैली को 'बिहार शैली' कहा। क्योंकि यह शैली बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, नेपाल, बंगाल आदि क्षेत्रों में भी पनपी। अतः बिहार शैली का नामकरण देकर इसे केवल मात्र बिहार से जोड़ना उचित नहीं जान पड़ा, अत: इसका 'पाल शैली' ही सबसे उपयुक्त नाम रहा।


          कलाकार 'धीमान' एवं उसके पुत्र 'वितपाल' ने इस शैली को पनपने में सहायता प्रदान की। पाल शैली के तीन प्रमुख केन्द्रों में बंगाल, बिहार और नेपाल हैं। 


      बंगाल के पट चित्र : बंगाल में जिन चित्रों का प्रचलन हुआ, उनके निर्माणकर्त्ता अशिक्षित और व्यवसायी थे, इसीलिये न तो वे प्राचीन परम्परा को ग्रहण करने में समर्थ हो सके, न ही वे अजन्ता तथा बाघ आदि के भव्य वर्ण-विधान तथा लोकप्रिय विषय-वस्तु ही ग्रहण कर सके। वस्तुतः तो उनमें अपनी कल्पना थी, न अपने भाव और न नूतन अभिव्यंजना ही।


      ये पट चित्र में थे, जिनको उनके निर्माता कलाकार परम्परा से प्राप्त अपने ज्ञान को हर तरह की घिसी-पिटी शैली में चला रहे थे। दूसरे उन्होंने उसे घरेलू व्यवसाय का रूप दे दिया था। उनके बहुधा कुछ गिने-चुने विषय हुआ करते थे, जिनमें दो प्रमुख थे- एक तो वह जो मेले में बेचने के उद्देश्य से बनाये जाते थे और उनका मूल्य भी कम होता था। दूसरे प्रकार के चित्र वे होते थे, जिनको घूम-घूम कर प्रचारित किया जाता था। वे थे रामायण या महाभारत अथवा कृष्ण काव्य एवं तांत्रिक देवी-देवताओं के चित्र। 


      इस प्रकार ये पट चित्र मनोरंजन विनोद और आजीविका के साधन माने जाने लगे, जिनमें लोक शैली का पुट होने से इन्हें कुछ महत्व तथा प्रसिद्धि प्राप्त हुई। सचित्र पोथियों को अच्छे ताल-पत्र, पत्ते या राजताल पर लिखा गया है। ये ताल-पत्र लगभग 02 इंच लम्बे तथा 2.5 इंच चौड़े हैं। इन ताल-पत्रों से बने पृष्ठों पर देवनागरी लिपि में सुन्दर और कटे छापे के समान अक्षरों में यह पोथियाँ लिखी गई हैं। कुछ पोधियों में काली पृष्ठभूमि पर सफेद रंग से लिखाई की गई है। लिपिकार बड़ी सावधानी से इन कथाओं को सुन्दर अक्षरों में लिखता था।


        इन पृष्ठों के बीच-बीच में आयताकार या वर्गाकार स्थान खाली छोड़ दिया जाता था, जिनमें महायान देवी-देवताओं (बौद्ध धर्म संबंधी चित्र) के चित्र बनाये जाते थे। ये चित्र एक या दो इंच वर्गाकार के होते थे।


        इन 'पोधियों को ढकने' के लिये (पोथियों पर जिल्द) 'दोनों ओर पटरे' लगाये जाते थे। इन्हें 'दफतियाँ' या 'काष्ट पट' कहा जाता था। इन पर भी 'भगवान बुद्ध की जीवनी' तथा 'उनके शिक्षा संबंधी चित्र' अंकित हैं, जो जातक कथाओं पर आधारित हैं। इस शैली के चित्रों पर अजन्ता शिल्प का प्रभाव है। 


पाल शैली की सचित्र पोथियाँ 


      पाल पोथियों में सचित्र पोथियाँ दो दर्जन से कम मिलती हैं और जो प्राप्त हैं, उनमें 'साधनमाला', 'गन्धव्यूह', 'करनदेवगुहा', 'पंचशिखा', 'महायान' बौद्ध पोथियाँ हैं। 


     बंगाल तथा बिहार में लिखी गई10 वीं शताब्दी एवं परवर्ती काल व महायान बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक पोथियों के चित्र प्राप्त हुये हैं, जो पुस्तकों के दृष्टान्त चित्र ही हैं। 


  • इन दृष्टान्त चित्रों में सर्वप्रथम वे चित्र हैं जो 'अष्टसहंस्त्रिका प्रज्ञापारमिता  बौद्ध ग्रन्थों पर आधारित हैं। इन ग्रन्थों की अनेक प्रतियाँ 10वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के भीतर बंगाल , नेपाल, बिहार, नालन्दा, विक्रमशीला में चित्रित हुई, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
  1.  रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल (सं. 4713), महीपाल के राज्यारोहण के छठे वर्ष में चित्रित।
  2. रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल (सं. 15) वाली, सन् 1071 ई. की चित्रित। इसमें तारामंडल व लोकेश्वर का चित्र है , जो अजन्ता जैसा है।
  3. रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल की (सं. 4203) प्रति 
  4. महिपाल के राज्यारोहण के पाँचवें वर्ष में चित्रित केम्ब्रिज वाली प्रति (सं. 1464)। 
  5. रामपाल के 39वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित हुई, वरेडेन वर्ग संग्रह वाली प्रति।
  6. हरिवर्मा के 19वीं राज्यारोहण में चित्रित, वारेन्द्र अनुसंधान समिति (राजशाही) के संग्रह वाली। 
  7. ब्रिटिश संग्रहालय (सं. 6902) गोपाल तृतीय के 15वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित। यह विक्रमशिला महाविहार में चित्रित हुई। 
  • 'पंचशिखा'- राजा जयपाल के 14वें राज्यारोहण वर्ष में चित्रित की गई और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित है। उपरोक्त सभी पोथियाँ तालपत्र पर हैं, जिसमें सुन्दर लिपि, तराशे हुए अक्षर और चमकीली स्याही का प्रयोग है। 
  • 'गन्धव्यूह ग्रन्थ', जिसकी प्रतियाँ कुल्लू, स्वेतस्लाव रोरिक इत्यादि के संग्रह में है। इसमें 126 चित्र हैं, जो अजन्ता परम्परा के अनुरूप हैं। 
  • 'बौधिचर्यावत्र', इसकी एक प्रति बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका व वारेन्द अनुसंधान समिति राजशाही में सुरक्षित है। 


पाल शैली के चित्रों की विशेषताएँ 


  1. पाल शैली के अधिकांश चित्र पोथियों में ही प्राप्त होते हैं और जो स्फुट चित्र प्राप्त हैं, वे बंगाल के पट चित्र हैं। पृष्ठों के बीच - बीच में जो चित्र बनाये गये, वे पोथियों के चित्र आकार में लघु हैं और उनमें लाल (सिन्दूर, हिंगुल तथा महावर), नीला (लाजवर्दी या नील), सफेद खड़िया या कासगर काला (काजल) तथा मूल रंगों के मिश्रण से बनाये गये गुलाबी, बैंगनी तथा फाखताई रंगों का प्रयोग किया गया है। 
  2. मानवाकृतियों के अधिकतर चेहरे सवाचश्म हैं और एक ही प्रारूप में बनाये गये हैं। सिर चपटे हैं, नाक लम्बी, जो परले गाल से आगे निकली हुई है। आँखें बड़ी-बड़ी, कर्णस्पर्शी और वक्र रेखाओं से बनाई गई हैं। कुल मिलाकर आकृतियों में सजीवता और स्वच्छन्दता का अभाव है और पास-पास हैं। आकृतियों के हाथों तथा पैरों की मुद्राओं में अकड़न है। 
  3. चित्रों की रेखाएँ काले रंग से बनाई गई हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि तूलिका की जगह निब का प्रयोग किया गया है। रेखाओं में प्रवाह तो है, परन्तु मोटाई से क्रमिक उतार - चढ़ाव नहीं है। इन दृष्टान्त चित्रों में अलंकारिता का पर्याप्त समावेश है।
  4. यह पोथियाँ उत्तम प्रकार के ताल-पत्रों को छाया में सुखाकर बनाये गये पत्रों पर तैयार की गई हैं। इनकी लम्बाई 22 इंच तथा चौड़ाई 2 इंच है, जिन पर महायान देवी - देवताओं तथा भगवान बुद्ध से संबंधित चित्र हैं। 

मंगलवार, 24 मई 2022

जैन बौद्ध कृतियों में चित्रकला।


जैन बौद्ध कृतियों में चित्रकला 


      जैन बौद्धों के प्राकृत तथा पाली भाषाओं में रचित ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि पढ़े-लिखे विद्वान् एवं साहित्यकार और जन-सामान्य का चित्रकला के प्रति अनुराग था। 


      चित्रकला के क्षेत्र में श्वेताम्बरीय जैनों का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। उनके व्याकरण ग्रन्थ 'प्रश्नव्याकरणसूत्र'- (2/5/16) में चित्रों की तीन प्रमुख श्रेणियों का उल्लेख किया गया है। 

  1. 'संचित' में मानव, पशु व पक्षी, 
  2. 'अचित' में नदी, पहाड़, आकाश, नदी और 
  3. मिश्र संयुक्त है और जो चित्र लकड़ी, कपड़े और पत्थर पर अनेक रंगों के योग से उकेरे जाते हैं।
       उन चित्रों का सामूहिक नाम 'लेपकम्प' कहा गया है। मिट्टी, पत्थर तथा हाथीदाँत पर भी चित्र बनाने की प्रथा थी। जैन ग्रंथों में हमें 'अल्पना चित्रों' की परम्परा का पता चलता है जो उस समय प्रचलित लोक-कला का उन्नत स्वरूप था।


       तत्कालीन राजवर्ग के व्यक्तियों में चित्रकला के प्रति अनुराग का पता 'नायधम्भिकहाओं' ( 1/1/17) की कथा से विदित होता है कि 'महाराज श्रेणिक' के महल की दीवारों पर अच्छे चित्र उकेरे हुये थे। ठीक उसी प्रकार के चित्र 'मेघकुमार' के महल में भी सज्जित थे। (1/1/18) 


      राजवर्गीय व्यक्तियों के अतिरिक्त जन - सामान्य में भी चित्रकला को एक मनोरंजन के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठा पाये देखते हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के ग्रन्थ 'अन्तगडदसाओ' (6 / 3) में लिखा है कि नागरिकों ने अपने मनोविनोद के लिये कुछ ऐसी संस्थाओं की स्थापना की थी, जहाँ वे संध्याकाल में अवकाश के समय एकत्र होकर अपना मनोविनोद किया करते थे। 'नाया धम्म कहाओ' (1 / 16 / 77-80) से यह पता चलता है कि 'चम्पा' नामक नगरी में ऐसी ही ललित गोष्ठी (ललियाएणामं गोठ्ठी) नाम की एक प्रमोद सभा विद्यमान थी।


        11 वीं -12 वीं शताब्दी में रचित जैन साहित्य की कथा-कृतियों में चित्रकला के संबंध में बड़ी ही उपयोगी चर्चाएँ देखने को मिलती है।


सुरसुन्दरी कहा (1038 ई.) सुरसुन्दरी कहा प्राकृत मागधी भाषा की जैन कहानी है, जिसमें चित्रकला का वर्णन है, जो इस प्रकार है- एक चित्रकार ने कक्ष के धरातल पर एक मोर पंख का चित्र इस प्रकार अंकित किया कि उठाने वाले व्यक्ति के नख में चोट आ गई। एक अन्य श्लेषोक्ति के द्वारा किसी नायक की एकान्त प्रेमासक्ति को भ्रमर और कुमुदिनी का चित्र बनाकर व्यक्त किया। 


तरंगवती (11 वीं -12 वीं शताब्दी) : तरंगवती भी एक जैन कथा है जो सम्भवतः आँधभृत्य राजाओं के आश्रय में निर्मित हुई, जिसमें प्रेम प्रसंग के रूप में चित्रकला का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार है- तरंगवती का नायक जब विदेश चला जाता है, तो नायिका तरंगवती, नायक की खोज में एक चित्र प्रदर्शनी का आयोजन करती है, ताकि उसका रुष्ट प्रेमी पति उस प्रदर्शनी को देखने के बाबत ही आ जाये।


त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित (1082-1172 ई.) : इस महाकाव्य की रचना जैनाचार्य 'हेमचंन्द' ने की थी और श्वेताम्बर जैन लोगों में इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है। इसकी कथा के अनुसार उस समय राजदरबार में अनेक चित्रकारों की एक विशेष सभा होती थी, जो भित्तिचित्रों से सुसज्जित होती थी। 


    बौद्धों के 'पिटकों', 'जातकों' तथा 'गाथा विषयक' अनेक ग्रन्थों में तत्कालीन समाज में प्रचलित मनोरंजन के साधनों का उल्लेख मिलता है, जिसमें चित्रकला का भी एक स्थान है। 


विनयपिटक (400 ई.पू. से 300 ई.पू.) : यह पाली भाषा का बौद्ध ग्रन्थ है (5 / 6/36) इस के एक प्रसंग में बताया गया है कि कौशलराज प्रसेनजित के प्रमोद - उद्यान के एक भाग में मनोरम चित्रागार (चित्र संग्रहालय) की स्थापना की गई थी, जिसे देखने के लिये प्रतिदिन लोगों का मेला लगा रहता था। यहाँ तक अनेक प्रतिबंधों के बावजूद भी कुछ भिक्षुणियाँ इन चित्रों को देखने का लोभ संवरण न कर पाती थीं। कुछ बौद्ध ग्रन्थों से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग में चित्रकर्म को आजीविका का एक साधन भी माना जाता था। 


  'जातक' में (1/4/18) चित्तकर्म 'सेलित्तक' अथवा 'सेक्खरा - खियन सिप्प' में थक्का लगाने की कला का उल्लेख है।


'धम्मपद' (2/69) के एक प्रसंग में बताया गया कि वाराणसी निवासी एक ब्राह्मण इस विद्या में इतना निपुण था कि वह चक्का चलाकर बरगद की पत्तियों पर हाथी - घोड़े आदि जानवरों के चित्र बना कर बदले में भोजन या भोजन सामग्री प्राप्त करता था। 


      'जातक ग्रन्थों' (6/333, 6/432) में यह बताया गया है कि 'ओसधि' नामक एक राजकुमार ने अपने सहयोगियों से चंदा एकत्र करके भव्य क्रीड़ाशाला का निर्माण करवाया, जिसको दीवारों को चारों ओर से सुन्दर-सुन्दर चित्रों से सज्जित करवाया। इसी ग्रन्थ की अन्य कथा से पता चलता है कि महोसघनाककुमार ने पातालपुरी के महल में पत्थर की आदि के उत्कृष्ट चित्र बनवाये थे । सुरम्य स्त्री मूर्तियाँ , दीवारों पर इन्द्र की क्रीड़ा भूमि, समुद्र से परिवृत्त सिनेरू पर्वत, महासमुद्र, चारों महाद्वीप, नागाधिराजहिमालय, अनुत्तम झील, चंद्र, सूर्य, चतुरमहाराजिक और स्वर्ग आदि के उत्कृष्ट जीत बनवाए थे।


थेरगाथा (400 ई.पू. से 300 ई.पू.) में कहा गया है कि 'राजा विम्बिसार' (543-614 ई.पू.) ने रागुन के राजा तिस्स को बुद्ध भगवान की जीवनी का एक चित्र फलक और स्वर्णपत्र पर अंकित भागवत तथागत के जीवनवृत्तों के दृश्य भेंटस्वरूप प्रदान किये थे। 


'मिलिन्द प्रश्न' (2/121) में कहा गया है कि दान के समय चित्र नहीं दिये जाने चाहिये। कुछ कला प्रेमी राजाओं ने चित्रकला की शिक्षा के लिये कला निकेतनों को भी स्थापित किया था।


महावंश के एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि महाराज ज्येष्ठतिष्य एक अच्छे चित्रकार थे और अपने इसी कला प्रेम के कारण उन्होंने अपनी प्रजा में चित्रकला के प्रचारार्थ चित्र विद्या शिक्षा के लिये विशेष प्रबन्ध किया था। इन सभी बातों के बावजूद जैन और बौद्ध युग में हमें एक अन्य बात देखने को मिलती है।


'आचारागसूत्र' (2/2/3/13) से ज्ञात होता है कि बौद्ध भिक्षुणियों, जैन साधुओं और ब्रह्मचारियों को चित्र शालाओं में जाने तथा ऐसे स्थानों पर रुकने के लिये कठोर प्रतिबन्ध लगाया था। राजा नल के 'प्रमोद भवन' की भित्तियों तथा दीवारों पर जो चित्र बने थे, वे जीवन्त थे।

सोमवार, 23 मई 2022

पुराणों में कला विषयक सामग्री


पुराणों में कला विषयक सामग्री 


       'विष्णुधर्मोत्तर पुराण' के 'चित्रसूत्र' में 'चित्रकला' को कलाओं में सर्वोच्च स्थान दिया गया है। 'कलानां प्रवरं चित्रम् ।' इसके अतिरिक्त शिल्प तथा कला विषयक सामग्री का भण्डार पुराणों में उपलब्ध है, जैसे - अग्नि, हरिवंश, स्कन्द और पदम् आदि।  


विष्णुधर्मोत्तर पुराण :- यह ग्रन्थ छठी शताब्दी में लिखा गया था। विष्णुधर्मोत्तर पुराण का चित्रसूत्र भारतीय चित्रकला की प्रौढ़ परम्परा को दर्शित करने वाला, एकमात्र ग्रन्थ है। इस चित्रसूत्र का सर्वप्रथम अनुवाद 'डॉ. स्टेला क्रेमरिश' और बाद में 'डॉ. आनन्द कुमारस्वामी' ने अंग्रेजी में अनुवाद किया। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तीसरे खण्ड के 35वें अध्याय से लेकर 43वें अध्याय पर्यन्त 'चित्रसूत्र' नामक एक प्रकरण है। चित्रसूत्र के आरम्भिक श्लोकों को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि चित्रांकन के संबंध में इससे भी पहले ही से विचार होने लगा था और मुनिवर्ग के मनीषी लोग इस क्षेत्र में क्रियात्मक रूप से भाग लेने लगे थे। इस ग्रन्थ में एक कथा का उल्लेख है कि पुराकाल में उर्वशी की सृष्टि करते हुए नारायण मुनि ने लोगों की हित-कामना में चित्रसूत्र की रचना की थी। महामुनि ने निकट आई हुई सुर-सुन्दरियों को छलने के लिये अति सुगन्धित आम्र फल का रस लेकर पृथ्वी पर एक रूपवती स्त्री का श्रेष्ठ चित्र बनाया। चित्र में अंकित उस अत्यन्त रूपसी स्त्री को देखकर वे सभी सुर-सुन्दरियाँ लज्जित हो गई। इस चित्र से ही नारायण ने विश्वकर्मा को चित्रकला सिखाई और सृष्टि का चित्र चित्रित किया। इस प्रकार चित्रकला के लक्षणों से युक्त उस चित्रकृति को महामुनि ने विश्वकर्मा को समर्पित कर दिया। इसी से 'चित्रसूत्र का श्रीगणेश' माना जाता है। 


        सम्पूर्ण चित्रसूत्र नौ अध्यायों में विभक्त है, जिनमें चित्र का आयाममानवर्णन, प्रमाणवर्णन, सामान्यमानवर्णन, प्रतिमालक्षणवर्णन, क्षयवृद्धि, रंगव्यतिकार, वर्त्तना, रूपनिर्माण और शृंगारादि भावकथन आदि के विषय में पर्याप्त चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में कहा गया है कि जिस कृति में आत्मीयता, वेदना (छंद) और अनिर्वचनीय रसमयता है, वही चित्र कहा जा सकता है। 


       'चित्रलक्षण' में 'नौ रस' माने गये हैं:-

  1. श्रृंगार 
  2. हास्य 
  3. करुण 
  4. रौद्र 
  5. वीर 
  6. भयानक 
  7. वीभत्स 
  8. अद्भुत
  9. शान्त 
       इनका प्रयोग किस रूप में होना चाहिए, का भी निर्देश दिया गया है। इस ग्रन्थ में 'चार प्रकार के चित्र' बनाये गये हैं-  सत्य, वैनिक, नागर तथा मिश्र। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में 'पाँच प्रकार के मुख्य रंग' बताये गये हैं- 

  1. श्वेत 
  2. पीत 
  3. लाल 
  4. कृष्ण 
  5. नोला 


        इन पाँच रंगों के संयोग से अन्य सैकड़ों रंग बनाने की बात कही गई है। इसी प्रकार भिन्न प्रमाण विधियाँ तथा नाप-जोख की रीतियाँ बताई गई है। प्राचीन आचार्यों ने 'पाँच प्रकार के मनुष्य' बताये हैं- 

  1. हंस 
  2. भद्र 
  3. मालव्य 
  4. रूचक
  5. शशक

अन्य प्रकार की 'पाँच आकृतियों' का वर्णन है। यथा- नर, क्रूर, असुर, बाल और कुमार तथा बच्चों को आकृतियों इत्यादि का भी वर्णन है। साथ ही उनके माप और लक्षण भी बताये गये हैं। स्त्रियों के बालों, नेत्रों तथा अंग-भंगिमाओं के अनेक प्रकार बताये गये हैं। आकृतिचित्रण, प्रकृतिचित्रण, व्यक्तिचित्रण और लघुचित्र आदि चित्रों के भी भेद बताये गए हैं।


अग्निपुराण (200-400 ई. के बीच) यह महापुराणों में एक प्रौढ़ रचना है, जिसका सांस्कृतिक, साहित्यिक, शिल्प और कला आदि अनेक विषयों की दृष्टि से बड़ा महत्व माना गया है। साथ ही इस पुराण का शिल्पकला विवेचन अधिक वैज्ञानिक और खोजपूर्ण भी है। इसके ( 42-46, 49-55, 60-62, 104 और 106) इन सोलह अध्यायों में 'शिल्प के अनुभागों' की विस्तार से विवेचना की गई है। ग्रन्थ के 13 अध्यायों में केवल 'मूर्तिकला' पर प्रकाश वर्णित है। 


हरिवंशपुराण (400 ई.) : (2/118/6270) के प्रसंग में यह बताया गया है कि वाणासुर की पुत्री, उषा को उदास देखकर उसकी सखी चित्रलेखा ने संसारभर के तत्कालीन प्रसिद्ध व्यक्तियों के चित्र उकेरकर उसके सामने प्रस्तुत किये थे, जिनको देखकर उसने अपना प्रियतम पहचान लिया था।


मत्स्यपुराण (500 ई.) : इसके लगभग आठ अध्यायों में शिल्प तथा कला की चर्चा की गई है।


स्कन्धपुराण (800 ई.) : इसके 'माहेश्वर' और 'वैष्णभ' नामक खंडों में शिल्प और कला के संबंध में उपयोगी बातें की गई हैं। इस पुराण के 'नागर खण्ड' से ज्ञात होता है कि राजकुमारी रत्नावली जब विवाह योग्य हो गई थी, तो उसके पिता अनर्तराज ने सुयोग्य वर की तलाश के लिये दूर-दूर देशों में अपने चित्रकारों को भेजा था कि वे प्रत्येक सुयोग्य राजकुमार का चित्र खींचकर उसके राज्य में उपस्थित करे। इस प्रकार चित्रकारों के द्वारा लाये गए चित्रों को देखकर राजकुमारी ने अपने लिये वर का चुनाव कर लिया था। 


पद्मपुराण (1200-1500 ई.) : इसके उत्तरखण्ड (221/1-11) में कहा गया है कि केरल राज्य के मंत्री को सुपुत्री ने तीर्थ यात्रा की चित्र-पुस्तिका राजकुमारी 'हेम गौरांगो' को दिखाई थी। इस तीर्थ पुस्तिका को देखकर राजकुमारी ने निश्चय किया था कि उसमें निर्दिष्ट तीर्थों का वह अवश्य भ्रमण करेगी। इसी पुराण के 'सृष्टि खण्ड' (431/441) कहा गया है कि भगवान शंकर के क्रीड़ा-गृह की भीत पर पालतू मयूरों और राजहंसों के में भव्य चित्र उकेरे हुये थे।

रविवार, 22 मई 2022

फुलवारी शरीफ से भगवानपुर तक कि यात्रा का Blog.

      सुबह में 04:00 बजे ही नींद खुल गई जबकि अलार्म सुबह 05:00 बजे का था। 30 Min. बिस्तर पर समय व्यतीत किया और अलार्म को बजने से पहले ही बंद कर दिया। ट्रेन का समय तो सुबह 06:53 का था इसीलिए आराम से सभी कार्य को संपन्न किये। फ्रेश होने के उपरांत ग्रीन टी🍵 बनाएं और हल्का नास्ता बैग में रख 06:10 में रूम से निकले क्योंकि फुलवारी शरीफ स्टेशन जाने में लगभग 30 Min. लगता है। 25 Min. में हम रेलवे स्टेशन के परिसर में थे। मॉर्निंग वॉक भी हो गया और हम स्टेशन भी आ गए।


     जब टिकट काउंटर पर भगवानपुर के लिए टिकट लेने गए तब पता चला की 03358 Patna - Darbhanga Memu Special Train अभी नहीं चल रही है। जब मैंने उससे कोई अल्टरनेट ट्रेन के बारे में पूछा था उसने कहा कि 08:40 में 03284 ट्रैन हैं। मैंने सोचा कि जब मैंने Search किया था तो यह ट्रेन तो मुझे नहीं दिखाया था फिर भी लगा कि हो सकता हैं कि रेलवे ने कोई ट्रेन चलाई होगी। मैंने भगवानपुर का टिकट मांगा इसके लिए मैंने उन्हें भगवानपुर का कोड BNR भी बता दिया क्योंकि इससे पूर्व उसने दो (2) टिकट काटने से पूर्व अपने साथ बैठे स्टाफ से स्टेशन का कोड पूछा था, शायद उसकी नई जॉइनिंग रही हो। टिकट लेने के उपरांत जब मैंने चेक किया तो पता चला कि वह ट्रैन तो हाजीपुर से बरौनी निकल जाती है भगवानपुर को तो जाती नहीं। फिर अपने आपको को थोड़ा मोटीवेट किया और स्वयं से कहा:- कोई बात नहीं हाजीपुर से भगवानपुर के लिए कोई ट्रेन या फिर ऑटो से निकल जाएंगे। समय तो बहुत था मेरे पास इसीलिए स्टेशन परिसर में घूम कर के फोटो शूट📸 किए और उसे एक quotation✍️ के साथ सोशल मीडिया में अपलोड किया आप भी देखिए👇.



हम चाहे फुलवारी शरीफ की तरह कितना भी, 

शरीफ क्यों ना हो जाए। 


मन🥰 तो हमेशा, 

भगवानपुर में ही लगता हैं।


     इसे आप जिस भी परिदृश्य में पढ़िये हकीकत से इसका कोई भी वास्ता नहीं है।😊

      तय समय पर हाजीपुर एवं फिर वहां से ऑटो से भगवानपुर आ गए। ऑटो वाला 03 की सीट पर 04 लोगों को बैठा रहा था। इसे आप ऑटो वाले की बदनसीबी ही कहियें की उसके ऑटो में बैठे चारों लोग लोग हैवी वैट वाले ही थे। जिस वजह से परेशानी सबको हुई। मैंने तो अपना सफर यह गुनगुनाते हुए काट लिया कि, 


जिंदगी एक सफर है सुहाना,

यहां कल क्या हो किसने जाना।


       भगवानपुर में अपना सारा कार्य संपादित कर लगभग 03:00 बजे तक हम फ्री हो गए थे। उसके बाद मकसूदन जी को फ़ोन किये। मेरे आग्रह को स्वीकार कर आए और छोटी सी पार्टी🥂 आयोजित हो गई। पटना के लिए बस पकड़ने से पूर्व सोचे कि कुछ Soft-Dring होनी चाहिए। मेरा पसंदीदा Fizz उसके पास नहीं था उसने कहा- सर Sting लीजिये यह इससे ज्यादा बढ़िया है। मैंने कहां बढ़िया तो नहीं होगा लेकिन आप कहते हैं तो एक बार ट्राई करते हैं। Sting के साथ एक सेल्फी🤳 ली। बाद में समझ में नहीं आ रहा था कि हम Sting का प्रचार (PROMOTION) कर रहे हैं कि दुष्प्रचार।(VICIOUS PROPAGANDA).



      ......बाकी आप अपना विचार कमेंट बॉक्स में बता सकते हैं।

       रोड के किनारे खड़े होकर हम इंतजार तो बस का कर रहे थे लेकिन आई एक ऑटो। उस में बैठा ड्राइवर बोला- पटना। 

सहसा!!! हमें यकीन नहीं हुआ की यहां से Direct पटना, वह भी ऑटो से। मैंने एक बार एवं मकसूदन ने दो बार कंफर्म किया। ऑटो वाले ने हर बार यही कहां- हां!! भैया जी, हम पटना ही जाएंगे। 


     अचानक से मेरे आंखों के सामने कल रात में देखी गई फ़िल्म भूल भुलैया का दृश्य तैरने लगा। मूवी के एक दृश्य में अक्षय कुमार कहते हैं कि कुंभ से स्नान करके बनारस सीधे ऑटो से आ रहे है। ऑटो वाला उनसे 3000/- मांगा था। फिर मैंने मूवी का दृश्य बंद किया और ऑटो वाले से किराया कंफर्म किया। उसने वही किराया बताया जो कि बस से जाने पर लगता है। मैं सहज स्वीकृति प्रदान दे दी और ऑटो में बैठ गया।




     भगवानपुर से पटना ऑटो का सफर बहुत ही रोमांचक रहा और और आज के दिन की बात करें तो वह और भी ज्यादा रोमांचक🥰 रहा था। जिसके बारे में चर्चा किसी और किसी लेख✍️ में....


धन्यवाद🙏

शनिवार, 21 मई 2022

गामा पहलवान (Gama Pahlwan)

 

साभार:-Google

      शारीरिक ताक़त व बहादुरी के लिए एक मिसाल के रूप में गामा पहलवान की 144वीं जयन्ती पर आज गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें याद किया है।

     शायद ही कोई ऐसा खेल-प्रेमी हो, जिसने गामा पहलवान का नाम न सुना हो।  5 फीट 7 इंच लंबाई और 200 पाउंड वजन के 'रुस्तम-ए-ज़मां' गामा का असली नाम  ग़ुलाम मुहम्मद बख्श था। गामा का जन्म 22 मई 1878 को गांव जब्बोवाल अमृतसर के एक कश्मीरी परिवार में हुआ था। छह साल की उम्र में उनके पिता प्रसिद्ध पहलवान मोहम्मद अजीज बक्श के देहांत हो जाने के बाद उनके नाना नून पहलवान और चाचा इदा ने उनकी देखभाल की और उन्होंने ही गामा पहलवान को कुश्ती में पहली बार प्रशिक्षण दिया। दस वर्ष की उम्र में ही पहलवानी शुरू कर उन्होंने जोधपुर में आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया था। उस प्रतियोगिता में जोधपुर के महाराजा गामा के प्रदर्शन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गामा को विजेता घोषित कर दिया। इसके बाद, दतिया के महाराजा ने उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए अपने साथ रख लिया। गामा प्रशिक्षण के दौरान प्रतिदिन 40 पहलवानों के साथ अखाड़ा में कुश्ती किया करते थे और एक दिन में 5000 उठक-बैठक और 3000 दंड किया करते थे। सतरह साल की उम्र में गामा ने तत्कालीन भारतीय कुश्ती चैम्पियन रहीम बख्श सुल्तानीवाला कश्मीरी पहलवान को चुनौती दे डाली, जो कि गुजरांवाला, पंजाब, पाकिस्तान से थे।  7 फीट  ऊँचाई वाले रहीम बख्श से कुश्ती का मुकाबला कई घंटों तक चला और अंततः यह प्रतियोगिता ड्रॉ रही। रहीम बख्श सुल्तानीवाला के साथ उनका मुकाबला गामा के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण था। वर्ष 1910 तक, रहीम बख्श सुल्तानीवाला को छोड़कर गामा ने उन सभी प्रमुख भारतीय पहलवानों को हराया जिन्होंने उनसे कुश्ती की। गामा पहलवान ने पचास साल तक पहलवानी में लगभग पांच हजार कुश्तियां लड़ीं लेकिन एक भी कुश्ती में उन्हें कोई नहीं हरा सका। उन्होने इंगलैंड जाकर विश्वस्तर के बड़े पहलवानो को हराया ओर बुल बेल्ट का खिताब भारत लेकर आये। पश्चिमी देशों के अपने दौरे के दौरान, गामा ने दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पहलवानों को हराया। जैसे कि- फ्रांस के मॉरिस देरिज़, संयुक्त राज्य अमेरिका के डॉक” बेंजामिन रोलर, स्वीडन के जॅसी पीटरसन (विश्व चैंपियन) और स्विट्जरलैंड के जोहान लेम (यूरोपियन चैंपियन)। उस समय के सबसे बड़े पहलवान अमेरिका के जैविस्को को उन्होने सिर्फ डेढ़ मिनट मे चारो खाने चित कर दिया था और तभी उन्हें विश्व के महानतम पहलवानों में गिना जाता है। दुनिया के कई प्रसिद्ध पहलवानों को हराने के बाद, गामा ने उन लोगों के लिए एक चुनौती जारी की जो “विश्व चैंपियन” के शीर्षक का दावा करते थे। जिसमें जापान का जूडो पहलवान ‘तारो मियाकी’, रूस का ‘जॉर्ज हॅकेन्शमित’, अमरीका का ‘फ़ॅन्क गॉश’ शामिल थे। हालांकि, उनमें से किसी ने भी उनके निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। वर्ष 1922 में, इंग्लैंड के ‘प्रिंस ऑफ़ वेल्स’ ने भारत यात्रा के दौरान गामा को चाँदी का एक बेशक़ीमती ‘गदा’ (ग़ुर्ज) उपहार स्वरूप प्रदान किया था। वर्ष 1947 में, भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे, पचास साल के करियर में अविजित रहने के बाद 23 मई 1960 को लाहौर में दिल की और अस्थमा की पुरानी बीमारी के बाद गामा की मृत्यु हुई। जिस 95 किलो के पत्थर से गामा पहलवान वर्जिश किया करते थे वह पटियाला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव स्पोर्ट्स म्यूजियम में आज भी सुरक्षित रखा है। गामा की उपलब्धियाँ इतनी आश्चर्यजनक एवं अविश्वसनीय हैं कि साधारणत: लोगों को विश्वास नहीं होता कि गामा पहलवान वास्तव में हुए थे। मार्शल आर्ट्स के बादशाह कहे जाने वाले ब्रूस ली गामा पहलवान के बहुत बड़े फैन थे और गामा पहलवान के दिनचर्या का पालन किया करते थे।

साहित्य में चित्रकला (Painting in literature)

साहित्य में चित्रकला


महाभारत (600 ई.पू. से 500 ई.पू.):- यह भारतीय साहित्य की उन्नत परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इस समय तक चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कला के इन विभिन्न अंगों का अनेक उपांगों में पूर्ण विकास हो चुका था। महाभारत में रूपभेदों की विभिन्नता पर प्रकाश डाला गया है, जो उन्नीस (19) प्रकार के हैं।


महाभारत (3/293/13) में 'सत्यवान' के संबंध में बताया गया है कि उसे बचपन में घोड़ों का शौक था और वह वन में माता-पिता के साथ रहते हुए मिट्टी के घोड़े बनाता था। भित्ति पर भी घोड़े के चित्र अंकित करता था। इसी कारण बचपन में उसका नाम 'चित्राश्व' पड़ गया था।


महाभारत में 'उषा अनिरुद्ध' की एक सुन्दर प्रेम कथा के प्रसंग में चित्रकला का उल्लेख आया है। राजकुमारी उषा ने स्वप्न में एक सुन्दर युवक को अपने साथ वाटिका में विहार करते देखा और वह उससे प्रेम करने लगी। प्रातः जागकर राजकुमारी उषा, युवराज की स्मृति में दुखी होकर एकान्त चली गई। जब उसकी परिचारिका 'चित्रलेखा' को इस घटना के बारे में पता चला, तो उसने समस्त महापुरुषों, देवताओं तथा उस समय के सभी युवराजों के छवि-चित्र स्मृति के आधार पर बनाकर उषा के सम्मुख पेश किये। उषा ने स्वप्न में देखे राजकुमार का चित्र पहचान लिया, जो कृष्ण के प्रपौत्र 'अनिरुद्ध' का था। व्यकित चित्र को देखकर राजकुमारी प्रसन्न हो गई। इस प्रकार अन्य कथाएँ भी प्रचलित हैं , जिनमें स्मृति से व्यक्ति चित्र बनाने की चर्चा आई है।


एक प्रसंग में (महाभारत सभापर्व, अध्याय 3 तथा 47) 'युधिष्ठिर की सभा' का बड़ा रोचक वर्णन मिलता है। सभागृह के संबंध में लिखा है कि सभा भवन की दीवार में जहाँ दरवाजा दिखाई देता था, वहाँ वह वस्तुतः दरवाजा नहीं रहता और जहाँ नहीं दिखाई देता था, वहीं पर दरवाजा बना होता था। ऐसे स्थान पर दुर्योधन को भ्रम हो गया और वह धोखे में आ गया।


एक अन्य जगह दीवार पर एक ऐसा चित्र बनाया गया है, जिसमें एक सच्चा दरवाजा खुला दिखाई पड़ता था, परन्तु जब कोई उसमें प्रवेश करता, तो उसका सिर दीवार से टकरा जाता था।


एक जगह स्फटिक भूमि बनाकर उसमें ऐसी कला दर्शायी गई है कि वहाँ पानी का आभास होता था और अन्य जगह पर स्फटिक के एक हौज में पानी भरा हुआ था। उसमें स्फटिक का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण ऐसा प्रतीत होता था कि वहाँ पानी बिल्कुल नही है। इस सभा गृह को बनाने वाला कारीगर फारस देश के अर्थात् 'असुर' थे। उपरोक्त वर्णनों से हमें पता चलता है कि उस समय चित्रकला के साथ - साथ स्थापत्य का भी बोलबाला था।


रामायण ( 600 ई.पू. से 500 ई.पू. ) : रामायण के समय का समाज कला के प्रति बड़ा निष्ठावान था। इस काल में चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कलाकारों का पूर्ण विकास हो चुका था। 'बालकाण्ड' के 'छठे' सर्ग में महामुनि ने अयोध्यावासियों का जो परिचय दिया है, उसको देखकर विदित होता है कि वे लोग 'कलाविद्' और 'सौन्दर्यप्रेमी' थे।


सौन्दर्य प्रसाधनों के संबंध में स्थान-स्थान पर महामुनि ने जो केशसज्जा, अंगराग, चित्र - विचित्र, वस्तुओं का व्यवहार, स्त्रियों के कपोलों पर पत्रावली का अंकन, राजप्रासादों, गृहों, रथों तथा पशुओं की सज्जा, नगरों एवं उद्यानों की कलापूर्ण रचना और उत्सवों की विशद् चर्चाएँ हुई हैं। उपरोक्त बातों से स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज की कला तथा सौन्दर्य के प्रति हार्दिक अभिरुचि थी।


'रामायण' में कला के अर्थ में 'शिल्प' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसके अन्तर्गत गीत, नृत्य, वाद्य, चित्रकर्म आदि सभी ललित कथाओं का अंतर्भाव किया गया है। कहा जाता है कि कला के प्रति उत्कृष्ट अभिरुचि के कारण राम भी अछूते न रह सके थे। कला उच्च आस्था थी, राजा की दृष्टि से भी उसका उतना ही महत्त्व था, के प्रति समाज में इसका पता हमें उस प्रसंग को देखकर चलता है, जहाँ महामुनि ने राम को संगीत, वाद्य तथा चित्रकारी आदि मनोरंजन के साधनों का ज्ञाता बताया है।


एक अन्य कार्मिक प्रसंग, जिसमें 'राम ने अपनी सहधर्मिणी सीता की सुवर्ण प्रतिमा का निर्माण कराया था', जो तत्कालीन शिल्प-विधान का श्रेष्ठ प्रसंग एवं 'मय' नामक शिल्पी की अद्भुत देन थी।

'रामायण' में दीवारों, कक्षों, रथों तथा राजभवनों पर चित्रांकित करने के संबंध में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। रावण का पुष्पक विमान चाँदी तथा मूंगे के पक्षियों, भाँति-भाँति के रत्न-सर्पों, रत्नों, हेमपक्षों से विभूषित था। इस प्रकार दृष्टि और मन को सुख देने वाले और आश्चर्यचकित कर देने वाले नाना प्रकार के दृश्य अंकित थे और अगल बगल में उसकी शोभा बढ़ाने वाले बेल-बूटों के चित्र अंकित थे।


इसी प्रकार रामायण के 'सुन्दरकाण्ड' और 'लंकाकाण्ड' में चित्रकला के संबंध में भी लिखा है- रावण को लंका में सीता की खोज करते समय हनुमान को एक चित्रशाला और चित्रों से सुसज्जित कई क्रीड़ागृह देखने को मिले थे।


रामायण में उल्लिखित 'चित्रशाला गृहाणि' से भी प्रतीत होता है कि उस समय चित्रशालाएँ थीं और रावण की चित्रशाला अपने युग की विख्यात चित्रशालाओं में थी। ये चित्रशालाएँ व्यक्तिगत, सामाजिक और राजकीय आदि अनेक प्रकार की थीं। बाली और रावण का शव ले जाने के लिये जो पालकियाँ बनवाई गई थीं, उनमें चित्र सज्जा का अद्भुत वर्णन है। (4 / 25 / 22-24) कैकेयी के राजप्रासाद एवं राम के राजप्रासाद में अनुपम भित्ति चित्र उत्कीर्ण थे (2/10/13) व (2/15/35) उस युग में हाथियों के मस्तिष्कों पर एवं रमणियों के कपोलों पर सुन्दर चित्र रचना होती थी।


अष्टध्यायी:- रामायण, महाभारत के पश्चात् रचे गए जिन ग्रंथों में चित्रकला का उल्लेख मिलता है, उनमें पाणिनि (500 ई.पू.) की 'अष्टध्यायी' का नाम आता है। इसमें शिल्प को चारू (ललित) और कारू (उद्योग) दोनों अर्थों में प्रयुक्त किया गया है। साथ ही राज्यों के अंक और सांकेतिक लक्षणों के प्रसंग में पक्षी, पशु, पुष्प, वृक्ष, नदी, पर्वत आदि के लक्षणों की चर्चा की गई है। साथ ही उनको किस विधि से अंकित किया जाता था, इसका भी उल्लेख मिलता है।


नाट्यशास्त्र (प्रथम शताब्दी ई.पू.) :- आचार्य भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' में निश्चित विषय में पर्याप्त चर्चा की है। सर्वप्रथम 'कला शब्द' का प्रयोग इसी ग्रन्थ में किया गया है। वर्ण-मिश्रण संबंधी तकनीकों एवं विधियों पर भी प्रकाश डाला गया है। रंगों द्वारा भावाभिव्यक्ति तथा रंगों के मन पर पड़ने वाले प्रभाव की भी इस ग्रन्थ में चर्चा की गई है। लाल, पीले तथा श्याम रंग को मूल माना है तथा सफेद रंग के योग से अनेक रंग बनने की बात लिखी है। नाट्यशास्त्र (2/75) में यह भी बताया गया है कि नाट्यशाला की भित्ति पर नर-नारी की मूर्तियों, बेल-बूटों और अनेक मनोरम दृश्यों को अंकित किया जाना चाहिये।


मेघदूत तथा रघुवंश (प्रथम शताब्दी ई.पू.) :- महाकवि कालिदास द्वारा रचित लघु काव्य 'मेघदूत' में विरहणी यक्षणी द्वारा अंकित उसके प्रवासी पति 'यक्ष' का चित्र बनाने की चर्चा हुई है, जो उल्लेखनीय है।


कालीदास की कृतियों से यह भी स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि उस समय स्त्री-पुरुष दोनों वर्ग चित्रकारी (चित्रकर्म) करते थे। चित्रों के द्वारा अपने प्रेमी को प्रेम संदेश भेजने की भी रीति प्रचलित थी। वियोग की व्यथा कम करने के लिये नायक-नायिका एक-दूसरे का चित्र बनाकर मन बहलाया करते थे। यही नहीं, चित्रों को देखकर विवाह निश्चित किये जाते थे। देवी-देवताओं के चित्र बनाकर उसकी पूजा भी करने का प्रचलन था। मंगल कामना की दृष्टि से नगरवासियों के घरों और राजाओं के महलों में चित्र सज्जित रहा करते थे।


कालिदास के 'रघुवंश महाकाव्य' में (8/168) में 'ललित कला' शब्द का भी उल्लेख हुआ है। रघुवंश के 16वें सर्ग में विध्वस्त अयोध्या नगरी का वर्णन करते हुए लिखा है कि वहाँ के प्रासादों की भित्तियों पर नाना-भाँति के पद्यवनों के मध्य क्रीड़ा करते हाथियों को चित्रित किया गया था। उन हाथियों में उनकी हथनियाँ कमल का डंठल देती हुई चित्रित की गई थीं। चित्र इतने सजीव थे कि काल रूपी सिंहों ने इनको असली हाथी समझ कर अपने नाखूनों से उसका गंडस्थल विदीर्ण कर दिया था।


कोश :- प्राचीन कोश ग्रन्थों में भी चित्रकला संबंधी सामग्री मिलती है। केशवस्वामी के 'नानार्यर्णवसंक्षेप' में चित्रकार ने तूलिका (कुंची) को वर्तिका कहा है। इसी प्रकार 'मेदिनीकोश' के रचयिता ने चित्रकार को 'वर्णाट' कहा है, जिसका मतलब है अनेक रंगों के विश्लेषण में निपुण होना।


कादम्बरी (700 ई.) :- असामान्य गद्यकार कवि व इतिहासज्ञ बाणभट्ट की संस्कृत भाषा में लिखी कृति 'कादम्बरी' है, जिसमें पाँच शुद्ध वर्णों का उल्लेख हुआ है।
नील
पीत
लोहित
धवल (शुक्ल)
हरित (कृष्ण)


साथ ही वर्णचित्रों, भावचित्रों और रेखाचित्रों की प्रशंसा की गई है। राजप्रासादों तथा राजभवनों आदि में सुरक्षित चित्रशालाओं और चित्रशाला के संबंध की अनेक अनूठी बातों की सूचनाएँ देखने को मिलती हैं।
हर्षचरित:- वाणभट्ट द्वारा लिखित ऐतिहासिक गद्य काव्य 'हर्षचरित' के अध्ययन से यह विदित होता है कि उस समय जो वस्तुएँ राजा को भेंट में दी जाती थीं, उनमें चित्रण संबंधी सामग्री एवं चित्र भी होते थे। हर्षचरित (5/214) के एक प्रसंग में यह भी वर्णित है कि कुछ लोग परलोक के काल्पनिक चित्र दिखाकर पैसा कमाते थे।


दशकुमारचरित (700 ई.) :- दक्षिणात्य आचार्य 'दंडी' भी बाणभट्ट की भाँति प्रौढ़ लेखक और काव्य शास्त्र के क्षेत्र में एक मात्र विद्वान माना जाता था। दक्षिण भारत के रजवाड़ों में यह नियम था कि अन्य विषयों की भाँति राजकुमार के लिए चित्रकला की शिक्षा प्राप्त करना भी आवश्यक है 'दशकुमारचरित' में ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है कि 'कुमार उपहार वर्मा' ने अपना चित्र स्वयं बनाया था।


तिलकमंजरी (10 वीं शताब्दी) :- ‘धनपाल' द्वारा लिखित गद्यकृति 'तिलकमंजरी' में चित्रकला संबंधी तीन पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख है-


1. 'निपुण चित्रकार', अर्थात् चित्रकर्म में अत्यन्त निष्णात मास्टर पेंटर 'मालविकाग्निमित्र' में यह शब्द चित्राचार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।


2. 'चित्रपट' अर्थात् किसी सम्पूर्ण कथा को चित्रों में अंकित करना, जिसको 'उत्तर रामचरित' में 'वीथिका' कहा गया है।


3. 'प्रतिबिंब' अर्थात् 'विद्वचित्र', जिसे फारसी में 'शबीह' कहते हैं। प्रतिबिम्ब चित्रों का अपर नाम 'प्रकृति चित्र', 'सादृश्य चित्र' या 'प्रतिछंदक चित्र' भी कहा गया है ।


तिलकमंजरी में 'गंधर्वक' नामक एक युवा चित्रकार द्वारा निर्मित लम्बे चित्रपट का वर्णन मिलता है, जिसमें राजकुमारों की चित्रित आकृति के विषय में लिखा है कि वे सुन्दर हैं, जिसमें यथोचित रंगों का प्रयोग है और शरीर के भागों की बनावट आकर्षक है। साथ में सचेतन में दिखाई देने वाले पक्षी तथा मृग सभी जीवन्त एवं सुन्दर दिखाई देते हैं।




कथासरित्सागर :- गुणाढ्य की वृहत्कथा के संप्रति तीन प्रामाणिक संस्करण मिलते हैं, जो अति उत्तम हैं- प्रथम तो 'नेपाल के बुद्धस्वामी' का श्लोक संग्रह (8 वीं 9 वीं शताब्दी), दूसरा 'क्षेमेन्द्र का वृहत्कथामंजरी', तीसरा 'सोमदेव का कथासरित्सागर', यह लोक संस्करण लोक-जीवन के सम्बन्ध में होने के कारण सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। 'सोमदेव' व 'क्षेमेन्द्र' दोनों काश्मीर के निवासी थे और उनका स्थितिकाल 11वीं शताब्दी ई. था। इसकी अनेक कथाओं में चित्रकला की चर्चाएँ देखने को मिलती हैं। एक कथा के अनुसार 'उदयन' का 'कुमार नरवाहनदत्त' चित्रकला, मूर्तिकला और संगीतकला में निपुण था।


एक अन्य कथा से भी ज्ञात होता है कि 'पद्मावती' ने 'वासवदत्ता' के घर की भीत पर 'विरहणी सीता' की चित्रित मूर्ति को देखकर आश्वासन प्राप्त किया था।
इसी प्रकार मणिपुर की राजकुमारी 'रूपलता' के प्रति अपने प्रेम प्रकट करने हेतु चित्रकार 'कुमारदत्त' के द्वारा 'राजा पृथ्वीरूप' ने अपना एक चित्र भेजा था।
एक अन्य कथा से यह भी जानने को मिलता है कि 'परिव्राजिका कात्यायनी' चित्रविद्या में अत्यन्त निपुण थी। उसने 'राजकुमार सुन्दरसेन' के आग्रह पर 'राजकुमारी मन्दारवती' का एक सजीव चित्र अंकित किया था और इसी प्रकार राजकुमार के मित्रों के आग्रह पर उसने राजकुमार का भी सुन्दर चित्र बनाया था।
कथासरित्सागर में वर्णित 'राजा विक्रमादित्य' के दरबारी चित्रकार के संबंध में कहा गया है कि उसका सामंतों के समान स्थान था और जीविकोपार्जन के लिये सौ गाँवों को जागीर मिली हुई थी।
एक अन्य कथा से यह भी जानने को मिलता है कि राजा 'नरवाहनदत' चित्रकला की प्रतियोगिता आयोजित करके बहुधा बड़े-बड़े प्रतिस्पर्धी चित्रकारों को पराजित करता था।
प्रतिष्ठानगरी के राजा 'पृथ्वीरूप' के दरबार में 'कुमारदत्त' एवं 'रोलदेव' नामक चित्रकार का विदर्भ देश के राजा के दरबार में होने का कथासरित्सागर में उल्लेख है।

      इस प्रकार ग्रन्थों में अनेक कथाओं के वर्णन से तत्कालीन समाज में चित्रकला के महत्त्व का पता चलता है।

शुक्रवार, 20 मई 2022

📚 पुस्तकें और उनके लेखक✍️


1. पंचतंत्र — विष्णु शर्मा


2. प्रेमवाटिका — रसखान


3.  मृच्छकटिकम् — शूद्रक


4. कामसूत्र् — वात्स्यायन


5. दायभाग — जीमूतवाहन


6. नेचुरल हिस्द्री — प्लिनी


7. दशकुमारचरितम् — दण्डी


8. अवंती सुन्दरी — दण्डी


9.  बुध्दचरितम् — अश्वघोष


10. कादम्बरी् — बाणभटृ


11. अमरकोष — अमर सिहं


12. शाहनामा — फिरदौसी


13. साहित्यलहरी — सुरदास


14. सूरसागर — सुरदास


15. हुमायूँनामा — गुलबदन बेगम


16. नीति शतक — भर्तृहरि


17. श्रृंगारशतक — भर्तृहरि


18. वैरण्यशतक — भर्तृहरि


19. हिन्दुइज्म — नीरद चन्द्र चौधरी


20. पैसेज टू इंगलैंड — नीरद चन्द्र चौधरी


21. अॉटोबायोग्राफी अॉफ ऐन अननोन इण्डियन — नीरद चन्द्र चौधरी


22. कल्चर इन द वैनिटी वैग — नीरद चन्द्र चौधरी


23. मुद्राराक्षस — विशाखदत्त


24. अष्टाध्यायी — पाणिनी


25. भगवत् गीता — वेदव्यास


26. महाभारत — वेदव्यास


27. मिताक्षरा — विज्ञानेश्वर


28. राजतरंगिणी — कल्हण


29. अर्थशास्त्र — चाणक्य


30. कुमारसंभवम् — कालिदास


31. रघुवंशम् — कालिदास


32. अभिज्ञान शाकुन्तलम् — कालिदास


33. गीतगोविन्द — जयदेव


34. मालतीमाधव — भवभूति


35. उत्तररामचरित — भवभूति


36. पद्मावत् — मलिक मो. जायसी


37. आईने अकबरी — अबुल फजल


38. अकबरनामा — अबुल फजल


39. बीजक — कबीरदास


40. रमैनी — कबीरदास


41. सबद — कबीरदास


42. किताबुल हिन्द — अलबरूनी


43. कुली — मुल्कराज आनन्द


44. कानफैंशंस अॉफ ए लव — मुल्कराज आनन्द


45. द डेथ अॉफ ए हीरो— मुल्कराज आनन्द


46. जजमेंट — कुलदीप नैयर


47. डिस्टेंन्ट नेवर्स— कुलदीप नैयर


48. इण्डिया द क्रिटिकल इयर्स— कुलदीप नैयर


49. इन जेल — कुलदीप नैयर


50. इण्डिया आफ्टर नेहरू — कुलदीप नैयर


51. बिटवीन द लाइन्स — कुलदीप नैयर


52. चित्रांगदा — रविन्द्र नाथ टैगौर


53. गीतांजली— रविन्द्र नाथ टैगौर


54. विसर्जन — रविन्द्र नाथ टैगौर


55. गार्डनर — रविन्द्र नाथ टैगौर


56. हंग्री स्टोन्स — रविन्द्र नाथ टैगौर


57. गोरा — रविन्द्र नाथ टैगौर


58. चाण्डालिका— रविन्द्र नाथ टैगौर


59. भारत-भारती — मैथलीशरण गुप्त


60. डेथ अॉफ ए सिटी— अमृता प्रीतम


61. कागज ते कैनवास— अमृता प्रीतम


62. फोर्टी नाइन डेज— अमृता प्रीतम


63. इन्दिरा गाँधी रिटर्नस — खुशवंत सिहं


64. दिल्ली — खुशवंत सिहं


65. द कम्पनी अॉफ वीमैन — खुशवंत सिहं


66. सखाराम बाइण्डर — विजय तेंदुलकर


67. इंडियन फिलॉस्पी — डॉ. एस. राधाकृष्णन


68. इंटरनल इंडिया — इंदिरा गाँधी


69. कामयानी — जयशंकर प्रसाद


70. आँसू — जयशंकर प्रसाद


71. लहर — जयशंकर प्रसाद


72. लाइफ डिवाइन — अरविन्द घोष


73. ऐशेज अॉन गीता — अरविन्द घोष


74. अनामिका — सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


75. परिमल — सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


76. यामा — महादेवी वर्मा


77. ए वाइस अॉफ फ्रिडम — नयन तारा सहगल


78. एरिया अॉफ डार्कनेस — वी. एस. नायपॉल


79. अग्निवीणा — काजी नजरुल इस्लाम


80. डिवाइन लाइफ — शिवानंद


81. गोदान — प्रेमचन्द्र


82. गबन — प्रेमचन्द्र


83. कर्मभूमि — प्रेमचन्द्र


84. रंगभूमि — प्रेमचन्द्र


85. अनटोल्ड स्टोरी — बी. एम. कौल


86. कन्फ्रन्डेशन विद पाकिस्तान — बी. एम. कौल


87. कितनी नावों में कितनी बार — अज्ञेय


88. गोल्डेन थेर्सहोल्ड — सरोजिनी नायडू


89. ब्रोकेन विंग्स — सरोजिनी नायडू


90. दादा कामरेड — यशपाल


91. पल्लव — सुमित्रानन्दन पंत्त


92. चिदम्बरा— सुमित्रानन्दन पंत्त


93. कुरूक्षेत्र — रामधारी सिहं 'दिनकर'


94. उर्वशी — रामधारी सिहं 'दिनकर'


95. द डार्क रूम — आर. के. नारायण


96. मालगुड़ी डेज — आर. के. नारायण


97. गाइड — आर. के. नारायण


98. माइ डेज — आर. के. नारायण


99. नेचर क्योर — मोरारजी देसाई


100.  चन्द्रकान्ता — देवकीनन्दन खत्री


101. देवदास — शरतचन्द्र चटोपाध्याय


102. चरित्रहीन — शरतचन्द्र चटोपाध्याय     


103. इंडिका — मेगास्थनीज


104. स्पीड पोस्ट — सोभा-डे


105. माई टुथ — इंदिरा गांधी


106. मिलिन्दपन्हो — नागसेन


107.बाबरनामा — बाबर


108. विनय पत्रिका — तुलसीदास


109. यंग इंडिया — महात्मा गांधी


110. काव्य मीमांसा — राजशेखर


111. हर्षचरित — वाणभट्ट


112. सत्यार्थ-प्रकाश — दयानंद सरस्वती


113. मेघदूत — कालिदास


114. हितोपदेश — नारायण पंडित