मंगलवार, 22 जून 2021

भोजपुरी अश्लील बन गई। लेकिन क्यों ? आइये इस लेख में जानते हैं।

 


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हम, इस लेख की शुरुआत कर रहे हैं- साठ के दशक से, उस समय मनोरंजन के इतने साधन नही थे। ले-देकर दशहरा के समय दरभंगा और अयोध्या से आने वाली रामलीला मण्डली का ही आसरा रहता था। कहीं से गाँव के चुल्हा बाबा को पता चलता कि इस महीने गाँव में होने वाले यज्ञ में वृन्दावन से रासलीला मण्डली आ रही है तो फिर उनके चेहरे की ख़ुशी देखते बनती थी।
उधर गाँव के नौजवानों को शादी-ब्याह के मौसम में आने वाले लौंडा नाच और मेले-ठेले में होने वाली नौटँकी का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता था। उधर गाँव के कुछ उत्साही लइकन के द्वारा दशहरा-दीपावली में ड्रामा भी किया जाता था।
उस समय तक गाँव-जवार में बिजली अभी ठीक से आई नहीं थी। दूरदर्शन के दर्शन की कल्पना भी बेमानी थी। किसी गाँव में डेढ़ मीटर लम्बा रेडियो यदि आ जाए तो आस-पास के गाँव वाले साइकिल से उसे देखने एवं सुनने पहुंच जाते थे।
तब भोजपुरी के पहले सुपरपस्टार यानी भिखारी ठाकुर की लोकप्रियता आसमान छू रही थी। बलिया से लेकर बंगाल और आसाम से लेकर आसनसोल तक। वो जहाँ भी जिस मौके पर जाते, वहाँ खुद-ब-खुद मेला लग जाता था। भिखारी ठाकुर जी कहते थे यदि कहीं मेरा कार्यक्रम हो और दो-चार लोग कुआँ और पोखर में ना गिरे तो कार्यक्रम सफल नहीं हुआ। यानी कहने का अर्थ उनका यह था कि रात के अन्हरिया में लोग कार्यक्रम देखने के लिए आते थे और भीड़ इतनी ज्यादा होती थी कि आते समय लोग कुआँ और पोखर में गिर जाते थे। उनके इंतजार में लोग ऊँगली पर दिन गिनना शुरू कर देते थे। उनका नाटक गबरघिचोर हो या गंगा स्नान, बिदेसिया हो या बेटीबेचवा। लोग हंसते-हंसते कब रोने लगते किसी को कुछ पता ही नहीं चलता था।
“करी के गवनवा भवनवा में छोड़ी करs
अपने परइलs पुरूबवा बलमुआ..”
ये गीत बच्चे-बच्चे को जबानी याद था। क्योंकि इन नाटकों के गीत महज गीत नहीं होते थे। इन नाटकों के संवाद महज संवाद नहीं थे। वो मनोरंजन भी केवल मनोरंजन नहीं था बल्कि वो मनोरंजन का सबसे उदात्त स्वरूप था जहाँ भक्ति, प्रेम और वात्सल्य के साथ हास्य-व्यंग्य का उच्चस्तरीय स्तर मौजूद था। जहाँ स्त्री विमर्श की गहन पड़ताल थी, तो सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों पर एक साथ चोट की जा रही थी। कुल मिलाकर तब भिखारी सिर्फ एक कलाकार न होकर एक समाज-सुधारक की भूमिका में थे।
वही दौर था भिखारी के समकालीन छपरा के महेंदर मिसिर का, दोनों में खूब दोस्ती थी। गाँव का बच्चा-बच्चा जानता था कि भिखारी खाली समय में अगर कुतुबपुर में नहीं हैं तो वो पक्का मिश्रौलिया में होंगे। अपने समय के दो महान कलाकारों की इस गाढ़ी मित्रता की कल्पना मेरे जैसे कई कला के विद्यार्थियों के चित्त को आनंदित करती है
“अंगूरी में डसले बिया नगिनिया रे,
ए ननदी संइयाँ के बोलाइ दs..”
भला कौन पूरबिया होगा जिसे इतना याद न होगा..???
लेकिन साहेब भिखारी-महेंदर मिसिर के बाद एक झटके में जमाना बदला। तब सिनेमा जवान हो रहा था। भोजपुरी में भी तमाम फिल्में बननें लगीं थी। गाजीपुर के नाजिर हुसैन और गोपालगंज के चित्रगुप्त नें चित्रपट में ऐसा जादू उतारा कि आज भी वो फ़िल्में, वो संगीत मील का पत्थर हैं।
लेकिन हम इस लेख में मुम्बई और सिनेमा की बात नही करेंगे क्योंकि तब गाँव में धड़ल्ले से नाच पार्टी खुल रहीं थीं। हर जिले में ढोलक के साथ बीस जोड़ी झाल लेकर गवनई पार्टी वाले व्यास जी लोग आ गए थे। ये व्यास जी लोग "मोटकी गायकी" के व्यास कहे जाते थे। ये व्यास लोग रात भर रामायण, महाभारत की कथा को वर्तमान सन्दर्भों के साथ जोड़कर सुनाते। सवाल-जबाब का लम्बा-लम्बा प्रसंग चलता। बिहार के गायत्री ठाकुर जब हवा में झाल लहरा के गाते...
" डहरिया पीचलतरा जाला पाँव रे
जोन्हीयो से दूर बा बलमुआ के गाँव रे..."
तो श्रोताओं के हाथ अपने आप जुड़ जाते थे, क्योंकि इस गीत में बलमुआ का मतलब उनके पतिदेव से नहीं, बल्कि ईश्वर से था। इधर उनके जोड़ीदार बलिया यूपी के बिरेन्द्र सिंह ‘धुरान’ भी माथे पर पगड़ी बांध, मूँछों पर ताव देकर ललकारते...तो अस्सी साल के बूढों की बन्द पड़ी धमनियों का रक्त-संचरण अपने आप बढ़ जाता।
ये जोड़ी पुरे भोजपुरिया जगत में प्रसिद्ध थी। इन दोनों के चाहने वालों की लिस्ट में टी-सीरीज के मालिक गुलशन कुमार भी शामिल थे और इन गायत्री-धुरान नामक दो घरानों नें भोजपुरी को सैकड़ों गायक दिए। ये परम्परा आज वटवृक्ष का आकार ले चुकी है।
फिर आते हैं, भोजपुरी की मेहीनी परम्परा में। धीरे-धीरे समय बदला अस्सी का दशक आया, मुन्ना सिंह और नथुनी सिंह का। भला कौन होगा, जिसे ये गाना याद न होगा ?
"जबसे सिपाही से भइले हवलदार हो
नथुनिए पर गोली मारे संइयाँ हमार हो..”
तब टेपरिकार्डर और आडियो कैसेट मार्किट में आ गए थे। शहरों से निकलकर गाँव-गाँव इनकी पहुंच आसान हो गई थी। उस समय कैसेट गायकों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। क्योंकि गायक बनना आसान नहीं था और कैसेट कलाकार बनना तो अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। तब वीनस और टी-सीरीज जैसी म्यूजिक कम्पनियाँ कलाकारों को बुलाकर रिकॉर्डिंग करातीं थीं और ये म्यूजिक कम्पनियां उन्ही गायकों का कैसेट बनातीं थीं जिनकी आवाज में कुछ ख़ास होता था। जिनको दो-चार हजार लोग जानते-पहचानते थे। शायद इसी वजह से जिस गायक का बाजार में कैसेट होता था उसका मार्केट टाइट हो जाता था। उसे फटाफट दूर-दूर से प्रोग्राम के ऑफर आने लगते थे। बाकी लोग उससे हड़कते थे

"अरेs मरदे कैसेट के कलाकार हवन...दूर रहा...”

उसी समय कुछ अच्छे गाने वाले हुए। बिहार में शारदा सिन्हा जी का गाना।
"पटना से बैदा बोलाई दs हो,
नज़रा गइली गुईयाँ"
जब कुसुमावती चाची सुनतीं तो उनका चेहरा ऐसा खिल जाता, मानों किसी ने उनके दिल की बात कह दी हो। उसी दौर में भरत शर्मा व्यास जब गाते...
“कबले फिंची गवना के छाड़ी,
हमके साड़ी चाहीं."
तो बलिया जिला के रेवती गाँव में गवना करा के आई मनोहर बो (मनोहर की पत्नी) अपने मनोहर को याद करके चार दिन तक खाना-पीना छोड़ देतीं। वहीं नया-नया दहेज में हीरो-होंडा पाया सिमंगल तिवारी का रजेसवा जब गांजा के बाद ताड़ी पीने में महारत हासिल कर लेता तो कहीं दूर हार्न से भरत शर्मा की आवाज आती..
“बन्हकी धराइल होंडा गाड़ी
हमार पिया मिलले जुआड़ी."
फिर इन्हीं भरत शर्मा की ऊँगली थामकर निकले कुछ और गायक। जिनमे बलिया की शान मदन राय, गोपाल राय और रविन्द्र राजू जैसे गायक। आज भी गोपाल राय गाते हैं...
"झुमका झुलनी चूड़ी कंगन हार बनवनीs,
उपरा से निचवा ले तहके सजवनीs।
सोनरा के सगरो दोकान लेबु का हो,
काहें खिसियाईल बाड़ू जान लेबू का हो.!!"

तो मन करता है कि इसी खरमास में कोई बढ़िया दिन देखकर बियाह कर ले और तब इस गाने की अगली लाइन सुनें...!!!!
इसमें कोई शक नही है कि आज भी भरत शर्मा के साथ-साथ मदन राय, गोपाल राय, विष्णु ओझा भोजपुरी के सर्वकालिक लोकप्रिय गायक हैंकोई स्टार बने या बिगड़े न इनका महत्व कभी कम हुआ हैं और न ही होगाआज भोजपुरी संगीत में जो कुछ भी सुंदर हैं, वो सब इन्हीं जैसे गायकों की देन है।
लेकिन आइये इधर,
नब्बे का दशक बीत रहा था। ठीक उसी उसी समय एकदम लीक से हटकर एक और गायक कम नेता जी आ गए। वो थे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) में बीपीएड की पढ़ाई कर रहे मनोज तिवारी ‘मृदुल’ इनके आते ही दो शैली यहाँ हो गयी भोजपुरी में

एक भरत शर्मा व्यास वाली शैली
दूसरी मनोज तिवारी वाली शैली

शर्मा जी वाली शैली में अभी भी गायत्री ठाकुर और व्यास शैली का प्रभाव था लेकिन मनोज तिवारी ने लीक बदल कर वो गाने लगे
“लल्लन संगे खीरा खाली सुनें प्रभुनाथ गाली,
घायल मनोज से बुझाली बगलवाली जान मारेली..!!!”
गायकी के इस नए अंदाज नें युवाओं के बीच धूम ही मचा दिया। धीरे-धीरे इसमें स्टेज पर लेडिज डांसर के संग नृत्य का तड़का भी दिया जाने लगा और ये क्रम लम्बा चलता रहा।

फिर साहेब आ जातें है सीधे 2002 में...

मार्केट में आडियो और वीसीआर को चुनौती देने के लिए आ गया सीडी कैसेट। अब हाल ये हुआ कि टाउन डिग्री कालेज से पढ़ाई करके गाँव के मनोजवा,करिमनावा, मोहनावां चट्टी-चौराहे पर सीडी की दुकानें खोलने लगे। यहां तक कि चट्टी के गुप्त रोग स्पेशलिस्ट सुखारी डाक्टर के मेडिकल स्टोर पर भी फ़िल्म सीडी मिलने लगी। जहाँ सुविधानुसार हर तरह की फिल्में यानी लाल, पिली, नीली किस्म की फिल्में आसानी से मिल जातीं थीं।
मुझे अच्छे से याद नहीं कि कितनी बार नानी का गेंहू बेचकर भाड़े पर मिथुन चक्रवर्तीया और सनी देवलवा की कितनी फिल्में देखीं होंगी। तब जिनके यहाँ गाँव में पहली दफा सीडी आई थी, उनके यहाँ बिजली आते ही मेला लग जाता था। इस माहौल को ध्यान रखते हुए उस समय भोजपुरी की म्यूजिक कम्पनियों ने एक नया ट्रेंड निकाला और वो था- भोजपुरी म्यूजिक वीडियो सीडी...!!!
टी-सीरीज तब भी इस मामले में नम्बर एक थी। उसने मनोज तिवारी के सुपरहिट एल्बम अगल वाली, बगल वाली, सामने वाली, ऊपर वाली, नीचे वाली, पूरब के बेटा, आदि सबका वीडियो बना डाला..!!!! फिर हुआ क्या कि लोग जिसे आज तक आडियो में सुनते थे..और कैसेट के रैपर पर छपे गायक को बड़े ध्यान से देर तक देखते थेलोग उसे वीडियो में नाँचते-और झूमते देखने लगे। इसी चक्कर में टी-सीरीज ने भरत शर्मा और मदन राय के तमाम पुराने गीतों का इतना घटिया फिल्मांकन किया, जिसकी कल्पना आप नहीं कर सकते हैंवो घटिया इस मामले में कि गाने का भाव कुछ और, वीडियो में कुछ और दिखाया जाने लगा।
तब तक आँधी की तरह असम से आ गई कल्पना
“एगो चुम्मा ले लs राजाजी, बन जाई जतरा..!!!"
बिहार के भूतपूर्व कला संस्कृति मंत्री श्री बिनय बिहारी जी के इस गीत ने मार्केट में तहलका मचा दिया और करीब एक साल तक इस गीत का जबरदस्त प्रभाव रहा। इसी क्रम में आते हैं- डायमंड स्टार गुडडू रंगीला, सुपर स्टार राधेश्याम रसिया और सुनील छैला "बिहारी" इन सभी के ऊपर लेख फिर कभी
लेकिन आतें हैं..जिला गाजीपुर के दिनेश लाल यादव “निरहुआ” पर...
“बुढ़वा मलाई खाला बुढ़िया खाले लपसी,
केहू से कम ना पतोहिया पिए पेपसी !!"
दिनेश लाल के इस खांटी नए अंदाज को जनता नें हाथो-हाथ लिया। फिर क्या था ? टी-सीरिज ने झट से इस मौके को लपका और मार्किट में आ गया उनका अगला एल्बम....

“निरहुआ सटल रहे”

इस कैसेट के आते ही समूचे भोजपुरिया जगत में धूम मच गई और हाल ये हुआ कि कुछ दिन पहले महज कुछ हजार लेकर घूम-घूम बिरहा गाने वाले दिनेश लाल यादव रातों-रात स्टार हो गए। ठीक उसी समय कुलांचे भरने लगा आरा जिला का एक और सीधा-साधा सा गायक। जिसकी आवाज किसी निमोनिया के मरीज की आवाज की तरह लगती थी। आज दुनिया उसको पवन सिंह के नाम से भले जानती है, लेकिन पवन अपने शुरुवाती दिनों में सबसे मरीज किस्म के गायक हुआ करते थे। शायद इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे कुछ ही सालों में पवन की आवाज में निखार और भाव आना शुरू हुआ और वो मार्किट में टी सीरिज से वीडियो सीडी लेकर आ गए
“खा गइलs ओठलाली”.
एकदम आर्केस्ट्रा के अंदाज में, मूंछो वाले दुबले-पतले पवन सिंह एक्टिंग और डांस के नाम पर दाएं और बाएं हाथ को हिलाते हुए गाते कि..
“रहेलाs ओहि फेरा में बहुते बाड़ा बवाली”
तो हम जैसे कक्षा सात में पढ़ने वाले लड़कों को भी इस बेचारे गायक पर तरस आता। लेकिन “निरहुआ सटल रहे” की ऊब के बाद पवन ने मार्केट में एक नए किस्म का टेस्ट दे दियाउनका एल्बम तब बजाया जाता, जब लोग "निरहुआ सटल रहे" दो-चार बार सुनकर ऊब जातेउधर समय बदला निरहुआ स्टार होकर फिल्मों में चले गए मनोज तिवारी स्टार हो चुके थेएक के बाद एक उनकी फिल्में सुपरहिट हो रहीं थींतब तक पवन सिंह फिर आ गए।

“कमरिया करे लपालप लॉलीपॉप लागेलू"

ज़ाहिद अख़्तर के लिखे इस एक गीत ने मार्केट में धूम मचा ही दियासिर्फ राष्ट्रीय नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ये आज भी भोजपुरी का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है जिस पर हमें समझ नहीं आता कि गर्व करें या शर्म करें...!!!
लेकिन ठीक इसी गीत से शुरु हुआ भोजपुरी संगीत का "पवन सिंह युग उर्फ़ लॉलीपॉप युग" जो लगातार पांच साल तक अनवरत चला। देखते ही देखते पवन ने म्यूजिक का ट्रेंड ही बदल दिया। एकदम बम्बइया सालिड डीजे टाइप का म्यूजिक और हर एल्बम में हर वर्ग के लिए हर किस्म के गाने गाएये दौर ऐसा चला कि नवरात्र हो या सावन, होली हो या चैता। जहाँ भी जाइए बस पवन सिंह, नही तो पवन सिंह टाइप के गानेंहाल ये हुआ कि भोजपुरी मने पवन सिंह हो गया। पवन ने कुछ साल तक एकछत्र राज किया और झट से फिल्मों में मनोज तिवारी, निरहुआ के बाद तीसरे गायक अभिनेता हो गए औऱ उनकी फ़िल्म आई
"रंगली चुनरिया तोहरे नाम"
इसके बाद पवन की स्टाइल में कुछ बाल गायक भी पैदा हुये जैसे- कल्लू और सनिया

"लगाई दिही चोलिया में हुक राजा जी...और ओही रे जगहिया दांते काट लिहले राजा जी"

ये एक साल तक खूब बजा!!! जिसका असर ये हुआ कि बड़े-बड़े लोग अपने बेटे-बेटी को पढ़ाई छुड़ा के अश्लील गायक बनाने लगे। खेत बेचके एल्बम की शूटिंग होने लगी क्योंकि लोगों के दिलो में ये बात समा गयी की एक बार बेटा चमक गया तो हम जीवन भर बैठकर खाएंगे। इधर पवन के फिल्मों की तरफ जानें के बाद कुछ ही साल में आ गए सिवान के खेसारी लाल यादवएकदम देशी अंदाज, शादी-ब्याह में औरतों के गाए जाने वाले गीतों की धुन!!! उन्हीं के अंदाज में। बस जरा-सी अश्लीलता की छौंक और गवनई का तड़का
अब जो पवन सिंह ने भोजपुरी को धूम-धड़ाका और डीजे में बदल दिया थाउसे खेसारी लाल ने एकदम देहाती संगीत यानी झाल, ढोलक, बैंजो, क्लीयोरनेट वाले युग की तरफ़ मोड़ दियाइस मुड़ाव के बाद हुआ क्या कि पांच साल से रस-परिवर्तन खोज रही जनता ने इसे भी हाथों-हाथ ले लियाकौन ऐसा भोजपुरिया कोना होगा जहां “संइयाँ अरब गइले ना” नहीं बजा होगा” कौन ऐसा रिक्शा, ठेला, जीप, बस, ट्रक वाला नही होगा जो खेसारी के गीतों से अपनी मेमोरी को फूल न कर लिया होगा
इधर कुछ सालों में फिर समय बदला हैमनोज तिवारी, निरहुआ, पवन सिंह के बाद खेसारी लाल यादव, राकेश मिश्रा, रितेश पांडेय, कलुआ सब फिल्मी दुनिया के हीरो हो गए हैं और इस ट्रेंड नें स्ट्रगल कर रहे भोजपुरिया गायकों के दिमाग एक बात भर दिया कि “गायकी में हीट तो फिलिम में फीट” अब हर भोजपुरी गायक खुद को गायक नहीं हीरो मानने लगा है।

वर्तमान में आडियो गया, वीडियो सीडी गया, हाथों-हाथ आ गया स्मार्ट फोन🤳, पेनड्राइव, लैपटाप, झट से डाऊनलोड और ना पसंद आये तो डिलीट। पन्द्रह सेकेंड के शॉर्ट्स वीडियोज और रील का जमानाइसी चक्कर में भोजपुरी की म्यूजिक इंडस्ट्री भी एकदम से बदल गयी है। कई छोटी म्यूजिक कम्पनियां बिक गयीं। कारण बस ये कि आज हर जिले में एक दर्जन म्यूजिक कम्पनी हैं तो डेढ़ दर्जन रिकॉर्डिंग स्टूडियो जिनमें हर जिले के हज़ारों भोजपुरी गायक गा रहे हैं, तो क़रीब लाखो अभी रियाज कर रहें हैं। हर गांव में आपको पच्चीस गायक/अभिनेता हैं जो एक घण्टे में हिट होकर मनोज,निरहुआ, पवन और खेसारी की तरह मोनालिसा के कमर में हाथ डालना चाहतें हैं। इस हीरो बनने के चक्कर में इनके गाने सुनिए तो वो सीधे सम्भोग से शुरू होते हैं और सम्भोग पर ही आकर खत्म हो जातें हैं। (ऐसे शब्दों के लिए क्षमा करे🙏🏻 लेकिन हकीकत यही है।) यानी “तेल लगा के मारम, त पीछे से फॉर देम, त तहरा चूल्हि में लवना लगा देम, त सकेत बा ए राजा अब ना जाइ, त खोलs की ढुकाइ !!!! यानी ऐसे-ऐसे गाने की लिखते हुए मुझे शर्म आ रही है लेकिन ये तो बस छोटी सी बानगी भर है। आप यू ट्यूब खोलिये तब आपको पता चले कि जो जितना नीचे गिर सकता है, उतना ही वो सुपरहिट है
इसका बस एक ही कारण है..वो है "व्यूज"
आज भोजपुरी में सफलता का मानक मिलियन व्यूज बन गया है। किसका कौन सा गाना कितनी देर यूट्यूब इंडिया की टाइम लाइन पर ट्रेडिंग में हैं, ये तय कर रहा है। किस गीत पर कितने मिलियन शॉर्ट्स वीडियोज और रील बन रहे हैं, ये भोजपुरी की सफलता तय कर रहा है और इस मिलियन व्यूज की सत्ता उन लोगों के हाथ मे चली गई है जो सामान्यतः अनपढ़ हैं और बिहार से बाहर किसी राज्य में मजदूरी कर रहे हैं

ऐसे गायकों को ना तो भोजपुरी की लोक-संस्कृति का ज्ञान है और न ही संस्कारों कान ही अपने घर से डर है, न ही समाज से। इनके लिए हर हाल में व्यूज महत्वपूर्ण है। इस खेल में पहले सिर्फ टी-सीरीज और वीनस थे अब बड़े-बड़े कारपोरेट इसमें कूद पड़े हैं, सबको हर हाल में व्यूज चाहिए। इनके गाने हर हफ़्ते बनते हैं, इन्हें बस विषय मिलना चाहिए
इसलिए अब सारी बड़ी कंपनीयाँ उसी गीत-संगीत में पैसा लगाना चाहतीं हैं जो इंटरनेट पर जल्दी-जल्दी पापुलर हो जाए। जिसको अपना यूटयूब चैनल बड़ा करना है, उसकी जरूरत ये भोजपुरी स्टार पूरी करते हैंआज एक-एक गीत गाने के तीन से पाँच लाख रुपये मिल रहे हैंम्यूजिक कम्पनियो की चांदी का समय अब आया है।
यूट्यूब पर ताजा आया खेसारी का गीत "चाची के बाची" और "खेसरिया के बेटी" इसी व्यूज के भेड़ियाधसान से निकली एक घटना है। भोजपुरी के एक लाख से अधिक गायक जो स्टार बनने का सपना पाले हुए हैंवो यही काम कर रहें हैं, व्यूज लाने के लिए कुछ भी गाने का कामजिसे सुनकर आप कहेंगे कि हाय!!! ये महेंद्र मिसिर, भिखारी ठाकुर, भरत शर्मा, शारदा सिन्हा, मदन राय और गोपाल राय की भोजपुरी को क्या हो गया ???

लेकिन समाधान कैसे होगा ?

जी, समाधान तो तब होगा जब इन्हीं के अंदाज में इन्हीं के हथियारों से इन्हीं के खिलाफ इनसे लड़ा जाएगा लेकिन लड़ाई होगी तो कैसे ? महज दो-चार लोग इन लाखों का सामना कैसे करेंगे ??
ये भी हो सकता था, लेकिन कौन समझाने जाए हर जनपद में बने उन भोजपुरी अस्मिता के तथाकथित संगठनों को जिनमें दूर-दूर तक कहीं एकता नहीं है। कोई किसी के प्रयास को बर्दास्त नहीं कर सकता है। दरअसल इनकी गलती भी नहीं है। भोजपुरी के नाम पर बने ये संगठन छठ घाट पर भोजपुरी की अस्मिता से ज्यादा व्यक्तिगत राजनीति चमकाने वाली दूकान बनकर रह गए हैं। भोजपुरी भाषा, भोजपुरीया बुद्धिजीवियों और भोजपुरीया अनपढ़ गायकों की संयुक्त मार से आहत है। बुद्धिजीवी ये समझते हैं कि समस्त भोजपुरी बेल्ट की जनता उनकी तरह ही बुद्धिजीवी हैंये अनपढ़ ये समझते हैं की सब लोग मूर्ख हैंचाची के बाची में क्या बुराई है ?
अब चाची के बाची वालों ने अपनी बर्बादी की तरफ कदम रख दिया है लेकिन उनको रिप्लेस कौन करेगा ? कैसे होगा ? किसी को पता नहीं ये अलग विषय है, जिस पर एक अलग से लेख लिखूँगा✍🏻

बस आपको और हमसबको मिलकर बेहतर और साफ़-सुथरा कंटेंट प्रमोट करना पड़ेगा क्योंकि आज भी अच्छा सुनने वालों की कमी नहीं हैवरना भोजपुरी तो अश्लीलता का पर्याय बन ही चुकी है
आज नही तो कल भोजपुरी संविधान की आठवी अनुसूची में भी शामिल हो ही जाएगी लेकिन फायदा क्या होगा जब भोजपुरी में से भोजपुरी की मिठास गायब हो जाएगी, शरीर से आत्मा ही निकल जाएगी और रह जायेगा मृतक शरीर के रूप में अश्लीलता सिर्फ अश्लीलता...!!!

साभार:- Atul Kr. Rai.
Editor & Modify:- Bishwajeet Verma

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