गुरुवार, 10 जून 2021

सौन्दर्य एवं कला (Beauty and Art) D.El.Ed.1st Year, F-11. Unit-2 B.S.E.B. Patna.

     


 

             भारतीय साहित्य एवं साहित्य-शास्त्र में सौन्दर्य का विशेष महत्त्व रहा है। वैदिक एवं साहित्य-ग्रन्थों में सौन्दर्य शब्द की चर्चा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में होती रही है। ग्रन्थों में सौन्दर्य को रमणीयता, कमनीयता, शोभा, कान्ति, चमत्कार एवं रस आदि। नामों से सम्बोधित किया जाता रहा है। सौन्दर्य शब्द का शाब्दिक अर्थ है सुन्दर होने का भाव। मानव ने कला और सौन्दर्य शब्दों का प्रयोग व्यापक रूप में किया है। कला और सौन्दर्य में मानवता के गुण विश्लेषण का लक्षण पाया जाता है। मानवता का पहला गुण विवेक द्वारा सौन्दर्य को समझना है। सौन्दर्य एक भावना एवं एक मानसिक अवधारणा है, क्योंकि व्यक्ति को बुद्धि वस्तुओं के रूप को विश्लेषण के द्वारा सुन्दर या कुरूप मानती है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं तो हमारी बुद्धि द्वारा उस वस्तु के रूप विश्लेषण से हमारे मन पर जो प्रभाव पड़ते हैं, उनमें एक प्रभाव सुन्दरता का भी है जिसके आधार पर हम उस वस्तु को सुन्दर कहते हैं और इसी सुन्दरता के अनुभव के आधार पर हम वस्तु में निहित एक सामान्य सौन्दर्य-गुण को कल्पना करते हैं। इसलिये एक वस्तु किसी के लिये सुन्दर है तो कोई दूसरा उसे कुरूप भी कह सकता है, क्योंकि व्यक्तियों की रागात्मक (प्रेम एवं ईष्या) मानसिकता एवं विवेकपूर्ण विभिन्नताएं होती हैं जिनके आधार पर व्यक्ति उस वस्तु का विश्लेषण करता है, अर्थात् मानव अपने विवेक से सौन्दर्य को समझता है। 

रस्किन के अनुसार, "धर्म, अर्थ और मोक्ष इस त्रिवर्ग का समन्वित रूप ही सौन्दर्य है। "अंग्रेजी में सौन्दर्य के वाचक के रूप में ब्यूटी (Beauty) शब्द का प्रयोग किया जाता है। Beauty शब्द Beau और ty का युग्म है जिसमें Beau का अर्थ प्रिय, रसिकता अथवा श्रृंगारी पुरुष है तथा ty भाव वाचक प्रत्यय है। इस प्रकार ब्यूटी का शाब्दिक अर्थ है सौन्दर्य, मनोहरता, रमणीयता या रसिक भाव। सौन्दर्य (ब्यूटी) का कार्य इन्द्रियों को आनन्द प्रदान करना है। 

             ग्रीक काल में वाह्य सुन्दरता को अधिक महत्त्व दिया गया और सुन्दर के लिए Beauty शब्द का प्रयोग किया गया। सौन्दर्य का सम्बन्ध सुन्दरता की उस जागरूकता या कला कार्य की उस गुणवत्ता या मानव निर्मित या प्राकृतिक स्वरूपों से है जो देखने वाले में उन्नत जानकारी की एक अनुभूति को उत्पन्न करते हैं। 

           सौन्दर्य की परिधि में प्रकृति से लेकर मानव निर्मित पदार्थ तक सभी शामिल होते हैं जिनके आधार पर इसको दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है- (1) प्राकृतिक सौन्दर्य तथा (2) मानव-निर्मित (कृत्रिम) सौन्दर्य। 

(1) प्राकृतिक सौन्दर्य (Natural Beauty) 

           प्रकृति ईश्वरीय कृति है जिसकी गोद में पल कर मनुष्य बड़ा होता है। प्रकृति ही मनुष्य में सौन्दर्य-भावना का विकास करती है। प्राकृतिक सौन्दर्य के भी दो भेद किये गये हैं- (i) सुन्दर ( Beautyful) और (ii) उदात्त (Lofty) 

           सामान्य आकार की वस्तुओं को देखकर उनके प्रति आकर्षण, माधुर्य, सम्मोहन और सुख की अनुभूति होती हो तो उन्हें सुन्दर कहा जाता है। यह अनुभूति दृश्यगत और बौद्धिक दोनों रूपों में हो सकती है। यह अनुभूति दृश्य एवं श्रव्य इन्द्रियों से होती है। व्यक्ति जिस वस्तु को देखता है यदि वह वस्तु उसकी ऐंद्रिक संवेदनाओं को सुन्दर लगती है तब वस्तु के प्रति उसके मन में आकर्षण उत्पन्न होता है, व्यक्ति उसकी समीपता प्राप्त करना चाहता है या उसे पास रखना चाहता है जिससे उसे सुख की अनुभूति होती है। यहीं से कला का प्रारम्भ होता है। कला में रूप-सौन्दर्य भावात्मक विवेक की देन है। 

       प्रकृति में विद्यमान विशाल आकार वाली वस्तुएँ, जैसे- पहाड़, समुद्र, आकाश आदि की विस्तृतता देखकर मनुष्य को अपनी लघुता का आभास होता है और इन्हें देखकर वह लस्तपस्त हो जाता है लेकिन मनुष्य उन वस्तुओं के साथ तारतम्य का भाव जागृत करके एक विशालता और उच्चता का अनुभव करने लगता है तो यह उदात्तता (Lofty) की अनुभूति है। भारतीय परम्परा में प्रकृति सौन्दर्य की देवी है। कलाकार और कवि इसी से प्रेरणा प्राप्त करता है। कला, संगीत, साहित्य का मौलिक सौन्दर्य प्रकृतिगत सौन्दर्य की अभिव्यक्ति ही है। 

(ii) कृत्रिम सौन्दर्य (Artificial Beauty) 

         प्राकृतिक सौन्दर्य की प्रेरणा से ही कृत्रिम सौन्दर्य का विकास होता है। प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं का प्रयोग करते हुए मनुष्य विभिन्न प्रकार की सुन्दर वस्तुओं का निर्माण करता है। इनमें से कुछ वस्तुएँ हमारी इन्द्रियों को कुछ समय के लिए ही सुख देती हैं तो उन्हें शिल्प कहा जाता है। दूसरी ओर प्रकृति से प्राप्त सामग्री का श्रेष्ठ संयोजन ऐसे रूपों में किया जाता है जो कलात्मक दृष्टि से अभिव्यंजनीय होते हैं तो वह कला कहलाती है। 

           कला में अनुभूति (Perception), अभिव्यक्ति (Expression) और रूप (Form) तीनों तत्त्व विस्तृत रूप में विद्यमान रहते हैं। कला में अभिव्यक्ति को सृजन (Creation) कहा जाता है। प्रकृति की रचनाओं व रंगों से अनुभूति प्राप्त होती है। अमूर्त अनुभूति को मूर्त रूप प्रदान करना कला की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति से रूप बनता है। रूप, बाह्य व आन्तरिक दो प्रकार का होता है। कला में बाह्य रूप की प्रधानता होती है। बाह्य रूप का लावण्य आकर्षक होता है तो सौन्दर्य को जन्म देता है उसी को कलात्मक सौंदर्य कहा जाता हैं।

           कला और सौन्दर्य के संदर्भ में भारतीय विचारकों ने विभिन्न ग्रन्थों में उसके सृजन पक्ष का वर्णन करते हुए कला के सौन्दर्य पक्ष पर अप्रत्यक्ष रूप से अपने विचार प्रकट किये हैं। वात्स्यायन के कामसूत्र में सौन्दर्य सृजन के लिए छः अंग आवश्यक माने गये हैं- 

रूप भेदः प्रमाणानि भाव लावण्य योजनम् । 

सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्र षडंगकम् ॥ 

रूप- आकृति, प्रमाण- मान एवं अनुपात के अनुसार बनावट, भाव- आकृति की भाव भंगिमा, लावण्य- रूप निर्मिति में सौन्दर्य का समावेश, सादृश्य- मूल वस्तु से समानता, वर्णिका भंग- विभिन्न  वर्णो का व्यवस्थित संयोजन।

            भारतीय कला में सौन्दर्य को कला का प्राण माना गया है और सौन्दर्य को परमानन्द कहा गया है। कला और सौंदर्य का हमेशा सहचरी (companion) सम्बन्ध रहा है, दोनों का अस्तित्व एक साथ ही है। जिस कलाकृति में सौंदर्य नहीं उसको कला के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। कालाकार के सौन्दर्यमयी सृजन को ही कला माना गया है। इस प्रकार कला में रूप, भोग (Pleasure) और अभिव्यक्ति सौंदर्य के कारक हैं तथा ओज, माधुर्य और प्रसाद (सरल सुबोध) ये तीनों अभिव्यक्ति के गुण हैं। माधुर्य का सम्बन्ध सुखानुभूति से है और मानसिक दीप्ति (Brilliancy), ओज के द्वारा उत्पन्न होती है, इस प्रकार सौंदर्य का सृजन सम्भव माना गया है लेकिन विस्तृत संदर्भ में कलात्मक सौन्दर्य को सफल भावनात्मक अभिव्यक्ति के नाम से ही जाना जाता है। कला का चेतन माध्यम स्वयं कलाकार ही होता है इसलिए कलात्मक कार्य विषय-वस्तु, आन्तरिक चेतना और कलाकार के व्यक्तित्व का एक मिश्रित गुण होता है जिसमें रूप, भोग और अभिव्यक्ति की अनुभूति ही सौंदर्य आनन्द हैं।

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