हमको महबूबा न उसकी कोई निशानी चाहिए।
और ना ही हमें ये जिंदगानी चाहिए ।।
उड़ गया कब का परिंदा रूह का।
अब तो भीड़ भी लोगों की हटानी चाहिए ।।
बच सकें नस्लें फ़रेब-ए-इश्क से।
दास्तां मेरी सबको सुनानी चाहिए ।।
वो मुहब्बत में मेरी पड़ जाएगी।
मेरी ग़ज़लें उसे यूँ न गुनगुनानी चाहिए ।।
दिल मेरा धड़के जो तुम पहलू में हो।
महकने को तो रात-रानी चाहिए ।।
दिल दुखाते रहे हैं सभी मेरा यहां ।
उन्हें अब तो उसकी कीमत चुकानी चाहिए ।।
कब से मैं बैठा हूँ इंतजार में ।
अब तो उन्हें आना चाहिए ।।
विश्वजीत कुमार✍️
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