'स्व' या आत्म का अर्थ (Meaning of 'Self' or Soul)
किसी भी मनुष्य का अपना बोध होता है। वह अपने अतीत एवं भविष्य को समझता है और दूसरे लोगों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों, शत्रुओं एवं अतिथियों को भी जानता है। उसे अपने जीवन और अपनी अंतिम मृत्यु का भी बोध है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उसे अपनी क्षमताओं व कमजोरियों का सही-सही बोध हो ही। ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि हर व्यक्ति अपने जीवन की निश्चित पहचान, उद्देश्य और अर्थ को प्राप्त करने हेतु लगातार कोशिश करता रहता है।
'स्व' या आत्म की अवधारणा का अर्थ है स्वयं के बारे में ज्ञान हासिल करने की योग्यता और इसे अपनी भाषा में तथा अपनी शैली में हासिल करना। भले ही इसके लिए कोई व्यक्ति दूसरों के द्वारा सुझाए गए रास्ता का उपयोग कर सकता है।
'स्व' का मतलब होता है स्वयं की पहचान, स्वयं का व्यक्तित्व अर्थात जो कुछ कोई व्यक्ति स्वयं है। मोटे रूप में 'स्व' को ऐसे कथन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
जैसे- " मैं इस तरह का व्यक्ति हूँ " एवं " मेरी खूबियाँ और कमजोरियों हैं ....। 'इस प्रकार' स्व किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की ओर संकेत करना है। इसके तहत शारीरिक 'स्व' और उसकी पहचान का भाव सम्मिलित होता है। स्व व्यक्तित्व का केन्द्रीय स्थल है। यह व्यक्तित्व की प्रक्रिया को दिशा देता है जिसके जरिए अचेतन मन के उपयोगी और रचनात्मक पक्ष को चेतन बनाया जाता है एवं उसे एक सकारात्मक प्रक्रिया की ओर ले जाया जाता है।
'स्व' की अवधारणा का सम्बन्ध आत्मविकास से है। बहुत छोटा शिशु ''मैं" और "तुम" में भेद नहीं कर सकता। बच्चे का दूसरों से भिन्न होने का बढ़ाता बोध उस समय होता है जब बच्चा "मैं", "मुझे", "तुम" आदि। सर्वनामों का प्रयोग करना प्रारम्भ करता है। इस बढ़ती हुई पृथकता का एक रूप निम्नलिखित दो स्थितियों में प्रतिबिम्बित होता है।
बच्चों में चेतना और आत्म का विकास
(Development of Consciousness and Soul in Children)
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि बच्चों में चेतना और आत्म का विकास किस तरह होता है। यह एक ऐसी क्रमिक प्रक्रिया होती है, जिसमें बच्चे धीरे-धीरे खुद को दूसरों की भूमिका में रखना सीखते हैं एवं अपनी गतिविधियों को दूसरों के नजरिये से देखने की समझ हासिल करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि बच्चों में आत्मबोध का विकास दरअसल एक सामाजिक प्रक्रिया है और यह अनिवार्य रूप से समाजीकरण की प्रक्रिया में किसी बच्चे की व्यक्तिगत साझेदारी से जुड़ी हुई है।
मनुष्यों के मध्य संप्रेषण केवल तभी संभव होता है जब कोई प्रतीक एक व्यक्ति के अन्दर वैसे ही भाव जागत करे जैसे भाव दूसरे व्यक्ति के अन्दर जाग्रत करता है। मगर लोगों के द्वारा भाषा के बर्ताव में किसी जगह जितनी विभिन्नता हो सकती है उतनी ही आत्मबोध के निर्माण में होती है।
नन्हें शिशु अर्थपूर्ण प्रतीकों का इस्तेमाल करना नहीं जानते परन्तु जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं वैसे-वैसे खेल के जरिये उन्हें यह समझ आने लगता है कि दूसरों की भूमिकाओं को कैसे अपनाया जाए। उदाहरण हेतु बच्चा कभी मां की भूमिका करता है, कभी अध्यापक की, तो कभी पुलिस वाले की भूमिका में आ जाता है।
खेल के दौरान अदा की जाने वाली भूमिकाओं से गुजरते हुए विकासमान बच्चों में खुद को उन लोगों को स्थिति में रखकर देखने की समझ उत्पन्न होती है जिन्हें वे अपने लिए महत्वपूर्ण समझते हैं इस तरह वे व्यवहारिक रूप से अनेक सामाजिक भूमिकाओ और अपने आत्मबोध के बीच भी फर्क करने लगते हैं। परिपक्व (Mature) होने पर बच्चा न केवल इन भूमिकाओं को निभाना सीख जाता है बल्कि वो इन भूमिकाओं की रूपरेखा अपनी कल्पना में भी बनाने लगता है।
स्व' या आत्म हमेशा प्रथम पुरुष के रूप अभिव्यक्ति पाता है- मैं के रूप में। जन्म से लेकर अब तक, हमारा शरीर एवं हमारे विचार बदलते रहे हैं, परन्तु 'हम' वही होते हैं। अत: मैं शरीर और मन से भिन्न है। जब आप सो रहे होते हैं तो संभवत: आपका मन अर्धचेतन (Subconscious) अवस्था में होता है। अगली सुबह सो कर उठने के बाद आप कह सकते हो: "यद्यपि मैं सोया जरूर था परन्तु ठीक से नहीं सो पाया।" कुछ अवस्थाओं में आप कह सकते हो की "जब किसी ने खेल के मैदान में मुझे मारा, तो मुझे अत्यधिक दर्द हुआ। "मुख्य प्रश्न यहाँ पर यह है कि इस दर्द को किसने अनुभव किया? यही बात कि कुछ अनुभव हुआ। का अर्थ है कि किसी को अनुभव हुआ। यह "मैं" ही आत्म या स्व है।
सामाजिक प्रभाव और आत्म का निर्माण
(Social influence and Soul building)
हमारा व्यक्तित्व हमारे पूर्वजों, माता-पिता से गुण-अवगुण प्राप्त कर एवं जिस परिवेश में हम रह रहे हैं, इन दोनों से मिलकर बनता है। ये दोनों कारक हमारे जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। स्वयं की समझ विकसित होने के साथ ही हम अपनी पसन्द, नापसन्द, राय, सहमति, असहमति आदि। को व्यक्त करना शुरू कर देते हैं। इसी स्वयं के आधार पर हम स्वयं के बारे में और दूसरों के बारे में भी समझ सकते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में हम अपने आपको एवं आस-पास के वातावरण को तीन संदर्भो में समझते हैं-
- मैं वास्तव में कैसा हूँ? दूसरे लोग वास्तव में कैसे हैं ?
- मैं कैसा हो सकता हूँ ? दूसरे लोग कैसे हो सकते हैं ?
- मुझे कैसा होना चाहिए? दूसरे लोगों को कैसा होना चाहिए?
हम आस-पास के लोगों के साथ लगातार संवाद करते हैं और अपने अनुभव के आधार पर अपनी पहचान बनाने लग जाते हैं। यह पहचान लगातार बदलती रहती है। विचारक हरबर्ट मीड के अनुसार, पूरी तरह परिपक्व व्यक्ति केवल यह ध्यान नहीं करता कि उसके प्रति व एक-दूसरे के प्रति अन्य व्यक्तियों का रवैया कैसा है, लेकिन वह साझी सामाजिक गतिविधि के औचित्य व उनके बारे में बाकी लोगों के रवैये पर भी विचार करने लगता है। वह जीवन की कठिनाइयों एवं बाधाओं को समझने लगता है। इस तरह एक परिपक्व आत्म तभी अस्तित्व में आता है जब व्यक्ति बाकी लोगों के व्यवहारों एवं उनके कारणों को समझने में समर्थ होता है।
व्यक्ति के रूप में हम किसी खास राजनीतिक राष्ट्र में जन्म लेते हैं। हमें जन्म से ही कई सामाजिक पहचानें मिल जाती हैं, जिनमें भाषायी पहचान भी सम्मिलित है। हम खास सामाजिक और राजनीतिक संबंधों का हिस्सा होते हैं, जिनमें अनेक बार टकराव भी होता है और जो बदलते भी रहते हैं। मोटे तौर पर कोई व्यक्ति उन सामाजिक संरचनाओं में उत्पन्न होता है, जिनके निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं होता। वह एक ऐसी सांस्थानिक एवं सामाजिक व्यवस्था में बड़ा होता और जीता है जिसे वह खुद नहीं गढ़ता। उसे कानून, भाषा, रीति-रिवाजों और आर्थिक स्थितियों की बाध्यताओं के साथ जिन्दगी जीनी होती है। ये समस्त बातें किसी व्यक्ति के स्वयं या आत्म का निर्माण करती हैं परन्तु व्यक्ति इन परिस्थितियों का चिरस्थायी (Everlasting) गुलाम भी नहीं होता। मौका मिलने पर और चाहने पर वह इन परिस्थितियों से बाहर निकलकर अपना चुनाव कर सकता है तथा यहाँ तक कि सामाजिक परिस्थितियों को बदलने में योगदान भी कर सकता है।
इस तरह किसी व्यक्ति के आत्म के बनने में उसके पर्यावरण एवं संस्कृति की महती (Important भूमिका होती है। इसलिए खुद को तब तक नहीं जाना जा सकता जब तक कि खुद पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभावों का भी आलोचनात्मक विवेचन न किया जाए और अपने रास्ते का चुनाव नहीं किया जाए। मनुष्य की खासियत यह है कि वह अपने आत्म पर चिन्तन कर सकता है। व्यक्तिगत आत्म केवल इसी अर्थ में व्यक्तिगत होता है कि वह दूसरों से जुड़ा होता है। वह दूसरों के रवैये को अपनी कल्पना में आत्मसात करने की योग्यता के जरिये ही अपने आत्म को चिन्तन का विषय बना सकता है। किसी के व्यक्तित्व का मूल बेशक सामाजिकता में निहित होता हो लेकिन सामाजिक प्रक्रिया में प्रत्येक व्यवित अपने ढंग से योगदान करता है। हरेक व्यक्ति का आत्म अलग-अलग होता है।
Meaning of 'Self' or Soul
Every human being has his own understanding. He understands his past and future and also knows other people, friends, co-workers, relatives, enemies and guests. He is also aware of his life and his ultimate death. But this does not mean that he should have an accurate understanding of his strengths and weaknesses. If we look carefully, we find that every person constantly tries to achieve the definite identity, purpose and meaning of his life.The concept of 'self' or self means the ability to acquire knowledge about oneself and to acquire it in one's own language and in one's own style. Even though for this one can use the way suggested by others.
'Swam' means the identity of the self, the personality of the self, that is, whatever a person is himself. Broadly speaking, 'Self' can be defined as such a statement.
E.g. "I am this kind of person" and "I have strengths and weaknesses..... 'Such' self refers to a person's overall personality. It includes physical 'self' and his sense of identity. Self is the central center of personality. It guides the process of personality through which the useful and creative side of the unconscious mind is made conscious and taken towards a positive process.
The concept of 'self' is related to self development. A very young child cannot distinguish between "I" and "you". The child's increased sense of being different from others occurs when the child begins to use "I", "me", "you", etc. One form of this increasing separation is reflected in the following two situations.
Development of consciousness and self in children
The important question is how consciousness and self develop in children. It is a gradual process in which children gradually learn to put themselves in the role of others and gain an understanding of seeing their activities from the perspective of others. Thus we see that the development of self-realization in children is actually a social process and is essentially linked to a child's individual participation in the process of socialization.
Communication between human beings is possible only when a symbol awakens in one person the same emotion as the emotion awakens in another person. But as much variation as there can be in the behavior of language by people at any place, it is in the formation of self-realization.
Toddlers do not know how to use meaningful symbols, but as children grow older, they learn how to take on the roles of others through play. For example, the child sometimes plays the role of a mother, sometimes as a teacher, and sometimes as a policeman.
By going through the roles to be played during play, developing children develop an understanding of themselves by positioning themselves in people they consider important to them, thus they are practically able to cope with many social roles and their own self-awareness. start making a difference. On maturity, the child not only learns to play these roles, but he also begins to outline these roles in his imagination.
The Self or the Self always finds expression in the form of the First Person – as I. From birth till now, our body and our thoughts have changed, but 'we' are the same. Therefore I am separate from body and mind. When you are sleeping, your mind is probably in a subconscious state. The next morning after waking up, you can say: "Although I did sleep, I didn't sleep well." In some cases you can say, "When someone hit me on the playground, I felt extreme pain." The main question here is, who experienced this pain? That's what some experience happened. Means that someone experienced. This "I" is the Self or Self.
social influence and self building
(Social influence and Soul building)
Our personality is made up of both from our ancestors, parents and the environment in which we are living. Both these factors greatly affect our lives. With the development of our own understanding, we can share our likes, dislikes, opinions, consents, disagreements etc. begin to express. On the basis of this self we can understand about ourselves and also about others. In this whole process, we understand ourselves and our surrounding environment in three contexts-
- How am i really? How are other people really?
- How can i be How can other people be?
- How should i be? How should other people be?
As individuals, we are born in a particular political nation. We inherit many social identities from birth, including linguistic identities. We are part of special social and political relationships, which are sometimes conflicted and which keep on changing. Broadly speaking, a person is born in those social structures in which he has no hand in the making. He grows up and lives in an institutional and social order that he does not create himself. He has to live with the compulsions of law, language, customs and economic conditions. All these things make a person's self or self, but the person is not an everlasting slave of these circumstances. If he gets the opportunity and wants, he can come out of these situations and make his choice and can even contribute in changing the social conditions.
In this way, the environment and culture have an important role in the formation of a person's self. Therefore, one cannot know himself until the social impact on himself is also critically discussed and his path is known. Not to be chosen. The specialty of man is that he can reflect on his own self. The individual self is individual only in the sense that it is related to others. It is characterized by the ability to assimilate the attitude of others into one's imagination. It is only through this that one can make one's self the subject of contemplation. The core of one's personality may be rooted in sociality, but each person contributes in his own way in the social process. Every person's self is different.
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