सोमवार, 26 जुलाई 2021

कृष्ण कुमार द्वारा रचित "चूड़ी बाजार में लड़की" B.Ed.1st Year EPC-1 Unit-2 आधुनिक और समकालीन साहित्य। हिंदी एवं English नोट्स।

 


         कृष्ण कुमार द्वारा रचित चूड़ी बाजार में लड़की उपन्यास को आज की प्रत्येक लड़कियों को जरूर पढ़नी चाहिए ताकि उन परिस्थितियों को समझने में उन्हें सहूलियत मिल सके जो अनावश्यक रूप से उनकी प्रगति की राह में बाधा हैं। इस उपन्यास को राजकमल प्रकाशन के द्वारा 2014 में प्रकाशित किया गया था।
             स्त्री को लेकर प्रचलित मान्यताओं का घेरा निश्चित वर्ष की आयु की लड़की को जिस पूर्णता से कसता है, वह किसी अन्य आयु पर लागू नहीं होता। इस उम्र में परिवार, समाज, धर्म, नैतिकता यह सबकुछ एक साथ हावी होने लगते हैं। ऐसा लगने लगता है जैसे वह लड़की एक निश्चित आयु की होकर गुनाह कर बैठी हैं। एक अलग तरह के भय को साथ लेकर जीना उसकी आदत में शुमार हो जाता है। 
          उसे तमाम हिदायतें दी जाने लगती हैं... ऐसे मत चलो, ऐसे मत रुको, ऐसे मत बोलो, ऐसे मत देखो... और फिर वह एक भय के साथ जीने लगती है। सच कहें तो वह भय नहीं आतंक होता है। भय तो उसे कहते हैं जो कभी-कभार लगे। जैसे अंधेरे से लगे तो उजाले में आकर दूर हो जाए, पिता से लगे तो उसके ऑफिस जाने पर हट जाए। लेकिन यहाँ तो पुरे समाज से डर होता हैं और लड़कियां भी उसी डर के साथ जीना सीखती हैं और इसी तरह जीना उनके लड़की होने की परिभाषा बन जाता है।
          भारत के संदर्भ में देखें तो नारी एक जटिल सामाजिक रचना है। मानव के रूप में वह बस जन्म लेती है, परंतु उसके बाद से ही उसकी पुनर्रचना का उपक्रम संस्कृति के कठोर औजार के बल से आरंभ हो जाता है। संस्कृति के इसी कठोर औजार पर जब एक शिक्षाविद की नजर पड़ती हैं तो उसके लिए समाज के इस सांस्कृतिक चेहरे की क्रूरता को देखना काफी कष्टकारी हो जाता है वह बेचैन हो उठता है कि शुरू होती है उसकी अपनी यात्रा।
          उसे याद आने लगती है बचपन की वह घटना जहां वह लड़कियों को अपनी मां एवं औरतों के साथ चूड़ी की दुकान में जाते देखा करते थे। जहां कोई लड़की चूड़ी पहनने के लिए दुकानदार के सामने अपना हाथ बढ़ाती थी। उसे वह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक घटना जान पड़ती है एवं उसे समझ में आता है कि चूड़ी पहनाई जाने की इच्छा का जन्म और चूड़ी को अपनी सुंदरता का साधन मान लेने का भाव छोटी लड़की को पुरुष प्रधान सभ्यता में ढालने के एक सहज चरण है इसमें यह पुरुष प्रधान समाज सफल भी होता है।

चूड़ी बाजार में लड़की को 05 अध्याय में बांटा गया है-

  1. पहला अध्याय समता का मिथक, भिन्नता के ध्रुव 
  2. दूसरा अध्याय अंत: जगत और चारों ओर 
  3. तीसरा अध्याय चूड़ी का चिन्ह-शास्त्र 
  4. चौथा अध्याय ताज की कक्षा 
  5. पांचवा अध्याय अभिमन्यु की शिक्षा
                इन पांच अध्याय में सिमटी भारतीय स्त्री की सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक व्यवस्था पर गहन पड़ताल करती यह एक क्लासिकल कृति है। इस पुस्तक में घर और परिवार में लड़कियों के प्रति होने वाले व्यवहार और इससे उसके जीवन में क्या बदलाव होता है इसका काफी सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। तमाम तरह के साहित्यिक और सांस्कृतिक मिथकों पर गहन चिंतन के साथ ही एक बच्ची के बचपन से लेकर जवानी और फिर उसके कई रूपों में स्थापित होने तक अर्थात बच्ची से युवती और फिर औरत बनने की पूरी प्रक्रिया कैसे पुरुषवादी सोच के आस-पास सांस्कृतिक क्रियाकलापों द्वारा संचालित हो रही है लेखक कृष्ण कुमार ने इसका विश्लेषण इस पुस्तक में काफी गहराई से किया है।
           किसी पुरुष के द्वारा सफल महिला को शक भरी नजरों से देखना उस पुरुष के सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को दर्शाता है। केवल पुरुष ही नहीं बल्कि समाज में प्रचलित मान्यताओं सांस्कृतिक मिथको और नैतिकता के नाम पर एक घेरे में महिलाओं को बांधने के चलन की प्रक्रिया काफ़ी पुरानी है जिस का संचालन बड़े सुनियोजित ढंग से परिवार, समाज, शिक्षा और धार्मिक सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए किया जाता है। हमें जरूरत है कि जहां भी जिस स्वरुप में ऐसे मिथक सामने आए उस पर खुलकर चर्चा हो। लड़के और लड़कियों के सामने चर्चा हो। इस पुस्तक के माध्यम से कृष्ण कुमार ने एक बच्ची से औरत बनने की सारी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया को काफी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है।

‘चूड़ी की दुकान’ के मायने क्या हैं?

           “नाजुक होने के साथ चूड़ी रंगीन भी होती है। रंगों की विविधता और चमक देखकर चूड़ियों की दुकान में प्रवेश करने वाली नन्ही बच्ची अपनी माँ या बहन के साथ एक ऐसे मायाजगत में प्रवेश करती है जिससे अप्रभावित रहकर बाहर निकल आना लगभग असंभव है। चूड़ी की दुकान उन संस्थाओं में से एक है जो भारत की औरतों की व्यक्तिगत जिन्दगियों को पुरुष के कब्जे और काबू में रखने में संस्कृति की मदद करती हैं। बाज़ार का हिस्सा होने के नाते चूड़ी की दुकान एक अलग संस्था की तरह हमारी नज़रों में आने से बच जाती है।”
पृष्ठ संख्या- 73
पुस्तक का एक अन्य अंश इस प्रकार है, 

                   “लड़की होने का यह अर्थ – कि उसे गहराई से सोचने, समझने, प्रश्न करने की जरूरत नहीं है कि ये लड़कों के काम हैं, पुरुष की प्रवृत्ति के अंग हैं– लड़कियां अपने स्वभाव में ढाल लेती हैं। शिक्षा की औपचारिक प्रक्रियाओं, जैसे परीक्षा और स्कूल की दैनन्दिनी के प्रति निष्ठा और लगन में वे लड़कों से आगे रहती हैं। ऊपर से देखने पर यह बात अंतर्विरोधी प्रतीत होती है कि परीक्षा में लड़कों के मुकाबले ज्यादा मेहनत करने और सफल होने के बावजूद यहाँ लड़कियों की बौद्धिक क्षमताओं को अनावश्यकता के सामाजिक बोध से जोड़ा जा रहा है। इस बात में अंतर्विरोध इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे देश में लागू परीक्षा व्यवस्था अपने में पूर्ण है और कक्षा के जीवन में संभव बौद्धिक क्रियाओं के प्रति तटस्थ रहती है।”

              “परीक्षा में अधिक अंक लेने वाले विद्यार्थी के लिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि वह चीज़ों या अवधारणाओं के बारे में गहराई अथवा मौलिक दृष्टि से सोचे, शिक्षक की सोच पर कक्षा में टिप्पणी करे और अपनी सोच पर सहपाठियों की टिप्पणियों को सुने, उन पर गौर करे। परीक्षा एक औपचारिकता है और लड़कियां इस औपचारिकता को निभाने में उतनी ही प्रवीण हो जाती है जितनी कुशल वे घर और बिरादरी की औपचारिकताओं को निभाने में बनाई जाती है। वे शिक्षा व्यवस्था में आगे बढ़ती दिखाई देती हैं पर उन बौद्धिक औजारों से आम तौर पर बेगानी रखी जाती हैं जो शिक्षा के अनुभव में परीक्षा की तैयारी नहीं, संजीदा और प्रेरक शिक्षकों और कक्षा में विचारशील वातावरण की माँग करते हैं।”

              “ये दोनों स्त्रोत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में लड़कियों को अनुपलब्ध रहते हैं। लड़कियों को पढ़ाने वाले शिक्षक पुरुष हों या स्त्री, उनके मन में अपनी छात्राओं के बारे में ऐसी ही धारणाएं होती हैं जैसी आम परिवारों में पाई जाती हैं। इस धारणा का केंद्र यह विचार होता है कि लड़कियों के जीवन का उद्देश्य विवाह है और शिक्षा उन्हें इसीलिए दी जा रही ताकि विवाह में आसानी हो और वे किसी अच्छे घर में ब्याही जा सकें। इस धारणा के चलते शिक्षा के तहत विभिन्न विषयों के ज्ञान को बौद्धिक विकास का साधन मानने की दृष्टि और लड़कियों के संदर्भ में ऐसी दृष्टि को कक्षा में अमल में लाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अपवादों को छोड़ दें तो यह कतई सम्भव नहीं है कि गणित व विज्ञान में बालिकाओं की रुचि और समझ को बढ़ावा देना आज का शिक्षक अपना उद्देश्य बना ले।”

           The novel Churi Bazar Mein Ladki by Krishna Kumar is a must read by every girl of today to help her understand the situations which unnecessarily hinder her progress. This novel was published by Rajkamal Prakashan in 2014.
The extent to which the circle of prevailing beliefs about women tightens the girl of a certain age, does not apply to any other age. At this age, family, society, religion, morality all these things start dominating together. It seems as if the girl, being of a certain age, is committing a crime. It becomes a habit to live with a different kind of fear.
All the instructions are given to her... don't walk like this, don't stop like that, don't speak like that, don't look like that... and then she starts living with a fear. To be honest, it is not fear but terror. Fear is called that which is felt occasionally. Just as if you are attracted by darkness, you get away by coming in the light, if you get attached to your father, you will get away when he goes to his office. But here there is fear from the whole society and girls also learn to live with the same fear and living like this becomes their definition of being a girl.
In the context of India, woman is a complex social construct. She is simply born as a human, but from then on, the process of her reconstruction begins with the force of the hard tools of culture. When an educationist has an eye on this hard tool of culture, it becomes very painful for him to see the cruelty of this cultural face of the society, he becomes restless that his own journey begins.
He starts remembering that childhood incident where he used to see girls going to the bangle shop with their mothers and women. Where a girl used to raise her hand in front of the shopkeeper to wear a bangle. She finds it to be an important cultural phenomenon and understands that the birth of the desire to wear bangles and the feeling of considering the bangle as an instrument of her beauty is a natural step in molding the little girl into a male dominated civilization. The dominant society is also successful.

The girl in the bangle market is divided into five chapters-

Chapter 1 The Myth of Equality, the Pole of Difference
Chapter 2 The Inner World and Around
Chapter 3 The Symbols of the Bangles
Fourth Chapter Taj's Class
The fifth chapter Abhimanyu's education


It is a classical work that deeply examines the social, cultural and moral system of the Indian woman confined in these five chapters. The book deals with the behavior of girls at home and in the family and how it changes their lives. Deep reflection on a variety of literary and cultural myths as well as how the entire process of a child's transition from infancy to youth and then becoming established in its many forms i.e. from child to girl and then to woman through cultural activities around masculine thinking Author Krishna Kumar has analyzed it in great depth in this book.
Seeing a successful woman with suspicious eyes by a man shows the social and cultural crisis of that man. Not only men, but the practice of tying women in a circle in the name of prevailing beliefs, cultural myths and morals in the society is very old, which is conducted in a very well-planned manner through family, society, education and religious cultural events. . We need to openly discuss the form in which such myths come to the fore. Discuss in front of boys and girls. Through this book, Krishna Kumar has presented the entire social and cultural process of becoming a woman with great sensitivity.


What is the meaning of 'Bangle Shop'?

“Besides being delicate, the bangle is also colourful. Seeing the variety and brightness of colours, the little girl who enters the bangle shop along with her mother or sister enters into a world of illusions from which it is almost impossible to come out unaffected. The bangle shop is one of the organizations that help culture in keeping the personal lives of women in India in the possession and control of men. Being a part of the market, the bangle shop escapes our sight as a separate institution.”
Page No- 73
Another part of the book is as follows,

“The meaning of being a girl – that she does not have to think deeply, understand, question that these are boys’ actions, part of man’s instinct – girls take in their nature. They are ahead of the boys in their devotion and dedication to the formal processes of education, such as examinations and the daily routine of the school. Viewed from above, it seems contradictory that the intellectual abilities of girls are being linked to the social sense of redundancy here, despite working harder and succeeding in examinations than boys. There is no contradiction in this because the examination system implemented in our country is complete in itself and is neutral to the intellectual activities possible in the life of the classroom.


“It is not necessary for the student who scores high in the test to think deeply or fundamentally about things or concepts, to comment on the teacher's thinking in the class and listen to the comments of classmates on his thinking, Pay attention Examination is a formality and girls become as proficient in performing this formality as they are skilled in carrying out the formalities of home and fraternity. They appear to advance in the education system, but are generally shunned by the intellectual tools that the education experience calls for, rather than exam preparation, serious and persuasive teachers and a thoughtful atmosphere in the classroom.”

“Both these sources remain unavailable to girls in our education system. Teachers teaching girls whether male or female, they have similar beliefs about their girl students as are found in ordinary families. Central to this belief is the idea that the purpose of life of girls is marriage and that education is being given to them so that marriage becomes easier and they can get married in a good home. Due to this perception, the question of considering the knowledge of various subjects as a means of intellectual development under education and applying such a vision in the classroom in the context of girls does not arise. Barring exceptions, it is not possible that today's teacher should make it her aim to promote the interest and understanding of girls in mathematics and science.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें