कक्षा में शिक्षक के प्रश्नों का उत्तर देती हुई लड़को या परीक्षा की तैयारी करती हुई लड़की हमारी दृष्टि में सिर्फ एक विद्यार्थी रह जाती है। हमारी आँखें उसे सामने पाकर रीति-रिवाजों और विश्वासों के दलदल से घिरी हुई लड़की को देख पाने में असमर्थ हो जाती हैं। लड़की के ये दोनों रूप साथ-साथ रहते हैं। स्कूल या कॉलेज और विश्वविद्यालय के संसार में कदम रखती हुई लड़की उस दूसरी लड़की को घर पर नहीं छोड़ आई होती है जो सभ्यता द्वारा निर्धारित निर्भरता और यौन-दृष्टि के चौखटे में सिमटकर जीती है।
वह लड़की जो घर पर विवाह स्कूल और मातृत्व की केन्द्रीयता का पाठ लगातार सीख रही होती है, इस लड़की से अलग नहीं है जो में जीवन की बहुउद्देशीयता का सपना देख रही होती है। लड़की के इन दो अस्तित्वों के बीच का फासला हर बच्ची के सामने एक असंभव-सी चुनौती पेश करता है। चुनौती का जवाब बहुतों के लिए किशोर होने तक निर्धारित हो चुका होता है। वे सीख चुकी होती हैं कि शिक्षा के वावजूद वे घर में भाई से अलग और नीचे बनी रहेंगी। स्त्री के रूप में उनका जीवन उसी धुरी पर चलेगा जो सभ्यता ने उनके जन्म से पूर्व, बहुत पूर्व, बना दी थी। अपने पूर्व निर्धारित जीवन-चक्र को उस धुरी पर जमाकर ही वे जिंदा रह पाएँगी।
उक्त बातें ज़्यादातर लड़कियाँ शिक्षा समाप्त होने से पहले जान चुकी होती हैं। इसीलिए उनमें से कई अपनी शिक्षा को खींचते रहने का प्रयास करती हैं, इस विश्वास के तहत कि शादी से पहले जितना पढ़ सकें, पढ़ लें। उसके बाद का भरोसा नहीं। शिक्षा उनके लिए एक प्रकार से जमानत का काम करती है। शिक्षा के नाम पर उन्हें क्या पढ़ने को मिलता है अथवा बौद्धिक कौशलों के विकास के कितने और कौन से अवसर मिलते हैं ये सवाल उनके लिए विशेष महत्त्व नहीं रखते। महत्त्व इस बात का रह जाता है कि पढ़ाई के नाम पर वे जीवन के उस चरण को कुछ वर्ष स्थगित रख लेंगी जिसमें उनकी वह प्राकृतिक चाह जो मनुष्य होने के नाते उनके मन में स्वायत्त सोच और व्यवहार के साथ जीने की इच्छा पैदा करती है।
आशय यह है कि शिक्षा लड़कियों के लिए ज्ञान या चेतना का ज़रिया कम, मुख्यतः एक अवधि है जिसमें उनके दमित आत्म की लौ कुछ वर्ष इस पूर्वज्ञान के साथ जल लेती है कि उसे विवाह में निहित हस्तांतरण के तहत एक आक्रामक फूंक के बल से बुझ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। स्त्रियों के जीवन में लंबी और व्यवस्थित शिक्षा, सांसारिक सफलता और वैवाहिक जीवन के त्रिकोण में प्रकट होने वाले तनाव इतनी जीवनियों में देखने को मिलते हैं कि उन्हें व्यक्तिगत अनुभव के संयोग नहीं, एक अनिवार्य सामाजिक सृष्टि कहना ही उचित होगा।
शिक्षा का आधुनिक रूप व्यक्तित्त्व के निर्माण का साधन माना जाता है। खासकर जब शिक्षा किसी स्थायी आजीविका या पेशे की तरफ ले जाती हो। शिक्षा का यह प्रभाव स्त्री के उस जीवन-चक्र से टकराता है जो संस्कृति के चौखटे में समाज के विभिन्न वर्गों में जीया जाता है। एक सामान्य भारतीय लड़की के जीवन का निर्धारण करने वाली संस्था विवाह है और उसमें निहित अपेक्षाएँ शिक्षा की संस्थाई अपेक्षाओं से टकराती हैं। इस टकराव में विवाह की विजय समाज के स्थापित ढाँचे में नियति की तरह पूर्व-निश्चित है।
विवाह की तैयारी लड़की के जीवन में अन्तर्निहित अर्थात् रची-बसी है जबकि शिक्षा की तैयारी एक हस्तक्षेप (Interference) है। कुछ परिस्थितियों में यह हस्तक्षेप बर्दाश्त कर लिया जाता है तो कुछ परिस्थितियों में वह कुछ समय के लिए रोक दिया जाता है। लड़कियाँ लड़ती रहती हैं और इस मुहावरे का प्रयोग अथक रूप से करती चली जाती हैं कि 'मैं अभी पढ़ाई करना चाहती हूँ।' जैसा कि एक अध्ययन ने दर्शाया है, 'पढ़ाई' एक प्रतीक-भूमि की तरह इस्तेमाल होने लगती है जहाँ लड़की की आवाज़ आधुनिक अर्थव्यवस्था ने वाज़िब या सुनने और बर्दाश्त करने लायक बना दी है। पढ़ाई जारी रखने की मांग का परोक्ष अर्थ होता है विवाह के स्थगन की मांग। पढ़ाई करने दी जाए तो इसका आशय यह नहीं होता कि विवाह की तैयारी रूक जाएगी। विवाह एक घटना के रूप में स्थगित होता है, लड़की के जीवन को आकार देने वाली परिघटना (Phenomenon) "A fact or situation that is observed to exist or happen, especially one whose cause or explanation is in question. एक तथ्य या स्थिति जो अस्तित्व में है या घटित होती है, विशेष रूप से जिसका कारण या स्पष्टीकरण प्रश्न में है।" के रूप में नहीं। उसकी अपेक्षाएँ शिक्षा की अपेक्षाओं और जरूरतों से एकदम भिन्न हो सकती हैं और यह भिन्नता बनी रहती है।
शिक्षा एकाग्रता, बौद्धिक अनुशासन और स्वावलंबी सोच या सपने देखने की माँग करती है। विवाह समर्पण की मानसिक और दैहिक तैयारी के प्रबन्धन की माँग करता है। विवाह की तैयारी लड़कियों के बचपन और किशोरावस्था के वर्षों में लगातार चलने वाली उन्मुखीकरण का रूप ले लेती है जिसमें तरह-तरह की सांस्कृतिक क्रियाओं और रस्मों व रिवाज़ों का ज्ञान तथा अभ्यास शामिल रहता है। उधर स्कूल में प्रकृति और समाज को वृहत्तर परिधि से संबंधित ज्ञान और उससे संबंधित कौशलों पर अधिकार की अपेक्षा की जाती है। दोनों के बीच समय को लेकर टकराव होता रहता है जिसे लड़के महसूस नहीं करते केवल लड़कियाँ झेलती हैं। स्कूल विभिन्न विषयों को पढ़ाई में दैनिक स्तर के ध्यान और विकास को अपेक्षा रखता है। इधर घर में लड़कियाँ विवाह की तैयारी से संबंधित सांस्कृतिक ज्ञान और कौशलों से जुड़ी अपेक्षाएँ, धार्मिक मान्यताओं और त्योहारों व रीति-रिवाजों के वार्षिक-चक्र में अवस्थित रहती हैं।
ये अपेक्षाएँ लड़की को स्कूल से बार-बार अनुपस्थित होकर ही पूरी हो पाती हैं। कुछ अपेक्षाएँ ऐसी हैं जो स्कूल से अनुपस्थित रहे बिना पूरी हो जाती हैं मगर वे भी स्कूल की दैनन्दिनी में लड़की की भागीदारी को ढीला बना देती हैं। देह को संभालने व सेवा को माँग करने वाली अपेक्षाएँ इसी किस्म की हैं। वे सामान्य स्वास्थ्य-रक्षा से कहीं अधिक विशद् और समयसाध्य हैं। नाखूनों, खाल, आँखों और बालों समेत शरीर के तमाम अंगों की अलग-अलग चिंता विवाह की लम्बी तैयारी का हिस्सा है। इसके अलावा शरीर के वजन और आकार की चिंता लड़की के मानस को देह की छाया में बाँधे रखती है। समय आने पर विवाह के लिए चुना जाना एक तरह की परीक्षा में सफल होने जैसा होता है। इस परीक्षा का सबसे चुनौती भरा पर्चा देह विषयक होता है, उसके बाद सांस्कृतिक ज्ञान और सामाजिक कौशल आते हैं।
स्कूल में प्राप्त और विकसित होने वाला ज्ञान और उससे जुड़े कौशल विवाह की दृष्टि से या तो अनुपयोगी हैं अथवा प्रतिस्पर्धी। विज्ञान की पढ़ाई से संबंधित मानसिक कौशल और रुझान जो विश्वासों और अंधविश्वासों पर चोट करते हैं, विवाह की परीक्षा में उत्तीर्ण होने में बाधा डालते हैं। माहवारी से संबंधित पारम्परिक विचार और व्रत व उपवासों से जुड़े विश्वास शिक्षा प्राप्त करती लड़की के मानस को लगातार दुविधा में रखते हैं। वह समझ जाती है कि स्कूल की पढ़ाई का विवाह की तैयारी से मात्र व्यावहारिक संबंध है और वह इस कारण है कि पढ़े-लिखे वर के लिए वधू भी पढ़ी-लिखी होनी चाहिए। लेकिन वधू से यह उम्मीद कतई नहीं की जाएगी कि वह स्कूल में समाज विज्ञान को पढ़ाई के तहत प्राप्त अपने संवैधानिक या मानवाधिकारों के ज्ञान को गंभीरता से लेने लगे या उन्हें परिवार की परिधि में लागू करने लगे। इस नज़रिए से लड़कियों की शिक्षा के बारे में सोचकर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि स्कूल और कॉलिज की पढ़ाई में सफलता हासिल करने वाली लड़कियाँ अपने मानस को दो हिस्से में बाँटकर बड़ी होती होंगी।
एक हिस्से में पढ़ाई और परीक्षाओं से पुष्ट ज्ञान का विकास रहता होगा जो संविधान, लोकतंत्र, मानव-मूल्य और विज्ञान की शब्दावली में व्यक्त होता है, दूसरे हिस्से में घर और पड़ोस, त्योहारों, सिनेमा और टीवी के जरिए होने वाले समाजीकरण से प्राप्त वह ज्ञान रहता होगा जो लड़कियों को बताता है कि संविधान में दर्ज समता और अन्य मानवाधिकार ससुराल की दुनिया पर लागू नहीं होते। वह संविधान का परदेस है
जो लड़कियाँ अपने शिक्षित संस्करण और गृहस्थिन संस्करण के बीच सामंजस्य बिठा लेती हैं, अपवाद होती हैं। ज्यादातर के लिए शिक्षित संस्करण के आकार और उसमें निहित आकांक्षाओं को सिकोड़ते जाना जरूरी सिद्ध होता है। उसे एक समानान्तर धारा की तरह किसी प्रकार बहाए रखती हैं, पर उसमें इतना नहीं डूब पातीं कि उसे अपने ज्ञान, कौशल या यश की धुरी बन जाने दें। वे दो जिंदगियाँ जीती हैं और इस कारण प्रायः थक जाती हैं। इस थकान का विश्लेषण करें तो दिखता है कि घर और पेशे की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए आवश्यक ऊर्जा का चुक जाना एक कारण हो सकता है, मगर ज्यादा बड़ा लेकिन क्योंकि गहरा कारण वह अकेलापन है जिससे भारत की स्त्री जीवन-भर जूझती है। इस भाव की विवेचना जितनी कठिन है उतना ही इसका प्रमाण देना। ऊपर से देखने पर कौन कहेगा या मानेगा कि भारत में स्त्री लगातार अकेलेपन से जूझती है। इस भाव की विवेचना जितनी कठिन है उतना ही इसका प्रमाण देना। ऊपर से देखने पर कौन कहेगा या मानेगा कि भारत में स्त्री लगातार अकेलेपन से जूझती है ? आखिर वह हमेशा जीवन के हर दौर में किसी-न-किसी के साथ दिखती है।
शास्त्रों ने बाकायदा हिदायत दे रखी है कि बचपन में स्त्री को अपने पिता की, यौवन में पति की और वृद्ध हो जाने पर पुत्र की छत्र-छाया में जीना चाहिए। स्त्री की लोकछवि ऐसी है जो उसे घर-परिवार, बाल-बच्चों से घिरा हुआ दिखाती है। अकेलेपन का अर्थ यदि साथ का अभाव है तो निश्चय ही हमारे समाज में स्त्रियाँ कभी अकेली नहीं पड़ती। पर यदि अकेलेपन का अर्थ अपने अंतस को व्यक्त कर सकनें वाली अस्मिता से है तो यह कहना गलत न होगा कि वे जीवन-भर किसी ऐसे का साथ नहीं पाती जो उनके आत्म को व्यक्त और विकसित होने दे।
वे अभिमन्यु की तरह एक चक्रव्यूह से घिरी, उससे लड़ती-लड़ती खत्म हो जाती हैं। स्त्री के जीवन-संघर्ष का स्वरूप शिक्षा के ज़रिए एक हद तक बदला जा सकता है पर ऐसा तभी हो सकता है जब स्वयं शिक्षा का चरित्र बदले। अभी तक शिक्षा का स्त्री के जीवन में सामान्यतः यही योगदान रहा है कि वह बचपन और किशोरावस्था की अवधि में घर और कुटुम्ब की चारदीवारी से बाहर रोजाना कुछ घंटे बिता लेती है। आज के भारत में लड़कियों की शिक्षा का विश्लेषण करने के लिए उन तीन पेशों को संदर्भ बनाना उपयोगी होगा जिनका आधुनिकता के निर्माण में योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ये तीन पेशे हैं डॉक्टरी, इंजीनियरी और वकालत। इन पेशों के ज़रिए जीवन और मरण संबंधी मान्यताएँ, प्रकृति और मनुष्य के संबंधों की संरचना और समाज के ढाँचे में व्यक्ति के अधिकारों को अवधारणा का विकास हुआ हैं। ज़ाहिर है, यह विकास एक ज़्यादा बड़ी ऐतिहासिक चेतना का हिस्सा है और किसी एक कारक पर निर्भर नहीं है। फिर भी इस विकास प्रक्रिया में डॉक्टरी, इंजीनियरी और वकालत का योगदान विश्लेषण का उपयुक्त विषय है। यह विश्लेषण शिक्षा के समाजशास्त्र की दृष्टि से इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन तीनों पेशों में ज्ञान और विज्ञान के विविध विषयों और उनसे जुड़े बौद्धिक कौशलों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। इन पेशों में प्रवेश के लिए आवश्यक शैक्षिक अर्हताओं का वितरण एक पैमाना है जिसकी मदद से समाज के विषमतापूर्ण ढाँचे के रहते एक समतामुखी सांस्कृति और राजनैतिक प्रयास में शिक्षा के योगदान का आकलन किया जा सकता है।
पिछले सवा सौ वर्षों में और विशेषकर आज़ादी के बाद से डॉक्टरो, इंजीनियरी और वकालत के पेशों में महिलाएँ गई हैं और सफल हुई हैं। इस बात से देश को यश मिला है जिसका नशा बहुत व्यापक है। उसके प्रभावश अनेक लोग मानने लगे हैं कि शिक्षा में लड़कियों की बराबरी का लक्ष्य लगभग पा लिया गया है। इस मान्यता के पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि सार्वजनिक जीवन में पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ पहले से ही ज्यादा संख्या में दिखाई देने लगी हैं।सरकारी कार्यालय, बैंक, उद्योग और व्यापार, मीडिया और विश्वविद्यालय में शिक्षित स्त्रियों को अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करता देखकर यह धारणा पुष्ट होती है कि अब भारत की नारी पर्दे के पीछे या घर की चारदीवारी में नहीं रही। खासकर मीडिया ने इस धारणा को बहुत पोषण दिया है कि स्त्री का शैक्षिक पिछड़ापन एक पुरानी बात हो चुकी है और यह बात यदि आज भी कहीं सच है तो गाँव में ही सच हो सकती है। टेलीविजन से बहुत पहले सिनेमा ने शिक्षित स्त्री को इस तरह पेश करना शुरू कर दिया था जिससे लगे कि प्रेम के सामाजिक संदर्भ में पुरुष और स्त्री बराबरी से खड़े हैं। लगभग तीन-चौथाई सदी इस काल्पनिक विश्वास को फैलाने के निरंतर संपोषण में बीत गई है। लड़कियों की तीन पीढ़ियाँ सिने जगत और सामाजिक जगत के फासले को अपने मानसिक संघर्ष से पाटने में निकल गई हैं। लड़कियों और लड़कों की शैक्षिक बराबरी का भ्रम अखबारों के जरिए भी लगातार फैलता रहा है। खासकर दसवीं और बारहवीं के बोर्ड की परीक्षा के परिणाम की घोषणा के समय 'लड़कियाँ लड़कों से आगे' जैसी सुर्खियां छापने से कोई अख़बार बाज़ नहीं आते।
सरकारी अधिकारी और नेता आए दिन कहते रहते हैं कि स्कूलों में लड़कियों की प्रवेश दर लड़कों की बराबर हो चुकी है। 'लेडी डॉक्टर' शब्द सुनने और बोलने के हम इतने ज्यादा अभ्यस्त हो गए हैं कि स्कूल की शिक्षा के बाद डॉक्टरा जैसे पेशे की शिक्षा में लड़कियों के पहुँच का यथार्थ हमें तंग नहीं करता। डॉक्टरी की शिक्षा के क्षेत्र में पहली भारतीय लड़की के प्रवेश को एक शताब्दी से ऊपर समय हो गया है परन्तु आज भी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला पाने वाली लड़कियाँ कुल विद्यार्थियों की 27 प्रतिशत ही हैं और इनमें भी ज्यादातर महिला रोगों की विशेषज्ञ या फिर सामान्य डॉक्टर बनती हैं।
शिक्षा स्त्री की अकेली राह की पाथेय बने, यह तभी संभव है जब हम शिक्षा की परिकल्पना और तैयारी स्त्री के अभिमन्यु को ध्यान में रखकर करें। लड़कियों की शिक्षा पुनर्रचना हमें उस चक्रव्यूह को समझने के उद्देश्य से करनी होगी जो जन्म के साथ ही हर बच्ची को घेर लेता हैं। जैसे-जैसे वह बड़ी होती है उसके अंदर चक्रव्यूह को देख पाने की क्षमता बढ़ती है और साथ ही उसे मंजूर और आत्मसात् करने की विवशता बढ़ती जाती है। चक्रव्यूह को देख पाना उसे भेदने की शुरूआत नहीं है क्योंकि व्यूह का अर्थ यहाँ उसकी मानसिक रचना से अलग नहीं है। चक्रव्यूह एक सामाजिक कृति अवश्य है पर हर लड़की उसे अपने मानस में व्यक्तिगत स्तर पर रचती है, तभी चक्रव्यूह की सामाजिक कृति एक जीवन में सक्रिय हो पाती है। यदि चक्रव्यूह से आशय इस संरचना से है जो लड़की को परतंत्रता (Dependency) में जीना सिखाती है तो इसे गुलामी की आवश्यक संरचना भी कहा जा सकता है कहा जा सकता है क्योंकि गुलाम के लिए अपनी गुलामी से संतुष्ट रहना बहुत जरूरी है। कष्ट, अपमान, निर्भरता और अपने जीवन की क्षुद्रता (Meanness) का बोध तभी जीवनपर्यन्त सहनीय बने रह सकते हैं जब उन्हें अपने संस्कार बना लिया जाए।
यही काम जन्म से शुरू होने वाली व्यूह-रचना मानसिक स्तर पर करती है जिसके अलग-अलग पक्षों की झलक इस पुस्तक में दी गई है। अभिमन्यु होने के कई अर्थ संभव हैं परन्तु जिस अर्थ से लड़की के अस्तित्व की व्यंजना सबसे स्पष्ट रूप में व्यक्त होती है यह एक दुर्जेय संघर्ष से अकेले निपटने का नियति का है। अभिमन्यु सा शौर्य उसे बचा नहीं सकता, जिता भी नहीं सकता, यह शुरू से तय था। लड़कियों के जीवन में भी उनके अकेलेपन की अनिवार्यता रोजमर्रा से लेकर स्थायी किस्म के संघर्षों को समेटती है।
विवाह की रस्मों के बाद बारात के साथ जाती हुई लड़की का अकेलापन मात्र विदाई गीतों या उनका साथ देने वाले संगीत का विषय नहीं है। वह एक साथ एक भौतिक और सांस्कृतिक सच है। यदि इस सच को लड़कियों की नई शिक्षा की धुरी बनाया जाए तो उसका पहला अर्थात् सबसे बड़ा उद्देश्य हर लड़की को ऐसे बौद्धिक और भावनात्मक कौशल देना होगा जो उसे अपने अकेलेपन को पहचानने और उसे स्पष्टत: देखकर उत्पन्न होने वाली घबराहट और आत्मदया पर काबू पाने की क्षमता दे।
दूसरा उद्देश्य भविष्य की संभावनाओं पर विश्वास उत्पन्न करना होगा, इस संभावना पर कि ऐसे संसार का जन्म संभव है जिसमें लड़कियाँ सुरक्षित जी सकेंगी और जीवन की पूर्णता की अनुभव कर सकेंगी। आज की दुनिया को देखते हुए यह बात एक आस्था का विषय ही हो सकती है जिसे पल्लवित करना शिक्षा का काम है।
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